पुरुषार्थ
भारतीय विचारधाराओ के अनुसार प्रत्येक मानुष्य के जीवन मे पुरुषार्थ का विशेष महत्व है । व्यक्ति के जीवन की दिशा प्रदान करने तथा उसके कार्यो के प्रतिमान निर्धारित करने के लिए चार पुरुषार्थ का विधान प्रस्तुत किया गया है । पुरुषार्थ का शाब्दिक अर्थ है ---उद्धोग अर्थात कार्य करना । कार्यो के द्वारा ही विभिन्न लक्ष्यो की प्राप्ति संभव होती है । इस प्रकार कहा जा सकता है की जीवन के इस परम उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करने के लिए अन्य तीन पुरुषार्थ है इन तीनों पुरुषर्थों को त्रिवर्ग अर्थात धर्म ,अर्थ तथा काम कहा गया है । चरो पुरुषर्थों का अलग –अलग विवरण प्रस्तुत है ;-
1) धर्म
एक मुख्य पुरुषार्थ धर्म है । धर्म का आशय कर्तव्यो से है । समाज मे रहते हुए प्रत्येक व्यक्ति के कूछ कर्तव्य निर्धारित होती है जिन्हे पूरा करना उसका दायित्व होता है । भिन्न –भिन्न आश्रमो के व्यक्तियों के लिए धर्म का स्वरूप भी भिन्न –भिन्न है । धर्म का एक मुख्य रूप यज्ञ करना है भारतीय विचारधारा के अंतर्गत मुख्य रूप से पाँच यज्ञों का विधान है । धर्म के अनुसार ये पाँच यज्ञ निम्नलिखित है
देव यज्ञ ,ऋषि यज्ञ , पितृ यज्ञ , नुयज्ञ तथा भूतयज्ञ ।
देवताओ के प्रति निर्धारित कर्तव्यो को पूरा करना देव यज्ञ है
गुरुओ के प्रति निर्धारित कर्तव्यो को पूरा करना ऋषि यज्ञ है ।
धर्म पूर्वक विवाह करके संतान को जन्म देना कुटुम्ब का पालन करना तथा माता –पिता की सेवा एव आदर करना पितृ यज्ञ है ।
समाज मे रहते हुए अन्य मनुष्यो के प्रति सामाजिक कर्तव्यो को पूरा करना नु –यज्ञ कहलाता है ।
भूत यज्ञ का आशया है --- सभी जीवित प्राणियों अर्थत पशु-पक्षियो के प्रति दया का भाव रखना तथा उन्हे संरक्षण प्रदान करना । इन सब कर्तव्यो को पूरा करना धर्म है । धर्मो के विभिन्न प्रकारो का भी वर्णन किया गया है । मुख्य प्रकार है ---मानव धर्म , वर्ण धर्म , आश्रम धर्म , कुल धर्म , स्वधर्म , देश या राज धर्म ,तथा काल धर्म
2) अर्थ
दूसरा पुरुषार्थ अर्थ माना गया है । अर्थ का प्रयोग विस्तुत रूप मे किया गया है । साधारण शब्दो मे कहा जा सकता है की अर्थ का आशया सांसरिक साधनो एव समृद्धि आदि से है । इस प्रकार अर्थ का अर्जन करना भी मनुष्य का पुरुषार्थ या कर्तव्य है । अर्थ के अभाव मे धर्म भी संभव नहीं है । महाभारत मे अर्थ के महत्व को इन शब्दो मे स्पष्ट किया गया है , धर्म पूर्णरूप से धन एव संपाती पर आधारित है । यदि कोई व्यक्ति किसी के धन को लुटता है तो वह उसके धर्म को भी लुटता है । दरिद्रता पाप से परिपूर्ण स्थिति है । सम्पत्ति के स्वामित्व से ही सब उत्तम कार्य होते है । सम्पत्ति से ही धार्मिक कार्य होते है । संम्पति से समस्त आनंद एव स्वय स्वर्ग की उपलब्धि होती है । संम्पति से ही धार्मिक कार्य आनंद , वासना , साहस , क्रोध और विधा उत्पन्न होता है । जिस मनुष्य के पास धन नहीं होता है वह धार्मिक कार्यो मे भी सफल नहीं होता क्योकि धर्म धन से उसी प्रकार उत्पन्न होता है ,धन से एक व्यक्ति की योग्यता भी बढ़ती है ।
इस प्रकार कहा जा सकता है की भारतीय जीवन मे अर्थ के महत्व को विशेष स्थान दिया गया है । परंतु यहाँ यहा भी स्पष्ट किया गया है की धन मनुष्य के लिए है न की मनुष्य धन के लिए । धन का उपार्जन धर्म पूर्वक होना चाहिये तथा धन का व्यय भी धर्म पूर्वक होना चाहिए , बुरे कार्यो के लिए धन का व्यय नहीं होना चाहिए । धन धर्म का साधन है ।
3) काम
पुरुषार्थ व्यवस्था मे तीसरा स्थान काम को दिया गया है । काम का आशय आनंद एव प्रेम से है । काम को प्रेम का देवत माना गया है । काम का पुरुषार्थ के रूप मे व्यापक अर्थ है । एक अर्थ मे यौन –इच्छा की तृप्ति तथा संतान को जन्म देना काम है । यह काम का संकुचित अर्थ है । जहां तक काम के विस्तृत अर्थ का प्रश्न है उसमे व्यक्ति की समस्त इच्छाओ ,कामनाओ एव आकांक्षाओ की समुचित तृप्ति से आशया है । जहां तक यौन तृप्ति का आशया है उसके लिए भारतीय समाज मे विवाह संस्कार का विधान है । विवाह करके धर्म –पूर्वक अपनी पत्नीसे यौन संबंध स्थापित करने तथा परिणामस्वरूप संतान को जन्म देना उचित है । इस प्रकार संतान को जन्म देकर व्यक्ति पितृ ऋण से मुक्त हो जाता है । विस्तुत अर्थ मे काम से आशय है इच्छा ,कामना एव आकांक्षाओ की पूर्ति इसके अंतर्गत समस्त इंद्रियो की तृप्ति का समावेश है । पुरुषार्थ रूप मे काम को मोक्ष का आधार एव पुष्ठभूमि माना गया है । व्यक्ति को संसार के भोग से संतुष्ट होकर ही मोक्ष को प्राप्ति की ओर अग्रसर होना चाहिये । धर्म ,अर्थ तथा काम का समन्वय होना चाहिये । भारतीय विचारो मे काम को अनियंत्रित नहीं छोड़ा गया बल्कि धर्म का अंकुश रखा गया है ।
4) मोक्ष
चार पुरुषार्थ मे मोक्ष का भी उल्लेख किया जाता है । मोक्ष को जीवन का परम लक्ष्य माना गया है । मोक्ष शब्द का प्रयोग अनेक अर्थो मे हुआ है जैसे की ----विमोचन छुड़ाना ,स्वतन्त्रता ,मुत्यु , पतन,गिरना ,बिखेरना समाप्ती तथा जन्म मुत्यु के चक्र से छुटकारा पाना । पुरुषार्थ धारणा के स्वरूप मे मोक्ष का तात्पर्य आवागमन के चक्र से छुटकारा पाना है । व्यक्ति को जीवन भर कर्म करने पड़ते है । तथा कर्मो के परिणाम भुगतने पड़ते है परंतु मोक्ष की स्थिति मे कर्म की आवश्यकता नहीं रहा जाती । जीवन की दुष्टि कोण से मोक्ष ,धर्म ,अर्थ ओर काम का स्वाभाविक परिणाम है धर्म ,अर्थ और काम जीव को समाज से बांधते है लेकिन मोक्ष इनसे मुक्त करता है धर्म अर्थ और काम सामाजिक है और मोक्ष शाश्वत सत्या की प्राप्ति है । चरम आनंद की अनुभूति है मोक्ष के लिए तीनों मुख्य मार्गो का सुझाव भारतीय दर्शन मे है । मोक्ष के महत्व को सर्वाधिक माना गया है । मोक्ष के प्रत्यय ने भारतीय जीवन के भी पक्षो को गहराई से प्रभावित किया है ।
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