कर्म के सिधान्त की व्याख्या
परिचय – नैतिक प्रत्यय के रूप मे कर्म के सिधान्त का विशेष महत्व है प्राचीन भारतीय दर्शन नीतिशास्त्र मे कर्म के सिधान्त को विशेष स्थान दिया गया है । कर्म के सिधान्त का संबंध पुनर्जन्म एव भाग्यवाद आदि सिद्धांतों से भी है कर्म के सिधान्त मे कर्म की धारणा सबसे मुख्य एव प्रधान है ।
कर्म का अर्थ क्या है ?कर्म का अर्थ यह है । की सकल अस्तित्व एक विश्व ऊर्जा की क्रिया है । ऊर्जा की एक प्रक्रिया द्वारा विश्व का अस्तित्व है । विश्व का अस्तित्व एक अविच्छिन श्र्ंखला है जिसका विभिन्न कड़ियां कारण एव परिणाम के परस्पर संबंध द्वारा संबंध है ।
कर्म के प्रकार
कर्मो को एक वर्गिकरण के अनुसार तीन प्रकार का बताया गया है । ये तीन प्रकार है ;-
1. कायिक ,
2. वाचिक ,
3. मानसिक ।
1) कायिक कर्म ---कर्म उन कर्मो को कहा जाता है जो काया या शरीर द्वार किये जाते है ।
2) वाचिक कर्म –वाचिक कर्म वह होते है जो वचन या भविष्यवाणी द्वार किए जाते है उन्हे वाचिक कर्म कहते है
3) मानसिक कर्म –मन से सम्पन्न होने वाले कर्म मानसिक कर्म कहलाते है । इससे भिन्न गीता मे क्रमश सात्विक कर्म , राजसिक कर्म ,तथा तामसिक कर्म का भी उल्लेख है ।
कर्मो के फल के आधार पर भी कर्मो का वर्गिकरण किया गया है । इस आधार पर भी तीन प्रकार के कर्मो का उल्लेख मिलता है । ये प्रकार है
1) संचित कर्म
2) प्रारब्ध कर्म
3) संचियमान अथवा क्रियमान कर्म
इस वर्गिकरण मे संचित कर्म तथा प्रारब्ध कर्म पूर्व कर्म होते है , वे पूर्वजन्मो के भी हो सकते तथा इस जन्म के भी हो सकते है । इन्हे हम एकत्रित कर्म भी कह सकते है । ये हमारे पूर्व संचित कर्म है । पूर्व संचित कर्मो मे कुछ ऐसे होते है जिनके फलो को हम भोगना प्रारम्भ कर देते है , उन्हे प्रारब्ध कर्म कह जाता है । तथा जिका फल मिलना अभी प्रारम्भ नहीं हुआ उन्हे संचित कर्म कहा जाता है । संचियमान कर्म वे है जिनका संचय हम वर्तमान मे कर रहे होते है तथा फल भविष्य मे प्रप्त होगा ।
कर्म के सिधान्त के मुख्य तथ्य
कर्म के सिधान्त का प्रतिपादन वेदो ,उपनिषदों ,महाभारत ,गीता ,स्मूर्तियों एव अन्य ग्रंथो मे विस्तार पूर्वक किया गया है । विस्तुत विवेचन से बचते हुए यहा पर कर्म के सिधान्त के मुख्य तथ्यो को संक्षेप मे प्रस्तुत किया जा रहा है ।
1) कर्म के सिधान्त मे कर्म तथा पुनर्जन्म का घनिष्ठ संबंध है । कर्मो के ही परिणाम स्वरूप पुनर्जन्म होते है ।
2) कर्म के सिधान्त की यह मान्यता है की व्यक्ति द्वारा किए गये किसी भी कर्म का प्रभाव समप्त नहीं होता । कर्मो के फलो को अनिवार्य रूप से भोगना पड़ता है ।
3) कर्मो के ही कारण पुनर्जन्म होता है । वास्तविकता यह है की व्यक्ति एक जन्म मे अपने समस्त कर्मो के फलो को नहीं भोग पता अंत अपने कर्मो के फलो को भोगने के लिए बार बार जन्म लेना पड़ता है । इस प्रकार पुनर्जन्म का चक्र अनन्त काल तक चलता है ।
4) यह आनिवार्य नहीं की इस जन्म मे इसी जन्म के कर्मो के फल प्राप्ता हो बल्कि पहले के जन्मो के संचित कर्मो के फल भी भोगने पड़ते है । इसी सिधान्त के आधार पर वर्तमान मे अच्छे कर्म करने वालो द्वार दुख एव कष्ट पाने की व्यवस्था की जाती है ।
5) कर्म के साथ भाग्य की भी अवधारणा सम्बंध है । पूर्वजन्म के कर्मो के आधार पर वर्तमान भाग्य का निर्धारण होता है । इस सिधान्त को मानकर ही अपने वर्तमान पर सन्तोष रखने तथा भविष्य को सँवारने का निर्देश है ।
6) कर्म के सिद्धांत के ही संदर्भ मे मोक्ष की भी व्याख्या की जाती है जब कर्मो का चक्र पूरा हो जाता है तथा व्यक्ति जन्म –मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है तब मोक्ष की स्थिति अति है ।
निष्काम कर्म योगा
परिचय –गीता का मुख्य उपदेश एव सिद्धांत निष्काम कर्म योगा है यह उपदेश श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल मे अर्जुन को दिया था । उस समय स्थिति यह थी की महाभारत के युद्ध की पुर्ण तैयारिया ही चुकी थी । पांडवो और कौरवो की सेनाये आमने सामने थी । एसी स्थिति मे अर्जुन ने अपने सभी सम्बन्धियो को कौरवो की सेना मे उपस्थित पाया । अर्जुन यह देखकर विचलित हो गया । उसने युद्ध ण करने का निश्चय का लिया । तब श्री कृष्ण ने अर्जुन के मन की इस विचलित स्थिति को समाप्त करने के लिए एक प्रभावशाली उपदेश दिया । यही महान उपदेश निष्काम कर्मयोग कहलाता है । निष्काम –कर्मयोग का अर्थ निम्नलिखित है
निष्काम कर्मयोग का अर्थ
कर्तव्य भाव से प्ररित होकर किया गया कर्म निष्काम कर्म कहलाता है । निष्काम कर्म मे कर्म कर्तव्य के प्रति लगाव होता है । इसमे फल पर ध्यान नहीं दिया जाता । बल्कि निष्काम कर्म या सदैव ईश्वर को अर्पित करके किया जाता है निष्काम कर्म करते समय यह माना जाता है की संबन्धित कार्य ईश्वर का कार्य है । कार्य करने वाला स्वय ईश्वर है । व्यक्ति तो केवल साधन है । व्यक्ति कार्य करने वाला है ,करवाने वाला नहीं । प्रत्येक निष्काम कर्म ईश्वर की इच्छा से होता है । इस सिद्धांत के अंतर्गत माना जाता है की व्यक्ति तो कर्म करने मे इच्छा अनिच्छा का ध्यान रखना चाहिए । निष्काम कर्म के अंतर्गत व्यक्ति को केवल कर्म करने का अधिकार है । उसे न तो फल की इच्छा करने चाहिए और न हीं उसे फल प्राप्त करने का अधिकार है । निष्काम कर्म विश्व –कर्म है । इसका संबंध सर्व व्याप्त विश्वात्मा से है ।
निष्काम कर्म के लाभ
निष्काम कर्म करने की भावना के विकास से अनेक व्यवहरिक लाभ भी है । इस भावना के विकसित हो जाने पर किसी भी व्यक्ति को अपने कार्य के प्रति अरुचि नहीं हो सकती । इस दशा मे व्यक्ति अनुभव करता है की वह जो कार्य कर रहा है वह कार्य ईश्वर का कार्य है ईश्वर के सभी कार्य महान है अंत उसका कार्य भी महान है । निष्काम कर्म करने वाला व्यक्ति जानता है की उसको भगवान ने कुछ विशिष्ट शक्तिया दी है । और उसे उन्ही शक्तियो के अनुकूल कार्य करना है । समाज मे श्रम –विभाजन की समस्या भी निष्काम कर्म की मनोवृति के विकास द्वार हल हो सकती है । निष्काम कर्म के सिधान्त मे वर्ण –व्यवस्था को जन्म नहीं अपितु कर्म से माना जाता है । इस दशा मे छोटा या बड़ा कार्य करने मे किसी प्रकार की हिन भावना या उच्चता की भावना का प्रश्न नहीं उठता है ।
निष्काम कर्म की भावना के विकास से व्यक्ति एव समाज दोनों को ही लाभ है । व्यक्ति का निजी जीवन सरल एव तनाव रहित बनाने के लिए निष्काम कर्म की भावना आवश्यक है । इसके अतिरिक्त सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने के लिए भी निष्काम कर्म की भावना सहायक होती है ।
कर्म सिधान्त के महत्व तथा दोष का वर्णन करे
परिचय –प्राचीन काल से ही भारतीय समाज की सर्वाधिक प्रभावित करने वाला सिधान्त कर्म सिधान्त रहा है । इस सिधान्त से प्रत्येक भारतीय व्यक्ति का जीवन किसी न किसी रूप से आवश्य प्रभावित रहा है । एक ओर जहां इस सिधान्त ने नैतिक जीवन के विकास मे भरपूर योगदान दिया है वही दूसरी ओर कष्ट के काल मे संतोष प्रदान किया तथा भारतीय समाज के संगठन को बनाये रखने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है । भारतीय समाज मे विकसित होने वाले लगभग सभी समप्रदायों एव धर्मो ने किसी न किसी रूप मे कर्म सिधान्त को आवश्य अपनाया है । यहाँ तक की जैन एव बोद्ध मत मे भी कर्म के सिधान्त को स्वीकार किया गया है । कर्म के सिधान्त के महत्व को मैक्स बेबर ने इन शब्दो मे स्पष्ट किया है कर्म के सिधान्त ने सम्पूर्ण संसार को बुद्धिवादी तथा नैतिक व्यवस्था मे परिणत कर दिया इस प्रकार यह सिधान्त सम्पूर्ण इतिहास मे एक सबसे अधिक संतुलन ईश्वरीय विश्वास का प्रतिनिधित्व करता है कर्म सिधान्त के महत्व का विवरण निम्नलिखित रूप मे प्रस्तुत किया जा सकता है ।
1) व्यक्तित्व के विकास मे सहायक ----कर्म के सिधान्त को स्वीकार कर लेने पर व्यक्ति मानसिक रूप से संतुष्ट रहता है इस सिधान्त मे आस्था होने पर व्यक्ति दुखो ,कष्टो एव असफलतों आदि से अधिक परेशान नहीं होता है कर्म सिधान्त व्यक्ति को कर्तव्य के लिए प्ररित करता है ।
2) सामाजिक संघर्ष से बचाव ----समाज मे यदि अधिकांश व्यक्ति अपनी स्थिति के प्रति असंतुष्ट हो तो प्राय ; सामाजिक संघर्षो की आशंका बनी रहती है कर्म के सिधान्त को मान लेने पर व्यक्ति अपनी सामाजिक स्थिति से असंतुष्ट नहीं होता है । वह अपनी स्थित को अपने पूर्व कर्मो का परिणाम मानता है । इस धारणा के कारण भारतीय समाज अनेक विकत परिस्थितियो मे भी सामाजिक संघर्षो से बचा रहा तथा समाज का विघटन नहीं हुआ । स्पष्ट है की कर्म सिधान्त ने हमे सामाजिक संघर्षो से बचाया है ।
3) नैतिकता का विकास मे सहायक ---कर्म के सिधान्त ने भारतीय समाज मे नैतिक गुणो के विकास मे विशेष सहायता प्रदान की है । कर्म सिधान्त के अनुसार यदी व्यक्ति अच्छे कर्म करता है तो उसे उसके फल भी अच्छे प्राप्त होते है । इसी सिधान्त को मानकर भारतीय समाज ने नैतिक सदगुणो के विकास मे सहायता प्राप्त हुई है । कर सिधान्त के अंतर्गत यह माना गया है । की यदि पुण्य कर्म किए जाये तो व्यक्ति के प्रारब्ध को भी बदला जा सकता है । इन सब कारणो से भारतीय समाज मे मानवीय नैतिकता का अधिक विकास हुआ । कर्म एव पुनर्जन्म के सिधान्त से प्रेरित होकर असंख्य दुराचारी व्यक्ति भी बाद मे सदजीवन मे पदर्पित हुआ
4) समाज –कल्याण से सहायक –कर्म के सिधान्त ने भारतीय समाज मे समाज कल्याण की भावना को भी बल प्रदान किया है । निष्काम कर्म का आदर्श महान आदर्श है । कर्म का सिधान्त राग ,देव्श तथा मोहा आदि को त्याग कर कर्म करने की प्रेरणा देता है
5) अशवाद का समर्थन –कर्म के सिधान्त के अनुसार अच्छे कर्म द्वारा अपने भविष्य को उत्तम बना सकते है । ईससे आशावाद को बल मिला । कष्ट एव दुख झेलते हुए व्यक्ति भी आशा रखते है की उनके जीवन मे परिवर्तन होगा तथा उसके लिए इन्हे प्रयास भी करना चाहिए इस प्राकर कर्म के सिधान्त का मान लेना पर घोर निराशा के बुरे परिणाम से बचा जा सकता है ।
6) सामाजिक व्यवस्था मे सहायक ---कर्म के सिधान्त ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था एव संगठन को सुध्ढ बनाने मे विशेष भूमिका निभाई है । वर्ण –व्यवस्था परिवारका दायित्व आदि को निभाने के लिए कर्म सिधान्त प्रेरण प्रदान करता है । आश्रम धर्म को भली भांति पूरा करने से मोक्ष की प्राप्ति का आश्वासन भी महत्वपूर्ण है । इस प्राकर हमारे समाज मे सभी साधारण एव विशेष कार्यो को कर्म के सिधान्त के आधार पर किया जाता है ।
7) पुनर्जन्म के चक्र से बचने का अशवासन ---साधारण रूप मे प्रत्येक व्यक्ति जन्म –जन्मांतर के चक्र से भयभीत होता है परंतु कर्म का सिधान्त इस प्रकार का अशवासन देता है की इस सिधान्त के समूचित शासन द्वार जन्म जन्मांतर के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है
कर्म सिधान्त के दोष
यह सत्या है की भारतीय समाज मे कर्म सिधान्त को व्यापक रूप मे स्वीकार किया गया है । परंतु कर्म सिधान्त के साथ भाग्यवाद की धारणा जुड़ जाने से इस सिधान्त को कुछ क्षेत्रों मे दोष पूर्ण भी माना गया है । इस सिधान्त के दोष निम्नलिखित है ;-
1) कर्म सिधान्त तथा पुरुषार्थ विचारो मे परासपरिक विरोध देखा गया है पुरुषार्थ विचार के अनुसार तीनों पुरुषार्थ को पूरा करने से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है । परंतु कर्म सिधान्त के अनुसार जब तक प्रारब्ध का प्रभाव समाप्त नहीं हो जाता तब तक मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है तथा जन्म-जन्म्मंतर का चक्र चलता रहता है
2) कर्म के सिधान्त मे एक अति महत्वपूर्ण बात है निष्काम कर्म का विचार । इस विचार के अनुसार व्यक्ति को कर्म करना चाहिए फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए । इस सिधान्त को मान लेने पर व्यक्ति के जीवन मे कर्म के लिए कोई तात्कालिन प्रेरणा नहीं रहती है
3) कर्म के सिधान्त मे पुनर्जन्म के विचार को बहुत अधिक महत्व दिया गया है यह उचित नहीं है
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