तुलनात्मक शासन एवं राजनीति
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि व राजनीतिक परंपराएँ ( Historical Legacy & Political Traditions )
प्रश्न १ : ब्रिटिश संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि व राजनीतिक परंपराओं की संक्षेप में व्याख्या कीजिए ।
उत्तर : ब्रिटिश संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि व राजनीतिक परंपराएँ : ब्रिटिश संविधान एक विकसित संविधान है । इसका समस्त स्वरूप किसी एक विशेष समय पर निश्चित होने के बजाय इसने चौदह सौ वर्षों के विकास से अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त किया है और अब भी यह विकासमय है । इंग्लैण्ड में कभी कोई ऐसी क्रान्ति नहीं हुई जिसकी समानता १७८ ९ की फ्रांस की क्रान्ति या १ ९ १७ की सोवियत रूस की क्रान्ति से की जा सके । अतः संवैधानिक विकास पर एक दृष्टि डाले बिना वर्तमान संविधान और शासन व्यवस्था को ठीक प्रकार से नहीं समझा जा सकता है ।
संवैधानिक विकास की दृष्टि से ब्रिटिश संविधान के इतिहास को निम्नांकित युगों में विभाजित किया जा सकता है ।
( १ ) ऐंग्लो - सैक्सन काल - ( Anglo - Saxon Period ) - पांचवी सदी से १०६६ ई . से ११५३ तक ।
( २ ) नार्मन - ऐग्जिवन काल ( Norman - Angevian Period ) १०६६ ई . तक ।
( ३ ) प्लैण्टैगैनेट ( ११५३-१३९९ ) और लंकास्ट्रियन काल ( Plantagenet and lanecastrian Period ) - १३ ९९ ई . से १४८५ तक ।
( ४ ) ट्यूडर काल ( Tuder Period ) १४८५ ई . से . १६०३ तक ।
( ५ ) स्टुअर्ट काल - ( Stuart Period ) - १६०३ ई . से . १७१४ तक ।
( ६ ) हैनौवर काल ( Hanover Period ) - १७१४ ई . से . प्रारम्भ ।
( १ ) ऐंग्लो - सैक्सन काल सीमित राजतन्त्र की स्थापना ( पांचवीं सदी से १०६६ ई . तक ) - ब्रिटेन की राजनीतिक संस्थाओं के विकास का प्रारम्भ निश्चित रूप से ऐंग्लो - सैक्सन काल से होता है । " इंग्लैण्ड में ५४ ई . पूर्व तक केल्दों का राज्य था । ५४ ई . पूर्व में वहां रोमन साम्राज्य स्थापित हो गया , जो ४५० से अधिक वर्ष तक रहा । परन्तु इस काल में इंग्लैण्ड का कोई संवैधानिक विकास नहीं हुआ । ब्रिटेन के संवैधानिक विकास पर ऐंग्लो - सैक्सन काल में स्थापित शासन व्यवस्था का ही प्रभाव पड़ा । इस काल में स्थापित की गई संस्थाओं में प्रमुख दो है- नियन्त्रित राजपद और स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था । इंग्लैण्ड में सैक्सन काल के अन्तर्गत पहले तो ७ कबीलों के छोटे - छोटे राज्य सुस्थापित किए गए जिनके नाम थे ईस्ट ऐंगिलिया , मरसिया , नारथम्बरलैण्ड , कैण्ट , सुसेक्स , एसेक्स और वेसेक्स । नौवीं सदी में एल्फ्रेड महान् ( ८४ ९ ई . ९ ०१ ई . ) ने इन सात राज्ये को मिलाकर एक विशाल राज्य की स्थापना की और तभी से इंग्लैण्ड में राजतन्त्र का उदय हुआ ।
ऍग्लो - सैक्सनकालीन राजा की शक्तियां असीमित नहीं होती थीं और उस पर ' विटनेजमोट ' ( Witenagamot ) या ' विटन ' ( Wian ) का नियन्त्रण होता था । इसके अतिरिक्त उसकी शक्तियाँ बहुत कुछ सीमा तक उसके व्यक्तित्व , बुद्धिमत्ता और बल पर निर्भर करती थीं । ब्रिटन का सभापति राजा स्वयं होता था और वही इसके सदस्यों को नियुक्त करता था । सामान्यतयो इसमें प्रभावशाली सामन्तों , सरदारों और बिशपों , आदि को सम्मिलित किया जाता था । ' विटन राजा की ऐसी परामर्शदात्री संस्था थी , जिसके कार्य निश्चित नहीं थे यह राजा को कानून निर्माण प्रशासनिक विषयों और सन्धियों के सम्बन्ध में परामर्श देती थी और सर्वोच्च न्यायालय के रूप में राजा के साथ बैठा करती थी । साधारणतया सैक्सन राजा ' विटन ' की सलाह को पर्याप्त महत्व देते थे और निरंकुशतापूर्वक कार्य नहीं करते थे ।
संवैधानिक विकास को ऐंग्लो - सैक्सन काल की दूसरी देन स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था है । इस प्राचीन अवस्था में भी स्थानीय इकाइयों का प्रशासन में महत्वपूर्ण स्थान था । इस काल में स्थानीय शासन की तीन इकाइयां थी टाउनशिप ( Township ) , हण्ड्रेड ( Hunclred ) और शायर ( Shire ) । उस समय से ही ब्रिटेन में स्थानीय स्वशासन का चलन चला आ रहा है और इसने ब्रिटिश प्रजातन्त्र की सफलता में सराहनीय योग दिया है ।
( १ ) ऐंग्लो - सैक्सन काल सीमित राजतन्त्र की स्थापना ( पांचवीं सदी से १०६६ ई . तक )
( २ ) नार्मन - ऐन्ज्विन काल : राजकीय निरंकुशता और प्रबल केन्द्रीय सरकार का उदय ( सन् १०६६ इ . ११५३ ई . तक ) से
( i ) मैगनम कौंसिलियम और क्यूरिया रेजिस
( ३ ) प्लैण्टैगैनेट ( ११५३-१३९९ ) और लंकास्ट्रियन ( १३ ९९ -१४४५ ) काल
( i ) प्रातिनिधित्व के सिद्धान्त का उदय '
( ii ) मैग्नाकार्टा या बृहत अधिकार
( iii ) पार्लियामेंण्ट का उदय
( ४ ) ट्यूडर कालः पुनः कठोर राजतन्त्र की स्थापना ( १४८५ ई.से १६०३ ई . )
( ५ ) स्टुअर्ट काल निरंकुश राजतन्त्र और सीमित राजतन्त्र के पक्षों में संघर्ष और लोकतन्त्र की आधारशिला की स्थापना ( १६०३ ई . से १७१४ ई . तक )
( i ) गणतन्त्र की स्थापना
( ii ) पुनः राजतन्त्र की स्थापना
( iii ) गौरवपूर्ण क्रान्ति
( iv ) अधिकार पत्र , १६८ ९ :
( v ) १७०१ का उत्तराधिकार अधिनियम
( ६ ) हैनोवर काल : संसदीय जनतन्त्र का विकास ( १७१४ ई . से प्रारम्भ )
( i ) सम्राट की वास्तविक शक्तियों का पतन
( ii ) मन्त्रिमण्डलीय प्रणाली का विकास
( 2 ) नार्मन - ऐन्ज्विन काल : राजकीय निरंकुशता और प्रबल केन्द्रीय सरकार का उदय ( सन् १०६६ इ . से १ ९ ५३ ई . तक ) - सन् १०६६ ई . तक ऍग्लो - सैक्सन जाति का ब्रिटेन पर प्रभुत्व रहा , परन्तु इस वर्ष नार्मन देश के विलियर ऑफ नारमण्डी ने ब्रिटेन पर सफल आक्रमण कर नार्मन राज्य की स्थापना की । ऐंग्लो - सैक्सन काल की शासन व्यवस्था स्थानीय आधार पर संगठित , किन्तु राष्ट्रीय आधार पर निर्बल थी । कठोर और केन्द्रीकृत शासन - स्थापित करने का कार्य नार्मन राजा विलियम के द्वारा ही किया गया ।
सैक्सन राजतन्त्र निर्बल था , विलियम ने राजा के पद को शक्तिशाली बनाने का निश्चय किया और इसके लिए अनेक उपाय अपनाए । उसने सैक्सनकालीन सामन्तों की रियासतों को छीनकर उन्हें अपने विश्वासपात्र नार्मन सरदारों में बांट दिया और इन सामन्तों पर शर्त लगा दी कि वे राजा को आर्थिक और सैनिक सहायता प्रदान करेंगे । इस प्रकार उसने सामन्तों की शक्तियों को क्षीण कर दिया । उसने अपने आपको चर्च का भी प्रधान बना लिया और बिशपों की नियुक्ति के अधिकार स्वयं प्राप्त कर लिए । नार्मन राजा के कानून के क्षेत्र मे भी एकता उत्पन्न की और शायर में राजा द्वारा नियुक्त शैरिफ पद की व्यवस्था कर स्थानीय संस्थाओ पर केन्द्र का नियन्त्रण स्थापित किया ।
( i ) मैगनम कौंसिलियम और क्यूरिया रेजिस विलियम ने निरंकुशता के मार्ग में बाधा समझकर ' विटनेजमाट को समाप्त कर दिया था , लेकिन राजा के अधिकार क्षेत्र और कार्य इतने बढ़ गए कि परामर्शदात्री समितियों की आवश्यकता अनुभव की गई । अतः नीति निर्धारण और शासन में राजा की सहायता के लिए दो संस्थाओ - मैगनम कौंसिलियम या महान परिषद और क्यूरिया रेजिस या राज परिषद् का उदय हुआ । मैगनम कौसिलियम विनेजमोट ' की ही स्थानापन्न थी और यह नीति - निर्धारण सम्बन्धो विषयों पर राजा को सहायता और मन्त्रणा देने के लिए वर्ष में तीन - चार बार समवेत होती थी । यह एक बड़ी संस्था थी और इसके सत्र अल्पकालीन होते थे अतः दैनिक प्रशासन कार्यो का सम्पादन ' राज परिषद् ' करती थी , जो । अपेक्षाकृत छौटी संस्था थी , चेम्बरलेन , चान्सलर , अन्तःपुर के रक्षक तथा प्रहरी , आदि राजा होते थे । इसी कारण ‘ क्यूरिया रेजस ' अपेक्षाकृत अधिक प्रभावशाली संस्था थी । ' क्यूरिया रेजिस ' से ' प्रिवी कौंसिल ' और ' प्रिवी निकटतम व्यक्ति इसके सदस्य कौंसिल ' से केबीनेट का विकास हुआ । मुनरो के शब्दों में , “ अत्यन्त प्रारम्भिक रूप में हम मैशानम कौंसिलियम में आधुनिक • पार्लियामेण्ट का और क्यूरिया रेजिस में आधुनिक केबीनेट का स्वरूप देख सकते है । ”
( 3 ) प्लैण्टैगैनेट ( ११५३-१३९९ ) और लंकास्ट्रियन ( १३ ९९ -१४४५ ) काल : वैधानिक संस्थाओं का उदय- नार्मन काल में स्थापित शासन - व्यवस्था में हेनरी प्रथम के द्वारा सुधार किया गया । ' क्यू ' रेया रेजिस ' अपने मूल रूप में प्रशासनिक और न्यायिक दोनों ही विषयों से सम्बद्ध थी और इसके कार्यक्षेत्र का कोई विभाजन न ही था । कुछ समय बाद शासन कार्य में शीघ्रता और कुशलता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए क्यूरिया रेजिस के न्याय और प्रशासन सम्बन्धी कार्यों में विभाजन किया गया तथा इसकी सदस्यता में पृथकता की गई । इसके सदस्यों का एक भाग तो पहले की भांति ' राजकीय सभा ' के रूप में रहा और इसे कालान्तर में ' प्रिवी कौंसिल ' का नाम दिया गया । दूसरा भाग केवल न्यायिक कार्यों तक ही सीमित रह गया और इस रूप में वह ' एक्सचेकर ' और न्याय के उच्च न्यायालयों का जनक बन गया ।
( i ) प्रातिनिधित्व के सिद्धान्त का उदय ( Origin of the Theory of Representation ) - प्लैण्टैगैनेट काल में प्रवेश करते - करते मैगनम कौंसिलियम का कार्य विधि - निर्माण तक ही सीमित रह गया । पहले राज परिवार के लोग और उच्चकोटि के सामन्त ही इसके सदस्य होते थे , परन्तु धीरे - धीरे इसकी सदस्य संख्या बढ़ती गई और इसमें निम्न वर्गों के लोग भी आने लगे । १२१३ में एक कारण से इसकी सदस्य संख्या में बहुत वृद्धि हो गई । सम्राट जॉन को बहुत अधिक धनराशि जनता में से कर के रूप में एकत्र करनी थी और उसने अनुभव किया कि नाइटों के सहयोग से यह कार्य भली प्रकार सम्पन्न हो सकता है । अतः परिस्थितियों से बाध्य होकर उसने शैरिफों को आज्ञा दी कि मैगनम कौंसिलियम में प्रत्येक काउण्टी से चार उत्तम नाइट भेजे जाएं । यद्यपि विभिन्न काउण्टियों के प्रतिनिधि नाइटों को कौंसिल में आमन्त्रित करने में राजा जॉन का उद्देश्य प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त को मान्यता देना नहीं था , किन्तु इसका सुदूरव्यापी परिणाम निकला । इस प्रकार जॉन ने अनजाने में प्रतिनिधित्व के बिना कर नहीं ' ( No Taxation without Representaion ) सिद्धान्त को जन्म दिया । कालान्तर में यह एक मान्य सिद्धान्त सा बन गया कि जनता के प्रतिनिधियों की स्वीकृति के उपरान्त ही कर लगाए जाएं । इस प्रकार १३ वीं सदी में प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त को अपनाया गया , लेकिन ये प्रतिनिधि पूर्णतया राजा के आदेशों के अधीन ही रहते थे और प्रतिनिधियों पर राजा की कोप दृष्टि भी रहती थी । इसलिए प्रतिनिधि चुना जाना आदर की बात नहीं समझी जाती थी , वरन् प्रतिनिधियों को बलपूर्वक कौंसिल में भेजना होता था ।
( ii ) मैग्नाकार्टा या बृहत अधिकार पत्र ( Magna Carta ) - ११ ९९ में जॉन इंग्लैण्ड की राजगद्दी पर बैठा । यह | अयोग्य , अदूरदर्शी और अत्याचारी शासक था । सामन्तों ने उसके अत्याचारों से दुखी होकर उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया और १५ जून , १२१५ को रनीमेड नामक स्थान में उसे एक अधिकार पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश किया । यह अधिकार पत्र ' मैग्नाकार्टा या ' महान् अधिकार - पत्र ' नाम से विख्यात है और इसे ब्रिटेन के वैधानिक इतिहास में एक महान् सीमा चिन्ह माना जाता है । विलियम स्टब्स ( William Stubs ) नामक पादरी के शब्दों में तो ' इग्लैण्ड के संविधान का इतिहास इस महान् अधिकार - पत्र की व्याख्या ही है । ' मैग्नाकार्टा ने किन्हीं नवीन अधिकारों जन्म देने के बजाय समान्तों के उन परम्परागत अधिकारों को मान्यता प्रदान की , जिन्हें सम्राट जॉन ने भंग किया था । मैग्नाकार्टा के मुख्य उपबन्ध निम्नांकित है :
( १ ) राजा सामन्तों पर करारोपण महान् परिषद की सम्मति पर ही करे ।
( २ ) किसी नागरिक को उस समय तक बन्दी न बनाया जाए और न ही निर्वासित किया जाए , जब तक कि उसका अपराध सिद्ध न हो जाए ।
( ३ ) किसी व्यक्ति की उसकी स्थिति और अपराध की मात्रा के अनुरूप ही दण्ड दिया जाए , दण्ड मनमाना न हो ।
( ४ ) ' कोर्ट ऑफ कॉमन प्ली ' ( Court of Commoan Plea ) एक निश्चित स्थान पर ही काम करे , राजा के साथ साथ दौरे न करे ।
( ५ ) राजा चर्च के संगठन और उसके अधिकारियों की नियुक्ति में हस्तक्षेप न करे ।
( ६ ) प्रभावशाली सामन्तों और पदाधिकारियों को ' महान् परिषद ' की बैठक में बुलाया जाए ।
( ७ ) विदेशी व्यापारियों के इंग्लैण्ड में स्वतन्त्र विचरण पर केवल युद्धकाल में प्रतिबन्ध हो , सामान्य काल मे उन पर प्रतिबन्ध न हो ।
( ८ ) समस्त राज्यों में तोल के एक ही पैमानों का प्रयोग किया जाए ।
यद्यपि मैग्नाकार्टा का सम्बन्ध प्रमुखतया सामान्तों और पादरियों से था , लेकिन इसमें सामन्य जनता को भी बिना कानूनी प्रक्रिया के बन्दी न बनाए जाने की स्वतन्त्रता प्रदान की गई । इसके अतिरिक्त मैग्नाकार्टा ने सामन्त वर्ग को जो अधिकार प्रदान किए थे , वे धीरे - धीरे सामान्य जनता को भी प्राप्त हो गए । इस प्रकार मैग्नाकार्टा सामान्य जनता की स्वतन्त्रता और अधिकारों का मूल आधार बन गया । इस अधिकार पत्र का महत्त्व यह है कि इसने राजा की निरंकुशता का अन्त कर मर्यादित राजतन्त्र और विधि के शासन की स्थापना की । थाम्पसन और जॉनसन ने इसके महत्त्व का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि “ मैग्नाकार्टा वस्तुतः ब्रिटिश संविधान का आधारस्तम्भ है , क्योंकि इसने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि राजा भी विधि से ऊपर नहीं , अपितु विधि के अधिक है । " यहीं से राजा की निरंकुशता का अन्त और मर्यादित शासन का आरम्भ होता था ।
( iii ) पार्लियामेंण्ट का उदय ( Rise of Parliament ) -मैग्नाकार्टा के बाद प्लैण्टौगैनेट काल से ही पार्लियामे • का उदय हुआ । १२५४ ई . में सम्राट हेनरी तृतीय ने पार्लियामेण्ट की बैठक में भाग लेने के लिए प्रत्येक काउण्टी से दो - दो नाइ को आमन्त्रित किया । प्रस्तावित करों के बारे में सम्राट और सामन्तों में कोई समझौता न हो सका , इसके फलस्वरूप दोनों सशस्त्र संघर्ष प्रारम्भ हो गया । इस संघर्ष में सामन्तों के मुखिया साइमन डि मॉण्टफोर्ड की विजय हुई और वह देश का तानाश बन गया । १२६२ ई . में माण्टफोर्ड ने पार्लियामेण्ट की एक बैठक बुलाई जिसमें उसने समस्त अर्ल , बिशप , बैरन और शासन नाइट प्रतिनिधियों के अतिरिक्त उन नगरों के प्रतिनिधियों को भी बुलाया जिनसे उसके मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे । कर लगाने के लिए अधिक से अधिक जनता का समर्थन प्राप्त करने हेतु ही उसके द्वारा ऐसा किया गया । जब साइमन डि माण्टफोर्ड की तानाशाही का अन्त हो गया , तो नगरों के प्रतिनिधियों को बुलाने का चलन भी समाप्त हो गया और अगले ३० वर्षों में ब्रिटिश संसद बैठक इनके बिना ही होती रही । पार्लियामेण्ट का उदय १२ ९ ५ ई . से माना जाता है जब सम्राट एडवर्ड प्रथम ने संसद की एक बैठक बुलाई । संसद की इस बैठक को ही मॉडल पार्लियामेण्ट ( Model Parliament ) कहा जाता है । एडवर्ड प्रथम द्वारा बुलाई गई पार्लियामेण्ट के सदस्य तीन वर्गों में से थे - सामान्त वर्ग , पादरी वर्ग और नगरों के प्रतिनिधि या पौरजन ( Commons ) यदि तीन सदनों की प्रथा स्थायी हो जाती तो ब्रिटिश संसद का रूप त्रिसदनात्मक हुआ होता , पर संयोगवश संसद के दो ही सदन हुए । सामन्त वर्ग के लोग और उच्च पादरी एक साथ मिल गए , क्योंकि दोनों के आर्थिक औ सामाजिक हित समान थे और दोनों ही ने अपनी उच्च स्थिति के आधार पर संसद की सदस्यता प्राप्त की थी , निर्वाचन के आधार पर नहीं । इसी प्रकार नगरों के प्रतिनिधियों और शासनों के प्रतिनिधि ' नाइट ' के हित बहुत कुछ सीमा तक समान थे और दो की सदस्यता निर्वाचन पर आधारित थी , अतः ये दोनों वर्ग एक साथ मिल गए । सामन्तों और उच्च पादरियों के दल को लो सभा कहा गया और नगरों के प्रतिनिधियों तथा नाइटों के दल का नाम लोक सदन ( House of Commons ) पड़ा । इस प्रका ब्रिटेन में संयोगवश द्वि - सदनात्मक व्यवस्थापिका का विकास हुआ , जिसे कलान्तर में समस्त विश्व के द्वारा अपनाया गया । प्लैण्टैगैनेट काल के बाद लंकास्ट्रियन राज्यकाल ( १३ ९९ -१४८५ ) प्रारम्भ हुआ , जिसमें संवैधानिक दृष्टेि से कु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए । ऐसे प्रमुख परिवर्तन निम्न प्रकार है :
( १ ) हेनरी चतुर्थ ने ' क्यूरिया रेजिस ' में अपने कुछ परामर्शदाता चुनकर इन परामर्शदाता की संस्था को ' प्रिवि कौंसिल का नाम दिया । इस प्रकार प्रिवि कौंसिल का उदय हुआ , जिसने आगे चलकर केबीनेट को जन्म दिया । ( २ ) १४०१ ई . में लोक सदन ने यह मांग की कि नए कर लगाने के पूर्व राजा को जनता की शिकायतों की याचिक सुननी चाहिए और उनके निवारण का प्रयत्न करना चाहिए । यह मांग आगे चलकर एक परम्परा बन गई । ( ३ ) १४०७ में लोक सदन ने स्वयं वित्त विधेयक प्रस्तुत करने का अधिकार ले लिया । आगे चलकर लोक सदन के यह अधिकार सभी पक्षों को मान्य हो गया ।
( ४ ) ट्यूडर कालः पुनः कठोर राजतन्त्र की स्थापना ( १४८५ ई . से १६०३ ई . ) - १३४१ ई . के उपरान्त ३०-३ वर्षों तक ब्रिटेन में गृहयुद्ध तथा अशान्ति का साम्राज्य था । लंकास्टर तथा यार्क वंशो के बीच युद्ध चलता रहा , जो ' गुलाबों युद्ध ' ( War of Roses ) के नाम से प्रसिद्ध है , अन्त में १४८५ ई . में लंकास्टर वंश के हेनरी ट्यूडर ने अपने यार्किस्ट प्रतिद्वंद्वि को पराजित किया और वह सप्तम हेनरी के नाम से सिंहासनारूढ़ हुआ । इसी समय से ट्यूडर वंश का राज्य प्रारम्भ हुआ , १६०३ ई . तक चलता रहा । इस वंश के शासनकाल में सामन्तों और संसद की शक्ति क्षीण हो गई और पुनः कठोर राजतन्त्र स्थापना हुई । लम्बे गृहयुद्ध , अशान्ति और सामन्तों की लूटमार से जनता तंग आ चुकी और वह स्वयं यह चाहती थी कि सम्र सामन्तों पर नियन्त्रण स्थापित कर शान्ति और व्यवस्था स्थापित करे । ट्यूडर सम्राट बहुत अधिक शक्तिशाली और योग्य उन्होंने सामन्तों को नियन्त्रित कर स्वेच्छाचारी शासकों की भांति , लेकिन जनता के हित को दृष्टि में रखते हुए शासन किया । ट्यूडर सम्राटों ने बहुत धनराशि एकत्रित कर ली थी , इसलिए उन्हें संसद बुलाने की आवश्यकता नहीं हुई और संसद का मह बहुत कम हो गया । शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित करने के अतिरिक्त इस काल की एक अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह रही राजकीय शक्ति पोप के नियन्त्रण से मुक्त हो गई ।
( ५ ) स्टुअर्ट काल : निरंकुश राजतन्त्र और सीमित राजतन्त्र के पक्षों में संघर्ष और लोकतन्त्र की आधारशित की स्थापना ( १६०३ ई . से १७१४ ई . तक ) - महारानी एलिजाबेथ का कोई पुत्र या निकट सम्बन्धी न होने के कारण उसकी मृत्यु के बाद १६०३ ई . में इंग्लैण्ड का सिंहासन स्कॉटलैण्ड के राजा जेम्स प्रथम के हाथ में आ गया । जेम्स प्रथम के समय में ही सम्राट और संसद में संघर्ष प्रारम्भ हो गया था , लेकिन जेम्स प्रथम ने चतुराई से काम लेते हुए संसद को अधिक उत्तेजित नहीं होने दिया ।
जेम्स प्रथम की मृत्यु के बाद १६२५ ई . में उसका पुत्र चार्ल्स प्रथम गद्दी पर बैठा । उसने संसद की उपेक्षा और मनमानी प्रारम्भ कर दी और राजा के दैवी अधिकारों तथा विशेषाधिकारों पर बल देना प्रारम्भ कर दिया । ऐसी स्थिति में उसका संसद से झगड़ा हुआ और १६२८ ई . से संसद चार्ल्स प्रथम से उस ' अधिकार याचना - पत्र ' ( Petition of Rights ) को मनवाने में सफल हुई जिसने राजा की शक्तियों पर निम्न प्रतिबन्ध लगाए गए थे :
( १ ) ससंद की स्वीकृति के बिना राजा कोई कर नहीं लगा सकता ।
( २ ) संसद की पूर्व स्वीकृति के बिना राजा कोई कर नहीं ले सकता ।
( ३ ) बिना कोई निश्चित कारण बताए , किसी व्यक्ति को जेल में नहीं डाल सकता ।
( ४ ) शान्तिकाल में राजा मार्शल लॉ नहीं लगा सकता ।
संसद के दबाव में चार्ल्स प्रथम ने ‘ अधिकार याचना - पत्र ' को अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी , किन्तु अपने वचन को निभाया नहीं । जब संसद ने इसका विरोध किया तो सम्राट ने संसद को भंग कर दिया और ११ वर्ष तक संसद के बिना ही शासन किया । संसदीय नेताओं ने सम्राट की इस निरंकुशता का विरोध किया और इन दोनों पक्षों में १६४२ से १६४५ ई . तक गृहयुद्ध . चला । इस गृहयुद्ध में संसदीय नेताओं की जीत हुई और सम्राट चार्ल्स पर मुकदमा चलाकर १६४६ में . उन्हें मृत्युदण्ड दिया गया ।
( i ) गणतन्त्र की स्थापना १६४ ९ ई . में इंग्लैण्ड में राजतन्त्र तथा लॉर्ड सभा का अन्त कर क्रामवेल की अध्यक्षता में गणतन्त्र की स्थापना की गई । इस समय इंग्लैण्ड का एक लिखित संविधान भी अपनाया गया । ३ सितम्बर , १६४८ ई . को क्रामवेल की मृत्यु हो गई ।
( ii ) पुनः राजतन्त्र की स्थापना गणतन्त्र और लिखित संविधान ब्रिटिश निवासियों के स्वभाव के अनुकूल नहीं थे अतः क्रामवेल की मृत्यू होने के साथ ही इनकी अन्त हो गया । १६६० ई . में चार्ल्स प्रथम के पुत्र चार्ल्स द्वितीय को गद्दी पर बिठाया गया , जिसने १६८५ ई . तक राज्य किया । प्रिवी कौंसिल अब एक बडी संस्था हो गई थी , इसलिए चार्ल्स द्वितीय ने १६६७ ई . से कुछ महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों की एक समिति से परामर्श लेना शुरू कर दिया , जिसे ' कबाल ' ( CABAL ) कहा जाने लगा । इसी के बाद में केबीनेट का उदय हुआ । चार्ल्स द्वितीय के शासनकाल में १६७ ९ में ' हैबियस कार्पस एक्ट ' ( Habeas Cropus Act ) भी पारित किया गया जिसमें व्यवस्था की गई कि बिना अभियोग चलाए किसी व्यक्ति को नजरबन्द नहीं रखा जा सकता ।
( iii ) गौरवपूर्ण क्रान्ति - १६८५ ई . में चार्ल्स द्वितीय की मृत्यु के बाद उसका भाई जेम्स द्वितीय गद्दी पर बैठा , जिसने केवल तीन वर्ष ही राज्य किया । उसने संसद की अनुमति के बिना कानून रद्द करने का अधिकार धारण कर लिया । इससे संसदीय नेता बहुत अप्रसन्न हुए और जेम्स द्वितीय को सिंहासन से हटाने हेतु उन्होंने औरेन्ज के राजकुमार विलियम तृतीय को इंग्लैण्ड पर आक्रमण करने के लिए आमन्त्रित किया । विलियम तृतीय ने एक विशाल सेना के साथ इंग्लैण्ड पर आक्रमण कर दिया । जब जेम्स द्वितीय ने देखा कि सभी पक्षों ने उसका साथ छोड़ दिया है तो वह फ्रांस भाग गया । इस प्रकार बिना किसी रक्तपात के हो वांछित परिवर्तन हो गया । इसे ही इंग्लैण्ड की गौरवपूर्ण क्रान्ति ( Glorious Revolution ) के नाम से जाना जाता है ।
( iv ) अधिकार पत्र , १६८ ९ ( Bill of Rights ) - गौरवपूर्ण क्रान्ति के बाद विलियम व मेरी को ब्रिटेन का सम्मिलित शासक बनाया गया । इस अवसर पर संसद सम्राट से अधिकार पत्र मनवाने में सफल हो गई , जिसमें निम्न बातें थी :
( i ) संसद की पूर्व स्वीकृति के बिना राजा कोई कर नहीं लगा सकता ।
( ii ) राजा को कम से कम एक बार संसद की बैठक अवश्य बुलानी होगी ।.
( iii ) संसद की पूर्व स्वीकृति के बिना राजा कोई सेना नहीं रख सकता ।
( iv ) राजा अपनी स्वार्थ पूर्ति हेतु उच्चायुक्त जैसे किसी नवीन न्यायालय की स्थापना नहीं कर सकता ।
( v ) संसद में जनता के प्रतिनिधियों को भाषण की स्वतन्त्रता प्राप्त होगी । मुनरो ने इस अधिकार - पत्र के महत्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है , " इससे पार्लियामेण्ट की वैधानिक प्रभुता कीघोषणा की गई । ” यद्यपि सामान्य दृष्टि से यह अधिकार पत्र कोई संविधान नहीं था , किन्तु जैसा कि प्रो . एडम्स ने कहा है , " ब्रिटिश इतिहास में लिखित संविधान के सर्वाधिक निकट की कोई वस्तु थी । "
( v ) १७०१ का उत्तराधिकार अधिनियम ( Act of Settlement ) - विलियम और मेरी निःसन्तान थे , इत . १७०१ में उत्तराधिकार अधिनियम पारित कर यह निश्चित किया गया कि रानी एन ( मेरी ) के देहावसान पर इंग्लैण्ड का राज्य हैनोवर की राजकुमारी सोफिया ( जेम्स प्रथम की प्रपौत्री ) अथवा उसके उत्तराधिकारी को मिलेगा । इसी अधिनियम द्वारा न्यायाधीशों को सदाचारपर्यन्त पद की सुरक्षा प्रदान की गई और यह भी निश्चित हुआ कि राजा संसद की स्वीकृति के बिना न तो विदेश जा सकता है और न ही युद्ध की घोषणा कर सकता है ।
( ६ ) हैनोवर काल : संसदीय जनतन्त्र का विकास ( १७१४ ई . से प्रारम्भ ) - राजपद पर संसद की सर्वोच्चता तो १६८ ९ के अधिकार - पत्र से ही स्थापित हो गई थी ; १७१४ में साम्राज्ञी एन की मृत्यु पर ' उत्तराधिकार अधिनियम ' के अनुसार हैनोवर का जार्ज प्रथम ब्रिटेन का सम्राट बना । यहीं से संदीय जनतन्त्र का विकास प्रारम्भ हुआ जिसने बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक पूर्णता प्राप्त कर ली । संसदीय जनतन्त्र का विकास इन चरणों में हुआ :
( i ) सम्राट की वास्तविक शक्तियों का पतन - राजपद पर संसद की सर्वोच्चता तो १६८ ९ के अधिकार पत्र से ही स्थापित हो गई थी , किन्तु हैनोवर वंश के सिंहासनारूढ होने के पहले तक राजा का मन्त्रियों की नियुक्ति और पदच्युति में पर्याप्त . हाथ रहता था । हैनोवर काल से राजा के इस अधिकार का पतन होता गया और ये अधिकार पार्लियामेण्ट के हाथ में पहुंच गए । " जार्ज तृतीय के शासन काल में अधिकारों का अवश्य कुछ अंशों में पुनर्जीवन हुआ , किन्तु वह अस्थायी सिद्ध हुआ और विलियम संवैधानिक चतुर्थ के समय से राजा के अधिकारों का क्रमिक न्हास होता गया । साम्राज्ञी विक्टोरिया तक आते - आते सम्राट एक शासक मात्र हो गया ।
( ii ) मन्त्रिमण्डलीय प्रणाली का विकास - हैनोवर काल के पूर्व तक मन्त्रिमण्डल की बैठकों की अध्यक्षता सम्राट ही करता था और मन्त्रिमण्डलीय प्रणाली का पूर्ण विकास नहीं हो पाया था , लेकिन हैनोवर राजा जार्ज प्रथम अंग्रेजी भाषा से परिचित नहीं थे और इंग्लैण्ड की राजनीति में भी उनकी रूचि नहीं थी । अतः उन्होंने केबीनेट की बैठकों में सम्मिलित होना बन्द कर दिया । सम्राट ने १७२१ में ह्रिग पार्टी के नेता सर रॉबर्ट वाल्पोल को केबीनेट की अध्यक्षता का कर्तव्य सौंपा और वाल्पोल ब्रिटेन का एक तरह से प्रथम प्रधानमन्त्री बना । धीरे - धीरे मन्त्रिमण्डलीय प्रणाली के अन्य सिद्धान्तों को अपनाया गया । लॉर्ड सभा में पराजित होने पर वाल्पोल ने त्यागपत्र नहीं दिया , किन्तु १७४२ में जब लोकसदन में उसका बहुमत न रहा , तो सम्राट का पूर्ण विश्वासपात्र होने पर भी उसने त्यागपत्र देकर यह स्थापित किया कि कोई व्यक्ति तभी तक प्रधानमन्त्री रह सकता है जब तक कि उसे लोकसदन मे बहुमत का विश्वास प्राप्त हो । कालान्तर में सामूहिक उत्तरदायित्व की धारणा और मन्त्रिमण्डलीय शासन के अन्य सिद्धान्तों का विकास हुआ । - किन्तु अब भी
( iii ) लोकसदन का लोकतन्त्रीकरण यद्यपि १७ वीं सदी में ही संसद ने सर्वोच्चता प्राप्त कर ली वह पर्याप्त शक्तिशाली नहीं हो पाई थी , क्योंकि वह जनता के एक अत्यन्त छोटे भाग का ही प्रतिनिधित्व करती थी । अतः संसद के अन्दर और बाहर संसदीय मताधिकार को व्यापक करने के लिए आन्दोलन चला जिसे उन्नीसवीं सदी में सफलता प्राप्त हुई । १८३२ के सुधार कानून द्वारा इस दिशा में श्रीगणेश करते हुए सर्वप्रथम कुछ सीमित रूप में मध्यम वर्ग के लोगों को मताधिकार प्रदान किया गया । इसके बाद १८६७ के सुधार कानून द्वारा मताधिकार को और व्यापक करते हुए कारीगरों व नगरों के मजदूर लोगों को मताधिकार प्रदान किया गया । इसके बाद १८८४ के सुधार कानून द्वारा खेतिहर श्रमिकों को मताधिकार प्रदान किया गया । १ ९ १८ के कानून द्वारा इससे आगे चलकर ३० वर्ष से अधिक आयुवाली स्त्रियों को मताधिकार प्रदान किया गया । अन्त में १ ९ २८ के कानून द्वारा सार्वजनिक वयस्क मताधिकार को स्वीकार करते हुए २१ वर्ष या इससे अधिक आयु के स्त्री - पुरुषों को मताधिकार प्रदान किया गया । इस प्रकार १८३२ , १८६७ और १८८४ के सुधार कानूनों व १ ९ १८ और १ ९ २८ के अधिनियर्मो के आधार पर लोकसदन का लोकतन्त्रीकरण हुआ और यही लोकसदन की शक्ति का सबसे प्रमुख आधार है । १ ९ ७० ने पारित विधेयकों के अनुसार अब ब्रिटेन में १८ वर्ष की आयु प्राप्त प्रत्येक व्यक्ति को मताधिकार प्राप्त है ।
( iv ) लोकसदन की तुलना में लॉर्ड सभा की शक्तियों का पतन - १८ वीं सदी तक लोकसदन पर लॉर्ड सभा का आतंक छाया रहता था । लॉर्ड अपने मनोनीत सदस्यों को लोकसदन में भेज देते थे , किन्तु लोकतन्त्र के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए
लोकसदन की तुलना में लॉर्ड सभा की शक्तियां कम किया जाना आवश्यक था , क्योंकि लॉर्ड सभा का गठन आनुवांशिक आधार होता था , निर्वाचन के आधार पर नही । १८३२ का सुधार कानून लॉर्ड सभा की इच्छा के विरुद्ध ही पारित हुआ था और इसी समय लॉर्ड सभा की शक्तियां कम होनी प्रारम्भ हो गई । उन्नीसवीं सदी में यह परम्परा स्थापित हो गई थी कि वित्तीय विषयों मे अन्तिम शक्ति लोकसदन ही है , लेकिन १ ९ १० मे लॉर्ड सभा ने लॉयड जार्ज के प्रगतिशील बजट को अस्वीकार करके इस नरम्परा को भंग किया । ऐसी स्थिति में १ ९ ११ मे एक संसदीय अधिनियम पास कर लॉर्ड सभा की शक्तियां कम करी दी गई जो २ ९ ४ ९ के संसदीय अधिनियम से और कम हो गई । लोकसदन की तुलना में लॉर्ड सभा की शक्तियां कम करके ही इंग्लैण्ड लोकतन्त्र की पूर्ण प्राप्ति कर सका है ।
( v ) दलीय पद्धति का विकास संसदीय जनतन्त्र का कार्य संचालन राजनीतिक दलों पर ही आधारित है और इंग्लैण्ड में भी संसदीय जनतन्त्र का पूर्ण विकास राजनीतिक दलों की सहायता से सम्भव हुआ है । इस सम्बन्ध में ड्रेग्निच ने कहा है , " जब तक राजनीतिक दल सशक्त न हो गए , राजा एक दल को दूसरे दल से भिड़ाता रहा पर अन्त में लोकसदन में बहुमत प्राप्त किसी सुसंगठित दल के विरुद्ध राजा की कुछ न चल सकी । " दलीय पद्धति का उदय स्टुअर्ट काल में ही हो गया था । चार्ल्स द्वितीय के कोई सन्तान नहीं थी और चार्ल्स द्वितीय के भाई जेम्स द्वितीय को राजसिंहासन से अलग रखने के लिए संसद में एक विधेयक ' एक्सक्लूजन बिल ' ( Exclusion Bill ) रखा गया । इस विधेयक पर ही संसद हिग्स और टोरी दो दलों में विभक्त हो गई । मतभेद का प्रश्न तो शीघ्र हल हो गया , पर दोनों दलों ने परस्पर विरोधी राजनीतिक दलों का रूप ले लिया और द्विदल प्रणाली स्थापित हो गई । सत्रहवी सदी के अन्त तक स्थिति यह थी कि यदि कुछ व्यक्ति विरोधी दल बनाते थे तो उन्हें राजद्रोही कहा जाता था । बाद में स्थिति में परिवर्तन हुआ और विरोधी दल को सम्राट का वफादार विरोधी दल ( His Majesty's Loyal Opposition ) कहा जाने लगा । बाद में विरोधी दल के नेता पद को राजकीय मान्यता प्राप्त हो गई । - ब्रिटेन के इस संवैधानिक विकास की मुख्य विशेषता यह है कि यह स्थिर गति और शान्तिपूर्ण ढंग से हुआ है और इस संवैधानिक विकास की दिशा , कुछ बाधाओं और रुकावटों के बावजूद , राजतन्त्र से लोकतन्त्र की स्थापना रही । .
प्रश्न २ : ब्रिटिश संविधान में संवैधानिक अभिसमयों ( परंपराओं ) का क्या महत्त्व है ? अथवा ब्रिटिश संविधान की प्रमुख प्रथाओं ( परंपराओं ) का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर : किसी देश के शासन में कानूनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है । इनके अभाव में न तो शासन व्यवस्था ही स्थिर रह सकती है और न सामाजिक व्यवस्था संविधान उन नियमों एवं कानूनों का संकलन होता है , जिनके आधार पर शासन का संचालन किया जाता है । विश्व का चाहे कोई भी राज्य हो , वहाँ के जीवन में परम्पराओं तथा प्रथाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है तथा कानूनों का निर्माण भी मुख्यतया उन्हीं के आधार पर किया जाता है । इस प्रकार संविधान के निर्माण व विकास में परम्पराएँ एवं प्रथाएँ अत्यन्त सहायक होती हैं । राजनीतिक आचरण के इन नियमों को ही संवैधानिक अभिसमय कहा जाता है ।
अभिसमय का अर्थ - ब्रिटेन के संविधान का अधिकांश भाग अलिखित है , अतः उसका निर्माण व विकास मुख्यतया अभिसमयों पर ही आधारित है । डायसी ने इन्हे ' संवैधानिक परिपाटी ' की संज्ञा दी है , जबकि जॉन स्टुअर्ट मिल इन्हे संविधान के ' अभिलिखित नियम ' कह कर पुकारते है । एन्सन ने इसके लिए ' संवैधानिक परम्पराएँ ' शब्द का प्रयोग किया है । कुछ विद्वानों द्वारा दी गयीं अभिसमय की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नवत् हैं
( १ ) प्रो . ऑग के अनुसार “ अभिसमयों का निर्माण उन समझौतों , आदतों या प्रथाओं , से मिलकर हुआ है जो राजनीतिक नैतिकता के नियम मात्र होने पर भी बड़ी से बड़ी सार्वजनिक सत्ताओ के दिन - प्रतिदिन के सम्बन्धों एवं गतिविधियों के अधिकांश भाग का नियमन करते है ।
( २ ) डायसी के शब्दा में - “ संविधान के अभिसमय वे रीति - रिवाज अथवा समझौते होते है जिनके अनुसार सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न विधानमण्डल विधानमण्डल के विभिन्न अंगों की अपनी विवेकाधिकारी धारित अधिकारों का प्रयोग करना चाहिए , भले ही वे समाज के परमाधिकार हों अथवा संसद के विशेषाधिकार । ”
( ३ ) फाइनर के मतानुसार “ राजनीतिक आचरण के उन नियमों को अभिसमय कहते हैं जिनकी स्थापना परिनियमों ,न्यायिक निर्णयों या संसदीय परम्पराओं के द्वारा नहीं बल्कि इनसे पृथक् उनके पूरक के रूप में उनके भिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होती है ।
" अभिसमय की विशेषताएँ ( लक्षण ) - उपर्युक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर अभिसमय की निम्नलिखित विशेषताएँ प्रगट होती है -
( १ ) अभिसमयों का निर्माण संसद नहीं करती , बल्कि प्रथाओं द्वारा इनका विकास होता है । जो प्रथाएँ अपन उपयोगिता के आधार पर स्थायी हो जाती है , वही अभिसमय का स्वरूप ग्रहण कर लेती हैं ।
( २ ) अभिसमयों के पीछे कानूनी शक्ति नहीं होती फिर भी इनका पालन कानूनों के समान ही किया जाता है ।
( ३ ) लोग अभिसमयों का पालन उनकी उपयोगिता एवं जनमत की शक्ति के कारण करते हैं ।
अभिसमय एवं कानून में अन्तर : अभिसमय एवं कानून में निम्नलिखित अन्तर पाये जाते हैं -
( १ ) अभिसमयों का आधार नैतिकता है । इनका पालन व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर होता है , फिर भी व्यवहार में इनका उल्लंघन करना प्रायः सम्भव नहीं होता । नैतिकता की शक्ति के कारण लोग इनका पालन करने के लिए बाध्य हो जाते हैं । कानूनों के पीछे राज्य की शक्ति होती है । इनका उल्लंघन करने पर व्यक्ति दण्ड का भागी होता है ।
( २ ) अभिसमसयों का पालन यदि कोई व्यक्ति न करें तो उसके विरुद्ध न्यायालय की शरण नहीं ली जा सकती । कानूनों को न्यायालय का संरक्षण प्राप्त रहती है । इनका उल्लंघन करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध न्यायालय में शरण ली जा सकती है ।
( ३ ) कानून लिखित होते हैं , जबकि अभिसमय अलिखित ।
( ४ ) कानूनों का निर्माण व्यवस्थापिका द्वारा एक निश्चित : अपनाकर किया जाता है । अभिसरण परम्पराओं के विकास के परिणाम हैं । कोई परम्परा जब व्यावहारिक रूप से उपयोगी सिद्ध होती है तो वह अभिसमय बन जाती हैं । कानूनों तथा अभिसमसयों में उपर्युक्त अन्तर होते हुए भी व्यवहार में इंग्लैण्ड के निवासी अभिसमसयों का पालन “ संविधान की परम्पराएँ कानून नहीं हैं , परन्तु उनको शक्ति इस बात से कानूनों की भाँति ही करते हैं । डायसी के अनुसार मिलती है कि जो व्यक्ति उनका उल्लंघन करता है , अन्त में कानून भंग करता है और उसे कानून भंग करने का दण्ड मिलता है ।
" ब्रिटिश संविधान की प्रमुख प्रथाएं - ब्रिटिश संविधान इनकी प्रथाओं को मुख्यतः तीन भागों में बांटा जा सकता है
१ ) सम्राट से संबंधित प्रस्थाएं ,
२ ) मंत्रिमण्डल से संबंधित प्रथाएं तथा
३ ) संसद से संबंधित प्रथाए ।
१ ) सम्राट से संबंधित प्रस्थाएं सम्राट से संबंधित प्रथाओं ने ही सीमित राजतंत्र को संवैधानिक सीमित राजतंत्र में बदल दिया है । ये प्रथाएं निम्नलिखित है-
( १ ) सम्राट अपनी शक्तियों का प्रयोग अपनी इच्छानुसार नही बल्कि मंत्रिमण्डल की सलाह पर करता है ;
( २ ) सम्राट संसद द्वारा पास विधेयकों पर अपना विशेषाधिकार प्रयोग नहीं करता ;
( ३ ) सम्राट कॉमन सदन में बहुमत प्राप्त दल के नेता को ही प्रधानमंत्री नियुक्त करता है ;
( ४ ) मत्रिमण्डल द्वारा त्यागपत्र दिये जाने पर सम्राट विरोधी दल के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करता है ;
( ५ ) सम्राट मंत्रिमण्डल की बैठकों में भाग नहीं लेता और न ही किसी राजनीतिक दल की गतिविधियों में रुचि लेता है ;
( ६ ) सम्राट प्रधानमंत्री की सलाह पर ही कॉमन सदन को विघटित करता है तथा नये चुनाव का आदेश देता है ।
२ ) मंत्रिमण्डल से संबंधित प्रथाएं- मंत्रिमण्डल से संबंधित प्रथाएं निम्नलिखित है-
( १ ) मंत्रिमण्डल की संस्था प्रथा पर ही आधारित है ;
( २ ) १ ९ २३ में यह प्रथा पक्की हो गई कि प्रधानमंत्री कॉमन सदन से ही नियुक्त किया जाएगा ।
( ३ ) मंत्रिमण्डल की अध्यक्षता प्रधानमंत्री द्वारा की जाती है ;
( ४ ) मंत्रिमण्डल एक इकाई की तरह काम करता है और इसके सभी सदस्य अपने कार्यों के लिए व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से उत्तरदायी होते हैं ;
( ५ ) मंत्रिमण्डल कॉमन सदन के प्रति उत्तरदायी है , लार्ड सभा के प्रति नही ;
( ६ ) कॉमन सदन का विश्वास खोने पर प्रधानमंत्री को अपना पद त्यागना पड़ता है ।
३ ) सदन से संबंधित प्रथाएं- संसद भी अपने कुछ काम प्रथाओं के आधार पर करती है , जैसे-
( १ ) संसद का वर्ष में एक अधिवेशन अवश्य होना चाहिए ;
( २ ) लॉर्ड सदन जब सर्वोच्च न्यायालय के रूप में कार्य करता है तो केवल विधि सदस्य ( Law Lords ) ही इसमें भाग लेते हैं ;
( ३ ) कॉमन सदन का अध्यक्ष अपने चुनाव के बाद राजनीति से संन्यास ले लेता है और जब तक चाहे अपने पद पर बना रह सकता है ;
( ४ ) धन बिल केवल कॉमन सदन में पेश होता है ;
( ५ ) दोनों सदनों मे किसी भी बिल के पास होने के लिए उस पर तीन वाचन ( Three Readings ) अवश्य होती है ;
( ६ ) प्रधनमंत्री लॉर्ड सदन मे जितने चाहें सदस्य नियुक्त करवा सकता हैं ।
प्रश्न ३ : ब्रिटेन में वैधानिक अभिसमयों ( परंपराओ ) का पालन क्यों किया जाता है ।
उत्तर : ब्रिटेन में अभिसमयों को कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं है फिर भी वहाँ के लोग इनका पालन उसी प्रकार करते हैं , जिस प्रकार अमेरिका में संविधान की धाराओं का पालन किया जाता है । इस सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने जो मत व्यक्त किये हैं , उनका विवरण निम्नवत् है -
( १ ) डायसी का मत डायसी का मत है कि परम्पराएँ तथा कानून एक - दूसरे से जुड़े जुए हैं । यदि परम्पराओं का उल्लंघन किया जाता है तो कानून का उल्लंघन स्वतः हो जायेगा । उदाहरणार्थ- ब्रिटेन में यह परम्परा है कि संसद का अधिवेशन वर्ष में एक बार अवश्य बुलाया जाय । यदि इस परम्परा का पालन नहीं किया गया तो न तो कानूनों का नवीनीकरण ही सम्भव होगा और न बजट ही स्वीकृत हो सकेगा । इससे कानूनी व्यवस्था स्वतःही भंग हो जायेगी । आलोचना - लावेल ने डायसी के इस मत की आलोचना करते हुए यह मत व्यक्त किया है कि संसद का अधिवेशन • वर्ष में एक बार न करने से कानून भंग नहीं होगा , केवल परम्परा ही टूटेगी क्योंकि सम्प्रभु होने के कारण वह दो वर्ष का बजट एक साथ भी पारित कर सकती है । इसके अतिरिक्त अनेक परम्पराएँ ऐसी हैं जिनके टूटने से कानून प्रभावित नहीं होते ।
( २ ) लॉवेल का मत - लॉवेल के अनुसार वैधानिक परम्पराओं को जनमत का समर्थन प्राप्त होने के कारण ही उनका पालन किया जाता है और सरकार भी इसीलिए उनका आदर करती है ।
( ३ ) लास्की का मत - लास्की ने परम्पराओं का पालन करने के दो कारण बताये हैं -
( i ) परम्पराएँ सामायिक संवैधानिक सिद्धान्तों के अनुरूप होने के कारण वे उनके क्रियान्वयन में सहायक होती हैं ।
( ii ) राजनीतिक दल देश की सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्थाओं के प्रति प्रायः एकमत रहने के कारण इनसे सम्बन्धित परम्पराओं का आदर करते हैं ।
अभिसमयों का पालन करने के वास्तविक कारण : जैनिंग्स के अनुसार - " अभिसमसयों का अस्तित्व मात्र अपने लिए नहीं है बल्कि कुछ श्रेष्ठ कारणों से उनका अस्तित्व है । " अभिसमयों ( परम्पराओं ) का पालन करने के प्रमुख कारण निम्नवत् हैं -
( १ ) उपयोगिता - ब्रिटेन की शासन व्यवस्था के संचालन में अभिसमयों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है । अतः उपयोगिता के कारण इनका पालन किया जाता है ।
( २ ) जनमत का समर्थन - ब्रिटेन की जनता परंपरावादी होने के कारण परंपराओं को विशेष महत्त्व देती है । अतः जनमत की शक्ति के कारण कोई भी राजनीतिक दल परंपराओं की आलोचना नही कर पाता ।
( ३ ) संवैधानिक आवश्यकता - ब्रिटेन मे कुछ परपराएँ ऐसी है , जिनका पालन न करने से देश की संवैधानिक व्यवस्था के लिए खतरा उत्पन्न हो सकता है । इस प्रकार अभिसमयों को संवैधानिक आवश्यकता के कारण भी इनका पालन किया जाता हैं । ब्रिटेन के संविधान का अधिकांश भाग अलिखित है तथा अभिसमयों पर ही निर्भर हैं ।
( ४ ) स्वेच्छा - ब्रिटेन में अभिसमयों का पालन किये जाने का एक प्रमुख कारण वहाँ की जनता की स्वेच्छा भी है । परंपरावादी होने के कारण वह परंपराओं का पालन स्वतः करती हैं ।
ब्रिटेन के संविधान में अभिसमयों का महत्त्व : सामान्यतया सभी संविधानों में अभिसमयों का महत्व होता है . परन्तु ब्रिटेन के संविधान में इनका विशेष महत्त्व है तथा इन्हें संविधान की आत्मा कहा जाता हैं । ब्रिटिश संविधान में अभिसमयों के महत्त्व का विवरण निम्नवत् है
( १ ) संविधान के आधार अभिसमय ब्रिटिश संविधान के आधार हैं । संविधान का निर्माण एक निश्चित समय पर नहीं हुआ , बल्कि परम्पराओं के विकास के साथ ही इसका भी धीरे - धीरे विकास होता गया । आज ब्रिटिश संविधान का जो लोकतान्त्रिक स्वरूप देखने को मिलता है , वह परम्पराओं के विकास का ही परिणाम हैं । . डॉ . फाइनर के अनुसार- ' राजतन्त्रात्मक संविधान को लोकतन्त्रात्मक रूप देने में ब्रिटेन के लोगों ने नये अनुच्छेद जोड़ना उचित नहीं समझा । वे परम्पराओं के विकास पर निर्भर रहे । " "
( २ ) अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा अभिसमय अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करने में सहायक होते हैं । के.सी. हीयर के शब्दों में , “ अभिसमय अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करते हैं । " -
( ३ ) लोकतन्त्र को प्रोत्साहन - जैसा कि जैनिंग्स का मत है - " ब्रिटेन में जनसम्प्रभुता की धारणा को सजग सफल बनाने का श्रेय अभिसमयों को ही प्राप्त है । "
( ४ ) शासन को कुशल बनाने में सहायक - इंग्लैण्ड में कार्यपालिका को उत्तरदायी बनाने , स्वस्थ जनमत निर्माण , निष्पक्ष न्याय सुलभ कराने तथा सरकार की निरंकुशता की स्थिति समाप्त करने में अभिसमयों ( परम्पराओं ) = महत्त्वपूर्ण भूमिका है । इस प्रकार अभिसमय शासन को कुशलता प्रदान करने में सहायक है । बर्क के शब्दो में , “ अभिसप द्वारा संविधान वर्तमान संवैधानिक सिद्धान्त के अनुरूप कार्य करता है । " इस प्रकार ब्रिटिश संविधान में अभिसमयों का विशेष महत्त्व है ।

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