राजनीतिक व्यवस्था की परिभाषा

राजनीतिक व्यवस्था हमारे समाज के संचालन का आधार है। यह व्यवस्था न केवल सत्ता के वितरण और नियंत्रण का माध्यम है, बल्कि यह समाज के नियम, कानून और नीतियों को भी निर्धारित करती है। राजनीतिक व्यवस्था की समझ से हम यह जान सकते हैं कि किसी देश या समाज में सत्ता कैसे काम करती है, किस प्रकार के नियम लागू होते हैं, और नागरिकों के अधिकार और कर्तव्य क्या हैं। इस लेख में हम राजनीतिक व्यवस्था की परिभाषा समझेंगे और उसकी मुख्य विशेषताओं का विस्तार से वर्णन करेंगे।

राजनीतिक व्यवस्था की परिभाषा

राजनीतिक व्यवस्था का अर्थ है वह संरचना और प्रक्रिया जिसके माध्यम से किसी समाज में सत्ता का वितरण, नियंत्रण और संचालन होता है। यह व्यवस्था यह तय करती है कि कौन निर्णय लेगा, किस प्रकार के नियम लागू होंगे, और समाज के विभिन्न वर्गों के बीच सत्ता का संतुलन कैसे बना रहेगा। राजनीतिक व्यवस्था समाज के राजनीतिक संस्थानों, नियमों, और प्रक्रियाओं का समुच्चय होती है जो शासन और प्रशासन को संचालित करती है।

सरल शब्दों में, राजनीतिक व्यवस्था वह तंत्र है जो किसी देश या समाज में सत्ता के प्रयोग और उसके नियंत्रण को व्यवस्थित करता है। यह व्यवस्था नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों को भी निर्धारित करती है और सामाजिक न्याय, सुरक्षा तथा विकास के लिए आवश्यक नीतियों को लागू करती है।

राजनीतिक व्यवस्था ( तन्त्र ) का अर्थ एवं परिभाषाएँ राजनीतिक अध्ययनों में राजनीतिक व्यवस्था को सामान्य व्यवस्था ( General system ) की एक उप - व्यवस्था के रूप में देखा जाता है । राजनीतिक व्यवस्था ( Political System ) कोई स्वतन्त्र इकाई नहीं है यह समाज की अनेक उपव्यवस्थाओ ( आर्थिक , राजनीतिक , सांस्कृतिक धार्मिक ) में से एक है , लेकिन यह एक विशेष प्रकार की उप - व्यवस्था है , इसलिए अन्य सामाजिक उप - व्यवस्थाओं से सम्बन्ध रखते हुए भी यह बहुत हद तक स्वायत्त होती है क्योंकि इसके पास अन्य व्यवस्थाओं को आदेश देने तथा उन्हें पालन करने की क्षमता होती है । डेविड ईस्टन के शब्दों में , राजनीतिक व्यवस्था स्वयं में परिपूर्ण सत्ता है जो उस वातावरण या परिवेश से , जिनसे वह घिरी हुई होती है और जिनके अन्तर्गत वह प्रचलित होती है , स्पष्टतः पृथक् होती है । " 1 राजनीतिक व्यवस्था पर्यावरण से प्रभावित अवश्य होती है , लेकिन उसकी दासी नहीं होती । सामान्य अर्थों में राजनीतिक व्यवस्था का तात्पर्य राजनीतिक व्यवस्था के विभिन्न भागों में सुव्यवस्था से लिया जाता है । सुव्यवस्था से आशय यह लिया जाता है कि राजनीतिक व्यवस्था के विभिन्न अंगों के प्रतिमानित सम्बन्धों में एक नियमिततता विद्यमान रहती है । यह समाज की अनेक उप - व्यवस्थाओं में से एक होती हैं । लेकिन अपनी एक विशिष्ट पहचान रखती है । १/१८ विभिन्न विद्वानों ने राजनीतिक व्यवस्था की भिन्न - भिन्न परिभाषाएँ दी हैं । कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित है ईस्टन के अनुसार , " किसी समाज में पारस्परिक क्रियाओं की ऐसी व्यवस्था को जिससे उस समाज में बाध्यकारी या अधिकारपूर्ण नीति निर्धारण होते है , राजनीतिक व्यवस्था कहा जाता है । ' " " आमण्ड तथा पावेल के शब्दों में , “ राजनीतिक व्यवस्था से इसके अंगों की अन्तः निर्भरता और इसके पर्यावरण में किसी न किसी प्रकार की सीमा का बोध होता है । राजनीतिक व्यवस्था के आधारभूत लक्षण : आमण्ड तथा पावेल ने राजनीतिक व्यवस्था के निम्न लक्षण बताए है - १ ) भागों की अन्तर्निर्भरता आमण्ड का मत है कि हर व्यवस्था की तरह ही राजनीतिक व्यवस्था के विभिन्न भागों या अंगों में भी परस्पर निर्भरता की स्थिति रहती है । हर राजनीतिक व्यवस्था में अनेक अंग होते हैं , इन विभिन्न अंगों में प्रकार्यात्मक सम्बन्ध होता है , हर अंग की सम्पूर्ण अवस्था में निश्चित भूमिका रहती है और हर अंग की भूमिका समान नही होती है । इससे स्पष्ट है कि राजनीतिक व्यवस्था एक सावयवी रचना की तरह है जिसमें पारस्परिकता की दृष्टि से अंग ठीक उसी प्रकार का सम्बन्ध रखते हैं जिस प्रकार का सम्बन्ध प्राणी शरीर के विभिन्न भागों के बीच होता है ।

हर राजनीतिक व्यवस्था में तीन तरह के हिस्से अन्तः क्रियाशील रहते है । ये तीन हिस्से है

( i ) राजनीतिक व्यवस्था के प्राणधारी भाग ,

( ii ) राजनीतिक व्यवस्था के पूरक भाग और

( iii ) राजनीतिक व्यवस्था के मानार्थी ( Complimentary ) भाग ।

राजनीतिक व्यवस्था के विभिन्न अंगों का अन्तः क्रियात्मकता से अर्थात् एक अंग मे होने वाले परिवर्तनों से सम्पूर्ण व्यवस्था पर अनेक प्रभाव हो सकते है । जैसे अन्य अंगों पर इससे दबाव या खिंचाव या तनाव आ सकता है , इससे अन्य अंगों का रूपान्तरण तक हो सकता है , इससे सम्पूर्ण व्यवस्था की निष्पादन शैली ( प्रतिमानों ) में मौलिक परिवर्तन आ सकते हैं तथा इससे व्यवस्था टूट सकती है या उसमें और मजबूती आ सकती हैं ।

इस प्रकार स्पष्ट है कि व्यवस्था का हर अंग सम्पूर्ण व्यवस्था के लिए प्रकार्यात्मक और विकार्यात्मक दोनों प्रकार की भूमिका निभाता है । " प्रकार्यात्मक भूमिका में व्यवस्था को बनाए रखने की भूमिका सन्निहित रहती है जबकि विकार्यात्मक भूमिका में व्यवस्था को तोड़ने की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिलता है । " आमण्ड का मत है कि सामान्यतया राजनीतिक व्यवस्थाएँ टूटती नहीं है । वे बड़े से बड़े झंझावातों को भी झेल लेती हैं क्योंकि इसमें कुछ नियमितकारी संरचनाएँ होती हैं जो अप्रत्याशित विचलन को स्वतः ही सक्रिय होकर ठीक कर देती हैं । ये संरचनाएँ हैं- राजनीतिक दल , हित समूह , लोकमत और नियतकालीन चुनाव आदि । इसलिए ही राजनीतिक व्यवस्था को स्वतः नियन्त्रित व्यवस्था तक कहा जा सकता है ।

२ ) राजनीतिक व्यवस्था की सीमा राजनीतिक व्यवस्था की एक निश्चित सीमा होती है । इसकी सामान्य व्यवस्था और अन्य उप व्यवस्था से स्वायत्तता रहती है । यह उनसे अन्तः सम्बन्धित होते हुए भी उनसे स्वायत्त रहती है । इस

सीमा तथा अन्तः क्रियाशील राजनीतिक भूमिकाओं के सन्दर्भ में मानी जाती है । जिसकी निम्न विशेषताएँ बतायी जाती है १

( i ) इसकी सीमा लचीली होती है जिसमें कमी या वृद्धि हो सकती है । उदाहरण के लिए क्रान्ति काल या चुनावों में इसकी सीमा बहुत बढ़ जाती है जबकि पूर्ण शान्तिकाल में उसकी सीमा सिकुड़ जाती है क्योंकि ऐसे समय में अनेक लोग राजनतिक भूमिकाओं से हट जाते हैं ।

( ii ) सीमा के लचीलेपन से राजनीतिक व्यवस्था में जीवन्तता तथा गत्यात्मकता के तत्व निरन्तर विद्यमान रहते हैं ।

( iii ) सीमा के माध्यम से ही राजनीतिक व्यवस्था को अन्य व्यवस्थाओं से अलग करना सम्भव होता है । इस प्रकार स्पष्ट है कि राजनीतिक व्यवस्था की सीमा भूमिकाओं के आधार पर निश्चित होती है और इसी कारण यह अवधारणा गत्यात्मक बन जाती है , और उस भूमिका को राजनीतिक भूमिका कहा जा सकता है जिससे राजनैतिक व्यवस्था की सक्रियता पर प्रभाव पड़ता है ।

३ ) राजनीतिक व्यवस्था का पर्यावरण ईस्टन का मत है कि राजनीतिक व्यवस्था कई प्रकार के पर्यावरणों से घिरी रहती हैं और उनके द्वारा प्रस्तुत परिवेश के अंतर्गत की सक्रिय रहती है अर्थात् वह इस पर्यावरण से प्रभावित होती है और इस पर्यावरण को प्रभावित भी करती है । ईस्टन ने परिस्थितिकी , आर्थिक , सांस्कृतिक , राष्ट्र के व्यक्तित्व और जन - सांख्यिकीय ( Demographic ) पर्यावरणों का विशेष रूप से उल्लेख किया है । राजनीतिक व्यवस्था में निवेश ( Inputs ) पर्यावरण से ही आते हैं , जिनको वह रूपान्तरण करके निर्गतों ( Outputs ) के रूप में पुनः पर्यावरण में ही पहुँचा देती हैं । इन दोनों के बीच के • प्रतिसमभरण ( Feedback ) भी पर्यावरण में ही संचालित रहता हैं ।

४ ) वैध भौतिक बाध्यकारी शक्ति का प्रयोग राजनीतिक व्यवस्था के पास वैधानिक बाध्यकारी शक्ति होती है और आवश्यक्ता पड़ने पर वह इसका प्रयोग करती है जबकि अन्य व्यवस्थाओं के पास यह शक्ति नहीं होती है । इसी कारण यह व्यवस्था अन्य व्यवस्थाओं से अनोखी तथा अलग बनती है । इसी के कारण यह अन्य व्यवस्थाओं को आदेश देने वाली तथा उनसे सर्वोपरि बनती है । इसी आधार पर ईस्टन ने इसे ' मूल्यों का अधिकाधिक वितरक ' कहा है । इसी कारण , राजनीतिक व्यवस्था का तात्पर्य उन सभी अन्तः क्रियाओं से है जो वैध भौतिक बाध्यता की शक्ति का प्रयोग करने की धमकी का नियमन करती है । इस तरह हर राजनीतिक व्यवस्था के अंगों के रूप में राजनीतिक संरचनाएँ और भूमिकाएँ इनकी औचित्यपूर्ण बाध्यकारी शक्ति के इर्द - गिर्द घूमती हुई दिखायी देती है ।

राजनीतिक व्यवस्था की सामान्य विशेषताएँ : डहल ( Dahal ) ने राजनीतिक व्यवस्थाओं की निम्न सामान्य व्यवस्थाएँ बतायी हैं

१ ) राजनीतिक स्त्रोतों का असमान नियन्त्रण डहल के मतानुसार प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक विकास के कारण संरचनात्मक विभिन्नीकरण के साथ ही साथ विशेषीकरण आ जाता है । इस विशेषीकरण के कारण ही राजनीतिक स्त्रोत धन , शक्ति , सामाजिक स्तर और राजनीतिक कार्य , समान रूप से सब व्यक्तियों में विद्यमान नहीं रह सकते हैं । इन पर किसी का अधिक तो किसी का कम नियन्त्रण रहता है । अतः राजनीतिक स्त्रोत सब में समान रूप से बँट नही सकते और इस कारण इन स्रोतों पर व्यक्तियों का समान नियन्त्रण हो ही नहीं सकता । डहल ने लोगों के निम्न चार प्रमुख अन्तरों के कारण यह असमानता अनिवार्य मानी है - -

( i ) लोगों का विशेषीकरण , ( ii ) लोगों में जन्म से मौलिक अन्तर , ( iii ) लोगों के लक्ष्यों और प्रेरकों में अन्तर और ( iv ) लोगों में कार्य की पहल करने की भिन्न - भिन्न क्षमताएँ । उपर्युक्त चार कारणों से राजनीतिक व्यवस्था के साधनों पर लोगों का नियन्त्रण उसी प्रकार का हो सकता है जिसके अनुरूप उनमें सामर्थ्य होती है ।

२ ) राजनीतिक प्रभाव की खोज राजनितिक व्यवस्था में हर व्यक्ति राजनीतिक प्रभाव को प्राप्त करना चाहता है क्योंकि इनके स्वार्थों , लक्ष्यों को पूरा करने के लिए यह राजनीतिक प्रभाव सर्वाधिक सहायक होता है । इसको प्राप्त करने के बाद वह प्रशासन को प्रभावित करने में सफल हो जाता है । अतः स्पष्ट है कि राजनीतिक व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति अपने साधनों , स्थितियों और अवसरों के अनुकूल राजनीतिक प्रभाव प्राप्त करने का प्रयत्न करता रहता है ।

३ ) राजनीतिक प्रभाव का असमान वितरण राजनीतिक प्रभाव की दृष्टि से सब व्यक्ति बराबर नहीं हो सकते ।

राजनीति में रुचि , राजनीति के प्रति दृष्टिकोण में भिन्नता के कारण व्यक्तियों के राजनीतिक प्रभाव भी भिन्न - भिन्न प्रकार के होते हैं । इस प्रकार राजनीतिक प्रभावों का असमान वितरण होता है या रहता है ।

४ ) संघर्षपूर्ण उद्देश्यों का समाधान राजनीतिक व्यवस्था में अनेक हितों और उद्देश्यों वाले व्यक्ति होते हैं । प्रायः इन व्यक्तियों के हितों का संघर्ष चलता रहता है ; समाज इस संघर्ष में सामंजस्य भी बिठाता रहता है लेकिन कई बार यह संघर्ष माज के समाधान के सीमाओं से बाहर निकल जाता है । ऐसी अवस्था में राजनीतिक व्यवस्था हस्तक्षेप कर इसका समाधान नहीं करती है । राजनीतिक व्यवस्था में संघर्षपूर्ण उद्देश्यों में समाधान की प्रक्रिया निम्न प्रकार चलती है राजनितिक व्यवस्था में अनेक प्रकार की माँगे आती रहती हैं । सभी मांगों का समाधान कर सकना किसी भी व्यवस्था के लिए सम्भव नहीं होता है । कई बार माँगे परस्पर विरोधी होती है । ऐसी माँगों का रूपान्तरण करके हर अवस्था में निर्णय लेना होता है । यह निर्णय अधिकाधिक होने के कारण माँगो के संघर्ष को समाप्त करने में सक्षम होता है , किन्तु आवश्यकता पड़ने पर राजनीतिक व्यवस्था अपनी बाध्यकारी शक्ति का भी प्रयोग कर सकती है ।

५ ) वैधता या औचित्य की प्राप्ति शासकों में जनता का सहज विश्वास ही राजनीतिक व्यवस्था को औचित्यता प्रदान करता है । यही कारण है कि हर राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक शक्ति के धारक इस शक्ति का इस प्रकार से प्रयोग करते है जिससे जनता की आस्था उसमें बनी रहे क्योंकि अगर जनता राजनीतिक शक्ति के धारकों को औचित्यतायुक्त नहीं मानती तो व्यवस्था अधिक दिनों तक नही बनी रहती , चाहे वह तानाशाही राजनीतिक व्यवस्था हो , चाहे लोकतान्त्रिक । अन्तः हर राजनीतिक व्यवस्था का यह प्रयास रहता है कि वह वैधतायुक्त रहे ।

६ ) एक विचारधारा का विकास आधुनिक समय में राष्ट्रीयता के साथ एक विचारधारा को जोड़कर प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था अपने लक्ष्यों व विकास पथ का निश्चित संकेत देने का प्रयास करती है । लोगों को एकता के सूत्र में पिरोने के लिए अधिक विश्वसनीय व स्पष्ट विचारधारा का विकास होना आवश्यक है । विचारधारा के आधार पर ही प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था का अपना पृथक व्यक्तित्व बना रहा सकता है । वर्तमान समय में विचारधारा के आधार पर ही राजनीतिक दलो का निर्माण होता है और जनता इसी आधार पर दल विशेष को समर्थन देकर एक विशिष्ट राजनीतिक व्यवस्था के निर्माण व विकास को प्रोत्साहित करती हैं । डहल विचारधारा का विकास हर राजनीतिक व्यवस्था की प्रमुख विशेषता मानते हैं । -

७ ) अन्य राजनीतिक व्यवस्थाओं से अन्तः क्रिया आज सम्पूर्ण विश्व का समाज बन गया है और राजनीतिक अवस्थाएँ अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण से अधिक प्रभावित रहने लगी हैं । इस कारण आजकल हर राजनीतिक व्यवस्था की अन्य राजनीतिक व्यवस्थाओं से अन्तःक्रिया बढ़ गई है और आज वह अन्य राजनीतिक व्वस्थाओं से अन्तः क्रियाशील रहती हैं ।

८ ) गत्यात्मकता और सजीवता राजनीतिक व्यवस्थाएँ गत्यात्मकता तथा सजीवता के लिए हुए होती है । इसका प्रमुख कारण यह है कि व्यक्तियों की आकांक्षाएँ और आवश्यकताएँ बदलती रहती है और इन बदलती परिस्थितियों के अनुरूप व्यवस्था का ढलना ही राजनीतिक व्यवस्थाओं को गतिशील तथा सजीव बनाए रखता है । परिवर्तनों के प्रति यह सचेतता और सजगता ही राजनीतिक व्यवस्था की गत्यात्मकता और सजीवता है ।

राजनीतिक व्यवस्था का समाज पर प्रभाव
राजनीतिक व्यवस्था सीधे तौर पर समाज के विकास, आर्थिक प्रगति, और सामाजिक न्याय को प्रभावित करती है। एक मजबूत और न्यायपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था से नागरिकों को सुरक्षा मिलती है, उनके अधिकार सुरक्षित रहते हैं, और वे अपने जीवन को बेहतर बना सकते हैं। इसके विपरीत, कमजोर या भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था से समाज में असमानता, हिंसा, और अव्यवस्था बढ़ती है।

राजनीतिक व्यवस्था की चुनौतियां
राजनीतिक व्यवस्था को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है जैसे भ्रष्टाचार, सत्ता का दुरुपयोग, सामाजिक असमानता, और जनभागीदारी की कमी। इन चुनौतियों से निपटने के लिए राजनीतिक व्यवस्था को समय-समय पर सुधार और परिवर्तन की आवश्यकता होती है।

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