प्रश्न १२ : ' राजनीतिक व्यवस्था ' की परिभाषा दीजिए एवं उसकी विशेषताओं का वर्णन कीजिए । अथवा राजनीतिक पद्धति ( तन्त्र ) की विशेषताओं का वर्णन कीजिए ।
अथवा
राजनीतिक व्यवस्था की परिभाषा देते हुए उसका अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा उसकी सामान्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए । अथवा क
राजनीतिक व्यवस्था के आधारभूत लक्षणों की विवेचना कीजिए ।
उत्तर- राजनीतिक व्यवस्था ( तन्त्र ) का अर्थ एवं परिभाषाएँ राजनीतिक अध्ययनों में राजनीतिक व्यवस्था को सामान्य व्यवस्था ( General system ) की एक उप - व्यवस्था के रूप में देखा जाता है । राजनीतिक व्यवस्था ( Political System ) कोई स्वतन्त्र इकाई नहीं है यह समाज की अनेक उपव्यवस्थाओ ( आर्थिक , राजनीतिक , सांस्कृतिक धार्मिक ) में से एक है , लेकिन यह एक विशेष प्रकार की उप - व्यवस्था है , इसलिए अन्य सामाजिक उप - व्यवस्थाओं से सम्बन्ध रखते हुए भी यह बहुत हद तक स्वायत्त होती है क्योंकि इसके पास अन्य व्यवस्थाओं को आदेश देने तथा उन्हें पालन करने की क्षमता होती है । डेविड ईस्टन के शब्दों में , राजनीतिक व्यवस्था स्वयं में परिपूर्ण सत्ता है जो उस वातावरण या परिवेश से , जिनसे वह घिरी हुई होती है और जिनके अन्तर्गत वह प्रचलित होती है , स्पष्टतः पृथक् होती है । " 1 राजनीतिक व्यवस्था पर्यावरण से प्रभावित अवश्य होती है , लेकिन उसकी दासी नहीं होती । सामान्य अर्थों में राजनीतिक व्यवस्था का तात्पर्य राजनीतिक व्यवस्था के विभिन्न भागों में सुव्यवस्था से लिया जाता है । सुव्यवस्था से आशय यह लिया जाता है कि राजनीतिक व्यवस्था के विभिन्न अंगों के प्रतिमानित सम्बन्धों में एक नियमिततता विद्यमान रहती है । यह समाज की अनेक उप - व्यवस्थाओं में से एक होती हैं । लेकिन अपनी एक विशिष्ट पहचान रखती है । १/१८ विभिन्न विद्वानों ने राजनीतिक व्यवस्था की भिन्न - भिन्न परिभाषाएँ दी हैं । कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित है ईस्टन के अनुसार , " किसी समाज में पारस्परिक क्रियाओं की ऐसी व्यवस्था को जिससे उस समाज में बाध्यकारी या अधिकारपूर्ण नीति निर्धारण होते है , राजनीतिक व्यवस्था कहा जाता है । ' " " आमण्ड तथा पावेल के शब्दों में , “ राजनीतिक व्यवस्था से इसके अंगों की अन्तः निर्भरता और इसके पर्यावरण में किसी न किसी प्रकार की सीमा का बोध होता है । राजनीतिक व्यवस्था के आधारभूत लक्षण : आमण्ड तथा पावेल ने राजनीतिक व्यवस्था के निम्न लक्षण बताए है - १ ) भागों की अन्तर्निर्भरता आमण्ड का मत है कि हर व्यवस्था की तरह ही राजनीतिक व्यवस्था के विभिन्न भागों या अंगों में भी परस्पर निर्भरता की स्थिति रहती है । हर राजनीतिक व्यवस्था में अनेक अंग होते हैं , इन विभिन्न अंगों में प्रकार्यात्मक सम्बन्ध होता है , हर अंग की सम्पूर्ण अवस्था में निश्चित भूमिका रहती है और हर अंग की भूमिका समान नही होती है । इससे स्पष्ट है कि राजनीतिक व्यवस्था एक सावयवी रचना की तरह है जिसमें पारस्परिकता की दृष्टि से अंग ठीक उसी प्रकार का सम्बन्ध रखते हैं जिस प्रकार का सम्बन्ध प्राणी शरीर के विभिन्न भागों के बीच होता है ।
हर राजनीतिक व्यवस्था में तीन तरह के हिस्से अन्तः क्रियाशील रहते है । ये तीन हिस्से है
( i ) राजनीतिक व्यवस्था के प्राणधारी भाग ,
( ii ) राजनीतिक व्यवस्था के पूरक भाग और
( iii ) राजनीतिक व्यवस्था के मानार्थी ( Complimentary ) भाग ।
राजनीतिक व्यवस्था के विभिन्न अंगों का अन्तः क्रियात्मकता से अर्थात् एक अंग मे होने वाले परिवर्तनों से सम्पूर्ण व्यवस्था पर अनेक प्रभाव हो सकते है । जैसे अन्य अंगों पर इससे दबाव या खिंचाव या तनाव आ सकता है , इससे अन्य अंगों का रूपान्तरण तक हो सकता है , इससे सम्पूर्ण व्यवस्था की निष्पादन शैली ( प्रतिमानों ) में मौलिक परिवर्तन आ सकते हैं तथा इससे व्यवस्था टूट सकती है या उसमें और मजबूती आ सकती हैं ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि व्यवस्था का हर अंग सम्पूर्ण व्यवस्था के लिए प्रकार्यात्मक और विकार्यात्मक दोनों प्रकार की भूमिका निभाता है । " प्रकार्यात्मक भूमिका में व्यवस्था को बनाए रखने की भूमिका सन्निहित रहती है जबकि विकार्यात्मक भूमिका में व्यवस्था को तोड़ने की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिलता है । " आमण्ड का मत है कि सामान्यतया राजनीतिक व्यवस्थाएँ टूटती नहीं है । वे बड़े से बड़े झंझावातों को भी झेल लेती हैं क्योंकि इसमें कुछ नियमितकारी संरचनाएँ होती हैं जो अप्रत्याशित विचलन को स्वतः ही सक्रिय होकर ठीक कर देती हैं । ये संरचनाएँ हैं- राजनीतिक दल , हित समूह , लोकमत और नियतकालीन चुनाव आदि । इसलिए ही राजनीतिक व्यवस्था को स्वतः नियन्त्रित व्यवस्था तक कहा जा सकता है ।
२ ) राजनीतिक व्यवस्था की सीमा राजनीतिक व्यवस्था की एक निश्चित सीमा होती है । इसकी सामान्य व्यवस्था और अन्य उप व्यवस्था से स्वायत्तता रहती है । यह उनसे अन्तः सम्बन्धित होते हुए भी उनसे स्वायत्त रहती है । इस
सीमा तथा अन्तः क्रियाशील राजनीतिक भूमिकाओं के सन्दर्भ में मानी जाती है । जिसकी निम्न विशेषताएँ बतायी जाती है १
( i ) इसकी सीमा लचीली होती है जिसमें कमी या वृद्धि हो सकती है । उदाहरण के लिए क्रान्ति काल या चुनावों में इसकी सीमा बहुत बढ़ जाती है जबकि पूर्ण शान्तिकाल में उसकी सीमा सिकुड़ जाती है क्योंकि ऐसे समय में अनेक लोग राजनतिक भूमिकाओं से हट जाते हैं ।
( ii ) सीमा के लचीलेपन से राजनीतिक व्यवस्था में जीवन्तता तथा गत्यात्मकता के तत्व निरन्तर विद्यमान रहते हैं ।
( iii ) सीमा के माध्यम से ही राजनीतिक व्यवस्था को अन्य व्यवस्थाओं से अलग करना सम्भव होता है । इस प्रकार स्पष्ट है कि राजनीतिक व्यवस्था की सीमा भूमिकाओं के आधार पर निश्चित होती है और इसी कारण यह अवधारणा गत्यात्मक बन जाती है , और उस भूमिका को राजनीतिक भूमिका कहा जा सकता है जिससे राजनैतिक व्यवस्था की सक्रियता पर प्रभाव पड़ता है ।
३ ) राजनीतिक व्यवस्था का पर्यावरण ईस्टन का मत है कि राजनीतिक व्यवस्था कई प्रकार के पर्यावरणों से घिरी रहती हैं और उनके द्वारा प्रस्तुत परिवेश के अंतर्गत की सक्रिय रहती है अर्थात् वह इस पर्यावरण से प्रभावित होती है और इस पर्यावरण को प्रभावित भी करती है । ईस्टन ने परिस्थितिकी , आर्थिक , सांस्कृतिक , राष्ट्र के व्यक्तित्व और जन - सांख्यिकीय ( Demographic ) पर्यावरणों का विशेष रूप से उल्लेख किया है । राजनीतिक व्यवस्था में निवेश ( Inputs ) पर्यावरण से ही आते हैं , जिनको वह रूपान्तरण करके निर्गतों ( Outputs ) के रूप में पुनः पर्यावरण में ही पहुँचा देती हैं । इन दोनों के बीच के • प्रतिसमभरण ( Feedback ) भी पर्यावरण में ही संचालित रहता हैं ।
४ ) वैध भौतिक बाध्यकारी शक्ति का प्रयोग राजनीतिक व्यवस्था के पास वैधानिक बाध्यकारी शक्ति होती है और आवश्यक्ता पड़ने पर वह इसका प्रयोग करती है जबकि अन्य व्यवस्थाओं के पास यह शक्ति नहीं होती है । इसी कारण यह व्यवस्था अन्य व्यवस्थाओं से अनोखी तथा अलग बनती है । इसी के कारण यह अन्य व्यवस्थाओं को आदेश देने वाली तथा उनसे सर्वोपरि बनती है । इसी आधार पर ईस्टन ने इसे ' मूल्यों का अधिकाधिक वितरक ' कहा है । इसी कारण , राजनीतिक व्यवस्था का तात्पर्य उन सभी अन्तः क्रियाओं से है जो वैध भौतिक बाध्यता की शक्ति का प्रयोग करने की धमकी का नियमन करती है । इस तरह हर राजनीतिक व्यवस्था के अंगों के रूप में राजनीतिक संरचनाएँ और भूमिकाएँ इनकी औचित्यपूर्ण बाध्यकारी शक्ति के इर्द - गिर्द घूमती हुई दिखायी देती है ।
राजनीतिक व्यवस्था की सामान्य विशेषताएँ : डहल ( Dahal ) ने राजनीतिक व्यवस्थाओं की निम्न सामान्य व्यवस्थाएँ बतायी हैं
१ ) राजनीतिक स्त्रोतों का असमान नियन्त्रण डहल के मतानुसार प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक विकास के कारण संरचनात्मक विभिन्नीकरण के साथ ही साथ विशेषीकरण आ जाता है । इस विशेषीकरण के कारण ही राजनीतिक स्त्रोत धन , शक्ति , सामाजिक स्तर और राजनीतिक कार्य , समान रूप से सब व्यक्तियों में विद्यमान नहीं रह सकते हैं । इन पर किसी का अधिक तो किसी का कम नियन्त्रण रहता है । अतः राजनीतिक स्त्रोत सब में समान रूप से बँट नही सकते और इस कारण इन स्रोतों पर व्यक्तियों का समान नियन्त्रण हो ही नहीं सकता । डहल ने लोगों के निम्न चार प्रमुख अन्तरों के कारण यह असमानता अनिवार्य मानी है - -
( i ) लोगों का विशेषीकरण , ( ii ) लोगों में जन्म से मौलिक अन्तर , ( iii ) लोगों के लक्ष्यों और प्रेरकों में अन्तर और ( iv ) लोगों में कार्य की पहल करने की भिन्न - भिन्न क्षमताएँ । उपर्युक्त चार कारणों से राजनीतिक व्यवस्था के साधनों पर लोगों का नियन्त्रण उसी प्रकार का हो सकता है जिसके अनुरूप उनमें सामर्थ्य होती है । ●
२ ) राजनीतिक प्रभाव की खोज राजनितिक व्यवस्था में हर व्यक्ति राजनीतिक प्रभाव को प्राप्त करना चाहता है क्योंकि इनके स्वार्थों , लक्ष्यों को पूरा करने के लिए यह राजनीतिक प्रभाव सर्वाधिक सहायक होता है । इसको प्राप्त करने के बाद वह प्रशासन को प्रभावित करने में सफल हो जाता है । अतः स्पष्ट है कि राजनीतिक व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति अपने साधनों , स्थितियों और अवसरों के अनुकूल राजनीतिक प्रभाव प्राप्त करने का प्रयत्न करता रहता है ।
३ ) राजनीतिक प्रभाव का असमान वितरण राजनीतिक प्रभाव की दृष्टि से सब व्यक्ति बराबर नहीं हो सकते ।
राजनीति में रुचि , राजनीति के प्रति दृष्टिकोण में भिन्नता के कारण व्यक्तियों के राजनीतिक प्रभाव भी भिन्न - भिन्न प्रकार के होते हैं । इस प्रकार राजनीतिक प्रभावों का असमान वितरण होता है या रहता है ।
४ ) संघर्षपूर्ण उद्देश्यों का समाधान राजनीतिक व्यवस्था में अनेक हितों और उद्देश्यों वाले व्यक्ति होते हैं । प्रायः इन व्यक्तियों के हितों का संघर्ष चलता रहता है ; समाज इस संघर्ष में सामंजस्य भी बिठाता रहता है लेकिन कई बार यह संघर्ष माज के समाधान के सीमाओं से बाहर निकल जाता है । ऐसी अवस्था में राजनीतिक व्यवस्था हस्तक्षेप कर इसका समाधान नहीं करती है । राजनीतिक व्यवस्था में संघर्षपूर्ण उद्देश्यों में समाधान की प्रक्रिया निम्न प्रकार चलती है राजनितिक व्यवस्था में अनेक प्रकार की माँगे आती रहती हैं । सभी मांगों का समाधान कर सकना किसी भी व्यवस्था के लिए सम्भव नहीं होता है । कई बार माँगे परस्पर विरोधी होती है । ऐसी माँगों का रूपान्तरण करके हर अवस्था में निर्णय लेना होता है । यह निर्णय अधिकाधिक होने के कारण माँगो के संघर्ष को समाप्त करने में सक्षम होता है , किन्तु आवश्यकता पड़ने पर राजनीतिक व्यवस्था अपनी बाध्यकारी शक्ति का भी प्रयोग कर सकती है ।
५ ) वैधता या औचित्य की प्राप्ति शासकों में जनता का सहज विश्वास ही राजनीतिक व्यवस्था को औचित्यता प्रदान करता है । यही कारण है कि हर राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक शक्ति के धारक इस शक्ति का इस प्रकार से प्रयोग करते है जिससे जनता की आस्था उसमें बनी रहे क्योंकि अगर जनता राजनीतिक शक्ति के धारकों को औचित्यतायुक्त नहीं मानती तो व्यवस्था अधिक दिनों तक नही बनी रहती , चाहे वह तानाशाही राजनीतिक व्यवस्था हो , चाहे लोकतान्त्रिक । अन्तः हर राजनीतिक व्यवस्था का यह प्रयास रहता है कि वह वैधतायुक्त रहे ।
६ ) एक विचारधारा का विकास आधुनिक समय में राष्ट्रीयता के साथ एक विचारधारा को जोड़कर प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था अपने लक्ष्यों व विकास पथ का निश्चित संकेत देने का प्रयास करती है । लोगों को एकता के सूत्र में पिरोने के लिए अधिक विश्वसनीय व स्पष्ट विचारधारा का विकास होना आवश्यक है । विचारधारा के आधार पर ही प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था का अपना पृथक व्यक्तित्व बना रहा सकता है । वर्तमान समय में विचारधारा के आधार पर ही राजनीतिक दलो का निर्माण होता है और जनता इसी आधार पर दल विशेष को समर्थन देकर एक विशिष्ट राजनीतिक व्यवस्था के निर्माण व विकास को प्रोत्साहित करती हैं । डहल विचारधारा का विकास हर राजनीतिक व्यवस्था की प्रमुख विशेषता मानते हैं । -
७ ) अन्य राजनीतिक व्यवस्थाओं से अन्तः क्रिया आज सम्पूर्ण विश्व का समाज बन गया है और राजनीतिक अवस्थाएँ अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण से अधिक प्रभावित रहने लगी हैं । इस कारण आजकल हर राजनीतिक व्यवस्था की अन्य राजनीतिक व्यवस्थाओं से अन्तःक्रिया बढ़ गई है और आज वह अन्य राजनीतिक व्वस्थाओं से अन्तः क्रियाशील रहती हैं ।
८ ) गत्यात्मकता और सजीवता राजनीतिक व्यवस्थाएँ गत्यात्मकता तथा सजीवता के लिए हुए होती है । इसका प्रमुख कारण यह है कि व्यक्तियों की आकांक्षाएँ और आवश्यकताएँ बदलती रहती है और इन बदलती परिस्थितियों के अनुरूप व्यवस्था का ढलना ही राजनीतिक व्यवस्थाओं को गतिशील तथा सजीव बनाए रखता है । परिवर्तनों के प्रति यह सचेतता और सजगता ही राजनीतिक व्यवस्था की गत्यात्मकता और सजीवता है ।
प्रश्न १३ : डेविड ईस्टन के राजनीतिक व्यवस्था सम्बन्धी प्रतिमान का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए ।
अथवा ' डेविड ईस्टन का पद्धति बिश्लेषण अध्ययन पर टिप्पणी लिखिए । अथवा ' व्यवस्था सिद्धान्त ' से आपका क्या तात्पर्य है ? डेविड ईस्टन के द्वारा इस सिद्धान्त के विकास तथा राजनीति शास्त्र में उसके प्रयोग हेतु दिये गए योगदान का उल्लेख कीजिए । अथवा डेविड ईस्टन द्वारा प्रतिपादित व्यवस्था सिध्दांत या परीक्षण कीजिए ।
उत्तर : डेविड ईस्टन ( David Easton ) ने व्यवस्था की शोध सम्बन्धी आवधारणा सन् १ ९ ५३ में प्रस्तुत की थी । यह अवधारणा उसके प्रसिद्ध ग्रन्थ ' राजनीतिक व्यवस्था ' ( The Political System ) में प्रतिपादित की गयी । ईस्टन ने अपने अध्ययन को राजनीतिक व्यवस्था पर आधारित किया है । F व्यवस्था सिद्धान्त सामाजिक विज्ञानों में जीवशास्त्र से आया है । मानवशास्त्र , समाजशास्त्र और मनोविज्ञान मे इसके
प्रचलन से प्रेरित होकर डेविड ईस्टन ने उस अवधारणा को राजनीति में प्रयुक्त किया जिसे ' राजनैतिक व्यवस्था ' की संज्ञा दी गई । ईस्टन ने राजनीतिक व्यवस्था की परिभाषा करते हुए लिखा है कि “ राजनीतिक व्यवस्था स्वयं में परिपूर्ण सत्ता है जो उस वातावरण या परिवेश , जिससे वह घिरी हुई होती है जिसके अन्तर्गत वह परचलित होती है , स्पष्टतः पृथकनीय रहती है । " ईस्टन के ही अनुसार , “ राजनीतिक जीवन एक निश्चित राजनीतिक व्यवस्था है जो पूरी सामाजिक व्यवस्था का एक पहलू है । " इस प्रकार ईस्टन के मतानुसार राजनीतिक व्यवस्था सम्पर्ण सामाजिक व्यवस्था का एक हिस्सा है तथा इसमे राजनीतिक जीवन व्यवस्थित है । ईस्टन का पद्धति या व्यवस्था विश्लेषण ( Easton's System Analysis ) : ईस्टन के पद्धति विश्लेषण को अनेक नामों से पुकारा गया है । ( i ) निवेश - निर्गत विश्लेषण ( Input output analysis ) , ( ii ) व्यवस्था सिद्धान्त ( System Analysis ) , ( iii ) सामान्य व्यवस्था सिद्धान्त का प्रवाह रूप ( Flow Model of General System Theory ) यंग ( Young ) ने इस बड़े व्यवस्थात्मक उपागम की संज्ञा दी है । यह राजनीति विज्ञान की मौलिक दृष्टि द्वारा प्राप्त किया गया है । इसे किसी अनुशासन द्वारा प्राप्त नहीं किया गया है । मीहान ( Meehan ) ने ईस्टन को राजनीति विज्ञान का सर्वाधिक सुसंगत और सुव्यवस्थित प्रकार्यवादी कहकर पुकारा है । उसके विश्लेषण की आधारभूत इकाई व्यवस्था है । ईस्टन ने अन्तरं ( Inter ) व आन्तर ( Intra ) व्यवस्थाओं के व्यवहार को अपने अध्ययन का विषय बनाया हैं । ईस्टन का आगत / निवेश निर्गत विश्लेषण ( Easton's Input output Analysis ) : राजनीतिक व्यवस्था की ईस्टन द्वारा की गई व्याख्या को ' इनपूट - आउटपूट ' विश्लेषण का नाम इसलिए दिया गया है क्योंकि वह राजनीतिक व्यवस्था को ऐसे तन्त्र के रूप में देखता है जिसमें माँगों के निवेश आते हैं और राजनीतिक व्यवस्था इनका संसाधन कर रूपान्तर करती है । व्यवस्था विश्लेषण के प्रयोग के सम्बन्ध में उसका दृष्टिकोण इस अर्थ में रचनात्मक है , क्योंकि उसने व्यवस्था को , सदस्यों को समूह के रूप में नही बल्कि प्रक्रियाओं के संकलन के रूप में लिया है । स्वयं ईस्टन ने लिखा है कि “ राजनीतिक , व्यवस्था किसी भी समाज में अन्ततः क्रियाओं की एक ऐसी व्यवस्था है जिसके माध्यम से बाध्यकारी अथवा अधिकाधिक निर्णय लिये जाते हैं । ” ईस्टन केवल राजनैतिक अन्तःक्रियाओं के सैट को ही अपने विश्लेषण का विषय बनाता है । अन्तः क्रियाओं के सैट से ईस्टन की चार महत्वपूर्ण अवधारणाएँ निकलती है , जिन्हें निवेश - निर्गत विश्लेषण का प्रमुख आधार कहा • जाता है । ये हैं प्रथम , व्यवस्था ( System ) द्वितीय , पर्यावरण ( Environment ) तृतीय , अनुक्रिया ( Response ) तथा चतुर्थ , प्रति - सम्भरण या प्रदाय ( Feed back ) । यहाँ पर हम उपर्युक्त चारों अवधारणाओं का विवेचन कर ईस्टन के • व्यवस्था सिद्धान्त का विश्लेषण करने का प्रयास करेंगे ।
१ ) व्यवस्था ( System ) - ईस्टन के अनुसार , राजनीतिक व्यवस्था अन्तः क्रिया करने वाली उन रचनाओं , प्रक्रियाओं तथा संस्थाओं का सैट है जो या तो पर्यावरण के बीच चलती रहती है या आपस में चलती रहती हैं । ईस्टन की व्यवस्था अवधारणा को निम्नलिखित प्रमुख विन्दुओं के अन्तर्गत समझाया जा सकता है
( i ) खुली हुई और अनुकूलनशील वह सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं को खुली हुई और अनुकूलशील मानता है । साथ ही अन्य दूसरी व्यवस्थाओं से यह घिरी हुई भी है । इसलिए इसके खुले होने का परिणाम यह होता है कि इसमें बाहर से ! धाराप्रवाह के रूप में ऐसी घटनाएँ और प्रभाव आते रहते हैं जो उन परस्थितियों का निर्माण करती हैं , जिनमें राजनीतिक व्यवस्थाओं के सदस्यों को काम करना पड़ता है ।
राजनीतिक व्यवस्था अन्य व्यवस्थाओं से घिरी होने के कारण बाहर के प्रभाव उस पर लगातार दबाव डालेंगे । ऐसी स्थिति में राजनैतिक व्यवस्था में इतनी सामर्थ्य होनी चाहिए कि वह बाहर से आने वाले संकटों का सामना कर सके और अपने को उन परिस्थितियों के अनुकूल ढाल सके । इसी कारण ईस्टन ने राजनैतिक व्यवस्था की अनुकूलनशीलता पर बहुत जोर दिया ! है । ईस्टन का विश्वास है कि प्रत्येक राजनैतिक व्यवस्था के आन्तरिक संगठन में अनुकूलशीलता की अद्भूत क्षमता होती है ।.. राजनैतिक व्यवस्थाएँ अपने अन्दर ऐसी अनेक प्रविधियों ( Mechanisms ) का विकास कर लेती हैं , जिनके सहारे वे पर्यावरण के समक्ष टिके रहने का प्रयत्न करती है , अपने व्यवहार को नियन्त्रित करती हैं , अपने आन्तरिक ढाँचे को बदल लेती हैं तथा
अपने मूलभूत उद्देश्यों तक परिवर्तन कर डालती हैं । ( ii ) समन्वयात्मक अवधारणा ईस्टन की अवस्था सम्बन्धी अवधारणा समन्वयात्मक है । वह एक व्यापक शब्द हैं जिसमे सभी प्रकार की औपचारिक - अनौपचारिक क्रियाएँ , संरचनाएँ , प्रक्रियाएँ , मूल्य तथा आचार आदि आ जाते हैं । ( iii ) विश्लेषणात्मक अवधारणा ईस्टन की राजनीतिक व्यवस्था अवधारणा विश्लेषणात्मक है । मानव राजनैतिक व्यवहार के साथ अमूर्त रूप से जुड़ी हुई है । २ ) पर्यावरण ( Environment ) - ईस्टन का कहना है कि राजनीतिशास्त्री को अपना समस्त ध्यान उन प्रक्रियाओं पर देना चाहिए जो पर्यावरण से राजनीतिक व्यवस्था में आने वाले अनेक प्रकार के प्रभावों के संसाधन परिवर्तन तथा उनसे होने वाली प्रतिक्रियाओं को जानने में लगी हुई हैं । ईस्टन ने इन प्रक्रियाओं को ' राजनैतिक व्यवस्थाओं की जीवन प्रक्रिया ' का नाम दिया है और कहा है कि इनके बिना कोई व्यवस्था टिक नहीं सकती । पर्यावरण दो प्रकार का हो सकता है प्रथम , समाज बाह्य ( Extra Societal ) तथा द्वितीय , समाज अन्तर ( Intra Societal ) , समाज बाह्य पर्यावरण में अन्तर्राष्ट्रीय राजनैतिक व्यवस्थाएँ तथा अन्तर्राष्ट्रीय सामाजिक व्यवस्थाएँ आदि शामिल की गई है । समाज अन्तर ( Intra Social ) पर्यावरण में परिस्थितिक ( Ecological ) व्यवस्थाएँ शामिल की गई हैं । ३ ) अनुक्रिया ( Response ) प्रत्येक राजनैतिक व्यवस्था अपने पर्यावरण के प्रति अनुक्रिया करती हैं । पर्यावरण से अपनी ओर जाने वाले संकटों व दबावों का सामना करती है तथा इसके अतिरिक्त समाज को सुव्यवस्थित एवं सतत बनाए रखने हेतु कुछ अन्य क्रियाएँ भी करती है । इन समस्त क्रियाओं को अनुक्रिया शीर्षक के अन्तर्गत रखा गया है । सुविधा की दृष्टि से इन अनुक्रियाओं को निम्न तीन शीर्षको के अन्तर्गत रखकर विवेचित किया गया है ।
समाज । सामाजिक पर्यावरण I नि N P वे U T श सांस्कृतिक पर्यावरण माँगे ( Demands ) समर्थन ( Supports ) राजनीतिक व्यवस्था ( तन्त्र / सरकार ) प्रदाय / प्रतिसम्भरण ( Feeback ) निर्णय ( Decisions ) नीतियाँ ( Policies ) आर्थिक पर्यावरण नि 0 U र्ग T P त U T भौतिक पर्यावरण समाज डेविड ईस्टन के व्यवस्था सिध्दांत का रेखाचित्र ( i ) आगत / निवेश निवेश पर्यावरण से व्यवस्था की ओर आने वाले सभी प्रकार के दबाव , प्रभाव , .आन्दोलन आदि को कहते हैं । निवेश दो प्रकार के होते हैं संकट , माँग ,
( a ) माँगें ( Demands ) ईस्टन ने माँग की व्याख्या करते हुए लिखा है कि " वह जनमत की इस सम्बन्ध में अभिव्यक्ति है कि जिन लोगों के पास निर्णय लेने का अधिकार हैं उन्हें किसी विषय विशेष के सम्बन्ध में अधिकाधिक आवंटन करना चाहिए अथवा नहीं । " दूसरे शब्दों में जनसमाज द्वारा राजनैतिक व्यवस्था से कुछ कार्य , दायित्व , कानून निर्माण तथा सेवाओं की पूर्ति के लिए जो प्रदर्शन आदि कराए जाते हैं , उन्हें माँगे कहा जाता है । ये प्रायः सार्वजनिक प्रकृति की होती है ।
( b ) समर्थन ( Support ) राजनैतिक व्यवस्था को निरन्तरता तथा अनुरक्षण के लिए केवल अपने नियामक तत्वों पर ही निर्भर नहीं रहना पड़ता , बल्कि इसके अतिरिक्त कुछ अन्य साधनों को भी काम में लेना पड़ता है , इन्हें डेविड ईस्टन ने समर्थन नाम दिया है । ईस्टन के अनुसार , निवेश के रूप में केवल माँगे ही नहीं होती , बल्कि कुछ समर्थनकारी तत्व भी होते हैं । इस समर्थन के अभाव में राजनैतिक व्यवस्था अपने आपको अधिक समय तक बनाए नहीं रख सकती । यह समर्थन प्रकट और
अप्रकट दोनों ही प्रकार का हो सकता है । इसके साथ ही यह समर्थन सीमित और सम्पूर्ण भी हो सकता है । यह समर्थन राजनीतिक व्यवस्था की तीन विशिष्ट वस्तुओं के प्रति होता है -
( i ) राजनैतिक श्रम विभाजन पर आधारित राजनैतिक समुदाय के विषय में ,
( ii ) राजनैतिक व्यवस्था के आधारभूत मूल्यों और मानकों के प्रति ,
( iii ) राजनैतिक प्राधिकारियों के प्रति । समर्थन जितना व्यापक होगा व्यवस्था उतनी ही अधिक मजबूत होगी । समर्थन पर दबाव की स्थिति में वह अनेक प्रक्रियाएँ अपनाती हैं - जैसे संरचनात्मक तत्वों में परिवर्तन करना , प्रतिनिधित्व प्रणाली को बदल डालना , दलीय व्यवस्था को परिवर्तित कर देना तथा संविधान में संशोधन कर देना आदि ।
( ii ) माँगों का रूपान्तरण ( Conversion of Demands ) माँगों के रूपान्तरण की प्रक्रिया उन तरीकों को कहा जाता है जिनसे राजनीतिक व्यवस्था अपने समर्थनों और साधनों का प्रयोग , सत्ताओं या शासकों की सम्बोधित माँगों को अस्वीकार करने , उनको पूरा करने या उनमें हेर - फेर करने के लिए करती है । ईस्टन ने निम्न चार विधियों का उल्लेख किया है
( अ ) कुछ माँगे प्रत्यक्ष रूप से , नकारात्मक या सकारात्मक ढंग से पूरी कर दी जाती हैं । जैसे- नौकरी दे दी जाती है या इसके लिए मना कर दिया जाता है ।
( ब ) अधिकांश माँगे पहले एक सामान्य माँग में बदल जाती हैं और उसका सामान्य नियम बनाकर सामान्य समाधान कर दिया जाता है ।
( स ) कई माँगो को सामान्य हित के मुद्दो में परिवर्तित कर दिया जाता है जिससे वे सामान्य नियम बनाने के स्तर तक महत्व प्राप्त कर सके और उसके बाद सामान्य नियम बनाकर उनका सामान्य समाधान कर दिया जाता है ।
( द ) माँगो की पहले संख्या कम की जाती है और फिर उन्हें लोक कल्याण की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं में परिवर्तित करके पूरा कर दिया जाता है ।
( iii ) निर्गत ( Output ) - निर्गत संकल्पना को स्पष्ट करते हुए ईस्टन ने लिखा है कि , “ अधिकारियों के निर्णय और आदेश राजनीति व्यवस्था के निर्गत हैं , जो व्यवस्था के सदस्यों के व्यवहार से उत्पन्न परिणामो को पर्यावरण के लिए एक संगठित रूप देने का कार्य करते है । " निर्गत न केवल उस व्यापक समाज की घटनाओं को प्रभावित करते हैं जिसकी राजनीति व्यवस्था एक अंग है , परन्तु उस प्रक्रिया में वे उन सभी निवेशों को भी प्रभावित करते है जो एक के बाद एक करके राजनैतिक व्यवस्था मे प्रवेश करते हैं । निर्गत कई रूपों में प्रकट हो सकते हैं । जैसे कर उगाहना , सार्वजनिक आचरण के नियम , सार्वजनिक सम्मान , वस्तुओं तथा सेवाओं आदि के नियम तथा इनके सार्वजनिक वितरण के नियम आदि । ४ ) प्रदाय / प्रतिसम्भरण पाश यह एक गतिशील प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया के माध्यम से पर्यावरण की प्रक्रिया व्यवस्था के पास इस रूप में आती है कि प्रतिसम्भरण या प्रदाय की प्रक्रिया के प्रकाश में वह अपने व्यवहार को बदल ले । इस पर व्यवस्था की निरन्तरता तथा अनुकूलता टिकी रहती है । प्रतिसम्भरण या प्रदाय तंत्र निर्गतों के प्रभावों और परिणामों को पुनः व्यवस्था के भीतर निवेश के रूप में पहुँचाते रहते हैं । यह निर्गतो के परिणामों को निवेशों के निरन्तर आगम ( Inflow ) के साथ जोड़ता रहता है । यह प्रतिसम्भरण या प्रदाय प्रक्रियाएँ राजनैतिक व्यवस्था से उनके स्तरों पर होती रहती हैं , लेकिन ईस्टन का सम्बन्ध मुख्य रूप से सम्पूर्ण व्यवस्था से सम्बन्धित प्रतिसम्भरण पाशों से हैं । प्रतिसम्भरण विश्लेषण को चार खण्डों में विभाजित किया जा सकता है प्रथम खण्ड में , प्रतिसम्भरण की परिस्थितियाँ आती है इसमें व्यवस्था की प्रक्रिया आती है ।। द्वितीय खण्ड मे प्रतिसम्भरण अनुक्रिया आती है यह माँग सन्तोष के स्तर से सम्बद्ध है । तृतीय खण्ड में , प्रतिसम्भरण अनुक्रियाओं की राजनैतिक व्यवस्था में संचरण की अवस्था आती हैं । चतुर्थ अवस्था में , प्राधिकारियों का विचार विमर्श आता है । इसके अन्तर्गत प्राधिकारीगण प्रतिसम्भरण अनुक्रियाओं के प्राप्त होने पर निर्गत प्रतिक्रिया पर विचार - विमर्श किया जाता है ।
ईस्टन के व्यवस्था सिद्धान्त की आलोचना ( Criticism of Easton's Politial System Theory ) ईस्टन के राजनैतिक व्यवस्था सम्बन्धी विचारों की आलोचना विद्वानों ने अनेक आधारों पर की है । कुछ प्रमुख आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं
१ ) राजनैतिक व्यवस्था के स्थूल तथा सूक्ष्म व्यवस्थाओं के बीच भेद करने में असफल ईस्टन राजनैतिक • व्यवस्था का स्थूल तथा सूक्ष्म ( संकल्पनात्मक ) व्यवस्थाओं के बीच अन्तर करने में असफल रहा है । ईस्टन बात तो एक सूक्ष्म राष्ट्रीय व्यवस्था की करता है , परन्तु उसके विचार में स्थूल राजनैतिक व्यवस्था दिखाई देती है ।
२ ) अत्याधिक सूक्ष्म , संदिग्ध , उलझी हुई तथा निरर्थक संकल्पना का प्रणेता प्रो . मीहान ने ईस्टन के राजनैतिक व्यवस्था सिद्धान्त की आलोचना करते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि “ पार्सन्स के समान ईस्टन भी सिद्धान्त का अर्थ स्पष्टीकरण के सन्दर्भ मे नहीं , संकल्पनात्मक संरचनाओं के निर्माण के सन्दर्भ में लेता है । इसके परिणामस्वरूप जो अत्यधिक सूक्ष्म संरचना हमारे सामने उपस्थित होती है वह तार्किक दृष्टि से संदिग्ध , वैचारिक दृष्टि से उलझी हुई और आनुभविक शोध की दृष्टि से लगभग निरर्थक हैं । "
३ ) ईस्टन व्यक्ति को व्यक्ति के रूप में नहीं देख पाया है- ईस्टन यद्यपि व्यक्ति को अपने आनुभविक प्रेक्षक की इकाई बनाना चाहता है , लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि वह व्यक्ति को व्यक्ति के रूप में देख नहीं सका है । इसको व्यक्ति में व उसके व्यवहार में कोई रुचि नहीं है । उसे तो व्यक्ति के व्यवहार के बीच की अन्तःक्रिया में ही रुचि है अर्थात् व्यक्ति राजनैतिक व्यवस्था के अनुरक्षण तथा विघटन के क्षेत्र में जो भूमिका निर्वाह करता है , ईस्टन का केवल उसकी उस भूमिका से सम्बन्ध रहा है । इसका परिणाम यह हुआ है कि ईस्टन के व्यक्ति गुणविहीन दिखाई देते हैं । उसकी राजनीति सारहीन दिखाई देती हैं ।
४ ) अनुदारवादी और असहमतिवादी सिद्धान्त ईस्टन का व्यवस्था मॉडल केवल द्वितीय स्तर के परिवर्तनों का ही विश्लेषण कर पाता है । वह क्रान्तिकारी परिवर्तनों , वृद्धि , पतन , विघटन , न्हास आदि की राजनीतिक घटनाओं को स्थान नहीं देता हैं । उसकी व्यवस्था की सततता का लक्ष्य व्यवस्था के उत्तर जीवन से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ होने के कारण वह • सततता की सीमाओं से परे जाने में असमर्थ है । इस प्रकार ईस्टन जिस परिवर्तन की बात करता है , उसका उद्देश्य व्यवस्था का इस दृष्टि से अपने को सुधारना है कि वह अपने को बनाए रख सके । इस प्रकार उसकी व्यवस्था का उद्देश्य खतरनाक परिधि से बाहर न जाने देते हुए अपने मूल तत्वों को जीवित और सुरक्षित रखना है । इस प्रकार यह पद्धति नियन्त्रण के प्रतिरूपों , शक्ति तथा प्रभाव की प्रक्रियाओं पर अधिक ध्यान नही दे पाती हैं । " इस आधार पर अनेक विद्वानों ने इसे अनुदारवादी तथा असहमतिवादी सिद्धान्त बताया हैं ।
५ ) राजनीति के सामान्य सिद्धान्त की कसौटी पर खरा नहीं ईस्टन के सामान्य व्यवस्था सिद्धान्त की एक अन्य आलोचना इस आधार पर की जाती है कि " ईस्टन का राजनैतिक व्यवस्था का सिद्धान्तीकरण राजनीति के सामान्य सिध्दांत की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है । " प्रो . एस . एल . वर्मा ने अपनी पुस्तक ' आधुनिक राजनीतिक सिद्धान्त ' में ईस्टन के व्यवस्था सिद्धान्त की इस आलोचना को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि " वह राजनीति का सामान्य या एकीकृत सिद्धान्त भी नहीं हैं , जिसके निर्माण की आशा ईस्टन ने अपनी आरम्भिक कृति में व्यक्त की है " " सततता की दृष्टि से भी ईस्टन न तो पूरी तरह से तार्किक और न आनुभविक आधार पर सर्वभावी ( Inclusive ) व्यवस्था के प्रश्नों पर विचार करता है । ” “ तथ्यतः , . राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्थाओं पर आधारित होते हुए भी वह अनेक राजनीतिक प्रघटनाओं को छोड़ देता है । " समग्र व्यवस्था के समावेशक ( Overall ) प्रश्नों पर ध्यान केन्द्रित कर देने से उसके पास वितरणात्मक ( Allocative ) प्रश्नों , जैसे कौन क्या पाता है ? आदि , के कोई अवसर नहीं रहते । इससे वह अनेक क्षेत्रों में लक्ष्यों की प्राप्ति व उनकी प्रक्रियाओ आदि पर ध्यान नहीं दे पाता है । स्पष्टतः उसमें व्यक्तियों , व्यक्ति समूहों तथा व्यक्ति कार्यों आदि का अत्यन्त गौण स्थान है । इनका विचार व्यवस्था संगति की दृष्टि से ही किया जा सकता है , किन्तु इनकी अवहेलना का परिणाम यह है कि निर्गत निवेश विश्लेषण राजनीति का सामान्य सिद्धान्त नहीं बन सकता क्योंकि उसने महत्त्वपूर्ण राजनीतिक तथ्यों को , अमूर्त व्यवस्था विश्लेषण पर संकेन्द्रित होने के कारण त्याग दिया है ।
६ ) व्यक्तियों , व्यक्ति समूहों तथा व्यक्ति कार्यों की उपेक्षा ईस्टन अपने व्यवस्था सिद्धान्त में व्यक्ति की भी , जिसे वह आनुभविक परीक्षण की इकाई बनाना चाहता है , व्यक्ति के रूप में नहीं देख पाया है । ईस्टन व्यक्ति को केवल बाहर से देखता है । उसका दृष्टि केवल उसकी उस भूमिका पर है जो वह राजनीतिक व्यवस्था के अनुरक्षण और सततता में , अथवा विघटन और विनाश में अदा करता है । इस प्रकार ईस्टन को न तो व्यक्ति में और न उसके व्यवहार में , कोई रुचि है , जब तक कि वह अन्तः क्रिया का एक भाग न बन जाए । 1
इस प्रकार ईस्टन उन व्यक्तियों पर , जो व्यवस्था के अंग है , व्यवस्था का क्या प्रभाव पड़ता है , यह समझने मे बिल्कुल रुचि नहीं लेता । उसकी व्यवस्था का सदस्यों के व्यक्तियों से कोई सम्बन्ध नहीं हैं । इस प्रक्रिया में राजनीतिक व्यवस्था और व्यक्ति पृथक् - पृथक् हो जाते है और दोनो ही उसकी ( राजनीति वैज्ञानिक ) पकड़ से बाहर हो जाते है । अतः ईस्टन के व्यवस्था
सिद्धान्त में व्यक्ति गुणों से बिहीन दिखाई देते हैं और यह उसकी राजनीति सारहीन बनकर रह जाती है । ईस्टन के व्यवस्था सिद्धान्त का योगदान : ईस्टन की राजनीति शास्त्र के क्षेत्र में प्रमुख देन की निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है १ ) व्यवस्थाओं की प्रक्रियाओं की गतिशीलता का विश्लेषण करने में सक्षम ईस्टन की व्यवस्था विश्लेषण की पद्धति , सन्तुलन के दृष्टिकोण से आगे जाती है । रुकावट , दबाव का नियन्त्रण , उद्देश्यपूर्ण निर्देशन आदि संकल्पनाएँ हमें व्यवस्थाओं की प्रक्रियाओं की गतिशीलता का विश्लेषण करने में सहायता पहुँचाती हैं । २ ) नई दिशाओं का संकेत- ईस्टन की व्यवस्था पद्धति न केवल प्रक्रियाओं की गतिशीलता का ही विश्लेषण करती है , बल्कि वह लक्ष्यों की खोज करने वाले प्रतिसम्भरण के रूप में नई दिशाओं का संकेत भी देती है । ३ ) तुलनात्मक राजनैतिक विश्लेषण में योगदान ईस्टन की व्यवस्था पद्धति का एक अन्य लाभ तुलनात्मक राजनीतिक विश्लेषण के रूप में हुआ हैं । समस्त राजनैतिक व्यवस्थाओं पर एक तुलनात्मक दृष्टि डाली जा सकती है । औरन यंग ने इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए लिखा है कि ईस्टन के निवेश निर्गत विश्लेषण की उन व्यवस्थात्मक दृष्टिकोणो में जिनका अभी तक किसी राजनीतिशास्त्री ने विशेषकर राजनीतिक विश्लेषण के लिए निर्माण किया हो , सर्वश्रेष्ठ माना है ।
४ ) वैचारिक संरचना और निश्चित संकल्पना ईस्टन का व्यवस्था सिद्धान्त राजनीति विज्ञान की एक बहुत ही स्पष्ट और सुलझी हुई वैचारिक संरचना तथा निश्चित संकल्पनाएँ प्रदान करता है । इस प्रकार स्पष्ट है कि ईस्टन में व्यवस्था सिद्धान्त के द्वारा राजनीति क्षेत्र में अपार योगदान दिया है । उसने राजनीति शास्त्र में व्यवस्था विश्लेषण की नींव डाली है , राजनीति का एक सामान्य प्रकार्यात्मक सिद्धान्त विकसित किया है तथा राजनीति विश्लेषण के क्षेत्र में अनेक उपयोगी अवधारणाएँ विकसित की हैं । निष्कर्ष - उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ईस्टन का राजनीतिक व्यवस्था सिद्धान्त राजनीति के सामान्य सिद्धान्त की कसौटी पर इस नहीं उतरता हैं , वह किसी हद तक अनुदारवादी तथा असहमतिवादी है तथा अस्पष्ट , अतिसूक्ष्म तथा जटिल है ।
प्रश्न १४ तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन के व्यवहारवादी दृष्टिकोण की व्याख्या कीजिए ।
उत्तर : अर्थ व्यवहारवादी में मनुष्य के व्यवहार का अध्ययन सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में किया जाता है । व्यक्ति और समूह के वास्तविक व्यवहार की एकरूपता को जानने का प्रयास व्यवहारवाद में किया जाता है । व्यवहारवाद में राजनीतिक चिन्तन सिद्धान्त की अपेक्षा व्यावहारिक मान्यताओं से अधिक सम्बन्धित है । व्यवहारवाद के पीछे यह मान्यता है कि मनुष्य की अपनी भावनाएँ , मनोवृत्तियाँ , आकांक्षाएँ अभिलाषाएँ , दृष्टिकोन और लगाव होते हैं । मनुष्य का राजनीतिक व्यवहार बहुत कुछ इन मानसिक प्रवृत्तियों द्वारा अनुशासित होता है । व्यवहार की उत्पत्ति के कारण ( Causes of th Origin of Behaviouralism ) इसके निम्नलिखित कारण थे
१ ) परम्पररागत राजनीतिशास्त्र के युद्ध के उपरान्त की राजनीतिक परिस्थितियों से मेल न खाना । के
२ ) युद्ध के पश्चात् राजनीतिक चुनौतियों के वैज्ञानिक और व्यवस्थित विश्लेषण के लिए ।
३ ) पिछड़े राजनीतिशास्त्र को अन्य समाज विज्ञानों के साथ रखने के लिए ।
४ ) द्वितीय विश्व युद्ध के कारण । युद्धोपरान्त इन कारणों से नये दृष्टिकोण की खोज शुरू हुई जिससे राजनीति की वास्तविकताओं को समझा जा सके । व्यवहारवाद के उद्देश्य ( Objectives of Behaviouralism ) : व्यवहारवाद के उद्देश्य निम्नलिखित हैं
( i ) राजनीतिक घटनाओं का यथासम्भव स्पष्टीकरण देने और भविष्यवाणी करना ।
( ii ) सैद्धान्तिक ढाँचे के आधार पर राजनीति विज्ञान में शोध करने पर बल देना ।
( iii ) आधुनिक राजनीति विज्ञान की व्यापक तुलना करने के लिए
( iv ) राजनीतिक प्रस्थापनाओं के लिए तथ्य संग्रह करना और उनका विश्लेषण करना ।
( v ) व्यक्ति को अध्ययन का केन्द्र बिन्दु बनाना , न कि राजनीतिक संस्थाओं को विशेषताएँ : किर्कपैट्रिक ( Krikpatrick ) ने व्यवहारवाद की निम्नलिखित विशेषताएँ बतायी हैं
१ ) व्यवहारवाद में व्यक्ति के व्यवहार को विश्लेषण की मौलिक इकाई माना जाता है न कि राजनीतिक संस्थाओं को । -
२ ) यह राजनीतिशास्त्र व अन्य सामाजिक विषयों को एक मानकर अन्तर अनुशासनात्मक अध्ययन पर बल देता है ।
३ ) यह अध्ययन को अधिक वैज्ञानिक बनाने के लिए तर्थ्योों के पर्यवेक्षण और वर्गीकरण के लिए अधिक परिशुध्द धियों के प्रयोग पर बल देता है । .
४ ) राजनीतिशास्त्र के लक्ष्यों को अधिक वैज्ञानिक मानता है । मान्यताएँ - डेविड ईस्टन ने अपने लेख ' The Current meaning of Behaviouralism ' में व्यवहारवाद की मान्यताएँ निम्न प्रकार व्यक्त की है "
१ ) नियमितताएँ ( Regularities ) : मनुष्य के व्यवहार में व्यवहारवादी कुछ असमानताओं के साथ कुछ समानताएँ भी पाते हैं । इन समानताओं के आधार पर मनुष्य के व्यवहार सम्बन्धी सामान्य नियमों का निर्माण किया जा सकता है जिनके आधार पर राजनीतिक घटनाओं की व्याख्या करके भविष्यवाणी की जा सकती है । उदाहरण के लिए , मतदान के समय मतदाता का व्यवहार उसके सामाजिक , आर्थिक , व्यावसायिक तथा जातीय आधार पर अध्ययन करके सामान्य सिद्धान्तों के आधार पर भविष्यवाणी की जा सकती है । २ ) सत्यापन ( Verification ) : मानव व्यवहार से सम्बन्धित सामग्री को दोबारा जाँचने - परखने और उसकी सत्यता सिद्ध करने की पद्धति सत्यापन कहलाती है । व्यवहारवाद में यह पद्धति अपनायी जाती है । व्यवहारवाद में केवल सामान्यीकरण को ही अपनाया जाता है । यह पद्धति वैज्ञानिक पद्धति है ।
३ ) प्रविधियाँ ( Techniques ) : व्यवहारवाद राजनीतिशास्त्र को प्राकृतिक विज्ञान की श्रेणी में रखने का प्रयास करता है इसीलिए वह प्राकृतिक विज्ञानों की प्रविधियों का प्रयोग भी निःसकोच करना चाहता है । इसलिए जिन प्रविधियों का प्रयोग किया जाए वे शुद्ध और परीक्षित होनी चाहिए । मानव व्यवहार का अध्ययन करने वाली प्रविधियों में प्रश्नावली ( Questionnnarire ) , पर्यवेक्षण ( Observation ) , सहभागी पर्यवेक्षण ( Participated observastion ) , विषय - विचार विश्लेषण ( Content analysis ) आदि हैं ।
४ ) परिमाणीकरण ( Quantification ) : व्यवहारवाद में अध्ययन करने के लिए परिमाणीकरण का सहारा लिया - जाता है । विषय के सम्बन्ध में आँकड़े एकत्रित किये जाते हैं , जिनके आधार पर निष्कर्ष निकाले जा सकें ।
५ ) मूल्य ( Value ) : व्यवहारवाद अधिक वैज्ञानिकता की लगन में पूर्णत : उसी प्रकार मूल्य निरपेक्षता ( Value neutrality ) का पक्षपाती है जिस प्रकार प्राकृतिक विज्ञान व्यवहारवादियों के अनुसार अध्ययनकर्ता अपने अध्ययन में केवल तथ्यों को महत्त्व दे , न कि नैतिक मूल्यों को , अर्थात् व्यवहारवाद में नैतिक मान्यताओं तथा मूल्यों की दृष्टि से तटस्थ रहना चाहिए जिससे अध्ययन वस्तुनिष्ठ हो सके । नैतिक मूल्यों को भी स्वीकार करना चाहिए जबकि वे राजनीतिक व्यवहार को प्रभावित करते हो ।
६ ) क्रमबद्धीकरण ( Systematization ) : विज्ञान में ज्ञान के क्रमबद्ध अध्ययन की आवश्यकता होती है । सिद्धान्त और अनुसन्धान आपस में सम्बन्धित हैं । प्रो.एस.पी. वर्मा के शब्दों में , " व्यवहारवादी यह दावा करते हैं कि राजनीति विज्ञान में शोध अधिक से अधिक से अधिक क्रमबद्ध होना चाहिए । इससे उनका यह अभिप्राय है कि शोध सिद्धान्त सम्बद्ध और सिद्धान्त से निर्देशित होनी चाहिए । "
७ ) विशुद्ध विज्ञान ( Pure Science ) : व्यवहारवाद में सिद्धान्त और उसका प्रयोग वैज्ञानिक माना जाता है । किसी भी सिद्धान्त का उद्देश्य जीवन की समस्याओं को सुलझाना है । यही तथ्य व्यवहारवाद में भी लागू होता है । जिसके आधार पर विशुद्ध सैद्धान्तिक अनुसन्धान के बदले प्रायोगिक अनुसन्धान को ज्यादा महत्त्वपूर्ण मानते हैं ।
८ ) एकीकरण ( Integration ) : मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते अनेक प्रकार के कार्य करता है जो राजनीतिक , आर्थिक , नैतिक , धार्मिक , सामाजिक आदि नामों से जाने जाते हैं । इनके अलग - अलग विषय होते हुए भी इनमें परस्पर सम्बन्ध हैं , अर्थात् एक क्रिया - कलाप दूसरे का प्रभावित करते है । दूसरे शब्दों में समस्त मानव व्यवहार एक ही पूर्ण इकाई है और उसका अध्ययन समग्र रूप में होना चाहिए । व्यवहारवादी अपने अध्ययन को अधिक वैज्ञानिक बनाने पर जोर देता है । वह केवल शोध प्रणाली में ही परिवर्तन नहीं चाहता बल्कि विषय - वस्तु के क्षेत्र में भी परिवर्तन चाहता है । इसने राजनीतिशास्त्र को नयी परिभाषा , मूल्य भाषा , पद्धतियाँ और दिशाएँ प्रदान करके इसे अनुभववादी विज्ञान बनाया है ।
व्यवहारवाद के सिद्धान्त ( Principles of Behaviouralism ) : व्यवहारवाद के सिद्धान्त निम्नलिखित हैं व्यवहारवादी व्यक्ति के राजनीतिक व्यवहार पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं । @ वे व्यक्ति के व्यवहार पर परिस्थितियों के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रभाव का अध्ययन करते हैं । उनकी मान्यता है कि मनुष्य के व्यवहार के कुछ निश्चित नियम होते हैं और उन्हें निश्चित रूप में अंकित किय १ ) २ ) ३ ) जा सकता है । ४ ) व्यवहारवादी यह मानते हैं कि उनके निर्णय अस्थायी होते हैं , क्योंकि परिस्थितियाँ प्रायः बदलती रहती हैं इसलिए व्यवहारवादी पद्धति के परिणाम उतने निश्चित नहीं होते जितने प्राकृतिक विज्ञानों में होते हैं । ५ ) व्यवहारवाद के परिणाम प्रायः सम्भावनाओं पर आधारित होते हैं । ६ ) व्यवहारवादी व्यक्ति तथा समूह के वास्तविक व्यवहार में एकरूपता ढूँढने का प्रयास करते हैं । राजनीतिक घटनाएँ , संस्थाएँ , संगठन और विचारधाराएँ व्यवहारवादियों के लिए केवल इतना ही महत्त्व रखती हैं , जितने से वे राजनीतिक व्यवहार को समझने में सहायक सिद्ध हो सकें । ७ ) व्यवहारवादी अपने अध्ययन के लिए अनेक विषयों की सहायता लेते हैं । ८ ) व्यवहारवादी आँकड़ों को एकत्रित करते हैं और गणित के कुछ नियमों का प्रयोग करते हुए वे व्यक्ति तथा समूह के राजनीतिक व्यवहार का अनुमान लगाने का प्रयास करते हैं । ९ ) १० ) व्यवहारवादी अपने अध्ययन में वैज्ञानिक पद्धति की सभी विशेषताओं का प्रयोग करते हैं ।. आलोचनाएँ ( Criticisms ) ये निम्न प्रकार हैं व्यवहारवाद की मूल्य निरपेक्षता सम्भव नहीं हो पाती क्योंकि राजनीतिशास्त्र में वास्तविकता और मूल्य एक १ . साथ जुड़े होते हैं उन्हें अलग - अलग नहीं किया जा सकता हैं । २ . व्यवहारवादी अपने आपको जीवन की वास्तविक समस्याओं से अलग रखना चाहते हैं । ३. व्यवहारवादियों ने प्राकृतिक विज्ञान की शब्दावली का प्रयोग कर हास्यास्पद स्थिति पैदा कर दी है । ४. व्यवहारवाद केवल वास्तविकता से सम्बन्धित होना चाहता है , आदर्श से नहीं जबकि राजनीतिशास्त्र आदर्शात्मक विज्ञान है । व्यवहारवादी अपने आपको मूल्य निरपेक्ष भी कहते हैं जबकि वे उदार लोकतन्त्र में विश्वास भी करते हैं । व्यवहारवाद परिणाम की अपेक्षा प्रक्रिया पर अधिक बल देता है । ७. व्यवहारवाद का आधार अध्ययनकर्ता का स्व विवेक है , अतः अध्ययन सीमित हो जाता है । ५ . ६ .
प्रश्न १५ : उत्तर - व्यवहारवाद ( Post - Behaviouralism ) पर टिप्पणी लिखिए ।
उत्तर : १ ९ ५० से १ ९ ७० तक का काल व्यवहारवादी क्रान्ति का युग कहा जाता है । व्यवहारवाद के अध्ययन में ग्रेबियल आमण्ड , रॉबर्ट डहल , डेविड ईस्टन , कार्ल ड्यूश , हैराल्ड लासवेल का बहुत योगदान है । इस अवस्था में शोध की तकनीक का विकास हुआ । इसमें एक ओर सैद्धान्तिक व्यवहारवाद पर बल दिया गया और दूसरी ओर शोध प्रवृत्तियों की खोज । इसका परिणाम यह हुआ कि सिद्धान्त और राजनीति दोनों की उपेक्षाएँ होने लगीं । व्यवहारवाद में कमियों का आभास होने लगा । इन कमियों को दूर करने के लिए उत्तर - व्यवहारवाद का जन्म हुआ जिसकी घोषणा डेविड ईस्टन ने १ ९ ६ ९ में American Political Science Association ' के वार्षिक अधिवेशन में की । उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि , " पिछली क्रान्ति में व्यवहारवाद अपनी पूर्णता से पूर्व ही बढ़ते हुए सामाजिक संकटों से घिर चुका है । हमारे विषय में इन सभी संकटों को उस नवीन संघर्ष के रूप में आँका जा रहा है , जिसमें हम आबंटित हो चुके हैं । यह नवीन एवं तत्कालीन चुनौती व्यवहार की बढ़ती हुई रूढिवादिता के विरूद्ध निर्दिष्ट है । इसी चुनौती को मै उत्तर - व्यवहारवाद कहूँगा । " उत्तर - व्यवहारवाद परम्परावादी व्यवहारवाद की मान्यताओं को झूठलाकर नयी मान्यताओं को प्रस्तुत नहीं करता बल्कि यह व्यवहारवादी दृष्टिकोण की त्रुटियों को दूर करता है । यह व्यवहारवादी दृष्टिकोण की आलोचना न करके उसे भाविष्योन्मुखी बनाता है।इसस प्रकार यह पूर्व व्यवहारवादी दृष्टिकोण को परिष्कृत करने का एक प्रयास है । उत्तर - व्यवहार के उत्पन्न होने के मुख्य कारण निम्नलिखित बताये जा सकते हैं . -
१. अमरीका के विश्वविद्यालयों में राजनीतिक शोध के प्रति असन्तोष २. सामाजिक , आर्थिक तथा सांस्कृतिक संकट ३. केवल पुस्तकालय सम्बन्धी शोध ४. उचित भविष्यवाणी में असमर्थता इस प्रकार उपर्युक्त मुख्य कमियों के कारण तथा अपने आपको बदलते समय की माँगों के अनुसार न बदल सकने के कारण और सार्थकता तथा क्रिया ( Relevance and action ) के अभाव के कारणों ने ईस्टन को व्यवहारवाद , जिसका वह एक संस्थापक था , के विरूद्ध उत्तर - व्यवहारवाद की धारणा को प्रतिपादित करने के लिए सदृढ कर दिया । इस विषय में ईस्टन का कहना है , " क्या हमें विषय के व्यवहारवादी या अन्य स्थायी स्वरूप को स्वीकार करना चाहिए या हमें इसके स्वरूप को परिवर्तित हो के अनुसार परिवर्तित करना चाहिए । " वस्तुतः राजनीतिक अध्ययन के व्यवहारवादी स्वरूप को स्थायी बनाना हितकारी न था । अत : डेविड ईस्टन ने उत्तर व्यवहारवाद की धारणा का प्रतिपादित करते हुए कहा- " यह स्वाभाविक क्रान्ति है प्रतिक्रिया नहीं , अनुरूप है संरक्षा नहीं , सुधार है प्रति - सुधार नहीं । " वस्तुत : उत्तर - व्यवहारवाद परम्परावाद नहीं है ; क्योंकि जहाँ परम्परावाद व्यवहारबाद की उपस्थिति को स्वीकार नहीं करता , वहाँ उत्तर - व्यवहारवाद उसकी उपलब्धियों को स्वीकार करते हुए , उन्हें नये क्षितिज को ओर ले जाने का प्रयत्न करता है अर्थात् जहाँ परम्परावाद ऐतिहासोन्मुख ( Historical oriented ) है , वहाँ उत्तर - व्यवहारवाद भविष्योन्मुख ( Future oriented ) है । डेविड ईस्टन ( David Easton ) ने १ ९ ६ ९ में अमरीकी राजनीति विज्ञान के अपने अध्यक्षीय भाषण में उत्तर - व्यवहारवाद के निम्नलिखित लक्षण बताये १. तकनीक अथवा प्राविधि से पूर्व उन वास्तविकताओं ( Substances ) को स्थान दिया जाना चाहिए जिनसे वर्तमान समस्याओं में संगति बैठाना अधिक आवश्यक है । केवल तकनीकी विकास कोई महत्त्व नहीं रखता । उत्तर व्यवहारवादी की मान्यता है कि असंगत होने से अस्पष्ट होना कहीं अधिक अच्छा है ( Better to be vague than irrelevant ) | २. व्यवहारवाद में अनुभववाद सन्निहित दिखायी देता है क्योंकि वह केवल तथ्यों के वर्णन तथा विश्लेषण तक ही अपने को सीमित रखना चाहता है । वह परिवर्तन नहीं वरन् यथास्थिति के संरक्षण को प्रोत्साहन देता है । इस कारण उत्तर व्यवहारवाद का मुख्य उद्देश्य ' क्या होना चाहिए का अध्ययन किया जाना चाहिए । ३. व्यवहारवाद यथार्थ अथवा वास्तविकता से अपने सम्बन्ध तोड़ बैठता है जबकि उत्तर व्यवहारवाद यथार्थ की भाषा अपनाने को उद्यत है । यथार्थ से सम्बन्धित होने के लिए आवश्यक है कि मानव समस्याओं को सूक्ष्मता से समझा जाये । इस विज्ञान का क्या लाभ है जो अपने साधनों तथा धन के आधार पर मानव समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता । अतः उत्तर व्यवहारवाद का उद्देश्य राजनीति शास्त्र की सहायता करना है ताकि मानव जाति की वास्तविक आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके । ४. वैज्ञानिक कार्य केवल यही समाप्त नहीं हो जाता की वह ज्ञानोपार्जन करे अपितु उसका यह भी एक मुख्य कर्तव्य है कि उपर्जित ज्ञान का किसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतू प्रयोग करे । आज का युग वैचारिक विज्ञान ( Contemplative Science ) का न होकर कार्य विज्ञान ( Action Science ) का युग है और समय की माँग है कि राज्य विज्ञान के शोध के कार्य में आदर्शों के सम्बन्ध में समाज के समकालीन संघर्षों को ध्यान में रखे ।
प्रश्न १६ : तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन के मार्क्सवादी उपागम की व्याख्या कीजिए ।
उत्तर : तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन की आधुनिक विधियों में मार्क्सवादी दृष्टिकोण बड़ी महत्त्वपूर्ण विधि है जो राजनीति के बारे में मार्क्स के विचारों पर आधारित है । मार्क्स का विचार है कि समाज में सभी सम्बन्ध यहाँ तक कि राजनीतिक सम्बन्ध भी समाज के आर्थिक ढांचे पर आधारित रहे हैं और आज भी है । अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार उत्पादन प्रणाली है अर्थात् जिस व्यक्ति या वर्ग का उत्पादन प्रणाली पर नियंत्रण है , उसी के पास राजनीतिक शक्ति होती है । इस प्रकार राजनीति व्यवस्था तथा सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन समाज में स्थित आर्थिक व्यवस्था से अलग होकर नहीं किया जा सकता । अर्थव्यवस्था ने हीं समाज के विरोधी वर्गों को वर्ग सम्बन्धों तथा वर्ग - संघर्ष को जन्म दिया है और आर्थिक शक्ति ने राजनीतिक शक्ति पर अपना नियंत्रण स्थापित करके अपने विरोधी वर्गों ( जिनके पास आर्थिक शक्ति का अभाव है ) के शोषण तथा
उत्पीडन और अपनी हित - पूर्ति के लिए इसका प्रयोग किया है । इस प्रकार आर्थिक ढांचे , वर्ग - संघर्ष तथा शोषित वना के अनुसार राजनीतिक व्यवस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन इनकी आर्थिक व्यवस्था के सन्दर्भ में ही किया जा सकता है अर्थव्यवस्था से अलग राजनीति नाम की कोई चीज नहीं हैं । - मार्क्स के विचार तुलनात्मक अध्ययन का मार्क्सवादी उपागम मार्क्स के विचारों पर आधारित हैं । मार्क्स का समस्त राजनीतिक चिन्तन उसके द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद पर आधारित है । इसके आधार पर विकास प्रक्रिया चलती रहती है और द्वन्द का आधार भौतिक पदार्थ है , विचार नहीं । बाद ( Thesis ) , प्रतिवाद ( Anti - thesis ) तथा संवाद ( Synthesis ) की प्रक्रिया के आधार पर विकास होता है । मार्क्स ने इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या ( Materialistic interpretation of history ) की है और कहा है कि किसी भी समाज का किसी भी समय का इतिहास उस समय के आर्थिक ढांचे या उत्पादन प्रणाली का इतिहास है । आर्थिक शक्ति से सम्पन्न वर्ग तथा आर्थिक शक्ति से हीन वर्गों के आपसी संघर्ष का इतिहास है । हर समाज मे जिसके पास उत्पादन शक्ति रही है , उसका राजसना पर नियंत्रण रहा है और उसने गजसना का प्रयोग विरोधी वर्गों के उत्पीड़न तथा शोषण के लिए किया है । मार्क्स ने अपने विचारों में प्रत्येक समाज में निरन्तर चलते आ रहे वर्ग संघर्ष ( Class struggle ) की बात कही है । इसका विचार है कि हर समाज में हर समय में समाज दो विगंधी वर्गों जिनके पास आर्थिक शक्ति है ( Haves ) तथा जिनके पास शक्ति नहीं है ( Havenots ) में बंटा हुआ रहा है । इन वर्गों के केवल नाम बदलते रहे है । आज पूंजीपति वर्ग तथा श्रमिक वर्ग पूजीवादी समाज में विद्यमान है । यह वर्ग संघर्ष तथा राजसना के आर्थिक शक्ति का नियंत्रण , उसी समय बन्द हो सकता है जब वर्ग विभाजन समाप्त हो जाए और समाज में केवल एक ही वर्ग रह जाएगा । आज के पूंजीवादी युग में पूंजीपति वर्ग श्रमिकों का शोषण करता है , यहां तक कि श्रमिकों को उनके काम की उचित मजदूरी भी नहीं मिलती । इस सम्बन्ध में मार्क्स ने अपने अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त में वस्तु के अतिरिक्त पूंजीवादी द्वारा चोरी का नाम दिया है । मार्क्स हिंसात्मक श्रमिक क्रान्ति द्वारा वर्ग - विभाजन को समाप्त करके वर्गविहीन समाज की स्थापना करना चाहता है । 5 मार्क्सवादी दृष्टिकोण / उपागम की मुख्य विशेषताएं तुलनात्मक राजनीति के मार्क्सवादी दृष्टिकोण की मुख्य विशेषताएं हैं जो निम्नलिखित हैं १ ) समाज का आर्थिक ढांचा अथवा उत्पादन प्रणाली सामाजिक संगठन का मुख्य आधार है और इसी आधार पर समाज के सभी सम्बन्धों तथा व्यवहारों के स्वरूप निश्चित होते हैं । आर्थिक आधार पर ही वर्ग विभाजन तथा वर्ग सम्बन्धों का पता चलता है और राजनीतिक , सामाजिक संबंध , नैतिकता , धर्म , संस्कृति तथा मनोविज्ञान भी इसी ढाँचे पर खड़े रहते हैं । २ ) समाज में आर्थिक आधार पर ही वर्ग विभाजन हुआ है और आर्थिक शक्ति के लिए ही वर्ग संघर्ष रहा है तथा उपज भी है । जिस वर्ग के पास आर्थिक शक्ति हैं , उसने शक्तिहीन वर्गों का शोषण किया है । ३ ) जिस वर्ग के पास आर्थिक शक्ति होती है उसी के पास राजनीतिक शक्ति भी होती है और इस वर्ग ने राजनीतिक शक्ति का प्रयोग अपने आर्थिक हितों की पूर्ति तथा विगंधी वर्गों के शोषण के लिए किया है । ४ ) राजनीति का आधार अर्थव्यवस्था है । समाज में चल रही उत्पादन प्रणाली और राजनीति से विभिन्न वर्गों के हितों की अभिव्यक्ति होती है । संसार की सभी घटनाएं आर्थिक आधारों पर घटित होती है यहां तक कि युद्धों का आधार भी आर्थिक हित पूर्ति है । ५ ) राजनीति का अध्ययन वास्तव में समाज के वर्ग सम्बन्धों तथा वर्ग संघर्षा का इतिहास है । राजनीति समाज के वर्गों से अलग या वर्गों के ऊपर कोई अलग विषय नहीं और इसलिए राजनीति का अध्ययन आर्थिक व्यवस्था के सन्दर्भ में ही किया जा सकता है , अर्थव्यवस्था से अलग नहीं । राजनीति सामाजिक प्रक्रिया का एक भाग हैं और सभी सामाजिक सम्बन्ध आर्थिक ढांचे पर खड़े हैं । इसलिए राजनीति का अध्ययन भी अर्थव्यवस्था के आधार पर ही किया जा सकता है । राजनीतिक ढांचे को समाज के आर्थिक ढांचा से अलग नहीं किया जा सकता । ६ ) तुलनात्मक राजनीति का अध्ययन भी तभी सार्थक व वास्तविक हो सकता है जब राजनीतिक शक्ति का विश्लेषण समाज की आर्थिक व्यवस्था के विश्लेषण के साथ उसके सन्दर्भ में तथा आर्थिक ढांचे में परिवर्तनों के विश्लेषण के साथ किया जाए । मार्क्सवादी विचारक अर्थव्यवस्था को राजनीतिक अध्ययन का आधार मानते हैं और केवल राजनीतिक संस्थाओं के संगठन तथा उनके कार्यों तक ही सीमित नहीं रखते । उनका विचार है कि किसी भी समाज के राजनीतिक व्यवहार को उस समाज के आर्थिक ढाँचे के सन्दर्भ में ही जाना जा सकता है और उसका विशलेषण किया जा सकता है ।
आलोचना ( Criticism ) इसमे शक नहीं कि राजनीतिक व्यवस्था पर आर्थिक ढांचे का प्रभाव पड़ता है और आर्थिक परिस्थितियों में हुए परिवर्तनों का राजनीतिक ढांचे पर प्रभाव पड़ता हैं तथा राजनीति के अध्ययन में आर्थिक वातावरण का अध्ययन अवश्य किया जाना चाहिए । परंतु यह बात सही नहीं कि समस्त सामाजिक ढांचा केवल आर्थिक ढांचे पर खड़ा है और सभी सम्बन्धों यहां तक कि राजनीति का आधार केवल आर्थिक ढांचा है । मार्क्स ने भी अपने बाद के विचारों में यह बात स्वीकार की है कि आर्थिक तत्व राजनीति में कई तत्वों में से एक तत्व हैं । एकमात्र तत्त्व नहीं । यह बात भी सत्य है कि राजनीति आर्थिक शक्ति हड़पने का एक साधन मात्र है तथा राजसत्ता ने वर्ग - संघर्ष को बढ़ावा दिया है । राजनीतिक संगठन ने अनेकों बार उनको समाजों में संघर्ष , शोषण तथा वर्ग - भेद को बढ़ावा न देकर इन्हें समाप्त करने या काम करने में सहायता दी हैं ।

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