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भारतीय राजनीति में महिलाओं की भूमि और राजनीतिक प्रक्रिया

महिलाएँ और राजनीतिक प्रक्रिया

प्रश्न १ : नारीवाद से आप क्या समझते है । नारीवादी आंदोलन के उदय एवं विकास का वर्णन कीजिए ।


नारीवाद आधुनिक युग की एक महत्त्वपूर्ण विचारधारा तथा आन्दोलन है । प्राचीनकाल से ही नारियों के साथ विभिन्न क्षेत्रों में भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता रहा है । इस भेदभावपूर्ण व्यवहार के कारण नारियाँ समाज में अपनी भूमिका निभाने में काफी हद तक असमर्थ रही है । आरंभ से ही समाज पुरुष प्रधान रहा है जिसमें महिलाओ को दासी समझा जाता था और उसे पुरुष के समान अधिकारों से वंचित रखा जाता था ।



महिलाओं का क्षेत्र घर की चारदीवारी तक ही सीमित रखा गया था । उसको सिर्फ पुरुषों की सेवा करना , घर का कामकाज करना , सन्तान पैदा करना और उनका पालन पोषण करना जैसा कार्य ही सौंपा गया था । अनेक धार्मिक ग्रन्थों ने भी स्त्रियों द्वारा पुरुषों के अधीन रहने और उनके निर्देशन में काम करने का समर्थन किया है । पुरुषों द्वारा प्रायः नारियों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता रहा है जिसे प्रत्यक्ष रूप में आज भी देखा जा सकता है । नारियों की यह स्थिति केवल पिछड़े देशों में नहीं बल्कि विकसित देशों में भी मिलती है , जहाँ उन्हें पुरुषों के समाज दर्जा नहीं दिया जाता । यद्यपि आज विश्व के लगभग सभी देशों में संविधान तथा कानून द्वारा स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार दिये गये हैं ; परन्तु व्यवहार में आज भी वे निर्णय निर्माण प्रक्रिया ( Decision Making Process ) में बराबर की भागीदार नहीं है और उनके बारे में अधिकांश निर्णय पुरुषों द्वारा ही लिये जाते हैं । यद्यपि आज भी स्त्रियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जा रहा है , परन्तु आज उनमें जागृति आ गई है और उन्होंने अपने को संगठित करके पुरुषों के समान अधिकार तथा उनसे समानता प्राप्त करने के लिये संघर्ष करना आरम्भ कर दिया है ।


महिलाओं ने अपने हितों की सुरक्षा के लिये चलाये गये आन्दोलन को ही ' नारीवाद ' ( Feminism ) नाम दिया गया है । " स्त्रीवाद / नारीवाद की उत्पत्ति ( Origin of Feminism ) : नारीवाद ( Feminism ) शब्द की उत्पत्ति अंग्रेजी भाषा के शब्द ' Female ' से हुई है । ' Female ' का अर्थ है कि ' स्त्री ' अथवा ' स्त्री सम्बन्धी ' । अतः ' स्त्रीवाद ' एक ऐसा आन्दोलन है जिसका सम्बन्ध स्त्रियों के हितों की रक्षा से है । स्त्रीवाद / नारीवाद की परिभाषायें ( Definitions of Feminism ) विभिन्न विद्वानों में नारीवाद ' को अपने - अपने दृष्टिकोणों से परिभाषित किया है । कुछ विभिन्न परिभाषायें निम्नानुसार हैं


ऑक्सफोर्ड शब्दकोष ( Oxford Dictionary ) के अनुसार , " नारीवाद स्त्रियों के अधिकारों की मान्यता , उनकी उपलब्धियों और अधिकारों की वकालत हैं ।

" - प्रसिद्ध समाजशास्त्री मेरी एवोस ( Mary Evous ) ने लिखा है कि " नारीवाद स्त्रियों की वर्तमान तथा भूतकाल की स्थिति का आलोचनात्मक मूल्यांकन है । यह स्त्रियों से संबंधित उन मूल्यों के लिये चुनौती है जो स्त्रियों को दूसरों के द्वारा प्रस्तुत की जाती है ।

" चारलोट बंच ( Carlotte Bunch ) के शब्दों में , " नारीवाद से अभिप्राय उन विभिन्न सिद्धान्तों और आन्दोलनों से है जो पुरुष की तरफदारी का विरोध तथा पुरुष के प्रति स्त्री की अधीनता की आलोचना करते हैं । जो लिंग पर आधारित अन् को समाप्त करने के लिये वचनबद्ध है ।

" जान चारवेट ( John Charvet ) के अनुसार , " नारीवाद का मूल सिद्धान्त यह है कि मौलिक योग्यता के पक्ष से पुरुषों तथा स्त्रियों से कोई अन्तर नहीं है । इस पक्ष में कोई भी पुरुष प्राणी अथवा स्त्री प्राणी नहीं है , बल्कि वे मानवीय प्राणी है । मनुष्य का स्त्रीत्व तथा महत्त्व लिंग के पक्ष से स्वतन्त्र हैं ।

" महाकोष इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका ( Encyclopaedia Britianica ) के अनुसार , " नारीवाद एक ऐसी धारणा है जिसका जन्म थोड़े समय पूर्व ही हुआ है । यह धारणा उन उद्देश्यो तथा विचारों का प्रतिनिधित्व करती है जो स्त्रियों के अधिकारों के पक्ष में चलाये गये आन्दोलनों के साथ सम्बन्धित हो । इसमें आन्दोलन के निजी , सामाजिक , राजनीतिक तथा आर्थिक पक्ष शामिल हैं तथा इसका उद्देश्य स्त्रियों को पुरुषों के समान पूर्ण समानता के स्तर पर लाना हैं । "मताधिकार के साथ ही अपना लिया गया , लेकिन फ्रांस , इटली , बेल्जियम , पर्तुगाल व स्पेन में महिलाओं को मताधिकार प्राप्त करने के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध तक प्रतीक्षा करनी पड़ी । ये सभी देश पूर्ण रूप से रोमन कैथोलिक्स के प्रभाव में थे । / वस्तुतः ईसाइयत और इस्लाम के नाम पर महिला मताधिकार का बहुत विरोध हुआ । द्वितीय महायुद्ध के बाद लोकतान्त्रिक मताधिकार ( स्त्री - पुरुष सभी वयस्क व्यक्तियों को मताधिकार ) के सिद्धान्त को लगभग प्रत्येक यूरोपीयन देश द्वारा अपना लिया गया था । स्विट्जरलैण्ड जैसे देश ही इसके अपवाद थे , जहां १ ९ ७० ई . तक महिलाओं को मताधिकार से वंचित रखा गया । एक अन्य तथ्य यह है कि कुछ देश महिलाओं को मताधिकार प्रदान करने के बाद भी महिलाओं की अपेक्षित राजनीतिक अयोग्यता ' की धारणा को अपनाए रहे । उदाहरण के लिए न्यूजीलैण्ड में महिलाओं को मताधिकार १८ ९ ३ ई . में प्रदान कर दिया गया , लेकिन उन्हें प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित होने का अधिकार १ ९ १ ९ ई . में Women's Parliamen tary Rights Act ' द्वारा प्रदान किया गया ।


फिनलैण्ड ऐसा पहला राज्य था , जिसने महिलाओं को एक साथ दोनों अधिकार ( मताधिकार और प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित होने का अधिकार ) १ ९ ०६ ई . में प्रदान किए । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ' मानव अधिकार आन्दोलन ' इतना प्रबल हो गया था कि भारत और अन्य अनेक देशों में ' वयस्क मताधिकार का सिद्धान्त ' ( स्त्री पुरुष दोनों के लिए समान राजनीतिक अधिकार ) लगभग बिना किसी विरोध और विवाद के स्वीकार कर लिया गया । आज विश्व के लगभग सभी लोकतान्त्रिक देशों में वयस्क मताधिकार को अपना लिया गया है । महिलाओं को पुरुषों के समान ही प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित होने का अधिकार भी प्राप्त है । व्यवहार के अन्तर्गत चुनावों में महिलाओं की भागीदारी और उनकी भूमिका निरन्तर बढ़ रही है , लेकिन निर्वाचित प्रतिनिधि संस्थाओं में उनका प्रतिनिधित्व और सम्पूर्ण रूप से राजनीतिक प्रक्रिया पर उनका प्रभाव बहुत कम है ।


एक सर्वेक्षण में बताया गया है कि विभिन्न देशों की संसदों ( व्यवस्थापिका सभाओं ) में कुल मिलाकर महिलाओं को १५.१ प्रतिशत प्रतिनिधित्व ( ४० , ३०४ में से ६,०६ ९ स्थान ) ही प्राप्त हैं और मन्त्रिपरिषदों में तो उन्हें कुल मिलाकर ६ प्रतिशत स्थान ही प्राप्त है । में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी में केवल यही बात सम्मिलित नहीं है कि महिलाएं मत दें , प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित हों , राजनीतिक समुदायों को समर्थन दे और विधायकों से सम्पर्क स्थापित करें , वरन् राजनीतिक भागीदारी में उन सभी संगठित गतिविधियों को सम्मिलित किया जा सकता है जो शक्ति सम्बन्धों को प्रभावित करता है या प्रभावित करने की चेष्टा करता है । शासक वर्ग का सक्रिय समर्थन , विरोध या प्रदर्शन भी राजनीतिक भागीदारी का अंग है । सार्थक भूमिका के लिए राजनीतिक प्रक्रिया में महिलाओं की कितनी भागीदारी होनी चाहिए , इस सम्बन्ध में ' महिलाओं की प्रस्थिति पर संयुक्त राष्ट्र आयोग ' ने १ ९९ ० ई . में सुझाव दिया है कि निर्णय लेने वाली संरचनाओं में महिलाओं की भागीदारी कम से कम ३० प्रतिशत होनी चाहिए । इसके बाद १ ९९ ५ ई . में इस बात पर चिन्ता भी व्यक्त की गई है कि ' आर्थिक और सामाजिक परिषद द्वारा अनुमोदित ३० प्रतिशत भागीदारी का लक्ष्य कहीं पर भी प्राप्त नहीं किया जा सका है ।



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