जैन नैतिक दर्शन

जैन नैतिक दर्शन

परिचय -जैन धर्म का नैतिक दर्शन जीवन के हर पहलू में अनुशासन और संयम की शिक्षा देता है। इसमें पाँच महाव्रतों का पालन अत्यंत कठोरता से करना आवश्यक माना गया है। साथ ही, गृहस्थ जीवन में अनुव्रतों का पालन भी उतना ही महत्वपूर्ण है। ये नैतिक नियम न केवल व्यक्ति के आचरण को सुधारते हैं, बल्कि समाज में शांति और सद्भाव बनाए रखने में भी सहायक होते हैं। इस लेख में हम जैन नैतिक दर्शन के महाव्रत और अनुव्रत के महत्व को विस्तार से समझेंगे।जैन नैतिक दर्शन मे पाँच महाव्रतो का पालन कठोरता पूर्वक करना जैन आचार्यो ने अनिवार्य माना है । इसी प्रकार गृहस्थों के जैन नैतिक दर्शन मे अनुव्रतो का पालन करना अनिवार्य माना है जिसे अपने दैनिक जीवन मे कुछ वीशेष नैतिक नियमो का पालन करना अवशयक माना है तथा इन नैतिक नियमो को अनुव्रत कहा गया है ।

महाव्रत क्या हैं?

महाव्रत जैन धर्म के पाँच प्रमुख नैतिक नियम हैं, जिन्हें साधु-संतों द्वारा कठोरता से पालन किया जाता है। ये नियम आत्मा की शुद्धि और मोक्ष की प्राप्ति के लिए आवश्यक माने जाते हैं। महाव्रतों का पालन व्यक्ति को हिंसा, झूठ, चोरी, वासनाओं और आसक्तियों से दूर रखता है।

जैन नैतिक दर्शन के पाँच महाव्रत है

महाव्रत अहिंसा –जैन दर्शिंनिकों के मातानुसार अपने शब्दो ,कर्मो अथवा विचारो द्वारा किसी प्राणी को कभी भी किसी प्रकार का कष्ट न पाहुचना ही अहिंसा है

महाव्रत सत्या—सत्या का पालन करने का अर्थ है शब्दो या कर्मो द्वारा प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कभी भी किसी तथ्य को न छिपाना तथा छिपाने का विचार भी न करना ही सत्य है

महाव्रत अस्तेय –तीसरा महाव्र्त अस्तेय है जिसका अर्थ है किसी भी परिस्थिति मे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी प्रकार की चोरी न करना चोरी करने मे किसी की सहायता न करना तथा चोरी का विचार भी न करना ही अस्तेय कहलाता है ।

महाव्रत अपरिग्रह—चौथा महाव्रत अपरिग्रह का अस्तेय से बहुत घनिष्ठ संबंध है सूखा भोग के लिए सभी संसारीक वस्तुओ का संचय न करना ही अपरिग्रह कहलाता है

महाव्रत ब्रह्मचर्या –ब्रह्मचर्य का अर्थ है मनुष्य को किसी भी प्रकार की वासना मे लिप्त न होना तथा लिप्त होने का विचार भी न करना तथा इस महा व्रत का कठोरतापूर्वक पालन करने के लिए समस्त वासनाओ का पूर्णरूप से दमन करना अनिवार्य है

इन पाँच महाव्रतो के उपर्युक्त विवाचन से स्पष्ट है की जैन आचार्यो सन्यासी के लिए समस्त कामनाओ ,इच्छाओ तथा इंद्रियसुखो को पूर्णत:त्याज्य मानते है इसी कारण जैन दर्शन को केवल निवृत्ति मार्ग का प्रचार और समर्थन करने वाला दर्शन माना जाता है ।

अनुव्रत

गृहस्थों के लिए महाव्रतों का कठोर पालन संभव नहीं होता, इसलिए जैन धर्म में अनुव्रतों की व्यवस्था की गई है। अनुव्रत महाव्रतों के समान नैतिक नियम हैं, लेकिन इन्हें थोड़ा लचीला और व्यवहारिक बनाया गया है ताकि गृहस्थ जीवन में भी नैतिकता बनी रहे।

अहिंसा–जान –बूझकर जीवो की हत्या न करना ,गर्भपात न करना ,एसी किसी संस्थों मे समिलित न होना जिसका उददेश्य किसी प्रकार की हिंसा न हो

सत्या- न्यायलय मे झूठी गवाही न देना और किसी के विरुद्ध झूठा मुकदमा पेश न करना द्वेष अथवा लाभ की कमान से प्ररित होकर किसी के रहस्यो का उदघाटन न करना किसी व्यक्ति के साथ किसी भी प्रकर का कपट अथव धोखा न करना इत्यादि सत्या है

अस्तेय –किसी की कोई भी वस्तु न चूरना चुराई हुई वस्तु को खरीदने या बेचने मे सहायता न देना और स्वया कभी भी एसी वस्तु न खरीदना ,चोरी मे प्रत्येक्ष अथवा परोक्ष रूप से किसी की सहायता न करना , अपने हित के लिए किसी संस्था के धन का कभी उपयोग न करना ही अस्तेय है

अपरिग्रह ---अपनी आवश्यकता से अधिक धन तथा वस्तुओ का संचय न करना , किसी प्राकर की रिशवत न देना न लेना , धन प्राप्त करने के लोभ से किसी रोगी की चिकित्सा मे विलम्ब न करना सगाई तथा विवाह मे किसी प्राकर का दहेज स्वीकार न करना ही अपरिग्रह है

ब्रह्मचर्या–महव्रत ब्रहमचर्या के साथ निम्नलिखित अनुव्रत जुड़े है वेश्या वृति तथा अन्य किसी भी प्रकार का व्यभिचार न करना ,कम से कम 18 वर्ष की आयु तक पुर्ण ब्रह्मचर्या का पालन करना तथा 45 वर्ष की अवस्था के पश्चात विवाह न करना इत्यादि । जैन आचार्यो के मतानुसार सभी ग्रहस्थों के लिए उपर्युक्त समस्त अनुव्रतो का पालन करना आनिवार्य है

जैन त्रिरत्न

जैन दार्शनिको का मत है की मनुष्य के लिए मोक्ष का मार्ग अत्यंत कठिन है । इस मार्ग का अनुसरण करने के लिए शुद्ध आचरण ,त्यागमय जीवन ,पुराण वैराग्य तथा कठोर तपस्या की आवश्यकता है । जैन दार्शनिको ने त्रिरत्नों –

  • सम्यक दर्शन ,
  • सम्यक ज्ञान ,
  • एव सम्यक चरित्र

सम्यक दर्शन –जैन तीर्थकरो द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों मे अखंड आस्था रखना । तीर्थकरो द्वार बताए गए नियमो तथा सिद्धांतों का आध्यान करके उन्हे भली –भांति समझ लेना ही सम्यक ज्ञान है । और अपने दैनिक जीवन मे तीर्थकरो द्वार प्रतिपादित नियमो तथा सिद्धांतों का सदा निष्ठापूर्वक पालन करना ही सम्यक चरित्र है

लेकिन जैन दार्शनिको का मत है की मोक्ष अथवा कैवल्य की प्राप्ति के लिए सम्यक दर्शन , सम्यक ज्ञान , और सम्यक चरित्र –ये तीनों ही अनिवार्य है इन तीनों का श्रद्धापूर्वक पालन कने के लिए मनुष्य को सभी प्रकार के अहंकारों से पूर्ण मुक्त होना चाहिये । इस का संबंधा मे जैन आचार्यो ने आठ प्रकार के अहंकारों का उल्लेख किया है । जिनसे मुक्त होना उन्होने मानुष्य के लिए आवश्यक माना है । ये आठ प्रकार के अहंकार है ।

  • धार्मिकता का अहंकार
  • वंश का अहंकार
  • जाती का अहंकार
  • बुद्धि का अहंकार
  • शारीरिक शक्ति का अहंकार
  • अपने रूप तथा सोन्दर्य का अहंकार
  • चमत्कार दिखने वाली शक्तियों का अहंकार
  • योग तथा तपस्या का अहंकार

जैन दार्शनिक का मत है की इन सभी अहंकारों से मुक्त होकर ही मानुष्य कैवल्य –प्राप्ति के पाठ पर अग्रसर हो सकता है ।

महाव्रत और अनुव्रत के पालन के उदाहरण

महाव्रत पालन का उदाहरण

एक जैन साधु अपने जीवन में अहिंसा के नियम का पालन इस तरह करता है कि वह न केवल जीवित प्राणियों को हानि नहीं पहुँचाता, बल्कि अपने भोजन में भी केवल शाकाहारी पदार्थ ही ग्रहण करता है। वह सत्य बोलने में कभी कोई समझौता नहीं करता और अपने आस-पास के लोगों को भी इसी मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है।

अनुव्रत पालन का उदाहरण

एक गृहस्थ व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में अनाहिंसा अनुव्रत का पालन करता है। वह जानबूझकर किसी को चोट नहीं पहुँचाता, चाहे वह शब्दों से हो या कर्मों से। वह अपने व्यवसाय में ईमानदारी से काम करता है और परिवार के प्रति जिम्मेदार रहता है। वह जरूरत से अधिक वस्तुओं का संग्रह नहीं करता और संयमित जीवन जीने की कोशिश करता है।

जैन की गुप्ती

जैन धर्म, जो सदियों पुराना है, अपने गहरे आध्यात्मिक और दार्शनिक सिद्धांतों के लिए जाना जाता है। इस धर्म की गुप्तियाँ और रहस्य आज भी कई लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र हैं। जैन की गुप्ती का मतलब है जैन धर्म के उन रहस्यों और ज्ञान को समझना जो सतही दृष्टि से छिपे रहते हैं। इस ब्लॉग में हम जैन धर्म की गुप्तियों को समझने के लिए एक विस्तृत और रोचक सफर पर चलेंगे, जो न केवल जैन धर्म के अनुयायियों के लिए बल्कि सभी आध्यात्मिक खोजकर्ताओं के लिए उपयोगी होगा।

आत्मन या आत्मा में कर्म का प्रवाह शरीर, वाणी और मन की गतिविधियों के कारण होता है: तो संन्यासियों गुप्ती निरीक्षण करने के लिए, सख्त नियंत्रण यह काफी जरूरी है. तीन गुप्ती एक आंतरिक स्वभाव को नियंत्रित करने के लिए है तथा स्वयं पर नियंत्रण के सिद्धांतों से निर्धारित होते हैं.

जैन धर्म का परिचय और उसकी गुप्तियाँ
जैन धर्म की स्थापना महावीर स्वामी ने की थी, जो 6वीं सदी ईसा पूर्व के महान आध्यात्मिक गुरु थे। जैन धर्म का मूल उद्देश्य आत्मा की शुद्धि और मोक्ष प्राप्ति है। इस धर्म की गुप्तियाँ मुख्य रूप से इसके सिद्धांतों, नियमों और ध्यान की विधियों में छिपी हैं।

अहिंसा का गूढ़ अर्थ

जैन धर्म में अहिंसा केवल शारीरिक हिंसा से बचने का नाम नहीं है, बल्कि यह मन, वचन और कर्म की हिंसा से भी बचने का निर्देश देता है। इसका मतलब है कि किसी भी जीव को चोट न पहुंचाना, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो। यह विचार जैन धर्म की सबसे गहरी गुप्ती में से एक है।

सत्य और ब्रह्मचर्य के रहस्य

सत्य बोलना और ब्रह्मचर्य का पालन करना जैन धर्म के महत्वपूर्ण नियम हैं। इन नियमों का पालन केवल बाहरी आचरण तक सीमित नहीं है, बल्कि ये आंतरिक शुद्धि और आत्मा की उन्नति के लिए आवश्यक हैं।

  • मनो गुप्ती - केवल शुद्ध विचार करने के लिए इस तरह के रूप में मन के विनियमन है.
  • वाचिक गुप्ती - भाषण के नियमन होता है, यह एक विशेष अवधि के लिए मौन अवलोकन होता है
  • कायिक गुप्ती- किसी की शारीरिक गतिविधि के विनियमन है.

जैन धर्म के रहस्यमय ग्रंथ और उनका महत्व

जैन धर्म के ग्रंथों में गुप्त ज्ञान छिपा हुआ है। ये ग्रंथ न केवल धार्मिक नियमों का संग्रह हैं, बल्कि जीवन के गहरे रहस्यों को भी उजागर करते हैं।

  • आगम ग्रंथ-जैन धर्म के सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रंथ आगम हैं। इनमें भगवान महावीर के उपदेश और जीवन के नियम विस्तार से लिखे गए हैं।
  • तत्त्वार्थ सूत्र-यह ग्रंथ जैन दर्शन का सार है। इसमें आत्मा, कर्म, और मोक्ष के रहस्यों को सरल और स्पष्ट भाषा में समझाया गया है।
  • उपदेश सार - यह ग्रंथ जैन धर्म के नैतिक और आध्यात्मिक सिद्धांतों को संक्षेप में प्रस्तुत करता है।



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