अतिनीतिशास्त्र
मानवीय दुष्टिकोण से कौन सा आचरण उचित है और कौन सा अनुचित ? कौन सी कृति शुभ या कौन सी अशुभ ? यह किसी विशेष निष्कर्ष पर आधारित होता है । मानवीय आचरण का मूल्यमापन करने के लिए मार्गदर्शक तत्व कौन से है इन सभी का विचार नीतिशास्त्र मे किया जाता है । इसीलिए मानवीय आचरण का सामाजिक संदर्भ मे नैतिक मूल्यमापन करने वाला शस्त्र याने आदर्शीय या नियामक नीतिशास्त्र कहलाता है ।
मानवीय आचरण का मूल्यमापन करते समय हम उचित अनुचित ,योग्य ,अयोग्य ,आदि नीतिशास्त्रीय संकल्पनाओ का उपयोग करते है । लेकिन जब तक इन पदो का अर्थ निशिचित नहीं किया जाता तब तक हम आचरण का मूल्यमापन नहीं कर सकेगे । इस प्रकार नीतिशास्त्रीय भाषा का स्वरूप स्पष्ट करने वाले नीतिशास्त्र की शाखा को अतिनीतिशास्त्र कहते है । अर्थात नैतिक संकल्प का अध्ययन करने का कार्य अतिनीतिशास्त्र मे होता है ।
अतिनीतिशास्त्र सिधान्त के प्रमुख रूप से दो प्रकार के है ;-
ज्ञानतमकवादी –न –ज्ञानतमकवादी
ज्ञानत्म्क्वादी सिधान्त –इस सिधान्त के अनुसार नैतिक नीवेदन का स्वरूप ज्ञानात्मक होता है । जिसे अतिनीतिशास्त्रिय सिधान्त के अनुसार नैतिक भाषा ज्ञानत्म्क भाषा होती है उस सिधान्त को ज्ञानात्मक अतिनीतिशास्त्र सिद्धांत कहते है ।
इस सिद्धांत के अनुसार नैतिक भाषा का कार्य वर्णनात्मक होता है इसीलिए उसके द्वारा वस्तुस्थिति का वर्णन किया जाता है । जैसे की गुलाब लाल है । इस विधान द्वार वस्तुस्थिति का वर्णन किया गया है । उसी प्रकार सच बोलना /अच्छा है इस निवेदन मे सच बोलना और अच्छा होना इन विशिष्टो के बारे मे बताया गया है
ज्ञानात्मकवाद दो प्रकार है ;-
निसरगिकवाद न –निसर्गिकवाद
निसरगिकवाद –के अनुसार नैतिक निर्णय वस्तुस्थिति के समान विधान के अनुसार वरणात्मक होने के कारण ज्ञानत्मक होता है । इस मत के अनुसार नैतिक निर्णय मे नैतिक संकल्पनाओ के द्वारा जिस गुणधर्म के संदर्भ मे कहा जाता है उस गुणधर्म का हम अनुभव ले सकते है । इसिकरण इस गुणधर्म का स्वरूप नैसर्गिक होता है । निसरगिकवाद के अनुसार मूल्य निवेदन का रूपान्तर उस निवेदन के अर्थ मे किसी भी प्रकार बदल न करते हुए विधान मे रूपान्तरीत किया जाता है ।
निसर्गिक सिद्धांत के दो प्रकार है ;-
वस्तुनिष्ठावाद व्यक्तिनिष्ठावाद
जिस विधान की योग्ययोग्यता तथा उचित व्यक्ति पर निर्भर होती है उसे व्यक्तिनिष्ठावाद निसरगिकवादी विधान कहते है । तथा जिस विधान की योग्ययोग्यता तथा उचित वस्तु पर निर्भर होती है उसे वस्तुनिष्ठावादी निसर्गवादी ज्ञानात्मक विधान कहते है ।
न –निसर्गीवाद-निसर्गवाद के अनुसार ही न-निसर्गवाद सिधान्त का स्वरूप भी ज्ञानत्म्क है नैतिक निर्णय तथा मूल्य निवेदन वस्तुस्थती विषयक विधान के समान ही वर्णनात्म्क होता है । यह भूमिका निसर्गवाद के समान ,न निसर्गवाद भी स्वीकार की है ।
न –निसर्गवाद के अनुसार नैतिक निर्णय मे नैतिक मूल्य पर शब्द द्वारा वस्तु तथा आचरण के गुण विशिष्टों का ज्ञान होता है लकीन यह गुण विशिष्ट न –निसर्गिक स्वरूप की होती है । इन विशिष्टों का ज्ञान इंद्रियज्ञान अनुभव के द्वारा ना होते हुए अंतप्रज्ञा द्वार होता है ।
अतिनीतिशास्त्र का दूसरा प्रकार
न-ज्ञानतमकवादी सिद्धांत है
इस सिद्धांत के अनुसार नैतिक भाषा द्वारा किसी भी प्रकार के वस्तुस्थिति का वर्णन नहीं किया जाता ,इसलिए इस प्रकार के विधान सत्य तथा असत्य नहीं होते है । इसीलिए इस सिद्धांत को न-ज्ञानात्मक माना गया है । अर्थात ;-नैतिक भाषा न –ज्ञानत्मक है । इस मत का स्वीकार जिस सिद्धांत के अनुसार प्रस्थपित किया जाता है । उस सिद्धांत को न-ज्ञानत्मकवादी तथा न-वर्णनात्मकवादी सिद्धांत कहते है ।
न-ज्ञानतमकवादी सिद्धांत दो प्रकार के होते है
भावनात्मकतावादी 2)आदेशवादी
भावनात्मकतावादी ;-भावनात्मकतावादी के अनुसार मूल्य निवेदन और नैतिक निर्णय का कार्य वस्तुस्थिति का वर्णन करना नहीं है । इस निवेदन के द्वारा व्यक्ति अपनि भावना व्यक्त करता है । इसीलिए किसी विषय के सम्बंध मे अपनी अनुकूल या प्रतिकूल अभिवत्ति व्यक्त करना भवनवाद कहलाता है ।
भावनावाद के दो प्रकार है ;-
शुद्धभावनावाद 2)संस्कारितभावनावाद
आदेशवाद ;-आदेशवाद के अनुसार अतिनीतिशास्त्र का आदेशवादी न-ज्ञानात्मक सिद्धांत ही सही है । इस मत के अनुसार नैतिक निर्णय वस्तुस्थिति विषयक नहीं है होते है । इसी कारण वह सत्य भी नहीं होते और असत्य भी नहीं होते है । इनके अनुसार नैतिक निर्णय का उपयोग किसी भी कार्य करने के लिए या न करने के लिए किया जाता है । यह कहना गलत है । नैतिक भाषा का स्वरूप आज्ञार्थक होता है इस कारण यह विधान हो ही नहीं सकता ।
इस प्रकार अतिनीतिशास्त्र के सिधान्त का वर्णीकरण किया गया है । कुछ तत्वज्ञ अतिनीतिशास्त्र को ज्ञानात्मक मानते है तो कुछ न-ज्ञानात्मक मानते है । मूर (Moore) के अनुसार शुभ यह पद की हम व्यखाया नहीं कर सकते शुभ यह पद अव्यखेय केवल निरव्यव तथा अनन्य साधारण धर्म का वाचक है । यह पद अव्याखेय होने के कारण जिन तत्वज्ञों ने शुभ पद की परिभाषा देने का प्रयास किया है । उनके युक्तिवाद मे नैसर्गिकतावादी दोष हुआ है इस दोष का विवेचन यह है ।
जब हम किसी पद की परिभाषा करते है तब उस शब्द से निद्रीष्टि पदार्थ के संकल्पना का विश्लेषण करके उनके अवयवो का परस्पर संबंध स्पष्ट करते है लकीन अगर कोई पदार्थ केवल या निरवयव है तो उसका विशालेषण असम्भव है । तथा परिभाषा भी असम्भव है । जैसे की पीला yellow जैसे ही हम पीले रंग की संकल्पन का विशालेषण करना शुरू करते है । तो हम ध्यान मे आता है की यह पद केवल है या नीरवयव है तथा इसका विशालेषण असम्भव है इसीलिए यह पद अव्याखेय है ।
इसीप्रकार शुभ यह पद भी केवल नीरवयव तथा अव्याखेय है । इसीलिए सुखवाद मे सुख शुभ है इसी प्रकार का विधान किया गया है याने शुभ की परिभाषा सूखा पद की सहायता से दी गई है इसीलिए Moore के द्वारा यहा नैसर्गिकतावादी दोष हुआ है ।
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