तुलनात्मक राजनीति ( Comparative Politics ) 1 to 11

 तुलनात्मक राजनीति ( Comparative Politics )

प्रश्न १ : तुलनात्मक राजनीति का आशय / अभिप्राय / अर्थ स्पष्ट कीजिए ।

उत्तर : ( A ) प्रस्तावना : राजनीति विज्ञान में तुलनात्मक अध्ययन कोई नवीन व क्रांतिकारी मोड़ नही है । जब से में राजनीति व राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन आरंभ हुआ , तब से ही तुलनात्मक अध्ययन किया जाता रहा है , परंतु तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययन का व्यवस्थित प्रारंभ असरस्तू से ही माना जाता है । अरस्तू से लेकर अब तक अनेक राजनीतिशास्त्रियों ने राजनीतिक व्यवहार व वर्गीकरण किया है और दिन - प्रतिदिन नये - नये शोध उपकरणों की खोज से नवीन दृष्टिकोणों व उपागमों का प्रतिपादन किया जा रहा है ।

( A ) प्रस्तावना

( B ) तुलनात्मक राजनीतिः अर्थ एवं परिभाषा

( i ) परंपरागत परिप्रेक्ष्य के अंतर्गत तुलनात्मक राजनीति का अर्थ व परिभाषाएँ

( ii ) आधुनिक परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक राजनीति | का अर्थ व परिभाषाएँ .

में यद्यपि तुलनात्मक राजनीति का सामान्य अर्थ “ विदेशी सरकारों का संवैधानिक अध्ययन " ( Constitutional Study of Foreign Governments ) है , किंतु आधुनिक राजनीतिशास्त्र संपूर्ण विश्व की राजनीतिक पद्धति की कल्पना करता है और उसे एक सत्य मानकर नवीन पद्धतियों के माध्यम से उसका विश्लेषण करना चाहता है । यह सत्य है कि “ संविधानों का तुलनात्मक अध्ययन ” या “ विदेशी सरकारों का अध्ययन " जैसे विषयों से ही आधुनिक तुलनात्मक राजनीति को प्रेरणा मिली है , फिर भी तुलनात्मक राजनीति , आधुनिक राजनीति , आधुनिक राजनीति के परिवर्तित दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करती है । को समझने व समझाने के लिये राजनीतिक व्यवस्थाओं का अध्ययन , विश्लेषण |

( B ) तुलनात्मक राजनीति अर्थ एवं परिभाषा : मोटे तौर पर एक प्रकार की राजनीतिक प्रक्रिया की अन्य प्रकार की ( उसी प्रक्रिया के समान या उससे भिन्न ) राजनीतिक प्रक्रियाओं से तुलना कर , उनको क्रियाशील बनाने वाले कारणों का व्यवस्थित विश्लेषण कर संपूर्ण राजानीतिक व्यवहार को समझने के लिये सामान्यीकरण का प्रयत्न ही तुलनात्क राजनीति कहा जाता है । तुलनात्मक राजनीति के अर्थ के संबंध में विद्वान एकमत नहीं है । मोटे रूप से इस मतभेद को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है । प्रथम - परंपरागत व द्वितीय आधुनिक परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक राजनीति का अभिप्राय

( i ) परंपरागत परिप्रेक्ष्य के अंतर्गत तुलनात्मक राजनीति का अर्थ व परिभाषाएँ : राजनैतिक संस्थाओं व सरकारों के अध्ययन के प्रारंभिक प्रयासों को तथा उसके बाद के कुछ अध्ययनों को तुलनात्मक राजनीति का नाम दिया जाता है । बार्कर , लॉस्की , कार्ल जे- फ्रेडरिक , मुनरो , हरमन फाईनर आदि विद्वानों में तुलनात्मक पद्धति का प्रयोग कर , यूरोप की संवैधानिक संस्थाओं की तुलनात्मक व्याख्या की - किंतु ये अध्ययन मुख्यतः व्यवस्थाओं की सरकारों के स्वरूपों के वर्णन तक ही सीमित थे । इसी तरह परंपरागत तुलनात्मक राजनीति के अंतर्गत मुख्यतः पश्चिमी लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है , जबकि अलोकतांत्रिक , औपनिवेशिक व्यवस्थाओं व दूसरे पिछड़े हुए राजनीतिक क्षेत्रों को अध्ययन की परिधि से अलग रखा गया है । यही नहीं , इसमें केवल राजनीतिक व्यवहार पर ही ध्यान केंद्रित किया गया है और शासन संस्थाओं के अराजनीतिक आधारों की अनदेखी कर दी गई है । स्पष्ट है , परंपरागत परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक राजनीति से अभिप्राय " तुलनात्मक सरकारों का अध्ययन है ” ।

जी.के. राबर्ट्स - - ' तुलनात्मक संरकार राज्यों , उनकी संस्थाओं व सरकारों के कार्यो का अध्ययन है , जिसमें शायद , राज्य क्रिया से . अत्याधिक निकट का संबंध रखने वाले पूरक समूह हो- राजनीतिक दल व दबाव समूहों का भी अध्ययन सम्मिलित है । " .

जीन ब्लोन्ड्रेल के शब्दों में- " तुलनात्मक सरकार समकालीन विश्व में राष्ट्रीय सरकारों के प्रतिमानों का अध्ययन है । " इस प्रकार स्पष्ट है परंपरागत परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक राजनीति के आशय मुख्यतः राज्य से संबंधित औपचारिक संस्थाओं के तुलनात्मक अध्ययन से है । इसमें राजनीतिक दल और दबाव समूहों के अध्ययन को भी सम्मिलित किया गया है , लेकिन इसमें संपूर्ण राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन नहीं किया जाता है ।

( ii ) आधुनिक परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक राजनीति का अर्थ व परिभाषाएँ : इस दृष्टिकोण के अंतर्गत तुलनात्मक राजनीति का संबंध राजनीतिक व्यवहार की संपूर्णता के अध्ययन से है । इसमें सरकारों व राजकीय संस्थाओं का अध्ययन तो स्वत : ही सम्मिलित रहता है , परंतु इसके अतिरिक्त इसमें उन प्रभावों व प्रक्रियाओं में अध्ययन भी सम्मिलित किया जाता है जिससे सरकारों का व्यवहार इस या उस प्रकार का बनता है । इसकी प्रमुख परिभाषायें निम्नानुसार है - एडवर्ड ए . फ्रीमैन " तुलनात्मक राजनीतिक सरकारों के विविध प्रकारों का व विभिन्न राजनीतिक संस्थाओं का तुलनात्मक विश्लेषण है । " जी.के. रॉबर्ट्स- " तुलनात्क राजनीति वृहत्तर क्षेत्र का संकेतक है , जिसमें तुलनात्मक सरकारों व गैर राजकीय व राजनीति कबीलों , संप्रदायों , व गैर राजकीय संगठनों की राजनीति का भी अध्ययन किया जाता है । " आर . ब्रायबन्ती - " तुलनात्मक राजनीति , सामाजिक व्यवस्था में उन तत्वों की पहचान तथा व्याख्या है जो राजनीतिक कार्यों एवं उनके संस्थागत प्रकाशन को प्रभावित करते है । " एम . कर्टिस " तुलनात्मक राजनीति का संबंध राजनीतिक संस्थाओं की कार्यविधि व राजनीतिक व्यवहार की महत्वपूर्ण निरंतरताओं , समानताओं , और असमानताओं से है । " ( इस प्रकार स्पष्ट है आधुनिक परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक राजनीति से आशय राजनीतिक संस्थाओं व राजनीतिक व्यवहार की समानताओं - असमानताओं के अध्ययन से हैं ।

प्रश्न २ : तुलनात्मक सरकार ( शासन ) और तुलनात्मक राजनीति में अंतर स्पष्ट कीजिये ।

उत्तर : सामान्यतः तुलनात्मक राजनीति को " तुलनात्मक शासन . " या " तुलनात्मक सरकार " का पर्याय समझ लिया जात है । दोनो का ही संबंध राजनीति से होने के कारण इनका एक दूसरे के लिये अदल बदल कर प्रयोग करना कुछ स्वाभाविक ही है । किंतु दोनो एक नही है , वरन् अलग अलग है । एडवर्ड फ्रीमैन के शब्दों में “ तुलनात्मक शासन का रूप सीमित है , जबकि तुलनात्मक राजनीति का क्षेत्र बहुत व्यापक है । " इन दोनों के बीच सामान्यत : निम्न अंतर पाया जाता है -

१ ) विषय क्षेत्र संबंधी : तुलनात्मक राजनीति का क्षेत्र , तुलनात्मक सरकार से अधिक व्यापक है । तुलनात्मक शासन में जहाँ विभिन्न राजनीतिक व्यवस्थाओं , उनकी संस्थाओं तथा कार्यो का अध्ययन किया जाता है , वहीं तुलनात्मक राजनीति में इन विषयों के अतिरिक्त उन सभी बातों का अध्ययन होता है , जो गैर राजकीय राजनीति से संबंधित है ।

२ ) उत्पत्ति ( जन्म ) संबंधी अंतर तुलनात्मक शासन की उत्पत्ति अरस्तू के समय से मानी जाती है । सर्वप्रथम अरस्तू ने १५८ देशों के संविधानों ( सरकारों ) का तुलनात्मक अध्ययन किया था , जबकि तुलनात्मक राजनीति का जन्म या उत्पत्ति , द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् व्यवहारवादी अध्ययन से मानी जाती है । जबकि

३ ) मूल्य संबंधी भेद तुलनात्मक शासन के समर्थक विद्वान " मूल्य सापेक्ष दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करते है , तुलनात्मक राजनीति के समर्थक विद्वान ' मूल्य निरपेक्ष ' ( Value free ) दृष्टिकोण के समर्थक माने जाते है ।

४ ) अध्ययन के स्वरूप संबंधी भेद : तुलनात्मक सरकार के अध्ययन का स्वरूप औपचारिक है , जबकि तुलनात्मक राजनीति का अनौपचारिक । तुलनात्मक शासन में सरकार की औपचारिक संस्थाओं जैसे व्यवस्थापिका , कार्यपालिका और न्यायपालिका का अध्ययन किया जाता है , जबकि तुलनात्मक राजनीति में औपचारिक संस्थाओं के अलावा हित समूहों , दबाव समूहो , व्यक्तियों , कबीलों आदि का अध्ययन भी किया जाता है ।

५ ) भविष्यवाणी संबंधी अंतर तुलनात्मक राजनीति में भविष्यवाणी की जा सकती है और ऐसी भविष्यवाणीयाँ सत्यता के करीब होती है , जबकि तुलनात्मक शासन में ऐसा कर पाना संभव नहीं है ।तुलनात्मक सरकारों का अध्ययन वर्णनात्मक है , जबकि तुलनात्मक राजनीति का अध्ययन विशलेषणात्मक है । तुलनात्मक सरकार के अध्ययन में आधारभूत संरचनाओं ( दबाव समूह , राजनीतिक दल , जाति , भाषा ) की ओर विशेष ध्यान नही दिया जाता है , जबकि तुलनात्मक राजनीति में आधारभतू संरचनाओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है ।.

प्रश्न ३ : तुलनात्मक राजनीति की प्रकृति तथा क्षेत्र की व्याख्या कीजिये ।

उत्तर : ( A ) तुलनात्मक राजनीति की प्रकृतिः आधुनिक तुलनात्मक राजनीति की प्रकृति के संबंध में मुख्यतः निम्नलिखित तथ्य प्रस्तुत किये जा सकते हैं . (

A ) तुलनात्मक राजनीति की प्रकृति

( i ) तुलनात्मक राजनीति एक लम्बवत तुलना है

१ ) तुलनात्मक राजनीति पश्चिमी , गैर - पश्चिमी और साम्यवादी देशों | की संस्थाओं का तुलनात्मक विश्लेषण है । २ ) यह विविध राजनीतिक संरचनाओं के साथ - साथ अराजनीतिक

( ii ) तुलनात्मक राजनीति एक अनुप्रस्थ तुलना है संरचनाओं और उनके प्रभावों का अध्ययन है ।

( B ) तुलनात्मक राजनीति का क्षेत्र

( १ ) सीमा संबंधी विवाद

( i ) कानूनी दृष्टिकोण

( ii ) व्यवहारवादी दृष्टिकोन

( २ ) मानको व व्यवहार के संबंधों का विवाद

( ३ ) वर्तमान अध्ययन क्षेत्र

( i ) विश्लेषणात्मक आनुभविक खोज

( ii ) अवसंरचना का अध्ययन

( iii ) विकासशील समाजों के अध्ययन पर बल

( iv ) अंतः शास्त्रीय उपागम

( v ) मूल्यविहीन राजनीतिक सिद्धांत

३ ) इसमें राजनीतिक संस्थाओं की अपेक्षा , मानव स्वभाव , उसकी | परिस्थितियाँ तथा उसके व्यवहार के अध्ययन को अधिक महत्व दिया जाता है ।

४ ) इसमें राजनीतिक कार्यकलाप , राजनीतिक प्रक्रिया और राजनीतिक सत्ता का अध्ययन किया जाता है ।

५ ) विभिन्न राजनीतिक प्रणालीयों के मूल्यों की तुलना की जाती है । उपर्युक्त तथ्यों के बावजूद इसकी प्रकृति के संबंध में विद्वानों में | मतभेद है । मोटे रूप से इसकी प्रकृति संबंधी विचारों के दो प्रमुख दृष्टिकोणों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है

( i ) तुलनात्मक राजनीति एक लम्बवत तुलना है ( Vertical | Comparative Study ) : इस दृष्टिकोण के समर्थक विद्वानों के अनुसार | तुलनात्मक राजनीति एक ही देश में स्थित , विभिन्न स्तरों पर स्थापित सरकारों व उनको प्रभावित करने वाले राजनीतिक व्यवहारों का तुलनात्मक विश्लेषण व अध्ययन है । प्रत्येक राज्य में कई स्तरों पर सरकारे होती हैं जैसे - राष्ट्रीय सरकार , प्रांतीय सरकार , स्थानीय सरकार आदि । इस दृष्टिकोण के अनुसार तुलनात्मक राजनीतिक का संबंध , इस प्रकार की एक ही देश में स्थित विभिन्न सरकारों ( राष्ट्रीय , प्रांतीय व स्थानीय ) की आपस में तुलना से है । तुलनात्मक राजनीति एक ही देश की विभिन्न सरकारों की लंबात्मक ( Vertical ) तुलना है । किंतु यह दृष्टिकोण तर्क संगत नहीं है । राष्ट्रीय सरकार और स्थानीय सरकारों के बीच पायी जाने वाली समानता सतही है । आर्थिक साधनों के स्त्रोंत , आकार , व संभावनाओं की दृष्टि से देखो तो दोनों में काफी अंतर पाया जाता है । राष्ट्रीय सरकार के नियम व कानून स्थानीय सरकारों की तुलना में अधिक कठोर होते हैं और उनका पालन भी अधिक दृढ़ता से कराया जाता है । इन भिन्नताओं के कारण तुलनात्मक राजनीति में एक ही देश विभिन्न स्तरीय सरकारों का तुलनात्मक विश्लेषण संभव दिखायी दे भी सामान्यीकरण की संभावनायें नही रखता । अतः तुलनात्मक राजनीति की व्याख्या एक लम्बात्मक अध्ययन व तुलना के रूप में नहीं की जा सकती ।

( ii ) तुलनात्मक राजनीति एक अनुप्रस्थ तुलना है : ( Horizontal Comparative Study ) : तुलनात्मक राजनीति की प्रकृति संबंधी द्वितीय धारणा के अनुसार " यह राष्ट्रीय सरकारों की क्षैतिजीय / अनुप्रस्थ तुलना है । " अधिकांश राजनीति शास्त्री इस धारणा से सहमत है । ऐसी तुलना दो प्रकार से हो सकती है

१ ) एक ही देश में विभिन्न कालों में विद्यमान राष्ट्रीय सरकारों की आपस में तुलना ।

२ ) उन राष्ट्रीय सरकारों की आपस में तुलना , जो आज संपूर्ण विश्व में विद्यमान है ।

तुलनात्मक राजनीति की प्रकृति संबंधी सर्वमान्य धारणा आज यही है कि यह समकालीन विश्व में प्रचलित राष्ट्रीय • सरकारों का तुलनात्मक अध्ययन है । जीन ब्लोन्डेल के अनुसार " हमारे पास तुलनात्मक सरकारों के अध्ययन का केवल एक .ही दृष्टिकोण शेष बचता है , और वह है समकालीन विश्व की राजनीतिक व्यवस्थाओं से संबंधित राष्ट्रीय सरकारों का राष्ट्रीय सीमाओं के आर - पार अध्ययन करना । " वास्तव में ऐसी ही तुलना से न केवल सामान्यीकरण ही संभव है , वरन् राजनीतिक व्यवहार के संबंध में ऐसे सिध्दांतों का प्रतिपादन भी किया जा सकता है , जिनसे हर देश की राजनीतिक व्यवस्था को समझा जा सके " ।

तुलनात्मक राजनीति की प्रकृति के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि तुलनात्मक राजनीति एक स्वतंत्र अनुशासन है , जो राजनीति विज्ञान में एक महत्वपूर्ण शाखा बन गया है । यद्यपि इसका अध्ययन भी राजनीतिक संस्थाओं से संबंधति राजनीति से है तथापि यह राजनीति विज्ञान के इस अर्थ में भिन्न है कि इसमें राज्य व गैर - शासकीय राजनीति दोनो का ही अध्ययन सम्मिलित होता है । तुलनात्मक राजनीति एक ही देश की राष्ट्रीय सरकारों का ऐतिहासिक संदर्भ व राष्ट्रीय सीमाओं के आर - पार तुलनात्मक अध्ययन ही नहीं है , अपितु इसके साथ - साथ राजनीतिक प्रक्रियाओं व राजनीतिक व्यवहार तथा सरकारी तंत्रो को प्रभावित करने वाली गैर शासकीय व्यवस्थाओं का भी तुलनात्मक अध्ययन है । "

( B ) तुलनात्मक राजनीति का क्षेत्र : तुलनात्मक राजनीति का विषय क्षेत्र अभी भी संक्रमण की अवस्था में है । इसके विषय क्षेत्र का निर्माणात्मक अवस्था में होने के कारण ही जी.के. राबर्ट्स ने अपने लेख " Comparative politics today " में लिखा है कि " तुलनात्मक राजनीति सब कुछ है या वह कुछ भी नहीं है । " क्योंकि इसके विषय क्षेत्र में एक सीमा के बाद विस्तृतता इसे राजनीति विज्ञान के अनुरूप बना देती है तथा दूसरी तरफ , इसके क्षेत्र की अत्यधिक संकुचित अवधारणा इसे स्वतंत्र अनुशासन की अवस्था से ही वंचित कर देती है । हैरी एक्स्टीन का मत है कि " तुलनात्मक राजनीति के विषय क्षेत्र के संबंध में विद्वानों में गंभीर मतभेद है । उन्हीं के शब्दों में सबसे अधिक आधारभूत बात तुलनात्मक राजनीति के बारें में यह है कि आज यह एक ऐसा विषय है कि जिसमें अत्याधिक विवाद है , क्योंकि यह संक्रमण स्थिति में हैं- एक प्रकार की विश्लेषण शैली से दूसरे प्रकार की शैली में प्रस्थान कर रहा है । इससे स्पष्ट होता है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का विषय क्षेत्र भी इसके अर्थ प्रकृति की तरह विवाद का विषय है । इसके विषय क्षेत्र को लेकर परंपरावादियों व आधुनिक राजनीतिशास्त्रियों में गहरा मतभेद है । जीन ब्लोंडेल के अनुसार यह विवाद दो बातों से संबंधित है । पहला , तुलनात्मक राजनीति की सीमा से संबंधित है और दूसरा , मानको व व्यवहार के पारस्परिक संबंधों से संबंधित है । यथा

( १ ) सीमा संबंधी विवाद : सभी राजनीति वैज्ञानिक इस बात पर सहमत है कि तुलनात्मक राजनीति का संबंध राष्ट्रीय सरकारों से है और इसमें से भी केवल सरकारी ढाँचो का ही अध्यययन नही अपितु गैर - सरकारी संस्थाओं के कार्यो का भी अध्ययन सम्मिलित रहता है । लेकिन उनमें विवाद इस बात को लेकर है कि तुलना से संबंधित राजनीतिक कार्यकलापों से क्या अर्थ समझा जाये ? अर्थात् सरकार की क्रियाओं की व्याख्या किस ढंग से की जावे ? इस संबंध में दो दृष्किोण प्रचलित है कानूनी दृष्टिकोन व व्यवहारवादी दृष्टिकोण ।

( i ) कानूनी दृष्टिकोण ( Legalistic Approach ) : इस दृष्टिकोन के अनुसार तुलनात्मक राजनीति में केवल संविधान द्वारा स्थापित सरकारी संरचना का , तथा संविधान द्वारा नियत किये गये राजनीतिक व्यवहार का तुलनात्मक अध्ययन ही किया जाना चाहिये । इस दृष्टिकोन के समर्थक यह मानते है कि संविधान ही शासन के ढाँचे का संगठन करता है और इसी के द्वारा हर संस्था के कार्यों का नियमन होता है । इसलिये तुलना राष्ट्रीय सरकारों के आधार , संविधान व उनके द्वारा नियत कार्यकलापों की ही होनी चाहिये । लेकिन आलोचकों की मान्यता है कि इस प्रकार की तुलना केवल सतही और बनावटी होगी । उदाहरणार्थ यदि कानूनी ढंग से ब्रिटिश संविधान का अध्ययन किया जावे तो आज वहाँ हम निरंकुश राजतंत्र पायेगें , जबकि व्यवहार में उसका लोकतंत्रीकरण हो चुका है ।

( ii ) व्यवहारवादी दृष्टिकोण ( Behavioural Approach ) : जीन ब्लोंडेल ने तो राजनीति के व्यावहारिक पक्ष को आधारित व मौलिक माना है । तुलनात्मक राजनीति में केवल कानूनी संस्थाओं का औपचारिक अध्ययन व तुलना पर्याप्त नही है । व्यवहारवादियों के अनुसार तुलनात्मक राजनीति में राजकीय संस्थाओं व गैर - राजकीय संस्थाओं को राजनीतिक व्यवहार से संबंधित सब तथ्य एकत्रित करके विभिन्न राजनीतिक व्यवस्थाओं में तुलना करनी चाहिये । तुलनात्मक राजनीति का संबंध मुख्यतया शासन क्रिया के इर्द - गिर्द घूमते राजनीतिक व्यवहार के तुलनात्मक अध्ययन से है ।

( २ ) मानको व व्यवहार के संबंधों का विवाद : इस दृष्टिकोन के अनुसार मानकों की अभिव्यक्ति कानूनों प्रक्रियाओं व नियमों में होती है । परंतु राजनीतिक व्यवहार कई बार इन कानूनों के प्रतिकूल होता है और यही तुलनात्मक अध्ययन में जटिलतायें या बाधायें उत्पन्न करता है । यदि राजनीतिक व्यवहार मानकों के अनुकूल रहे तो तुलना करना होता है , किंतु आम तौर पर ऐसा नहीं होता है । राजनीतिक व्यवहार को तुलना से बाहर रखना , राजनीतिक व्यवस्थाओं की वास्तविकताओं से दूर रहना है । अतः तुलनात्मक राजनीति में यह भी देखा जाना चाहिये कि राजनीतिक व्यवहार मानकों के अनुकूल है या प्रतिकूल । वस्तुतः मानक व व्यवहार दोनों ही अचल नही रहते , क्यों कि दोनों ही गत्यात्मक है । मानक में परिवर्तन , व्यवहार में परिवर्तन लाता है और स्वयं व्यवहार भी नवीन मानको की स्थापना का कारण बन सकता है । संक्षेप में तुलनात्मक राजनीति में न केवल शासन तंत्रों व संगठनों की तुलना की जाती है और न ही मानक व व्यवहारों के संबंधों का विश्लेषण मात्र ही किया जाता है , वरन् इसके क्षेत्र में इन दोनो का ही समावेश है । S

( ३ ) वर्तमान अध्ययन क्षेत्र : वर्तमान समय में तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन क्षेत्र में निम्न विषयों के अध्ययन पर विशेष बल दिया जाता है में

( i ) विश्लेषणात्मक आनुभविक खोज ( Analytical and Empirical ) : इसके अंतर्गत अध्येता स्वयं राजनीतिक संस्थाओं और संरचनाओं की बजाय उसमें क्रियाशील कार्यकर्ताओं ( Political actors ) के व्यवहार का अध्ययन करता है ।

( ii ) अवसंरचना का अध्ययन ( Study of the Infra Structure ) : तुलनात्मक राजनीति का अध्येता औपचारिक संरचना की बजाय नव संरचनाओं के अध्ययन को अधिक महत्व देता है । वह कार्यपालिका , विधायिका , न्यायपालिका के साथ - साथ राजनीतिक दलों , दबाव गुटों , मतदान व्यवहार , लोकमत , आदि के अध्ययन पर ध्यान कें करता है ।

( iii ) विकासशील समाजों के अध्ययन पर बल ( Emphasis on the Study of Developing Societ ies ) : इसके अंतर्गत विकसित पश्चिमी देशों की शासन प्रणालियों के अध्ययन के साथ - साथ गरीब और पिछड़े हुये एफ्रो एशियाई जगत की सरकारों के अध्ययन पर भी बल दिया जाता है ।

( iv ) अंतःशास्त्रीय उपागम ( Focus on Interdisciplinary Approach ) : इसके अंतर्गत अध्ययन कर्ताओं ने समाजशास्त्र , मनोविज्ञान , अर्थशास्त्र , नृविज्ञान ( Anthropology ) , जीव विज्ञान आदि का भी अध्ययन किया है । इस विषय के अंतर्गत विद्वानों द्वारा अंतःशास्त्रीय उपागम अपनाने के कारण यह कहा जा सकता है कि राजनीतिशास्त्र के क्षेत्र में एक प्रकार की क्रांति आ गई है ।

( v ) मूल्यविहीन राजनीतिक सिद्धांत ( Value free Political theory ) : इस विषय का संबंध वस्तुओं के आदर्श रूप से न होकर उनके वास्तविक रूप से है , अतः तुलनात्मक राजनीति में मूल्य - मुक्त राजनीतिक सिद्धांत ने मूल्य युक्त * सिद्धांत का स्थान ग्रहण कर लिया है । हाल ही में तुलनात्मक राजनीतिक के अध्ययन क्षेत्र में निरंतर वृद्धि हो रही है । अब लार्ड ब्राईस का यह कथन उचित ही प्रतीत होता है कि " अब लगता है , समय आ गया है , जब सरकार की वास्तविकताओं का उनके विभिन्न रूपों में अन्वेषण किया जाय । "

प्रश्न ४ : तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन का महत्त्व स्पष्ट कीजिए ।

उत्तर : तुलनात्मक राजनीति का अध्ययन का महत्त्व निम्नप्रकार है

( १ ) राजनीतिक व्यवहार को समझना

( २ ) राजनीतिक व्यवस्थाओं की समानताओं और विभिन्नताओं को समझना

( ३ ) किसी भी राजनीतिक व्यवस्था के सन्दर्भ

( ४ ) राजनीतिक प्रणालियों के गुण - दोषों का ज्ञान

( ५ ) राजनीति को वैज्ञानिक अध्ययन बनाना

( ६ ) प्रचलित राजनीतिक सिद्धान्तों का पुनः प्रामाणिकता

( ७ ) राष्ट्रों के घनिष्ठ सदस्यों के कारण तुलना आवश्यक

( ८ ) राजनीतिक वास्तविकता के अध्ययन के लिए

( ९ ) राजनीति में सिद्धान्त निर्माण

( १ ) राजनीतिक व्यवहार को समझना शासन और राजनीति के तुलनात्मक अध्ययन से राजनीतिक व्यवहार को समझने में सहायता मिलती है । तुलनात्मक अध्ययन द्वारा राष्ट्रीय , अन्य राष्ट्रों तथा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एवं राजनितिक व्यवहारों को समझा जा सकता है । तुलनात्मक अध्ययन से ही यह ज्ञात होता है कि विभिन्न समजों के लोगों का राजनीतिक व्यवहार परस्पर भिन्न क्यों होता है । प्राचीनकाल में साधारण जनता राजनीति में कोई रुचि नहीं लेती थी जबकि आधुनिक युग में जनता इसमें रुचि लेती है । अब राजनीति कुछ लोगों या विशेष वर्गों तक सीमित क्रिया नहीं रह गई है । अब इसमें लाखों , करोड़ों व्यक्ति भाग लेते हैं । अब राजनीतिक गतिविधियाँ हर व्यक्ति को प्रभावित करने के साथ - साथ उसको विशेष प्रकार का व्यवहार करने के लिए भी बाध्य करती है । इसलिए सभी प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं में साधारण व्यक्ति अधिक रुचि लेने लगा है । तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययन आम जनता को विभिन्न | स्तरों पर घटने वालो राजनीतिक घटना क्रमों का ज्ञान कराता है ।

( २ ) राजनीतिक व्यवस्थाओं की समानताओं और विभिन्नताओं को समझना व्यवहार में राजनीतिक संस्थाओं के नाम एक जैसे पाये जाने पर भी उसके कार्यों में अन्तर होता है । उदाहरण का ज्ञान के लिए अमरीका , फ्रांस और भारत में कार्यपालिका अध्यक्ष राष्ट्रपति कहलाता है परन्तु इन तीनो देशों में राष्ट्रपति के कार्य और शक्तियाँ एक | जैसे नहीं है । इसी प्रकार चीन और क्यूबा में एकमात्र साम्यवादी दल | पाया जाता है परन्तु दोनों देशों के दल की स्थिति एक जैसी नहीं है । | राजनीतिक संस्थाओं के इस व्यावहारिक रूप को समझने के लिए | शासन और राजनीति का तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक है ।

( ३ ) किसी भी राजनीतिक व्यवस्था के सन्दर्भ का ज्ञान - शासन और राजनीति का तुलनात्मक अध्ययन किसी भी राजनीतिक व्यवस्था के सन्दर्भ को समझने में सहायक है । उदाहरणार्थ यह प्रश्न उठता है कि संसदीय शासन प्रणाली ब्रिटेन में स्थायित्व लाने में सफल रही , जबकि फ्रांस में अस्थिरता का कारण बनी । ब्रिटेन , अमेरिका , आस्ट्रेलिया में दो दलीय प्रणाली हैं जबकि भारत , फ्रांस में बहुदलीय प्रणाली है । एशिया - अफ्रीका के अनेक देशों में अधिनायकवाद क्यों पाया जाता है जबकि भारत में लोकतन्त्र है । इन प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए विभिन्न राजनीतिक संस्थाओं के सन्दर्भ का ज्ञान आवश्यक है जो शासन और राजनीति के तुलनात्मक अध्ययन से ही प्राप्त किया जा सकता है ।

( ४ ) राजनीतिक प्रणालियों के गुणों - दोषों का ज्ञान शासन और राजनीति के तुलनात्मक अध्ययन से विभिन्न राजनीतिक प्रणालियों के गुण - दोषों का ज्ञान होता है । तुलनात्मक अध्ययन से यह पता चलता है कि रूस के अन्दर साम्यवादी व्यवस्था क्यों असफल रही जबकि चीन में साम्यवादी व्यवस्था अभी जारी है । साम्यवादी व्यवस्था के गुण - दोष क्या है ? भारत में लोकतन्त्र सफल रहा है , पाकिस्तान में उतना सफल नहीं रहा , जबकि दोनों एक साथ अंग्रेजी शासन से मुक्त हुए । इसका ज्ञान तुलनात्मक अध्ययन से हो सकता हैं ।

( ५ ) राजनीति को वैज्ञानिक अध्ययन बनाना अरस्तू के समय से ही राजनीति शास्त्र के विद्वानों का प्रयास राजनीति को विज्ञान बनाना रहा है । राजनीति शास्त्र को विज्ञान बनाने के लिए वैज्ञानिक पद्धतियों का प्रयोग आवश्यक है और वैज्ञानिक पद्धतियों में तुलनात्मक पद्धति महत्त्वपूर्ण मानी जाती है । इसमें तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययन सहायक है । तुलनात्मक राजनीति , राजनीतिक प्रक्रियाओं का प्रयोग करके तथ्य व आंकडे एकत्रित करता है । १ ९ ४५ के बाद से व्ययवहारवाद तुलनात्मक राजनीति को विज्ञान का रूप देने में सहायक है । एम . कर्टिस के शब्दों में जब से व्यवहारवादी दृष्टिकोण का प्रचलन हुआ तब से आज तक राजनीति शास्त्र की वैज्ञानिकता की खोज की आधुनिकतम अभिव्यक्ति हम तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययन में ही पाते हैं । "

( ६ ) प्रचलित राजनीतिक सिद्धान्तों का पुनः प्रामाणिकता तुलनात्मक राजनीति की एक महत्त्वपूर्ण उपयोगिता यह है कि इसकी सहायता से प्रचलित राजनीति सिद्धान्तों का पुनः परीक्षण किया जा सकता है और उनकी प्रमाणिकता जाँची जा सकती है । तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाले जा सकते है कि पुराने स्थापित राजनीतिक सिद्धान्त वर्तमान की बदलती हुई परिस्थितियों में भी मान्य है अथवा नहीं और यदि मान्य हैं तो कितने उचित और कितने अनुचित हैं । तुलनात्मक राजनीति स्थापित राजनीतिक सिद्धान्तों की पुनः प्रमाणिकता जाँचने के लिए नवीन उपकरण और नये तथ्य उपलब्ध कराती है ।

( ७ ) राष्ट्रों के घनिष्ठ सदस्यों के कारण तुलना आवश्यक विज्ञान की प्रगति , संचार तथा यातायात के साधनों के विकास ने देशों की दूरियों को कम कर दिया है , जिससे देशों में परस्पर घनिष्ठता बढ़ी है । घनिष्ठता बढ़ने से एक दूसरे की शासन पद्धति , रहन - सहन , सम्बन्धों , तकनीकी आदान प्रदान में रुचि बढ़ी हैं । इसलिए तुलनात्मक अध्यययन अनिवार्य है ।

( ८ ) राजनीतिक वास्तविकता के अध्ययन के लिए राजनीतिक वास्तविकता के अध्ययन के लिए तुलनात्मक राजनीति महत्त्वपूर्ण है । तुलनात्मक अध्ययन का सम्बन्ध नई तकनीकों और उपागमों के माध्यम से राजनीतिक वास्तविकता के अध्ययन के विश्लेषण से है जिससे समस्त राजनीति का क्षेत्र इसके अन्तर्गत आ जाए ।

( ९ ) राजनीति में सिद्धान्त निर्माण तुलनात्मक अध्ययन से ही किसी शास्त्र के सिद्धान्तों का निर्माण तथा नियमों का निरूपण सम्भव है । प्राचीनकाल से ही राजनीतिशास्त्र में ऐसे सिद्धान्तों और सामान्य नियमों की खोज की जाती रही है जो सम्पूर्ण विश्व के राजनीतिक व्यवहार को मोटे रूप से समझने में सहायता करें । राजनीतिक सिद्धान्तों को सामान्यतया दो भागों में बांटा जाता है - आदर्शी सिद्धान्त तथा आनुभाविक सिद्धान्त । आदर्शी सिद्धान्त में राजनीतिक व्यवस्थाओं के बारे में मस्तिष्क में कोई कल्पना कर ली जाती है और फिर उस कल्पना को रचनात्मक रूप दिया जाता है जैसे प्लेटो ने दार्शनिक राजा की कल्पना की और फिर उसके आधार पर ही आदर्श राज्य का विचार प्रस्तृत किया । इस प्रकार का चिन्तन आदर्शी सिद्धान्तों के निर्माण में सहायक होता है तथा इसका सामान्यतया ठोस तथ्यों में विशेष सम्बन्ध नहीं होता है । परन्तु आनुभविक सिद्धान्तों में राजनीतिक व्यवहार के वास्तविक तथ्यों को समझकर सिद्धान्तों का निर्माण करणे का प्रयत्न किया जाता है । तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर प्रतिपादित कुछ सिद्धान्त इस प्रकार है

१ ) शासन की पद्धति चाहें संसदीय हो या अध्यक्षात्मक परन्तु संसद की प्रभुसत्ता व्यावहारिक रूप में नहीं पायी जाती ।

२ ) प्रत्येक राष्ट्र में नेतृत्व कुछ विशेष वर्गों तक सीमित रहता है ।

३ ) जिन देशों में उदार लोकतन्त्र नहीं होता वहाँ सैनिक शासन की सम्भावना राजनीति में बढ़ जाती हैं ।

४ ) यदि देश में संकटकाल चल रहा हो तो सामुहिक नेतृत्व सफल नहीं होगा ।

५ ) इस बात की कोई गारन्टी नहीं दी जा सकती कि लोकतांन्त्रिक शासन व्यवस्था सर्वाधिकारवादी शासन पद्धति की अपेक्षा अधिक सक्षम और कुशल होगी । इस प्रकार तुलनात्मक राजनीति का महत्त्व दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा हैं ।

प्रश्न ५ : तुलनात्मक राजनीति के विकास पर प्रकाश डालिए ।

उत्तर : राजनीतिविज्ञान में तुलनात्मक विश्लेषण की परम्परा कोई नई परम्परा नहीं है । तुलनात्मक विश्लेषण की परम्परा उतनीही पुरानी है जितना की अरस्तू का चिन्तन । यदि इसमें कुछ नयापन है तो वह है तुलनात्मक विश्लेषण के स्थान पर तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन पर बल । हैरी एक्सटीन के शब्दों में , “ तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र का अतीत लम्बा और गौरवपूर्ण है । " यह सच है कि जब राजनैतिक व्यवहार एवं राजनीति का अध्ययन करने का प्रयास आरम्भ हुआ है ; तभी से तुलनात्मक अध्ययन किये जाते रहे हैं , किन्तु इस प्रकार के अध्ययन के प्रथम प्रयास में मूलतः सरकार के औपचारिक एवं संरचनात्मक पक्ष पर ही अध्ययन केन्द्रित रहा । १ ९ वी शताब्दी के मध्य में राजनीतिशास्त्रियों में पश्चिमी विश्व के समान सांस्कृतिक एवं सामाजिक - आर्थिक पृष्ठभूमि वाले राष्ट्रों को अपने अध्ययन का केन्द्रबिन्दु बनाया । राजनीतिशास्त्र के प्रमुख प्रत्ययों की जानकारी तथा विभिन्न राजनीतिक व्यवस्थाओं में उपलब्ध समानताओं एवं विषमताओं की जानकारी हेतु तथा परम्पराओं , नेतृत्व , आर्थिक एवं सामाजिक प्रभावों तथा विभिन्न राष्ट्रों को अपनी परिस्थितियों के कारण होनेवाले परिवर्तनों के प्रभाव की जानकारी के लिए तुलनात्मक अध्ययनों की अनिवार्यता स्पष्ट प्रकट होने लगी । फलस्वरूप अरस्तू की परम्परागत • पद्धति को अस्वीकार करते हुए आधुनिक राजनीतिशास्त्रियों ने अध्ययन की विभिन्न पद्धतियां खोजने एवं सिद्धान्तो के निर्माण के लिए विभिन्न अध्ययन विज्ञानों से शब्दावली भी उधार लेने का प्रयास किया । हम अपने अध्ययन की सुविधा के लिए तुलनात्मक राजनीति के विकास को तीन चरणों में निम्नांकित रूप से देख सकते हैं :

१ ) द्वितीय महायुद्ध तक तुलनात्मक राजनीति का विकास ;

२ ) तुलनात्मक राजनीति में युद्धोत्तर विकास ;

३ ) तुलनात्मक राजनीति के विकास का वर्तमान चरण ।

१ ) द्वितीय महायुद्ध तक तुलनात्मक राजनीति का विकास - अरस्तू , मेकियावेली , मॉण्टेस्क्यू , लॉर्ड ब्राइस , डी टाक्विले , आस्ट्रोग्रोस्की , वेबर आदि के योगदान को तुलनात्मक राजनीति के विकास के इस चरण में लिया जा सकता है । तुलनात्मक संवैधानिक अध्ययन के प्रथम प्रयोग का आभास हमें अरस्तू के राजनीतिक चिन्तन मे मिलता हैं । अरस्तू ने १ ९ ५८ संविधानों का तुलनात्मक अध्ययन किया । उसने प्रत्येक काल की राजनीतिक स्थितियों का विश्लेषण करने के उपरान्त निकाले । गये निष्कर्षो के आधार पर ही राज्य के सिद्धान्तो का निरूपण किया । | अरस्तू ने राजनीतिशास्त्र को अन्य सामाजिक शास्त्रों से पृथक कर एक स्वतन्त्र शास्त्र का स्थान प्रदान किया । उसने आगमनात्मक पद्धति का और अध्ययन किया जाता है तथा वैज्ञानिक ढंग से निरीक्षण के आधार | प्रयोग किया जिसके अनुसार वस्तुस्थितियों का यथार्थ रूप में निरीक्षण । पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं । अरस्तू लिखता है कि सतर्क पर्यवेक्षण , | परीक्षण , निरीक्षण , विश्लेषण और तुलना द्वारा वस्तुओं की आंतरिक वास्तविकता को जाना जा सकता है और उद्घाटित तथ्यों से सामान्य सिद्धान्त निकाले जा सकते हैं । उसने विभिन्न राज्यों का विश्लेषण करते हुए उनकी समस्याओं और स्वरूपों का अध्ययन किया , उनके पतन का कारण ढूंढा , क्रान्तियों का पता लगाया , सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक नीतियों का तुलनात्मक भेद मालूम किया , समाज एवं राज्य के बीच सम्बन्धों का निरूपण किया और भारी संख्या में संविधानों का तुलनात्मक अध्ययन किया और यह सब कुछ करने के बाद ही राज्य के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । अरस्तू की ख्याति का मुख्य कारण यह है कि उसने राजनीतिक घटनाचक्र के अध्ययन में तुलनात्मक पद्धति को अपनाया और भूतकाल के संचित अनुभव तथा बुद्धिमत्ता का सममान किया ।

( १ ) द्वितीय महायुद्ध तक तुलनात्मक राजनीति का विकास

( २ ) तुलनात्मक राजनीति में युद्धोत्तर विकास

( ३ ) तुलनात्मक राजनीति के विकास का वर्तमान चरण

( ४ ) तुलनात्मक राजनीति के विकास पर प्रभाव

मेकियावेली का युग बौद्धिक पुनर्जागरण का युग था । बौद्धिक पुनर्जागरण के इस युग में मनुष्य को ही प्रत्येक वस्तु का मापदण्ड माना जाने लगा । मेकियावेली ने ' राज्य कला ' और ' शासन कला ' के अध्ययन पर जोर दिया । मेकियावेली का नेतृत्व विश्लेषण अनेक प्राचीन एवं तत्कालीन उदाहरणों पर आधारित था । राजनीतिक व्यवहार , शासन कला , आदि के बारे में बहुत ही गवेषणात्मक प्रश्न उठाये एक शासक किस प्रकार सफल हो सकता है ? शक्ति कैसे प्राप्त की जा सकती है ? उसे कैसे कायम रखा जा सकता है ? उसका विस्तार कैसे किया जा सकता है ? उसने नीति , न्याय , आदि के अमूर्त सिद्धान्तों पर आधारित तर्क पद्धति का परित्याग कर दिया । उसने राजनीतिक पद्धति में अनुभववाद और इतिहासवाद का समन्वय किया । मॉण्टेस्क्यू की रचना ' दी स्पिरिट ऑफ दी लॉज ' विशेष महत्व की हैं ।

मॉण्टेस्क्यू ने अनुभूतिमूलक दृष्टिकोण तथा निरीक्षण पर आधारित वैज्ञानिक - ऐतिहासिक पद्धति को अपनाया ओर राजनीतिक प्रश्नों का निरपेक्ष राजनीतिक सिद्धान्तों के आधार पर ही नहीं बल्कि वास्तविक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर विवेचन किया । उसने आगमनात्मक पद्धति का प्रयोग किया । वह ' सही सरकार ' को समाजशास्त्र और परिस्थिति के मसले के रूप में लेता था । उसकी रुचि बहुत कुछ आधुनिक मसलों में थी , जैसे- राजनीतिक व्यवस्थाओं का अपने बाह्य पर्यावरण से सम्बन्ध , आर्थिक घटकों और व्यवहारों आदि की राजनीति में भूमिका , राजनीतिक व्यवस्थाओं के वर्गीकरण की समस्याएं आदि । उसका यह विश्वास था कि मानवीय परम्पराओं संस्थाओं में जलवायु , भूमि की भौगोलिक दशाओं तथा भौतिक , सामाजिक , धार्मिक और आर्थिक परिस्थितियों के कारण बहुत भेद पाया जाता हैं । उसका यह भी विश्वास था कि मानवीय संस्थाओं , परम्पराओं और कानूनों का उद्भव एकदम किसी दैनिक स्रोत से नहीं होता , बल्कि पेड़ - पौधों की भांति अनुकूल स्थितियों में इनका शनैः शनैः विकास होता है । उसने राजनीतिक व्यवस्थाओं से सम्बन्धित पहुलओं पर विचार किया , जैसे , सांस्कृतिक मामले ( रीति - रिवाज , धर्म ) , आर्थिक तत्त्व ( व्यापार , वाणिज्य , गरीबी ) , परिस्थितिजन्य कारक ( जलवायु , भूमि , जनसंख्या ) , आदि । इस प्रकार मॉण्टेस्क्यू के ग्रन्थ में सामाजिक गतयात्मकता के सन्दर्भ में विकासात्मक सिद्धान्त का संकेत मिलता है ।

आगे चलकर लॉर्ड ब्राइस ने तुलनात्मक विधि को अपनाया और यह कहते हुए इसे वैज्ञानिक कहा , " जो इसे वैज्ञानिक बनाने के योग्य बनाता है वह यह है कि समान कारण कार्य सम्बन्ध स्थापित करके सामान्य निष्कर्ष निकाल जाते हैं । " फेडरलिस्ट पत्रों के लेखकों ने अमरीकी सन्दर्भ में निर्मित प्रावधानों की परम्परागत औपनिवेशिक एवं यूरोपीय अनुभवों के आधार पर परीक्षा की ।तुलनात्मक राजनीति के विकास के इस प्रथम चरण की प्रमुख विशेषताएं है-

( i ) अधिकांश लेखर्को ने राजनीतिक संस्थाओं की व्याख्या के लिए तुलनात्मक पद्धति का प्रयोग किया ;

( ii ) प्रारम्भिक वर्षों में तुलनात्मक राजनीति केवल नाम से ही तुलनात्मक थी ; यह तो विदेशी शासनों का अध्ययन मात्र था ;

( iii ) विदेशी सरकारों का वर्णनात्मक ऐतिहासिक तथा कानूनी अध्ययन किया जाता था ।

( २ ) तुलनात्मक राजनीति में युद्धोत्तर विकास - जी.के. रॉबर्ट्स ने लिखा है कि द्वितीय महायुध्दोपरान्त दो धाराएं प्रवाहित हुई जिन्होंने तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र को विस्तृत एवं व्यापक बनाया । इसमें पहली धारा थी तुलना की कला एवं पद्धतियों के विषय में आत्म - चेतना की वृत्ति जो इस क्षेत्र के विद्वानों के आत्म - परिक्षण के परिणामस्वरूप सामने आयी । इस धारा के प्रमुख लेखक हैक्शर , मैक्रिडिस , बीयर एण्ड उल्म आदि रहे हैं । इन लेखकों ने पर्याप्त आत्म - जागरूकता की मात्रा से तुलनात्मक विधि का उपयोग किया और उनका उद्देश्य यह रहा कि विभिन्न राजनीतिक संस्थाओं का उपयोगी अध्ययन प्रस्तुत किया जाये । वस्तुतः इस चरण मे संबंधित विद्वानों ने संस्थात्मक तुलनाओं के साधनों का जोरदार तरीकों से इस्तेमाल किया ताकि सरकारों का अधिक अच्छा अध्ययन प्रस्तुत किया जा सके । ये सभी लेखक तुलना के महत्व की विभिन्न समस्याओं जैसे , एरिया स्टडीज ( Area studies ) , संविन्यासी उपागम ( Configurative Approach ) , संस्थागत और प्रकार्यात्मक तुलनाएं ( Institutional & Functional comparisons ) , समस्यामूलक रुझान एवं प्रत्ययीकरण ( Conceptualisation ) तथा तुलना हेतु सामान्य सिद्धान्तों का निर्माण , इत्यादी सामान्य पद्धतीय समस्याओं से भली - भांति परिचित एवं निकटता से सम्बद्ध थे । विकास के इस चरण के साथ ही , तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र से बाहर राजनीतिक आधुनिकीकरण , राजनीतिक विश्लेषण , राजनीतिक समाजशास्त्र एवं अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से सम्बन्धित नयी अवधारणाओं का विकास होने लगा । इसके परिणामस्वरूप तुलनात्मक विश्लेषण में प्रत्ययीकरण पद्धति , मॉडल्स एवं व्यवहारवादी सिद्धान्तों के रूप में कृत्रिमता की वृद्धि हुई । यद्यपि इसका मूल उद्देश्य राजनीति विज्ञान के सामान्य स्वरूप में सुधार प्रस्तुत करना था किन्तु अन्ततोगत्वा इससे तुलनात्मक राजनीति भी लाभान्वित हुई ।

( ३ ) तुलनात्मक राजनीति के विकास का वर्तमान चरण : आधुनिक समय में तुलनात्मक राजनीति को समृद्ध करने वाले विद्वानों में डेविड ईस्टन , आमण्ड , कोलमैन , कार्ल डायच , जी.बी. पावेल , हेरॉल्ड लासवेल , रॉबर्ट डहल , एडवर्ड शील्स , हैरी एक्सटीन , डेविड ऐप्टर , लुसियन पाई , मायरन वीनर , आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । डेविड ईस्टन , आमण्ड तथा डायच ने तुलनात्मक विश्लेषण को एक बृहत् इकाई के रूप में ' व्यवस्था सिद्धान्त ' की दृष्टि से प्रतिपादित किया । इस व्यवस्था सिद्धान्त द्वारा आज न केवल सामाजिक व्यवस्थाओं की ही तुलना हो सकती है वरन् राजनीतिक व्यवस्था के कार्यों को सम्पूर्णता देने वाले तथा परस्पर सम्बद्ध सभी तत्वों के विभेदीकृत समुच्चय रूप में परिभाषित नयी राजनीतिक इकाइयों का समावेश भी सम्भव सका । अधिकांश अमरीकी राजनीति वैज्ञानिकों ने तुलनात्मक राजनीति के शब्द - भण्डार में अभिवृद्धि की है । डेविड ईस्टन ने निवेश , निर्गत , माँगे , समर्थन , पर्यावरण , फीडबेक , मूल्य , आदि शब्दों का प्रयोग किया । आमण्ड ने निवेश और निर्गत कार्यों के समूह दिये है और डायच ने संचार से सम्बन्धित विशिष्ट भाषा को राजनीतिक व्यवस्थाओं के बारे में लागू करके निम्नलिखित शब्दों का प्रयोग किया स्वायत्तता , स्मरण , भार , लाभ , उत्तेजना पाने वाले विभिन्न प्रकार के कोष्ठ , आदि । आमण्ड के अनुसार इस शब्दावली के प्रयोग का प्रयोजन एक प्रकार की सर्वव्यापकता प्राप्त करना है । दूसरे शब्दो में , इस , विकास प्रकार से प्रयुक्त शब्द सामान्य है , अतः इसका प्रयोग किसी भी प्रकार की राजनीतिक इकाई चाहे उसका आकार , काल , की मात्रा अथवा अन्य कारक कुछ भी हों , के बारे में किया जा सकता है ।

वर्तमान युग में शोधकर्ता को उपलब्ध पद्धतियों , शोध तकनीकों , संकल्पनाओं तथा मिडिल रेंज सिद्धान्तों का विकास लगभग विगत पच्चीस वर्षों में बहुत अधिक हुआ है । विधायिकाओं पर लोवेन्थाल एवं यंग , राजनीतिक दलों पर डुयगर , रैने एवं मैकेन्जी राजनीतिक समाजिकरण पर डेविड ईस्टन , एलीट अध्ययनों ( Elitestudies ) पर रॉबर्ट डहल , राजनीतिक संचार पर डायच , आदि के विश्लेषण उच्चकोटि के माने जाते है । तुलनात्मक राजनीति के विकास विश्लेषण के नाते ऐप्टर , रोस्टोव एवं लुसियन पाई का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है ।

( तुलनात्मक राजनीति का सबसे अधिक विकास सन् १ ९ ६ ९ को टोरिनो राउण्ड टेबिल से प्रारम्भ होता है जिसका मूल उद्देश्य तुलनात्मक विश्लेषण हेतु तुर्कसंगत एवं वैज्ञानिक आधारों की खोज करना था ; इस दृष्टि से सारटोरी का निबन्ध " Concept of Misformation in Comparative Politics " , होल्ट एवं टर्नर द्वारा सम्पादित “ The Methodol ogy of Comprative Research " . प्रेज्योरस्को तथा प्यूने की रचना " The Logic of Comparative Social Enquiry " विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।

संक्षेप में , तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र में आज उन लेखकों का योगदान महत्त्वपूर्ण माना जाता है जिन्होने अपने अध्ययन के क्षेत्रों में विकासशील देशो को शामिल करके अपने विषय के विस्तार को व्यापक बनाया है । इन विकास के स्वरूप को सिडनी वर्बा ने इस भांति प्रस्तुत किया है , “ तुलनात्मक राजनीति में बहुत से सिद्धान्तों के साथ क्रान्ति का प्रारम्भ हुआ । यथावत् वर्णन की अपेक्षा सैद्धांन्तिक दृष्टि से सम्बद्ध अन्य समस्याओं का विवेचन , एक केस के स्थान पर कई केसो पर शासन की औपचारिक संस्थाओं से परे राजनीतिक प्रक्रियाओं एवं राजनीतिक कार्यकलापों का अध्ययन एवं पश्चिमी यूरोप के दृष्टि राष्ट्रों से परे एशिया अफ्रीका एवं लैटिन अमरीका के राष्ट्रों का विश्लेषण इत्यादि ..... "

४ ) तुलनात्मक राजनीति के विकास पर प्रभाव तुलनात्मक राजनीति के विकास को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक इस प्रकार है :

i ) गैर - पश्चिमी तथ्यों की उपलब्धि - गैर पश्चिमी विकासोन्मुख राष्ट्रों में पश्चिमी संरचनाओं जैसे , नौकरशाही , राजनीतिक दल एवं दबाव समूह तथा अन्य संसदीय संस्थाओं के प्रयोग के कारण अमरीकी एवं यूरोपीय धाराओं से भिन्न परिणामों की प्राप्ति हुई । अतः यह यह आवश्यक हो गया कि एशियाई , अफ्रीकी और लैटिन अमरीकी देशों की राजनीतिक व्यवस्थाओं का अध्ययन शोध की नवीन तकनीकों के परिप्रेक्ष्य में किया जाये ।

ii ) व्यवहारवादी आन्दोलन व्यवहारवादी आन्दोलन से पूर्व राजनीतिक संस्थाओं का औपचारिक अध्ययन ही किया जाता था । व्यवहारवाद के परिणामस्वरूप नई अध्ययन पद्धतियों एवं राजनीतिक प्रक्रियाओं के अनौपचारिक पक्षों जैसे लोकमत मतदान व्यवहार , हित समूह , दबाव गुट के अध्ययन का प्रभाव स्पष्ट एवं मुखर होने लगा । इससे तुलनात्मक राजनीतिक विश्लेषण के क्षेत्र में भी एक नयी क्रान्ति आरम्भ हुई । (

iii ) समाजशास्त्रीय प्रभाव टेकॉट पारसन्स , शिल्स , आदि समाजशास्त्रियों ने राजनीतिशास्त्रियों के दृष्टिकोणों को प्रभावित किया । ईस्टन , डायच , अमण्ड आदि यह मानने लग गये कि राजनीतिक संस्थाओं के यथार्थपरक अध्ययन के लिए सामाजिक पृष्ठभूमि और पर्यावरण का अध्ययन आवश्यक है ।

iv ) बौद्धिक व्यवस्था के लिए खोज अब समाजशास्त्रीय , मनोवैज्ञानिक और मानवशास्त्रीय धारणाओं व अध्ययन योजनाओं पर निर्भर सैद्धान्तिक प्रयोग सामान्य बात हो गयी है । इसी कारण राजनीतिक संस्कृति , राजनीतिक भूमिका , राजनीतिक समाजीकरण आदि नयी धारणाओं का चलन नये अध्ययनों में खूब होने लगा है ।

प्रश्न ६ तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन की मुख्य समस्याओं को स्पष्ट कीजिए ।

उत्तर : तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन में अनेक समस्यायें आती हैं । जिनका वर्णन निमनलिखित है

( १ ) जीनस ब्लोण्डेल के अनुसार जीन ब्लोण्डेल ने अपनी पुस्तक Comparative Government में तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन के सम्बन्ध में निम्नलिखित तीन समस्याओं का उल्लेख किया है

( i ) पर्याप्त सूचना तथा तथ्यों का अभाव शासन पद्धतियों में पायी जाने वाली विभिन्नताओं और जटिलताओं के कारण इनका सरल और स्पष्ट अध्ययन करना एक कठिन कार्य है । इन विभिन्नताओं ओर जंटिलताओं के कारण किसी विशेष राजनीतिक व्यवस्था से सम्बन्धित सूचना प्राप्त करने व आंकड़े एकत्र करने में कठिनाई आती हैं । तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन में तर्थ्यो और सूचना सामग्री का बहुत महत्त्व होता है परन्तु भाषा की समस्या विशिष्ट जीवन शैली , अव्यवस्थित सामाजिक और राजनीतिक संरचना , परम्पराओं ओर रीति - रिवाजों के कारण पर्याप्त मात्रा में सूचनाओं और आँकड़ों को अभाव रहता है जिससे तुलनात्मक अध्ययन प्रभावित होता है ।

( ii ) परिवर्त्यो की अधिकता तुलनात्मक राजनीति का सही अध्ययन तभी किया जा सकता है जबकि किसी समस्या में सम्बन्धित सभी पक्षों का अध्ययन कर लिया जाये । एक राजनीतिक व्यवस्था पर सामाजिक , आर्थिक , धार्मिक ,सांस्कृतिक , वातावरणीय एवं भौगोलिक तथ्यों का प्रभाव पड़ता है । राजनीतिक व्यवस्था का अध्ययन करने के लिए इन सभी परिवय की एकत्रित करके इनका व्यवस्थित रूप से अध्ययन करना होगा । परन्तु इन सभी परिवत्य को एकत्रित करना और इनका व्यवस्थित अध्ययन करना एक कठिन कार्य है । परिवर्त्यो की परिवर्तनशीलता इस समस्या को और जटिल बना देती है । राजनीतिक व्यवस्था के सम्बन्ध में कितना भी गहन अध्ययन कर लिया जाए कोई न कोई परिवर्त्य छूट जाने की सम्भावना रहती है । इसके साथ ही विभिन्न परिवर्त्य एक दूसरे से इतने अधिक सम्बद्ध होते हैं कि उन्हें एक - दूसरे से अलग करना सम्भव नहीं होता । इसलिए भी तुलनात्मक अध्ययन प्रभावित होता है ।

( iii ) नियम , प्रतिमान और व्यवहार में सम्बन्ध तुलनात्मक राजनीति में एक समस्या नियमों , प्रतिमानों और व्यवहार से सम्बन्धित भी होते है । अनेक बार किसी विशेष प्रतिमान को स्थापित करने के लिए नियम को उसी के अनुरूप परिवर्तित किया जाता है । लेकिन उसका परिणाम यह होता है कि नागरिक उसको उसी रूप में व्यवहार में लाने में आनाकानी करते हैं । इससे नियम के निर्माण और प्रतिमान की संरचना में व्यवहार द्वारा बदलाव कर दिया जाता है । इस प्रकार किसी नियम में कितना बदलाव लाया जाए और कैसा प्रतिमान स्थापित किया जाये यह भी एक कठिन कार्य है ।

( २ ) अन्य समस्यायें जीन ब्लोण्डेल की इन समस्याओं के अतिरिक्त तुलनात्मक राजनीति की कुछ अन्य समस्यायें निम्नलिखित है

( i ) संवैधानिक व्यवस्था तथा राजनीतिक वास्तविकता के मध्य अन्तर प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में सिद्धान्त और व्यवहार में अन्तर पाया जाता है । यह तथ्य तब सामने आता है जब राजनीतिक व्यवस्थाओं का तुलनातमक अध्ययन किया जाता है । उदाहरण के लिए इंग्लैण्ड में संवैधानिक स्थिति और वास्तविक स्थिति में अन्तर पाया जाता है । वहाँ सिद्धान्त रूप में निरंकुश राजतन्त्र है जबकि व्यवहार मे संसदीय प्रजातन्त्र पाया जाता है ।

( ii ) मूल्यों तथा व्यवहार के आपसी सम्बन्धों की समस्या तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययन में मूल्यों तथा व्यवहारों के आपसी सम्बन्धों के निर्धारण की भी समस्या उत्पन्न होती है । तुलनात्मक राजनीति मे मूल्य - वे उद्देश्य , राजनीतिक दर्शन , मान्यताएँ और आस्थायें होती है जिन पर किसी समाज की राजनीतिक व्यवस्था आधारित होती है । यह मूल्य संविधानों के नियमों के रूप में राजनीतिक व्यवहार या परमपराओं के रूप में देखे जा सकते हैं । कुछ मूल्य स्वयं विकसित होते हैं जिनको नागरिक स्वेच्छा से स्वीकार कर लेते हैं लेकिन कई बार कुछ मूल्य नागरिकों की इच्छा के विरुद्ध उन पर लाद दिये जाते हैं । ऐसी स्थिति में यह मालूम करना कठिन होता है कि स्वाभाविक मूल्य ( Natural Values ) कौन से हैं और थोपे गये मूल्य कौन से हैं ।

( iii ) सिद्धान्त निर्माण की समस्या तुलनात्मक राजनीति की एक समस्या सिद्धान्त निर्माण की भी है । तुलनात्मक भी राजनीति में तुलनात्मक अध्ययन के लिए राजनीतिशास्त्रियों ने अनेक सिद्धान्तों की रचना की है जैसे कार्ल ड्यूश ( Carl Deutch ) का राजनीति संचार मण्डल डेविड ईस्टन का निवेश निर्गत व्यवस्था सिद्धान्त , आलमण्ड का संरचनात्मक कार्यात्मक त व्यवस्था सिद्धान्त , निर्णय निर्माण सिद्धान्त , अभिजात वर्ग का सिद्धान्त आदि । समस्या यह है कि इनमें से किस सिद्धान्त को राजनतिक तुलनात्मक अध्ययन को अपनाया जाए और किसको नहीं , क्योंकि अभी तक किसी एक सर्वमान्य राजनीतिक सिद्धान्त की खोज नहीं की जा सकी है ।

( iv ) मानव की परिवर्तनशील प्रकृति मानव स्वभाव परिवर्तनशील होता है । उसमें समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलाव आता रहता है । इसलिए तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययन में वैज्ञानिक शुद्धता का पाया जाना भी एक समस्या है ।

( v ) तुलनात्मक नियोजन की समस्या तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययन में एक समस्या तुलनात्मक नियोजन की भी आती है । आधुनिक राजनीतिक शास्त्रियों में कुछ विचारक मानते हैं कि तुलनात्मक अध्ययन के लिए एक क्रमबद्ध व्यवस्था या व्यवहार से प्ररित मान्यताओं को आधार बनाया जाए , जबकि कुछ विचारकों का मानना है कि राज्य समूह तथा समाज में प्रभावशाली व्यक्तियों की भूमिका को तुलना का आधार बनाया जाना चाहिए ।

( vi ) सीमाओं के निर्धारण की समस्या - राजनीति का तुलनात्मक अध्ययन तभी के प्रकार से किया जा सकता है . जब अध्ययन सामग्री की सीमा निर्धारित हो लेकिन तुलनात्मक राजनीति में ऐसा सीमाएँ निर्धारित करना भी एक समस्या है ।

रॉबर्ड्स के अनुसार समस्याओं का वर्गीकरण नात्मक राजनीति में समस्या इतनी अधिक है कि उनका वर्गीकरण करना सरल नहीं है फिर भी रॉबर्ट्स ने इन ओंकार करने का प्रयास किया है ( i ) कुष्पा एवं माप की भाषा से सम्बन्धित समस्यायें । ( ii ) अअनुवाद एवं संस्कृति की परिभाषिक शब्दावली सम्बन्धी समस्यायें । ( iii ) अध्न व तुलस की विधियों सम्बन्धी समस्या | ( ( ) ) अध्ययन के दाव पेंस सम्बन्धी समस्यायें | दिये इस समस्याओं के समाधान के लिए १ ९ ७१ में ए . लिजफार्ट ने निम्नलिखित सुझाव सुझाव ( i ) तुल्य स्थिति की संख्या में हर समभव वृद्धि की जाए । ( ii ) विश्लेषण के गुण अन्तराल में कभी की जाए । ( iii ) तुलनात्मक विश्लेषण को तुलना योग्य स्थिति पर केन्द्रित किया जाए । ( iv ) तुलनात्मक विश्लेषण को प्रमुख प्रवृत्तियों पर केन्द्रित किया जाए ।

समस्याओं के समाधान के लिए किये गये प्रयत्न : तुलनात्मक राजनीति की समस्याओं के समाधान के लिए कुछ । इस प्रकार किये गये हैं । पारसन्स एण्ड आमण्ड ने अध्ययन निर्देशन का प्रयोग करके सर्वव्यापी प्रत्ययों का आधारभूत शब्दावली का विकास किया है । तुलनात्मक विश्लेषण के क्षेत्र के विस्तार से राजनीतिक तुलना की स्थितियों में वृद्धि हुई है । विश्वव्यापी व देशान्तरीय तुलनाओं के कारण राजनीतिक व्यवहार के समबन्ध में सर्वव्यापी सिद्धान्तों का निर्माण सम्भव हो सका है । इस प्रकार जटिल समस्याओं के समाधान के लिए प्रयास जारी है । -

प्रश्न ७ : तुलनात्मक राजनीति के परम्परागत पध्दति / दृष्टीकोण / उपागम की विशेषताएँ बताइए ।

उत्तर : पुराने राजनीतिक विचारकों द्वारा तुलनात्मक अध्ययन में अपनाए गए तरीकों को परंपरागत दृष्टिकोण कहा जाता है । इस दृष्टिकोण की शुरूवात अरस्तू या उससे भी पहले से पायी जातीं हैं । अरस्तू ने यूनानी नगर - राज्यों के १५८ धानों का तुलनात्मक अध्ययन किया । सिसरो , पोलिबियस , मैकियावेली , माण्टेस्क्यू मॉर्क्स आदि विचारकों ने इस द्धति को आगे बढाया । हाल के वर्षों में ब्राईस , ऑग , जिंक , हरमन फाइनर मुनरो और लॉस्की जैसी विद्वानों ने राजनीतिक संसधाओं के तुलनात्मक अध्ययन का प्रयास किया ।

परंपरागत दृष्टिकोण के विद्वानों में मुख्यतः शासन की संस्थाओं और संविधानिक ढांचे के वर्णनों पर जोर दिया । उन्होंने विशेषकर लिखित संविधानों का अध्ययन किया था । उनके अध्ययन का क्षेत्र अमरिका , फ्रांस आदि पश्चिमी देशों के संविधान थे । उनके अध्ययन की शैली वर्णनात्मक और ऐतिहासिक रही हैं । थोड़े में परंपरागत दृष्टिकोण के विद्वानों ने राज्य और शासन के ऐतिहासिक तथा औपचारिक ढाँचे और संगठनों के अध्ययन को ही तुलनात्मक राजनीति समझ लिया था ।

तुलनात्मक अध्ययन का परंपरागत दृष्टिकोण पिछडा हुआ और अविकसित था । यह केवल नाम में ही तुलनात्मक रहा है । यह साधारणतः विदेशी सरकारों के अध्ययन का एक भाग रहा है जिसमें सरकारी संरचनाओं तथा शासन की संस्थाओ के औपचारिक संगठन की व्याख्यात्मक ऐतिहासिक , संविधानवादी विवेचना की गयी है । इसमें लिखित संविधानो तथा राजनीतिक शक्ति के बँटवारे से संबंधित कानूनी प्रपत्रों पर बल दिया गया है । इसके सीमित क्षेत्र की चर्चा करते हुए मैक्रिडीस ने लिखा है कि " विदेशी सरकारों के अध्ययन विस्तृत रूप से पश्चिमी यूरोपीय प्रजातंत्री अथवा पश्चिमी यूरोप के राज्य अथवा इंग्लैण्ड से सम्बद्ध है ।

" परम्परागत उपागम की विशेषताएँ ( Characdteristics of Traditional Appraoch ) परम्परागत उपागम की विशेषताओं को दो भागों में बाँटा जा सकता है । जो अग्रलिखित है ।

१ ) आर . सी . मैक्रीडिस के अनुसार आर . सी . मैक्रीडिस ने पाँच विशेषताएँ इस प्रकार बतायी हैं .

( i ) प्रधानतः अतुलनात्मक ( Essentially Non - Comparative ) : - आर.सी. मेक्रीडिस के अनुसार परम्परागत तुलनात्मक् राजनीतिक अध्ययन मुख्यतः अतुलनात्मक थे । इसका कारण यह है कि इस दृष्टिकोण के अन्तर्गत आने वाले

अधिकांश तुलनात्मक अध्ययन या तो एक देश के अध्ययन से सम्बन्धित थे या फिर विभिन्न देशों की समान प्रकार की संस्थाओं की समान प्रकार से व्याख्या करने से सम्बन्धित थे ; जैसे- ब्रिटिश प्रधानमंत्री की अमरीकी राष्ट्रपति से तुलना करना । देश विदेश के विवरण मात्र होने के कारण उनके द्वारा किये गये अध्ययन को तुलनात्मक न कहकर देश - देश का अध्ययन कहा जाता है । परम्परागत अध्ययन में एक देश को पूर्ण इकाई मानकर अध्ययन किया गया इसलिए तुलना सम्भव नहीं थी । इस दृष्टिकोण में मुख्यतः राज्यों के संवैधानिक ढाँचों , संविधानों , राजनीतिक संस्थाओं की औपचारिक व संस्थागत व्यवस्थाओं की व्याख्या की गयी । ऑग ने Governments of Europe में ग्रेट ब्रिटेन , जर्मनी , फ्रांस , इटली आदि की शासन व्यवस्थाओं का अध्ययन किया , जबकि मुनरो ने यूरोपीय देशों की सरकारों का अलग - अलग विवेचन किया । P

( ii ) प्रधानतः वर्णनात्मक ( Essentially Descriptive ) परम्परागत दृष्टिकोण विश्लेषणात्मक न होकर मुख्य रूप से वर्णनात्मक है । परम्परागत दृष्टिकोण से लिखे गये ग्रन्थों में विभिन्न राजनीतिक संस्थाओं का वर्णन ही मुख्य रूप से किया गया है , उनमें जो थोड़ी बहुत तुलना भी की है , वह केवल समानताओं और असमानताओं को ही दर्शाती है । परम्परागत दृष्टिकोण के अन्तर्गत राजनीतिक संस्थाओं का वर्णन दो प्रकार से किया गया है - ( क ) ऐतिहासिक दृष्टिकोण इस दृष्टिकोण में मुख्य बल संस्थाओं के उदय तथा विकास पर दिया गया है । ( ख ) कानूनी दृष्टिकोण इन अध्ययनों में मुख्य बल सरकार के विभिन्न अंगों की शक्ति तथा उपस्थित संविधान तथा विधि के अनुसार उनके सम्बन्धों पर दिया जाता है । -

( iii ) प्रधानतः संकुचित मैक्रीडिस का । है कि यद्यपि इन पुस्तकों में हमे किसी व्यवस्था के विभिन्न राजनीतिक अंगों के विकास और पारस्पारिक सम्बन्धों का चित्रण मिलता है , तथापि इन पुस्तकों के विद्वानों ने किसी ऐसे सिद्धान्त को उत्पन्न करने का प्रयास नहीं किया , जिसके आधार पर परिकल्पना कर संस्थाओं के विकास तथा कार्यों के सन्दर्भ में भविष्यवाणी की जा सके । परम्परागत दृष्टिकोण संकुचित रहा है क्योंकि इसमें केवल पश्चिमी यूरोप के देशो ; जैसे इंग्लैण्ड , फ्रांस , जर्मनी , स्विट्जरलैण्ड आदि की राजनीतिक संस्थाओं का ही वर्णन है , एशिया , अफ्रीका तथा दक्षिणी अमरीका के देशों की राजनीतिक संस्थाओं का नहीं । एक्स्टीन और एप्टर के शब्दो में “ परमपरागत दृष्टिकोण पाश्चात्य राजनीतिक व्यवस्थाओं तक सीमित रहा है और प्रमुखतया एक संस्कृति संरूपण का समूह का ही इसमें अध्ययन किया गया है । "

( iv ) प्रधानतः स्थिर परम्परागत दृष्टिकोण में राजनीतिक संस्थाओं के अध्ययन पर बल दिया गया है परन्तु उनके परिवर्तनशील तत्वों की उपेक्षा की गयी है । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि परम्परागत अध्ययन में किसी देश के संविधान को केवल ऐतिहासिक विकास तथा संवैधानिक धाराओं तक सीमित कर दिया गया है और राजनैतिक दल , दबाव समूह , निर्वाचन , जनमत , राजनीति , व्यवहारवाद आणि गतिशील तत्त्वों को भुला दिया गया है । इस दृष्टिकोण को समस्त गतिशील तत्त्वों की अवहेलना करने के कारण गतिहीन या स्थिर अध्ययन कहा जाता है ।

( v ) प्रधानतः प्रबन्धात्मक परम्परागत दृष्टिकोण में अधिकांश परम्परागत रचनाओं का रूप लम्बे निबन्धों जैसा है । परम्परागत अध्ययनों में अधिकांशतः एक राजनीतिक व्यवस्था की राजनीतिक संस्थाओं को ही अध्ययन की विषय वस्तु बनाया है । आर सी . मैक्रीडिस के अनुसार , जॉन मेरियट , आर्थर कीध , जोसेफ बार्थेलेमी , जेम्स ब्राइन , आइवर जेनिंग्स , लास्की , डायसी , फेंक गुडनोव , रोब्सन , वुडरो विल्सन आदि की रचनाएँ सामान्यतया किसी एक देश या किसी विशेष संस्था से सम्बन्धित हैं ।

२ ) अन्य विशेषताएँ- आर . सी . मैक्रीडिस द्वारा वर्णित परम्परागत उपागम की विशेषताओं के अतिरिक्त दो अन्य विशेषताएँ भी है जो निम्नलिखित है

( i ) प्रधनतः कानूनी औपचारिक संस्थागत अध्ययन परम्परागत तुलनात्मक राजनीति में मुख्यतया कानूनी औपचारिक संस्थाओं का अध्ययन किया जाता था । डायसी , मुनरों , ऑग एवं जिंक ने अपने अध्ययन केवल लिखित संविधान के अन्तर्गत वर्णित औपचारिक संस्थाओं तक ही सीमित रखे । उनका उद्देश्य कानूनों द्वारा स्थापित शासन व्यवस्था की व्याख्या करना था न कि यह जानना कि संविधान द्वारा स्थापित संस्थाएँ व्यवहार में किस प्रकार कार्य करती हैं ? -

( ii ) प्रधानतः आदर्शात्मक अध्ययन परम्परागत तुलनात्मक राजनीति में विद्वान कुछ आदर्श धारणाओं को कसौटी मानकर उन पर राजनीतिक संस्थाओं और शासन संरचनाओं को कसते हैं । उदाहरणार्थ प्रजातन्त्र श्रेष्ठ शासन है और प्रजातन्त्र वहाँ सफल होगा जहाँ दो दलीय व्यवस्था है , इसके आधार पर ही विद्वान किसी शासन को अच्छा या बुरा कह सकते हैं ।

प्रश्न ८ : तुलनात्मक राजनीति आधुनिक दृष्टिकोण / पध्दति / उपागम की विशेषताएँ बताईए ।

उत्तर : दुसरे विश्वयुद्ध के पश्चात राज्य की प्रकृति , कार्यों और महत्त्व में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए जिससे राजनीति के परम्परागत उपागम राजनीतिक व्यवस्थाओं और प्रक्रियाओं को समझने में सहायक सिद्ध नहीं हुए । अतः परम्परागत पद्धति पुरानी पड़ गई । इसलिए नवीन प्रविधियों व उपागमों की खोज होने लगी ।

विश्लेषण , निरीक्षण और परीक्षण की जो नवीन पद्धतियाँ विकसित हुई हैं उन्हें आधुनिक उपागम कहा जाता है । लॉई ब्राइस ने ' Modern Democracies ' में , कार्ल जे . फ्रेड्रिक ने Constitutional Government & Democracy ग्रेवियल ए . एवण्ड ने ‘ Comparative Politics - A Development Approach ' में राजनीतिक संस्थाओं को तुलनात्मक ढंग से विश्लेषण करने का प्रयत्न किया है । हैरी एक्स्टीन तथा डेविड एप्टर द्वारा सम्पादित ' Comparative , Politics - A Reader ' तथा ल्यूसियन पाई और सिडनी वर्बा की ' Political culture and Political Develop - 1 ment ' तुलनात्मक राजनीति में उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं । आधुनिक समय में शासन तथा तुलनात्मक अध्ययन दोनों स्तरों पर - प्रथम , पश्चिमी और गैर - पश्चिमी राजनीतिक संस्थाओं की तुलना , द्वितीय , गैर - पश्चिमी संस्थाओं की पारस्परिक तुलना । जहाँ तक दोनों की तुलना के सिद्धान्तों व मूल्यों का सम्बन्ध है , वे एक समान हैं । प्रारम्भ हुआ मॅक्रिडिस के अनुसार , “ तुलनात्मक राजनीति का आधुनिक दृष्टिकोण ( परिप्रेक्ष्य ) या उपागम अधिक परीक्षण करने वाला , अधिक खोजबीन करनेवाला तथा व्यवस्थित है ।

आधुनिक उपागम की विशेषताएँ ( Characteristics of Modern Approach ) आधुनिक उपागम की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित है :

( १ ) आधुनिक तुलनात्मक उपागम अधिकांशतः तुलनात्मक है परम्परागत तुलनात्मक राजनीति केवल नाम के लिए ही तुलनात्मक थी जबकि आधुनिक तुलनात्मक राजनीति अधिकांशतः तुलनात्मक है । बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों का अध्ययन तुलनात्मक ढंग से ही उपयोगी हो सकता है । आधुनिक तुलनात्मक राजनीति का अध्ययनक्षेत्र अत्यन्त व्यापक है । इसमें औपचारिक राजनीतिक संस्थाओं के साथ साथ राजनीतिक प्रक्रियाओं , राजनीतिक व्यवहारों तथा राजनीति को प्रभावित करने

( २ ) विषय क्षेत्र में व्यापकता वाले अराजनीतिक तत्त्वों का भी अध्ययन किया जाता है । इसमें लोकतान्त्रिक और अलोकतान्त्रिक शासन प्रणालियों का , यूरोपीय देशों के साथ - साथ गैर - यूरोपीय देशों की शासन प्रणालियों का भी अध्ययन किया जाता है । राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्थाओं को एक अन्तर्राष्ट्रीय राजनैतिक व्यवस्था से सम्बद्ध मानकर इसका एक - दूसरे पर प्रभाव व इनकी पारस्परिकता का भी अध्ययन किया जाता है ।

( ३ ) वैज्ञानिक अध्ययन आधुनिक तुलनात्मक अध्ययन में वैज्ञानिक पद्धति की तरह कार्य कारण और क्रिया प्रतिक्रिया का सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया जाता है । इस दृष्टिकोण में कुछ परिकल्पनायें करके राजनीतिक व्यवस्थाओं का विश्लेषण किया जाता है तथा सामान्य नियमों का प्रयोग करेके परिकल्पनाओं की सत्यता को जाँच कर तब निष्कर्ष निकाले जाते हैं , जिससे विस्तृत समानीकरण किया जा सके । इस प्रकार आधुनिक दृष्टिकोण तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र में वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करता है । .

( ४ ) सामाजिक संदर्भ अभिमुख अध्ययन आधुनिक तुलनात्मक राजनीति प्रक्रियाओं और सामाजिक शक्तियों की अन्तः क्रियाओं में घनिष्ठ सम्बन्ध मानते है । इसलिए आधुनिक विद्वान सामाजिक संस्थाओं , शक्तियों और परम्परागत बन्धनों का अध्ययन भी राजनीतिक दृष्टिकोण से करने लगे हैं । उदाहरणार्थ २० वीं शताब्दी के आरम्भ तक प्रभुसत्ता की परिभाषा कानूनी ही थी , उसमें सामाजिक नीतियों , रीति - रिवाजों , परम्पराओं आदि को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता था , परन्तु व्यावहारिकता से यही सिद्ध होता है कि कोई भी सम्प्रभु पूर्णरूप से निरंकुश नहीं हो सकता क्योंकि उस पर जनमत , नैतिकता , अन्तर्राष्ट्रीयता , धर्म , रीतिरिवाज आदि का प्रभाव पड़ता है ।

( ५ ) विश्लेषणात्मक और व्याख्यात्मक अध्ययन आधुनिक दृष्टिकोण में परिकल्पनाएँ की जाती हैं , परीक्षण किये जाते हैं तथा आँकड़ों को एकत्रित किया जाता है । विश्लेषणात्मक पद्धति से परिकल्पनाओं की जाँच की जाती है और जाँच के आधार पर उन परिकल्पनाओं को धारण , संशोधन अथवा खण्डन किया जाता है । तुलनात्मक अध्ययन के इसदृष्टिकोण में क्षेत्रीय कार्य - कलापो ( Field Work ) , अनुभववादी पर्यवेक्षक ( Empirical Observation ) पर अधिक बल दिया जाता है ।

( ६ ) विकासशील समाजों का अध्ययन आधुनिक तुलनात्मक राजनीति में पाश्चात्य देशों के अध्ययन के साथ - साथ एशिया , लैटिन अमरीका , अफ्रीका के विकासशील समाज का भी अध्ययन किया जाता है ।

( ७ ) मूल्य - निरपेक्ष अध्ययन आधुनिक तुलनात्मक राजनीति मूल्य सापेक्षता के स्थान पर मूल्य निरपेक्षता पर बल देती है । तुलनात्मक राजनीति के विद्वानों का यह प्रयास है कि जहाँ तक हो सके राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन उनके आदर्श स्वरूप का न करके वास्तविक स्वरूप का किया जाये तथा जहाँ तक संभव हो सके निजी विचारो , भावनाओं तथा मूल्यों से ऊपर उठकर विश्लेषण किया जाए ।

( ८ ) व्यवस्थित दृष्टिकोण आधुनिक तुलनात्मक राजनीति में संविधान के अध्ययन की अपेक्षा राजनीतिक व्यवस्था का अध्ययन अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है और उसी के आधार पर राजनीतिक प्रक्रियाओं तथा संस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है । परीक्षणों के आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि किसी भी राजनीतिक व्यवस्था के मूलं में तीन शक्तियाँ कार्य करती हैं-

( १ ) राज सत्ता ,

( २ ) शक्ति का एकाधिकार और

( ३ ) शक्ति तन्त्र |

इन तीनों शक्तियों के आधार पर ही किसी राजनैतिक व्यवस्था का औचित्य या अनौचित्य सिद्ध किया जा सकता है । -

( ९ ) संरचनात्मक तथा कार्यमूलक दृष्टिकोण आधुनिक उपागम में संरचनातमक तथा कार्यात्मक दृष्टिकोण को विशेष महत्त्व दिया जाता है । आधुनिक विद्वान इस मत से सहमत हैं कि राजनीतिक व्यवस्थाओं तथा संस्था की संरचना और कार्यों में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है । ये दोनों एक दूसरे को प्रभावित ही नहीं करते , अपितु एक - दूसरे के नियामक भी होते हैं । इस दृष्टि से आधुनिक दृष्टिकोण इस बात पर बल देता है कि तुलनात्मक राजनीति में राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन इन दोनों के आधारों पर किया जाना चाहिए ।

( १० ) सिद्धान्त निर्माण का प्रयास - आधुनिक तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से ऐसे सिद्धान्तों के निर्माण का प्रयास किया जा रहा है जिनके आधार पर विभिन्न राजनीतिक प्रणालियों का यथार्थ एवं व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया जा सके । आधुनिक विद्वानों का उद्देश्य अपने अध्ययनों को अध्ययन कक्षों तक सीमित न रखकर नये सिद्धान्तों को सामाजिक लाभ के लिए प्रयोग में लाना है । -

( ११ ) भूमिकाओं के अध्यन पर बदल तुलनात्मक राजनीति के परम्परागत दृष्टिकोण के अन्तर्गत विभिन्न राजनीतिक संरचनाओं के कार्यों एवं रूपरेखा की ओर ही विशेष ध्यान दिया जाता था परन्तु आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार राजनीतिक व्यवस्था के अन्तर्गत विभिन्न अधिकारियों द्वारा निभायी जाने वाली भूमिका के अध्ययन पर बल दिया जाता है । आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार विभिन्न अधिकारियों की राजनीतिक व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है जिसका अध्ययन किया जाना चाहिए ।

प्रश्न ९ : तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन का दार्शनिक उपागम अथवा दृष्टिकोण का संक्षेप में विवेचन कीजिए ।

उत्तर : राजनीति के अध्ययन के लिए सबसे पुराना उपागम दार्शनिक है जिसे आचारशास्त्रीय उपागम के नाम से भी जाना जाता है । यहाँ राज्य सरकार और मानव का राजनीतिक सत्ता के रूप में अध्ययन कुछ उद्देश्यों , नैतिक शिक्षाओं , सत्यों या उच्च सिद्धान्तों के अनुसरण के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है जो समस्त ज्ञान और वास्तविकता में अन्तर्निहित होता है । इस क्षेत्र में राजनीति का अध्ययन मननशील स्वरूप धारण कर लेता है क्योंकि दार्शनिक शब्द का सम्बन्ध ही चिन्तन से है । दार्शनिक विश्लेषण किसी विषय के स्वरूप के विचार को स्पष्ट करने और उसके साधनों एवं सायों के अध्ययन करने का प्रयास हैं । इसे यदि और अधिक सामान्य शब्दों में प्रस्तुत किया जाये तो यह कहा जा सकता है कि जो लेखक किसी विषय के प्रति दार्शनिक उपागम को अपनाता है , उसका उद्देश्य भाषा स्पष्टता को बढ़ाना और भाषायी अस्पष्टता को कम करना होता है । वह यह मान लेता है कि विवरण में इस्तेमाल की गई भाषा वास्तविकता की संकल्पनाओं की परिलक्षित करती है और वह वास्तविकता की संकल्पनाओं को यथासम्भव अधिक से अधिक स्पष्ट , संगत , सहायक और सुसंगत बनाना चाहते है । वह चिन्तन और विचार अभिव्यक्ति को प्रभावित और उसका मार्गदर्शन करना चाहता है जिससे इन सम्भावना को अधिकसे अधिक व्यापक किया जा सके कि वास्तविकता का चुना हुआ पक्ष ( राजनीति ) बोधगम्य बन जाए । इसी कारण दार्शनिक या आचारशास्त्रीय उपागम का समर्थन करने वाले लेखक और विचारक शासकों और राजनीतिक समुदाय के सदस्यों को यह परामर्श देना चाहते हैं कि वे किन्हीं उच्च लक्ष्यों का अनुसरण करें । प्लेटो , थॉमस मूर , बेकन , हैंरिगटन , रूसो , काण्ट , हीगल , ग्रीन , बोसांके , नैटिलशिप , लिंडसे और लिनयो ट्रास ने इस उपागम को अपनाया । प्लेटो की ' रिपब्लिक ' में वर्णित दार्शनिक शासक और आदर्श राज्य की कल्पना , मूर की ' यूटोपिया ' में वर्णित स्वर्गिक राज्य की धारणा , लॉक की टू ट्रिटाइजिज ऑन गवर्नर्मेण्ट में वर्णित प्राकृतिक नियम और प्राकृतिक अधिकार की धारणा और रूसो की सोशल कॉन्ट्रेक्ट में सामान्य इच्छा की धारणा इसी उपागम के उदाहरण हैं । इस उपागम में राजनीतिक जीवन के आदर्शों को निश्चित कर राजनीति को नैतिकता के उच्च नियमों के साथ जोड़ दिया जाता है ।

दार्शनिक उपागम की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि यह चिन्तनात्मक तथा अमूर्त है और यथार्थ से बहुत दूर है । काण्ट और हीगल जैसे विचारकों ने राज्य के रहस्य को ऊँचाइयों तक पहुँचा दिया । अतः यथार्थ पर आदर्श रूप का प्रभुत्व छा जाता है । राजनीति दर्शन के अधीन हो जाती है । लियो ट्रास ने इस उपागम का समर्थन करते हुए कहा है कि मूल्य राजनीतिक दर्शन के अभिन्न भाग है और उन्हें राजनीति के अध्ययन से बाहर नहीं रखा जा सकता ।

प्रश्न १० : तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन का ऐतिहासिक उपागम / दृष्टिकोण का वर्णन कीजिए । उत्तर : ऐतिहासिक उपागम ( Historical Approach ) राजनीतिक संस्थाएँ निर्मित नहीं होती , उनका विकास होता है । इसलिए प्रत्येक राजनीतिक संस्था का अपना एक इतिहास होता । इसलिए तुलनात्मक राजनीति में ऐतिहासिक उपागम का अपना महत्त्व होता हैं । ऐतिहासिक उपागम में इस बात का अध्ययन किया जाता है कि मानव कैसे अस्तित्व में आया , वह पहले क्या था और अब क्या है ? ऐतिहासिक उपागम का लक्षण बताते हुए सर फ्रेड्रिक पॉलक ( Sir Fredrick Pollock ) ने लिखा है कि , " इस उपागम का विशिष्ट लक्षण अतीत या काल की चुनी हुई अवधि तथा किसी विशेष चरण के भीतर चुनी घटनाओं के क्रम पर बल है ताकि इस बात की व्याख्या की जा सके कि कौन सी संस्थाएँ चली आ रही है और वे क्या काम कर रही हैं यह प्रायः इस ज्ञान की खातिर होता है कि वे क्या रहीं है ? वे अस्तित्व में किस प्रकार आयी ? वे क्या हैं और अपने विश्लेषण के सम्बन्ध में उनका क्या स्थान है ? " प्राचीन काल में प्लेटों और अरस्तू से लेकर मध्य काल में सेन्ट ऑगस्टीन , सेन्ट थामस और मार्सीलियों तक और आधुनिक काल में मैकियावेली , हॉब्स , लॉक , रूसो , हीगल , जे.एस. मिल , मार्क्स , लास्की , आदि विचारकों को इस उपागम के माध्यम से समझा जा सकता है । ऐतिहासिक पद्धति से अतीत को समझ कर वर्तमान से तुलना करते हुए भविष्य के लिए मार्ग निकाला जा सकता है । इसलिए गिलक्राइस्ट ने कहा है कि , “ इतिहास न केवल संस्थाओं की व्यवस्था करता है , वरन यह भविष्य के लिए मार्ग बतलाने में भी सहायक होता है । " इस उपागम के द्वारा प्राचीन राजनीतिक घटनाओं के कारण और उनका वर्तमान में प्रभाव देखा जा सकता है । निस्सन्देह ऐतिहासिक उपागम प्राचीन राजनीतिक संस्थाओं , प्रणालियों और आदर्शों को समझने में बहुत सहायक है , परंन्तु कुछ विचारक इसके महत्त्व को स्वीकार नहीं करते हैं । उदहारणार्थ जेम्स ब्राइस की धारणा है कि यह अक्सर सतही समानताओं से बोझिल होता है । इस नाते ऐतिहासिक समानान्तर कुछ हद तक ज्ञानवर्धक हो सकते हैं , लेकिन अधिकांश स्थितियों में वे पथ भ्रष्ट करने वाले होते हैं । इसी प्रकार सिजविक का मत है कि इतिहास इस बात का निर्णय नहीं कर सकता कि राजनीतिक जीवन में क्या अच्छा क्या बुरा है और क्या उचित अथवा अनुचित है ।

प्रश्न ११ : तुलनात्मक राजनीति के कानूनी - सांस्थानिक दृष्टिकोण की व्याख्या कीजिए ।

उत्तर : कानूनी - सांस्थानिक दृष्टिकोण तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन का परंपरागत दृष्टिकोण है । इनका पृथक विश्लेषण इस प्रकार है .

( A ) कानूनी दृष्टिकोण ( Legal Approach ) : १ ९ वी शताब्दी में ऐतिहासिक उपागम की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप कानूनी उपागम अस्तित्व में आया । डायसी , थियोडोर वुल्से , वुडरो विल्सन , कार्टर , हर्ज , न्यूमेन , आदि ने विश्व के अनेक देशों की कानूनी संहिताओं और संविधानों का विश्लेषण करते हुये तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किये । इसके अंतर्गत राजनीति के अध्ययन को उन कानूनी और न्यायिक संस्थाओं के अध्ययन के साथ जोड़ा जाता है , जिसकी रचना सरकार द्वारा राजनीतिक संगठनों को बनाये रखने के लिये की जाती हैं । विधि और न्याय के विषयों को न केवल विधिशास्त्र के विषय समझा जाता है , बल्कि राजनीतिक सिद्धांतशास्त्री राज्य को शांति व्यवस्था के प्रभावी साम्यपूर्ण अनुरक्षक के रूप में मानते है । इसीलिये न्यायिक संस्थाओं के संगठन , अधिकार क्षेत्र और स्वतंत्रता से संबंधित मामले आवश्यक रूप से तुलनात्मक राजनीतिशास्त्री की चिंता के विषय बन जाते हैं । इस दृष्टिकोण को यदि राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया जाये तो प्रमुखतः इस बात के अध्ययन पर बल दिया जाता है कि कानून की रचना कैसी होती है ? कानूनी प्रक्रिया किस तरह की है ? कानूनों का पालन किस तरह होता है ? साथ ही वैधानिक संस्थाओ तथा न्यायालयों का संगठनात्मक ढाँचा कैसा है व क्षेत्राधिकार के विस्तार की क्या सीमायें है ? आदि बातों के तुलनात्मक अध्ययन पर बल दिया जाता है । फिर भी यह कहना उचित होगा कि इस दृष्टिकोण का परिप्रेक्ष्य बहुत संकीर्ण है । कानून के अंतर्गत लोगों के जीवन के एक ही पहलू का अध्ययन होता है और इसीलिये यह राजनीतिक जीवन के व्यवहार का विवेचन नही कर सकता । ( B ) सांस्थानिक दृष्टिकोण ( Institutional Approach ) : इसके अंतर्गत राजनीति का अध्ययनकर्ता राजनीतिक संगठन की औपचारिक संस्थाओं पर बल देता है , जैसे विधायिका , कार्यपालिका और न्यायपालिका । इस प्रवृत्ति को प्राचीन काल में अरस्तू और पोलिवियस से लेकर आधुनिक समय में लास्की और फाईनर तक अनेको राजनीतिक विचारकों और सिद्धांतशास्त्रियों की रचनाओं में देखा जा सकता है । बहरहाल , आधुनिक लेखको के बारे में विचित्र बात यह है कि वे राजनीतिक व्यवस्थाओं की संरचनाओं में दल प्रणाली को भी चौथे अंग के रूप में शामिल करतें है । इससे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि बैंटले , ट्रूमैन , बी.ओ. के . ( जूनियर ) , बैंथम , वीघर , ऐक्सटीन आदि बहुत से लेखक एक कदम और आगे जाकर उन विभिन्न दबाव समूहों और हित समूहों को भी इसमें शामिल कर लेते हैं , जो राजनीतिक व्यवस्था की अव - संरचना कहलाते हैं , क्योंकि यहाँ राजनीतिक व्यवस्था की अधिसंरचनाओं पर अधिक बल दिया जाता है , इसलिये इस उपागम को संरचनात्मक उपागम ( Structural Functional Approaches ) के नाम से भी जाना जाता है ।

हम इस उपागम को वाल्टर , बेजहॉट , एफ . ए . आग , डब्ल्यू . बी . मुनरो , जेम्स ब्राईस , हर्मेन फाइनर , एच.जे. लास्की , हेराल्ड जिंक , सी . एफ . स्ट्रींग , आर.जी. न्यूमेन , मोरिस , डुबेर्जर , जिसोबानी सारटोरी , जैसे अनेक राजनीतिक सिद्धांत ● शास्त्रियों की रचना में देख सकते हैं । इन रचनाओं का विशिष्ट लक्षण यह है कि राजनीति के अध्ययन के अंतर्गत राजनीतिक व्यवस्था की औपचारिक व अनौपचारिक सांस्थानिक रचनाये आ जाती है । साथ ही , उनके निष्कर्षो का समर्थन करने के लिये कुछ उन्नत देशों की मुख्य शासन प्रणालियों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है । इस दिशा में नई प्रवृत्ति यह है कि एफ्रो एशियाई और लेटिन अमरीकी देशों जिन्हें तीसरी दुनिया के विकासशील देशों के नाम से भी जाना जाता है , की राजनीतिक व्यवस्थाओं पर प्रकाश डाला जाये , जहाँ जी . ए . एमण्ड . और जे.सी. कौलमेन जैसे लेखकों को राजनीति के अध्ययन के लिये पर्याप्त सामग्री उपलब्ध हुई है ।

अन्य उपागमों की तरह इस उपागम की भी इस आधार पर आलोचना की जाती हैं कि यह बहुत संकीर्ण है । यह व्यक्तियों की भूमिका की अनदेखी कर देता है , जो राजनीतिक व्यवस्था की औपचारिक संस्थाओं एवं उप संस्थाओं का निर्माण एवं परिचालन करते हैं । ●

इस आलोचना के बावजूद इस दृष्टिकोण को परोक्ष रूप से विशेष महत्व प्राप्त हो गया है । इसने व्यवहारवादी दृष्टिकोण से आत्मसात कर लिया है । निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि राजनीतिक व्यवस्था के संरचनात्मक प्रकार्यात्मक और आगत निर्गत दृष्टिकोण ( जिस रूप में उन्हें ईस्टन व आमंड ने प्रस्तुत किया है ) उपर्युक्त वर्णित सांस्थानिक उपागम का या तो विस्तार है या फिर इसमें सुधार है । 

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