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- भारतीय स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त 1947
15 अगस्त 1947 को भारत ने लगभग 200 वर्षों के ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता प्राप्त की। यह दिन न केवल भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है, बल्कि यह एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र के जन्म का प्रतीक भी है। इस ब्लॉग पोस्ट में, हम स्वतंत्रता संग्राम की प्रमुख घटनाओं, स्वतंत्रता के बाद के कानूनी परिवर्तनों और उनके लंबे समय तक चलने वाले प्रभावों पर चर्चा करेंगे। 2025 में, स्वतंत्रता के पूरे 78 वर्ष बीत चुके होंगे, लेकिन यह उत्सव 79वीं बार मनाया जाएगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि गणना 1947 से शुरू होकर समावेशी है। इसलिए, जहाँ भारत ने स्वतंत्रता के 78 वर्ष पूरे कर लिए हैं, वहीं 2025 का उत्सव 79वाँ अवसर है। "सच्ची आज़ादी वही है जब हर भारतीय न केवल अपने लिए, बल्कि अपने पड़ोसी, अपने समाज और अपने देश के लिए भी न्याय, समानता और सम्मान की भावना रखे।" स्वतंत्रता संग्राम की प्रमुख घटनाएँ 1857 का विद्रोह 1857 का विद्रोह, जिसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पहला युद्ध माना जाता है, ब्रिटिश शासन के खिलाफ व्यापक असंतोष को उजागर करता है। इस विद्रोह ने भारतीय सैनिकों और आम जनता के बीच एकता का एक करीबी उदाहरण प्रस्तुत किया। यह विद्रोह सशस्त्र संघर्ष के साथ-साथ गहरी राजनीतिक और सामाजिक असंतोष का भी प्रतीक था, जिसने आज़ादी की चाहत को जन्म दिया। महात्मा गांधी का नेतृत्व महात्मा गांधी ने 1915 में भारत लौटने के बाद स्वतंत्रता संग्राम में एक नई दिशा दी। उन्होंने सत्याग्रह और अहिंसा के सिद्धांतों का पालन करते हुए लाखों लोगों को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित किया। गांधी जी का 1930 में किया गया नमक सत्याग्रह एक महत्वपूर्ण उदाहरण है, जिसमें हजारों लोगों ने समुद्र के किनारे नमक बनाने के लिए आंदोलन किया। सविनय अवज्ञा आंदोलन 1930 में शुरू हुआ सविनय अवज्ञा आंदोलन ने चिंता की एक नई लहर को जन्म दिया। गांधी जी ने इस आंदोलन के तहत ब्रिटिश नमक कानून का उल्लंघन किया, और यह आंदोलन देशभर में बड़े पैमाने पर प्रगतिशील आवाज़ों को एकजुट करने में सफल रहा। इसी संघर्ष के दौरान, 240 मील की लंबी यात्रा के बाद, गांधी जी ने एक लाख से अधिक लोगों को प्रेरित किया। विभाजन और स्वतंत्रता 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता मिली, लेकिन यह विभाजन के साथ आया। भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजन ने लगभग लाखों लोगों को प्रभावित किया, और यह एक दुखद अध्याय बन गया। इस दौरान लाखों लोगों को अपने घर छोड़ने पड़े, जिससे सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने में बड़ी दरार आई। स्वतंत्रता के बाद के कानूनी परिवर्तन भारतीय संविधान का निर्माण भारतीय संविधान का निर्माण 26 जनवरी 1950 को हुआ। यह संविधान भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में स्थापित करता है और नागरिकों के 450 से अधिक अधिकारों और कर्तव्यों को परिभाषित करता है। संविधान की नीति और मूल सिद्धांतों ने एक मजबूत लोकतंत्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भूमि सुधार कानून स्वतंत्रता के बाद, भूमि सुधार कानूनों को लागू किया गया, जिससे जमींदारी प्रथा का अंत हुआ और लाखों किसानों को भूमि का मालिकाना हक मिला। इससे कृषि उत्पादन में 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी बड़ा फायदा हुआ। महिला अधिकारों का संरक्षण महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए कई कानून बनाए गए, जैसे कि विवाह अधिनियम और घरेलू हिंसा अधिनियम। इन कानूनों ने महिलाओं को सामाजिक और कानूनी अधिकार प्रदान किए। इसके चलते, आज लगभग 30 प्रतिशत महिलाएं कामकाजी हैं, जो पहले केवल 15 प्रतिशत थीं। शिक्षा का अधिकार 2009 में, शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू किया गया, जिसने सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिया। यह कानून शिक्षा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन था, जिसके परिणामस्वरूप 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए साक्षरता दर 90 प्रतिशत के पास पहुंच गई है। स्वतंत्रता के प्रभाव सामाजिक परिवर्तन स्वतंत्रता के बाद, भारत में सामाजिक परिवर्तन की एक नई लहर आई। जातिवाद, लिंग भेदभाव और अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ जागरूकता बढ़ी। इस प्रक्रिया में, विशेष रूप से सरकारी योजनाओं द्वारा, अनुसूचित जातियों और जनजातियों को विशेष सुविधाएं प्राप्त हुईं। आर्थिक विकास स्वतंत्रता के बाद, भारत ने औद्योगीकरण और आर्थिक विकास की दिशा में कई कदम उठाए। औद्योगिक क्षेत्र में 7 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर देखी गई। यह विकास न केवल आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था, बल्कि यह सामाजिक परिवर्तन के लिए भी आवश्यक था। अंतरराष्ट्रीय संबंध भारत ने स्वतंत्रता के बाद एक स्वतंत्र विदेश नीति अपनाई, जिसने उसे वैश्विक मंच पर एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी बना दिया। इसकी नीति नॉन-एलाइनमेंट मूवमेंट (NAM) के तहत, भारत ने विश्व के 120 से ज्यादा देशों के साथ संबंध स्थापित किए। जवाहरलाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री बने और उन्होंने मध्यरात्रि में प्रसिद्ध "ट्रिस्ट विद डेस्टिनी" भाषण दिया। भारतीय संविधान के लिए आंदोलनों की सारांश तालिका वर्ष आंदोलन / घटना मुख्य विशेषताएँ संवैधानिक महत्व 1857 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम अंग्रेजों के शासन के विरुद्ध विद्रोह, स्वशासन की माँग संविधान निर्माण की पहली प्रेरणा, स्वतंत्रता की चेतना जागृत हुई 1861 भारतीय परिषद अधिनियम 1861 भारतीयों को सीमित रूप से विधान परिषदों में सम्मिलित किया गया प्रतिनिधि संस्थाओं की शुरुआत 1885 भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना भारतीयों के लिए राजनीतिक मंच संवैधानिक सुधारों और स्वशासन की माँग का आधार बना 1892 भारतीय परिषद अधिनियम 1892 विधान परिषदों का विस्तार, अप्रत्यक्ष चुनाव की व्यवस्था प्रतिनिधि शासन की ओर कदम 1909 मर्ले-मिंटो सुधार (भारतीय परिषद अधिनियम 1909) मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल, भारतीय प्रतिनिधित्व बढ़ा सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की शुरुआत 1916–17 होम रूल आंदोलन (एनी बेसेन्ट, तिलक) ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर स्वशासन की माँग मोंटेग घोषणा (1917) का आधार 1919 मोंटेग-चेम्सफोर्ड सुधार (भारत शासन अधिनियम 1919) प्रांतीय द्वैध शासन (Dyarchy), द्विसदनीय विधानमंडल असंतोष बढ़ा, असहयोग आंदोलन का जन्म 1920–22 असहयोग आंदोलन (गाँधीजी) विदेशी संस्थाओं का बहिष्कार, स्वराज की माँग संविधान सभा की माँग को बल मिला 1927 साइमन कमीशन का बहिष्कार आयोग में कोई भारतीय सदस्य नहीं था भारतीयों द्वारा स्वयं संविधान बनाने की माँग तेज 1928 नेहरू रिपोर्ट भारतीयों द्वारा तैयार पहला संविधान का मसौदा स्वशासन व मौलिक अधिकारों की माँग 1929 लाहौर अधिवेशन (पूर्ण स्वराज घोषणा) पूर्ण स्वतंत्रता को लक्ष्य घोषित डोमिनियन स्टेटस की माँग समाप्त 1930–34 सविनय अवज्ञा आंदोलन और गोलमेज सम्मेलन ब्रिटिश कानूनों का बहिष्कार, संविधान पर चर्चा साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व और स्वशासन पर बहस 1935 भारत शासन अधिनियम 1935 प्रांतीय स्वायत्तता, संघीय योजना, द्विसदनीय व्यवस्था भारतीय संविधान के कई प्रावधान इसी पर आधारित 1942 भारत छोड़ो आंदोलन "अंग्रेजों भारत छोड़ो" का नारा, जनसंग्राम स्वतंत्रता और संविधान सभा की प्रक्रिया को तीव्र किया 1946 कैबिनेट मिशन योजना संविधान सभा के गठन का प्रस्ताव संविधान सभा का गठन हुआ 1947 भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम भारत का विभाजन और स्वतंत्रता संविधान सभा ने स्वतंत्र भारत के लिए संविधान बनाना शुरू किया 1946–1950 संविधान सभा की बैठकें डॉ. भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता में प्रारूप समिति संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ समापन विचार यह दिन न केवल स्वतंत्रता की याद दिलाता है, बल्कि विविधता में एकता, अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान और लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए नागरिकों की ज़िम्मेदारी का भी प्रतीक है। 15 अगस्त 1947 को मिली स्वतंत्रता ने भारत को एक नई दिशा दी। स्वतंत्रता संग्राम की घटनाएँ और उसके बाद के कानूनी परिवर्तन न केवल देश के भविष्य को बदलने में सहायक रहे, बल्कि उन्होंने भारतीय समाज को भी एक नई पहचान दी। आज, जब हम स्वतंत्रता के 78 वर्ष पूरे कर रहे हैं, हमें यह याद रखना चाहिए कि यह स्वतंत्रता केवल एक राजनीतिक उपलब्धि नहीं है, बल्कि यह हमारे अधिकारों, कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का भी प्रतीक है। भारत की स्वतंत्रता का यह सफर हमें यह सिखाता है कि एकजुटता, संघर्ष और समर्पण से हम किसी भी चुनौती का सामना कर सकते हैं।
- शिमला समझौता का सम्पूर्ण इतिहास
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि शिमला समझौता, जो 2 जुलाई 1972 को भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ, एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है। इसने दोनों देशों के बीच कश्मीर के विवादित क्षेत्र पर बातचीत के नए रास्ते खोले। यह समझौता भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच शिमला (हिमाचल प्रदेश, भारत) में हुआ था। इस ब्लॉग में हम समझौते के पीछे के कारण, प्रमुख बिंदुओं, उद्देश्यों, और दीर्घकालिक प्रभावों पर चर्चा करेंगे। यह समझौता 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद हुआ था, जिसमें पाकिस्तान की करारी हार हुई थी और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) स्वतंत्र राष्ट्र बन गया था। समझौते की ऐतिहासिक प्रासंगिकता पृष्ठभूमि: 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ था, जिसकी वजह बांग्लादेश में पाकिस्तान की सेना द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन और भारत में शरणार्थियों की बाढ़ थी। इस युद्ध में 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों ने भारत के सामने आत्मसमर्पण किया था, जो कि इतिहास में सबसे बड़ा आत्मसमर्पण था। भारत ने पाकिस्तान के कई क्षेत्र अपने नियंत्रण में ले लिए थे। युद्ध के बाद स्थायी शांति स्थापित करने और संबंधों को सामान्य करने के लिए दोनों देशों के बीच शिमला समझौता हुआ। शिमला समझौता, कश्मीर के मुद्दे को सुलझाने के लिए एक मील का पत्थर था। इससे पहले, भारत और पाकिस्तान के बीच 1947-48, 1965, और 1971 में युद्ध हो चुके थे। 1971 के युद्ध के परिणामस्वरूप पाकिस्तान का बंटवारा हुआ, जिसके चलते बांग्लादेश का गठन हुआ, और कश्मीर का मुद्दा और भी पेचीदा हो गया। उस समय, भारत ने बांग्लादेश के निर्माण के बाद अपनी स्थिति को मजबूत किया, जिससे पाकिस्तान का ध्यान शांति की दिशा में बढ़ा। शिमला समझौते के प्रमुख बिंदु शिमला समझौते में कई महत्वपूर्ण पहलू शामिल हैं: बातचीत का महत्व : समझौते में यह सुनिश्चित किया गया कि दोनों देश अपने विवादों को बातचीत के माध्यम से सुलझाने का प्रयास करेंगे। यह रणनीति भारत और पाकिस्तान के बीच संवाद को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक थी। लौटने की प्रक्रिया : इसमें दोनों देशों ने अपनी संप्रभुता का सम्मान करने और सैन्य कार्रवाई से बचने का वचन दिया। इससे सीमाओं पर सैन्य तनाव कम होने की उम्मीद जगाई गई। कश्मीर का मुद्दा : शिमला समझौते में कश्मीर क्षेत्र के विवाद पर बातचीत को प्राथमिकता दी गई, लेकिन यह समग्रता में बातचीत द्वारा सुलझाने का लक्ष्य रखा गया। क्षेत्रीय स्थिरता : समझौते ने क्षेत्रीय स्थिरता को प्राथमिकता दी और संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांतों का पालन करने का वचन दिया। यह कदम भविष्य की संभावित विवादों को कम करने के लिए महत्वपूर्ण था। सीमा विवाद शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाए जाएंगे : दोनों देश आपसी मुद्दों को द्विपक्षीय वार्ता से सुलझाएंगे, किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता नहीं होगी। लाइनों का सम्मान : युद्धविराम रेखा (Ceasefire Line) को फिर से चिन्हित करके इसे " नियंत्रण रेखा (Line of Control - LoC) " कहा गया, जिसे दोनों देश मानने को राज़ी हुए। 1971 के युद्ध में पकड़े गए युद्धबंदियों का समाधान : भारत ने पाकिस्तान के 93,000 युद्धबंदियों को बाद में मानवीय आधार पर रिहा किया। राजनीतिक कदम : दोनों देश अपने-अपने क्षेत्रों में सामान्य स्थिति बहाल करेंगे और युद्ध के प्रभाव को समाप्त करने के लिए राजनीतिक कदम उठाएंगे। संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान : एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का सम्मान करने का वचन दिया गया। उद्देश्य समझने की कोशिश शिमला समझौते के कई उद्देश्य थे, जैसे: शांति की स्थापना : दोनों देशों के बीच स्थायी शांति और स्थिरता की स्थापना को प्राथमिकता देना। यह एक ठोस आधार प्रदान करने की कोशिश थी।यह समझौता भारत और पाकिस्तान के बीच शांति बहाल करने का प्रयास था। तनाव में कमी : बिना युद्ध के तनाव को कम करना और आपसी संप्रभुता का सम्मान करना। इसके माध्यम से दोनों देशों ने एक-दूसरे के प्रति विश्वास निर्माण की दिशा में कदम बढ़ाए। बातचीत को बढ़ावा : दोनों देशों के बीच संवाद की प्रक्रियाओं को प्रोत्साहित करना ताकि विवादों का समाधान निकाला जा सके। उदाहरण के लिए, इसी तरह की बातचीत के तहत आगे कई वार्ताएँ हुईं, जो कश्मीर के विवाद को सुलझाने में मदद कर सकती थीं। इसने कश्मीर मुद्दे को द्विपक्षीय स्तर पर हल करने की रूपरेखा दी, जिससे संयुक्त राष्ट्र या किसी तीसरे पक्ष की भूमिका को नकारा गया। यह समझौता आज भी भारत के दृष्टिकोण से एक महत्वपूर्ण आधार है कि कश्मीर विवाद में कोई तीसरा पक्ष शामिल नहीं हो सकता। लंबे समय तक के प्रभाव शिमला समझौते का दीर्घकालिक प्रभाव दोनों देशों के साथ ही क्षेत्रीय स्थिरता पर पड़ा है। बातचीत की निरंतरता : यह एक नए संवाद की प्रक्रिया को आरंभ करता है, जिसने आगे चलकर कई अन्य समझौतों को जन्म दिया। इस तरह की कई वार्ताएँ आज भी जारी हैं। कश्मीर विवाद पर संवाद : इसने कश्मीर के मुद्दे को बातचीत के माध्यम से सुलझाने का प्रयास किया, जिससे दीर्घकालिक समाधान की संभावना पैदा हुई। क्षेत्रीय स्थिरता : समझौते ने क्षेत्रीय स्थिरता को बनाए रखने में सहायता की। इससे भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष में कमी आई है। आलोचनात्मक नजरिए शिमला समझौते की कुछ आलोचनाएँ भी हैं: प्रस्तावों का कार्यान्वयन : कई लोगों का मानना है कि समझौते को कार्यान्वित करने में वास्तविक चुनौतियाँ आईं, जिनके कारण विवादित मुद्दों की पुनरावृत्ति हुई। कश्मीर की स्थिति : कुछ आलोचकों का कहना है कि यह समझौता कश्मीर की समस्याओं का असली समाधान नहीं प्रदान करता और स्थिति को और जटिल कर देता है। भारत में कुछ लोगों का मानना था कि भारत ने युद्ध में जीत हासिल करने के बावजूद पाकिस्तान के साथ बहुत उदारता दिखाई और मजबूत स्थिति का पूरा लाभ नहीं उठाया। पाकिस्तान में भी कुछ आलोचक थे जिन्होंने इसे राष्ट्र की हार का प्रतीक माना। वर्तमान परिप्रेक्ष्य शिमला समझौते के बाद से, कश्मीर और भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में कई उतार-चढ़ाव आए हैं। वार्ता की प्रक्रिया कई बार बंद हो गई और कभी बढ़ी भी। उदाहरण के लिए, 2019 में भारतीय बलों द्वारा पुलवामा हमले के बाद हमला किया गया, जिससे तनाव बढ़ा। महत्व और भविष्य के दिशानिर्देश शिमला समझौता एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है। यह न केवल कश्मीर के मुद्दे पर बातचीत का रास्ता खोलता है, बल्कि दोनों देशों के बीच दीर्घकालिक संबंधों और क्षेत्रीय स्थिरता पर भी प्रभाव डालता है। Shimla's picturesque landscape representing the backdrop of the Shimla Agreement.
- आचरण का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
आचरण का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण www.lawtool.net पश्यचायत नीतिशास्त्र के गृहीत आधार भारतीय नीतिशास्त्र के समान पश्चयात नीतिशास्त्र के भी गृहीत आधार है । लकीन भारतीय तत्वज्ञों ने जिस प्रकार से गृहीत आधार का वर्गिकरण करते हुए उनका स्पष्टीकारण किया है । उस प्रकार का विस्तृत विवेचन पश्यचायत नीतिशास्त्र मे नहीं है । पश्चायत नीतिशास्त्र के अनुसार गृहीत आधार इस प्रकार है । 1. व्यक्तित्व – व्यक्तित्व नीतिशास्त्र का प्रमुख आधार है । नैतिक नियम बनाने के लिए व्यक्ति का विवेकशील हीना अवश्यक है नैतिकता का ज्ञान होना याने की शुभ –अशुभ का कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान होना आवश्यक है इस लिए नीतिशास्त्र ये मानकर ही आगे बढ़ता है । की व्यक्ति के पास नैतिकता का पूरा ज्ञान है । 2. विवेक - विवेक का अर्थ है बुद्धि ।विवेक नैतिकता का दूसरा गृहीत आधार है । मनुष्य मे बुद्धि तथा विवेक होने के कारण ही वह पशु से या जानवर से भिन्न है । मानुष्य बुद्धिमान प्राणी है या विवेकशील प्राणी है । इस विशवास से ही नैतिकता तथा अनैतिकता मनुष्य से ही संबन्धित मनी जाती है । अथवा मनी गई है । 3. संकल्प स्वतंत्रय - संकल्प स्वतंत्र्य प्रत्येक मनुष्य को । यह नीतिशास्त्र द्वारा स्वीकार किया गया है । प्रत्येक व्यक्ति को विचार करने की स्वतंत्रता है उसी प्रकार व्यक्ति को स्वतंत्र्य है । इसी ग्रहीत आधार के कारण ही प्रत्येक व्यक्ति को उसकी कृति का जिम्मेदार ठहराया जाता है । 4. काण्ट ‘’नामक बुद्धिवादी तत्वज्ञानी के अनुसार मनुष्य को संकल्प स्वतंत्र्य है वह विवेकशील प्राणी है । इसके अलावा उन्होने निम्न – गुहित आधार स्वीकार किए है । 5. काण्ट के अनुसार संकल्प स्वतंत्र्य नैतिकता तथा जीवन के लिए आवश्यक है । यदि मनुष्य अपने कर्मो को करने मे स्वतंत्र्य नहीं है तो वह अपने कर्मो के लिए उतरदायी भी नहीं है । इसलिए नैतिकता के लिए संकल्प स्वतंत्र्य होना आवश्यक है । 6. अत्मा की अमरता --- काण्ट के अनुसार इच्छा और कर्तव्य के सतत संघर्ष को जितना ही नैतिकता है । परंतु यह कार्य इतना कठिन है की एक सीमित जीवन मे उसको पूर्ण करना असंभव है । नैतिकता का ध्येय प्राप्त करने के लिए यह मानना की आत्मा अमर है अत्यंत आवश्यक है इसलिए आत्मा की अमरता को गुहित आधार के रूप मे स्वीकार किया गया है । नियतिवाद ,अनियतिवाद ,आत्मनियतिवाद संकल्प स्वतंत्र्य का प्रश्न तत्व ज्ञान मे अतिशय महत्वपूर्ण होता है । अगर हम मन लेते है की व्यक्ति संकल्प करने मे स्वतंत्र है या निर्णय लेने मे स्वतंत्र होता है । तभी हम उस कृति के लिए उसे जिम्मेदार ठहरा सकते है ,लकीन प्रश्न यही है ?इस विषय मे तत्वज्ञान के अन्तर्गत तीन प्रमुखवाद चर्चा मे है – 1. नियतिवाद , -- -नियतिवाद के अनुसार मनुष्य को कृति करने के लिए स्वतंत्र नहीं है । प्रत्येक कृति सुष्टि मे जो घटनाए एव दूसरे से जुड़ी हुई होती है उसका ही परिणाम है । प्रत्येक कृति व्यक्ति के चरित्र से आनुवंशिकता से तथा उसके परिस्थिति से जुड़ी हुई होती है और इन सभी घटको का कृति पर परिणाम होती है इसलिए मनुष्य संकल्प स्व्तंत्र्य मे स्वतंत्र नहीं है । 2. अनियतिवाद , इसके अनुसार हम कृति करने के लिए स्वतंत्र है । नीतिशास्त्र ,राज्यशास्त्र का कायदा अनियतिवाद पर ही आधारित है । नीतिशास्त्र के अनुसार हमे अपने कर्तव्य निभाने चाहिए । इसका अर्थ है की हमने यह मानलिया है की वह कर्तव्य करने की क्षमता हममे है । इसीलिए हम उस कृति के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र है । 3. आत्मनियतिवाद — नियतिवाद तथा अनियतिवाद दोनों पर विचार विमर्श करने के बाद इस निर्णय पे हम आते है की कुछा सच्चाई नियतिवाद मे है उसी प्रकार अनियातीवाद मे भी है । इसलिए इन दोनों का समानव्य करके आत्मनियतिवाद का स्पष्टी कारण दिया गया है । इनके अनुसार नियतिवाद के बारे मे सोचने से हमे ये समझ मे आता है की एक बार चरित्र प्रस्थपित होने पर हम उसी प्रकार की कृति करते है । लकीन चरित्र प्रस्थपित होने के पहले हम पूरी तरह से स्वतंत्र है । एक बार शराबी बन गए तो शराब जीवन का हिस्सा बन जाती है । कर्मो के प्रकार –पश्चात्य नीतिशास्त्र के अनुसार कर्म के तीन प्रकार है । a) स्वय निर्मित कर्म b) अनिच्छा कर्म c) असवायानिर्मित कर्म 1. स्वयनिर्मित कर्म – जो कृति किसी संकल्प के अनुसार की जाती है उसे स्वयानिर्मित कर्म कहते है । इसका अर्थ यह है की मनुष्य के सामने जब अनेक विकल्प होते है उसमे से किसी एक को चुनने के बाद उसी के अनुसार कृति की जाती है ,उसे स्वयानिर्मित कर्म कहते है । इसीलिए इस प्रकार की कृति के लिए वह पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराया जाता है इस प्रकार की कृति मनुष्य द्वारा पूरे होशोहवास मे की जाती है । 2. अनिच्छा कर्म -- - जब व्यक्ति की प्रकार का कर्म करने का निर्णय लेता है । लकीन कुछा अनपेक्षित परिस्थितियो के कारण उस कर्म को न करते हुए विपरीत कृति उसके हाथो से होती है इस प्रकार के कर्म को अनिच्छा कर्म कहाते है । याने जो कृति या कर्म स्वयानिर्मित कर्म से विपरीत होती है तब उसे अनिच्छा कर्म कहते है । जैसे की क्रीकेट मे मैच के आखरी गेंद पर बिना रन लिए आउट होना । 3. असवायानिर्मित कर्म – इसे अनैच्छीक कर्म भी कहते है । जिन कृतियों मे मनुष्य की इच्छाओ को स्थान नहीं होता उस प्रकार की कृतियो को अनैच्छिक या अस्वयानिर्मित कर्म कहते है ।इसमे कई प्रकर की शरारिक क्रियाये ,सहजात क्रियाये इंका अंतरभवा इसमे होता है । यह कृतियाँ नैसर्गिक होती है लकीन इसमे करने वाले का कोई हेतु नहीं होता है । इस प्रकार से नैतिक क्रियाओ का विशलेशन करने के पशचायत एक बात स्पष्ट होती है की केवल स्वयानिर्मित कर्मो के लिए ही मनुष्य को उस कृति के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। इस स्वयानिर्मित कर्म की प्रक्रिया इस प्रकार है। सर्वप्रथम मनुष्य को अपने जीवन मे कुछा वस्तुओ का आभाव दिखाई देता है या होता है । उस आभाव के कारण मन मे दुखद भावना उत्पन्न होती है । इस भावना को निकालने की इच्छा मन मे निर्माण होती है सुख और दुख के बीच मे अनेवाली यह इच्छा संघर्षात्मक विचार विनियम करके किसी एक विकल्प का आवंत करता है और उस विकल्प के अनुसार कृति करने का संकल्प करता है । इस प्रकार इस संकल्प को नैतिक महत्व नहीं है लकीन इस संकल्प के अनुसार की गई कृति महत्वपूर्ण होती है इसीलिए सही मायने मे नैतिक निर्णय का विषय संकल्प सहकृति है इस प्रकार यही कृति को स्वयानिर्मित कर्म मे अंत भूत करते हुए व्यक्ति को उस कृति का जिम्मेदार ठहराया जाना है । हेतु तथा उद्देश्य मे अंतर स्पष्ट कीजिये ? परीनंवाद तथा हेतुवाद नैतिक निर्णय का विषय क्या हो सकता है ?इसका उतर स्वया निर्मित कर्म मे यह दिया जाता है की फिर भी संकल्प सहकृति इसमे हेतु महत्वपूर्ण है या परिणाम महत्वपूर्ण है ? इसका भी निर्णय लिया जाता है भिन्न –भिन्न तत्वज्ञों ने इस विषय पर चर्चा की है । कुछा तत्वज्ञों के अनुसार कृति का परिणाम महत्वपूर्ण है । अगर उचित है या योग्य है तो ही वह कृति योग्य कहलाती है इस विचार धारा को ही परीनंवाद कहते है । इससे विपरीत कुछ तत्वज्ञों के अनुसार कृति की योगिता ,कृति के परिणाम पर आधारित न होते हुए उन कृतियो के पीछे मनुष्यो का जो हेतु होता है वह महत्वपूर्ण है । अगर हेतु सही है तो परिणाम चाहे बुरे ही क्यो न हो वह कृति अच्छी ही कहलाती है । इस विचार धारा हो हेतु वादी परम्परा कहते है । परिणाम तथा हेतु वाद परस्पर विरोधी नहीं है । यहाँ हेतु तथा उद्देश्य किसे कहते है ?यह स्पष्ट होना जरूरी है । इसका स्पष्टी कारण इसप्रकार से है नैतिक निर्णय के संदर्भ मे साध्य और साधन का विचार महत्वपूर्ण है । साध्य हमेशा साधनो का समर्थन करता है लेकिन कभी कभी साधनो द्वाराभी सध्या का समर्थन किया जाता है अगर सध्य अच्छा है तो उससे जुड़े साधन भी अच्छा होना जरूरी है क्या ?यह महातपूर्ण प्रश्न है जिसका उत्तर हेतु और उद्देश्य की संकल्पन मे ही मिलता है । हेतु तथा उद्देश्य / अभिप्राय बेन्थ्म और मिल इन तत्वज्ञों के अनुसार हेतु से परिणाम ज्यादा महत्वपूर्ण हिते है । हेतु याने कर्म करने की इच्छा है तथा उद्देश्य याने विशिष्ट ध्येय का विचार है । हेतु भावना का कारक कारण है तथा उद्देश्य अंतिम कारण है हेतु की तुलना मे उद्देश्य ज्यादा व्यापक है । स्व्यनिर्मित कर्म मे भी उद्देश्य को हेतु से ज्यादा महत्व दिया गया है । हेतु से उद्देश्य ज्यादा व्यापक है क्यो की उद्देश्य मे इष्ट तथा अनिष्ट दोनों परिणामो का विचार अंतभूत है । इसका स्पष्टी कारण इस प्रकार से भी दिया जाता है । इस प्रकार से उद्देश्य हेतु से हमेशा ही व्यापक होता है । उद्देश्य (अभिप्राय )के प्रकार तात्कालिक तथा प्रच्छन्न अभिप्राय । बाहरी तथा आंतरिक अभिप्राय । प्रत्येक्ष तथा अप्रत्येक्ष अभिप्राय चेतन तथा अचेतन अभिप्राय औपचारिक तथा यथार्थ अभिप्राय । तात्कालिक तथा प्रछ्न्न अभिप्राय – तात्कालिक जैसे डूबते हुए व्यक्ति को बचाने तथा प्रछन्न याने हर एक व्यक्ति की अपनी अपनी सोच होना । बाहरी तथा आंतरिक अभिप्राय – कुछ कर्म बाह्य स्वरूप मे अधिक महत्वपूर्ण होते है इसके विपरीत कुछ कर्म आंतरिक रूप से महत्वपूर्ण होते है । प्रत्येक्ष तथा अप्रत्येक्ष अभिप्राय -- -किसी व्यक्ति पर जान लेवा हमला करना यह प्र्त्येक्ष उद्देश्य है । तथा किसी ट्रेन मे बैठे एक व्यक्ति की जान लेने के लिए ट्रेन को उड़ा देना अप्रत्येक अभिप्राय है । चेतन तथा अचेतन अभिप्राय – यह उद्देश्य सजीव तथा निर्जीव से जुड़ा हुआ है । औपचारिक तथा यथार्थ अभिप्राय --- औपचारिक निर्णय प्रत्येक्ष निर्णय के समान होते है तथा यथार्थ निर्णय अप्रत्येक्ष निर्णय के समान होते है इस प्रकार उपयूक्त विवेचन द्वार यह स्पष्ट होता है की उद्देश्य याने असफल परिणाम तथा परिणाम याने सफल उद्देश्य है । कर्तव्य और अधिकार ---- अधिकार और कर्तव्य सापेक्ष शब्द है जो एक दुष्टि से अधिकार है वही दूसरे संबंध मे कर्तव्य हो जाता है । जहां अधिकार है वहाँ कर्तव्य है । नैतिक अधिकार जीने का अधिकार - जीने का अधिकार मनुष्य का सर्वप्रथम और मुख्य अधिकार है । इस अधिकार मे काम करने का अधिकार भी सम्मिलीत है इसीलिए किसी की हत्या करना गुनाह होता है । स्वतंत्रता का अधिकार – स्वतंत्रता का अधिकार के बिना नैतिक कार्यो की कल्पना असम्मभाव है प्रत्येक्ष व्यक्ति अपना ध्येय साध्य करने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए । इसीकारण गुलामीगिरी गुनाह है । संपत्ति का अधिकार स्वतंत्रता के अधिकार के साथ संपत्ति का भी अधिकार भी लगा हुआ हैजैसे रहने के लिए संपात्ति का अधिकार आवश्यक है अर्थात इस आधीकर का दुरुपयोग ठीक नहीं है । समझोते की पूर्ति का अधिकार –समझोते की पूर्ति का अधिकार तभी अर्थपूर्ण हो सकता है जैसे समझोते की पूर्ति के साधनो पर व्यक्ति का अधिकार हो अर्थात सम्पत्ति के अधिकार की सीमाये समझोते के अधिकार पर ही लागू होते है । शिक्षा का अधिकार – शिक्षा से ही व्यक्ति बनता है । नैतिक दुष्टिकोण से प्रत्येक व्यक्ति अपनी योगयता के अनुसार सर्वोत्तम शिक्षा पाने के लिए बाध्य है । नैतिक कर्तव्य जीवन का सम्मान – अपने और दूसरों के जीवन का सम्मान करना मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है । आत्महत्या तथा हत्या दोनों ही घोर अनैतिक कार्य है । स्वतन्त्रता का सम्मान – स्वतंत्रता के अधिकार के साथ स्वतंत्रता के सम्मान का कर्तव्य भी लगा हुआ है । इसीकारण दूसरों को गुलाम बनाना उनका शोषण करना घोर अन्याय है । चरित्र का सम्मान – चरित्र ही मनुष्य मे सर्वोच्चय गुण है इसीलिए हमे संव्यां और दूसरों के चरित्र का सम्मान चाहिए । सम्पत्ति के अधिकार के साथ सम्पत्ति के सम्मान का कर्तव्य भी लगा हुआ है । निजी संपत्ति का सदुपयोग करते समय दूसरों के संपत्ति मे बाधक नहीं बनना चाहिए इसी कारण चोरी करना नैतिक अपराध है सामाजिक व्यवस्था का सम्मान – व्यक्ति और समाज का कल्याण इस पर निर्भर है व्यक्ति के अधिकार की रक्षा तभी हो सकती है जब तक की सामाजिक व्यवस्था बनी रहे इसीलिए सामाजिक व्यवस्था का सम्मान करना चाहिए । सत्य का सम्मान – मनुष्य को अपने वचनो का पालन करना चाहिए । विचार तथा कर्म मे समजस्य रखना चाहिए । यह कर्तव्य समझोते के अधिकार से जुड़ा हुआ है । प्रकृति का सम्मान – प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति मे आस्था रखनी चाहिए । परिश्रम ही पुजा है समाज की प्रकृति व्यक्ति से जुड़ी हुई है । अधिकार और कर्तव्य मे परस्पर संबंध है अधिकार और कर्तव्य अन्योन्याश्रीत है । अधिकार और कर्तव्य परस्पर सापेक्ष है । अधिकार और कर्तव्य एक ही नैतिक नियमो के दो पहलू है ।
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फोरम पोस्ट (182)
- BCI ने शहरी क्षेत्रो में जूनियर अधिवक्ताओ के लिए ₹20 हजार और ग्रामीण क्षेत्रो मे ₹15 हजार वजीफा देने का सुझाव दियाHindi law में·October 19, 2024बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) ने वरिष्ठ अधिवक्ताओं, कानूनी फर्मों और स्वतंत्र वकीलों की सहायता करने वाले कनिष्ठ अधिवक्ताओं के लिए न्यूनतम वजीफा की सिफारिश करते हुए नए दिशानिर्देश जारी किए हैं।यह कदम दिल्ली उच्च न्यायालय के 29 जुलाई के निर्देशों के बाद उठाया गया है, जिसके बाद अधिवक्ता सिमरन कुमारी ने जूनियर वकीलों के सामने आने वाली वित्तीय चुनौतियों के बारे में एक अभ्यावेदन दिया था। मद्रास उच्च न्यायालय ने पहले भी राज्य के सभी जूनियर वकीलों को ₹15,000 से ₹20,000 के बीच न्यूनतम मासिक वजीफा देने का आह्वान किया था।इसी तर्ज पर, शहरी क्षेत्रों में जूनियर वकीलों के लिए, बीसीआई ने न्यूनतम ₹20,000 प्रति माह वजीफा देने की सिफारिश की है। ग्रामीण क्षेत्रों में, अनुशंसित राशि ₹15,000 प्रति माह है, जो जूनियर अधिवक्ता की नियुक्ति की तारीख से तीन साल की न्यूनतम अवधि के लिए प्रदान की जाएगी। हालांकि, न्यूनतम वजीफा अनिवार्य नहीं है। सभी राज्य बार काउंसिल और बार एसोसिएशन को संबोधित एक परिपत्र में, बीसीआई ने स्वीकार किया कि जूनियर अधिवक्ताओं को अक्सर अपने करियर के शुरुआती चरणों में महत्वपूर्ण वित्तीय कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इसने यह भी उल्लेख किया कि छोटे शहरों या कम आकर्षक क्षेत्रों में वरिष्ठ अधिवक्ताओं और फर्मों के पास पर्याप्त वजीफा प्रदान करने के लिए वित्तीय संसाधन नहीं हो सकते हैं। इसलिए, जबकि दिशा-निर्देशों को प्रोत्साहित किया जाता है, उन्हें पूरे पेशे में अनिवार्य रूप से लागू नहीं किया जाता है। बीसीआई ने इस बात पर जोर दिया है कि वरिष्ठ अधिवक्ताओं और कानूनी फर्मों को न केवल वित्तीय सहायता पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, बल्कि जूनियर अधिवक्ताओं को मार्गदर्शन भी प्रदान करना चाहिए। इसमें कोर्टरूम अवलोकन, कानूनी शोध, प्रारूपण और केस रणनीति पर मार्गदर्शन के अवसर प्रदान करना शामिल है। दिशानिर्देश वरिष्ठ अधिवक्ताओं और फर्मों को वजीफा राशि, अवधि और मार्गदर्शन के अवसरों को निर्दिष्ट करने वाले पत्रों के साथ जूनियर अधिवक्ताओं की नियुक्ति को औपचारिक बनाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। वजीफा भुगतान और नियुक्ति शर्तों का सटीक रिकॉर्ड बनाए रखा जाना चाहिए और वार्षिक रिपोर्ट में संबंधित राज्य बार काउंसिल को प्रस्तुत किया जाना चाहिए। जूनियर अधिवक्ता जिन्हें अनुशंसित वजीफा नहीं मिलता है या नियुक्ति से संबंधित शिकायतों का सामना करना पड़ता है, वे अपने संबंधित राज्य बार काउंसिल में शिकायत दर्ज करा सकते हैं। हालांकि, बीसीआई ने कहा कि वास्तविक वित्तीय बाधाओं पर आधारित शिकायतों को लचीले ढंग से निपटाया जाएगा, कुछ वरिष्ठ चिकित्सकों द्वारा सामना की जाने वाली सीमाओं को स्वीकार करते हुए। इसके अलावा, परिपत्र में उल्लेख किया गया है कि बीसीआई इन दिशानिर्देशों के कार्यान्वयन की समय-समय पर समीक्षा करने के लिए एक समिति का गठन करेगी, जो फीडबैक और मौजूदा आर्थिक स्थितियों के आधार पर वजीफा राशि को समायोजित करेगी।005
- Woman approaches Delhi HC to stop friend from going abroad for euthanasiaHigh Court Judgment में·August 12, 2022A plea has been filed in the High Court of Delhi by a woman who wants to stop her friend who is diagnosed with Chronic Fatigue System from going to Europe for Euthanasia. She sought the court’s direction to the Centre to not give emigration clearance to her friend. The petitioner stated that his friend has made false statements to Indian and Foreign authorities to get travel clearance. The Petitioner also seeks direction to the Centre to form a Medical Board to examine his friend’s condition. As per the petitioner, Chronic Fatigue Syndrom is a complex and long-term neuroinflammatory disease which is a poorly understood condition and the research for the disease is in early stages. The petitioner submitted that his friend travelled to Zurich, Switzerland for Euthanasia through an organisation called Dignitas that provides physician-assisted suicide. The petitioner said that the friend in question has already travelled to Zurich for his psychological evaluation and is now awaiting the final decision from the organisation. The petitioner requested the court’s assistance as his friend has become adamant and wants to go for Euthanasia while his old parents still hope that their child will get betterment treatment and his condition would improve. Title: Sindhu MK versus Union of India & Ors001
- If eviction of husband is the only way to maintain domestic peace,then husband should be expelled:HCHigh Court Judgment में·August 16, 2022The Madras High Court has ruled that if the removal of a husband from his house ensures domestic peace, the courts must issue such orders, whether he has an alternative residence or not. According to Justice RN Manjula, the courts should not be indifferent to women who fear the presence of their husbands in the house. “If removal of the husband alone from the house is the only way to ensure domestic peace, then the courts should issue such orders, irrespective of whether the defendant has any other residence of his own or not. It's fine if he has an alternative accommodation, but if he doesn't, it's his responsibility to find it." According to the judge, the orders issued for the protection of women in cases of domestic violence should be practical. It was also said that safety orders are usually issued to ensure that the woman feels safe in her home area. The court was hearing a plea by a wife challenging a district judge's order refusing to issue an order for her "abusive and unruly" husband to leave their shared home. A lawyer by profession, the woman said that her husband's attitude towards her and her work was negative, and that he often abused her and created a tense atmosphere in the home. The husband, on the other hand, believed that an ideal mother would only take care of the children and do household chores. This argument was rejected by the Court, which held that if a husband does not allow his wife to be more than a housewife, her life becomes miserable. The husband developed a hostile attitude towards his wife as a result of his lack of understanding and respect towards his professional commitments. Their intolerance appears to cause discord and problems in the lives of the parties "specified order". It was also noted that the husband had leveled an allegation of prejudice against another judge of the High Court, who had passed the order in the case, which resulted in suo motu contempt proceedings being initiated against him.000