बुद्धिवाद
कान्ट का बुद्धिवाद
कान्ट के तत्वज्ञान मे नैतिक तत्वो को अध्यात्मिक महत्व देते है । उनके अनुसार वास्तविक विश्व और आभासी विश्व इस प्रकार से दो विश्व होते है । उनके अनुसार हमारा संबंध हमेशा इस आभासी विश्व से ही होता है उनके अपने मन तथा भावनाओ के कारण हम वस्तुओ के जिन गुणधर्मो का अध्ययन करते है । उससे वस्तु का मूल स्वरूप जान नहीं पाते । लेकिन यदि हम बुद्धि द्वारा नैतिकता से या सतसंकल्प के अनुसार इन वस्तुओ को जानना चाहते है तो ही हम वस्तुओ का मूल स्वरूप जान सकते है । तो ही हम वस्तुओ का मूल स्वरूप जान सकते है । कान्ट के अनुसार सतसंकल्प इस प्रकार है ।
निरपेक्ष आदेश ;-
काण्ट के अनुसार आदेश दो प्रकार के होते है ;-
1. ओपाधिक आदेश
2. निरपेक्ष आदेश
व्यावहारिक बुद्धि द्वारा उत्पन्न नैतिक नियम निरपेक्ष आदेश है । अथवा इन नियम के पालन मे कोई शर्त नहीं रहती है । जैसे की सत्य बोलना चाहिए इसके विपरीत ओपाधिक आदेश भी एक प्रकार के नियम ही है जिंनका पालन करना एक लकीन इन आदेश मे नियमो के पालन मे शर्ते होती है । जैसे की यादी आपको अच्छी सेहत चाहिए तो उसके लिए रोज व्यायाम करना जरूरी है । काण्ट निरपेक्ष आदेश को ज्यादा महत्व देते है उनके अनुसार निरपेक्ष आदेश इस प्रकार है ।
1. निरपेक्ष आदेश व्यवहारिक बुद्धि का आदेश है जिसमे भावना नहीं होती है ।
2. यह निरपेक्ष होने के कारण यह आदेश हम पर बाहर से लादे नहीं जा सकते ।
3. बुद्धि के यह आदेश सार्वभोम एव अनिवार्य यह एक आज्ञा है । इसीलिए इसमे नैतिक बाध्यता होती है ।
4. निरपेक्ष आदेश एक एसे नियम है जो सभी बुद्धिमान प्राणी मानते है । यह नियम बताकर क्या करना चाहिए ?यह बताया है
5. काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश का आधार शुभ संकल्प good will है । अर्थत इन आदेशो के पीछे जो संकल्प होता है वह शुभ है ।
शुभ संकल्प
1. शुभ संकल्प काण्ट के नैतिक दर्शन की आधार शीला है । इसे काण्ट के नैतिक विचार की निव माना है । कोई संकल्प शुभ या अशुभ अच्छा या बुरा नहीं होता । शुभ संकल्प एक बोद्धिक संकल्प है ।
2. काण्ट कहते है की शुभ संकल्प एक ऐसा संकल्प है जिसमे कोई भी शर्ते नहीं होती है
3. शुभ संकल्प अपने आप मे शुभ है शुभ संकल्प एक ऐसा रत्न है जो अपने ही प्रकाश मे चमकता है
4. शुभ संकल्प अपने ही नैतिक नियमो द्वारा संचालित है । उसकी शुद्धता उसके संकल्प मे ही है ।
5. शुभ संकल्प का सबंध कर्तव्य से है व्यक्ति का शुभ संकल्प उसकी स्वतंत्रता पर निर्भर करता है क्योंकि मनुष्य एक नैतिक प्राणी होने के कारण इच्छा स्वतंत्र्य है
6. कोई भी संकल्प इच्छा संकल्प नहीं होती । जब तक हेतु योग्य है । तब तक ही परिणामो का विचार न करते हुए भी योग्य या उचित है
7. काण्ट के अनुसार यह सत संकल्प अपने आप मे निरपेक्ष आदेश है जो स्वया के प्रकाश से स्वभावत मूल्यवान रत्न के समान चमकता है ।
कर्तव्य के लिए कर्तव्य Duty for the duty
निरपेक्ष आदेश या शुभ संकल्प क्या है ?इसका समाधान करते हुए कान्ट कर्तव्य के लिए कर्तव्य ही वह नैतिक नियम है जिसे निरपेक्ष आदेश के रूप मे स्वीकार किया जा सकता है । यह सिधान्त एक मात्र सच्चा नैतिक सिधान्त है । और यही सिधान्त कान्ट के नीतिदर्शन का आधार है ।
यह एकमेव बोद्धिक सिधान्त है किसी भी स्थिति मे इसे तोड़ा नहीं जा सकता । इसीलिए यह अपरिवर्तनीय है । यह नियम सभी के लिए अनिवार्य है । अन्य नियमो से यह भिन्न है क्यो की अन्य नियमो का पालन दण्ड के भय से पुरस्कार प्राप्त करके विचार से मनुष्य करता है । लेकिन कर्तव्य करने के लिए कर्तव्य करने के लिए कर्तव्य का पालन मनुष्य स्वेच्छा से करता है ।
कान्ट के अनुसार कर्म तीन प्रकार के होता है । वासना पर आधारित स्वार्थ पर आधारित और केवल कर्तव्य का पालन करने के लिए किया गया कर्म इनमे से कान्ट केवल तीसरे प्रकार के कर्म को ही मनुष्य महत्व देता है । क्यो की उसके अनुसार मनुष्य इस कर्म को इसलिएकरता है की उसे ऐसा करना चाहिए यह नैतिक नियम केवल कथन नहीं बल्कि आदेश है ।
कान्ट के तीन विशिष्ट निरपेक्ष आदेश ;-
कान्ट का कर्तव्य के लिए कर्तव्य यह सिधान्त एक आकार मात्र है । जिसको व्यवहार मे उतारा नहीं जा सकता । यह सिधान्त उन विशिष्ट विषयो को नहीं बता सकता की हमे कोन से विशेष कार्य करने चाहिए ?अंत कान्ट ने अपने एकमात्र निरपेक्ष आदेश कर्तव्य के किए कर्तव्य के सिधान्त को सरल एव व्यवहरिक बनाने के उद्देश्य से तीन और निरपेक्ष आदेशो की रचना की ये ही कान्ट के नैतिक सूत्र कहलाते है ।
कान्ट के नैतिक सूत्र
प्रथम सूत्र ----केवल इस नैतिक नियम के अनुसार कम करे जिससे आप एक सार्वभोम नियम बन जाने की इच्छा कर सकते है इस सूत्र के अनुसार कोई कर्म करने से पहले हम अपने आप से पूछे की यह कर्म सर्वभोम बनाया जा सकता है या नहीं यदि कर्म सर्वोभोम बनाया जा सकता है तो वह उचित कर्म कहलाता है । और अगर वह सार्वभोम नहीं बनाया जा सकता है तो वह कर्म अनुचित कर्म होगा । कान्ट इस सार्वभोमिकता के सूत्र को उदाहरण देकर समझते है की जैसे उधार लेना ,अत्महत्या करना ,चोरी करना ,ये कर्म सार्वभोम नहीं बन सकते इसलिए वे नैतिक नियम नहीं बन सकते है ।
दूसरा सूत्र ---इस प्रकार कर्म करे की मानवता चाहे अपने अन्दर हो यह दूसरे के अन्दर सादैव सध्य बनी रहे साधन नहीं ।
इस सूत्र के अनुसार प्रत्येक मनुष्य स्वया साध्य है मानवता मात्र ही साध्य है । इसलिए अपने और दूसरों के व्यक्तित्व मे निहित मानवता को साध्य ही समझना चाहिए ।
मानवता का अर्थ है आत्मा केवल आत्माओ को ही नहीं बल्कि दूसरों की आत्मा को भी साध्य समझना चाहिए । याने दूसरे व्यक्ति को अपने स्वार्थ के लिए साधन न बनाए । जैसे की – थकावट के बाद हम निद्रा करना पसंद करते है तो यह नियम दूसरों पर भी लागू होना चाहिए । इस नियम के अनुसार भी अत्महत्या करना अनुचित है क्योकि अपने आत्मा की हत्या करने का हमे कोई अधिकार नहीं है ।
उपसूत्र -----इसी दूसरे सूत्र से संबन्धित कान्ट ने एक उपनियम बताया है । उनके अनुसार सदैव अपने को पूर्ण करने की चेष्टा करो और अनुकूल परिस्थितियो को उत्पन्न करके दूसरों को सुखी बनाने की चेष्टा करो । क्योकि तुम दूसरों को पूर्ण नहीं बना सकते । इस सूत्र मे ही मानुष्य को साध्य बनाने का नियम उत्पन्न होता है । यह नियम बताते हुए कान्ट ने साक्षेप मे आचरण के विशिष्ट नियम न बताते हुए केवल दो निकश बताए है
तीसरा सूत्र ------प्रत्येक मानुष्य को इस साध्य के साम्राज्य मे एक सदस्य के रूप मे कार्य काना चाहिए इस सूत्र के अनुसार कान्ट ने साध्य (ध्येय के साम्राज्य की कल्पना स्पष्ट की है (kingdom of ends ) उसके अनुसार सामान्य नियमो से बाध्य विभिन्न विचारवन्तो का मण्डल याने साध्य के राज्य मे सदस्य होने का अर्थ यह है प्रत्येक व्यक्ति इस नैतिक शासन व्यवस्था का विधायक है । ऐसे राज्य का प्रत्येक व्यक्ति शासक और शासित दोनों है । क्योंकि उसी साम्राज्य मे वही राजा भी है और प्रजा भी है शासक का अर्थ यह है की व्यक्ति नैतिक नियमो को अपने ऊपर स्वंय लागू करता है और ससीट का अर्थ है की वह इन नैतिक नियमो का पालन भी स्वंय ही करता है । ऐसे राज्य के सदस्यो के बीच परस्पर संघर्ष नहीं होता है । इस प्रकार से उपर्युकत तीनों सूत्रो का परस्पर संबंध है कान्ट अलग अलग तरीको से इन्हे स्पष्ट करते है । पहला सूत्र यह तत्व बलता है । जो सभी नैतिक नियमो का स्वरूप (form )है । यह सूत्र हमे कृति की उचितता तथा अनुचितता बतलाता है । दूसरा सूत्र –नैतिक नियमो को द्रव्य (matter ) बतलाता है । याने की प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य क्या होना चाहिए ?यह बतलाता है । और तीसरा सूत्र सभी नैतिक नियमो का समन्वय बतलाता है । इसप्रकार ;-
1. पहला सूत्र रूपात्मएकता (unity of the form )
2. दूसरा सूत्र द्र्व्यात्मक अनेकत्व और (plurality of matter )
3. तीसरा सूत्र –रूप और द्रव्य का समुच्चय स्पष्ट कारता है ।
परीक्षण
1. कठोरतवाद कान्ट के दर्शन की प्रमुख आलोचना यह है की उनका दर्शन कठोर बन गया है । भावना को जीवन मे कोई स्थान न देने के कारण उनका दर्शन कठोरवादी बन जाता है । उसी प्रकार कान्ट नैतिक नियमो मे कोई आवाद स्वीकार नहीं करते इसीलिए भी दर्शन कठोरतावादी हो गया है । जेकोवि कहते है की मनुष्य नियमो के लिए बना है न की नियम मानुष्य के लिए ।
2. एकांगीदर्शन कान्ट के सम्पूर्ण दर्शन का सार है कर्तव्य के लिए कर्तव्य की भावना से कार्य करना । उनके अनुसार दया ,परोपकार ,सहनभूति से किया गया कर्म प्रशंसनीय है । लकीन नैतिक नहीं है । इस प्रकार से बुद्धिवाद ने मनुष्य के जीवन मे भावना नामक दूसरा पहलू का पूर्ण रूप से उपेक्षा की है । इसलिए कान्ट का दर्शन एकांगीदर्शन बन गया है ।
3. व्यक्तिवादी कान्ट का दर्शन व्यक्तिवाद है क्योंकि साध्य के नियम का पालन करना याने के व्यक्तिवाद के तरफ ही जाना है न की समाजिकता की तरफ ।
4. विरोधाभास कान्ट ने नैतिक कार्यो मे बुद्धि और भावना के संघर्ष को अवश्यक माना है । लकीन इसका अर्थ यह हुआ की कार्य को नैतिक बनाने के लिए संघर्ष को बनाए रखना भी आवश्यक है ।
5. सन्यासवाद कान्ट के अनुसार हममे भावनाओ का दमन करना चाहिए लकीन सभी यदि इस आवश्यक अंग को नष्ट कर दे तो सन्यासवाद के समर्थक बन जायेगे । भावनाओ के आभाव मे आनंद संभव ही नहीं है
कान्ट –कान्ट के नैतिक सूत्र की आलोचन
कान्ट के नैतिक सूत्र सिधान्त के रूप मे यह सुंदर और व्यावहारिक प्रतीत होता है । लेकिन इसमे भी कुछ त्रुटियाँ है । कान्ट के नैतिक सूत्र पूरी तरह से आकारिक है । सभी नियम हम सार्वभोम नहीं बना सकते । जैसे की दान देना एक सद्गुण है लकीन यदि सभी दान देने लग जाए तो दान लेने वाला ही कोई नहीं बचेगा ।
इसप्रकार से कान्ट का बुद्धिवाद नैतिक स्तर पर बहुत महत्वपूर्ण है । लेकिन व्यावहारिक दुष्टि से उसका पालन करना अत्यंत कठिन है ।
बुद्धिवाद के दो पंथ
सिनिक्स और स्टोइक्स
1. सिनिक्स ने सुखवाद की कठोर आलोचना करके यह कह दिया है की सुख अनुभव करने से तो मै पागल बनना /होना अधिक पसंद करूंगा (एंटिनीथीज़ )
2. सिनिक्स के अनुसार बुद्धि को भावनाओ पर पूर्ण नियंत्रण रखना चाहिए । नैतिक जीवन ही बुद्धिक जीवन है ।
3. सद्गुण परम ध्येय है क्योंकि सद्गुणी व्यक्ति अपने मे पूर्ण होता है ।
4. सिनिक्स वैराग्यवादी है उनके अनुसार आत्मा की पूर्णता आत्मनिरोध मे है ।
5. इनके अनुसार प्रकृति के अनुसार रहो यह इनका मुख्य नीतिवाक्य है । बुद्धि निष्ठा तथा स्वतंत्र सदाचारी जीवन जीना ही मनुष्य का ध्येय है ।
आलोचना ;-
1. सिनिक्स का बुद्धिवाद कठोरतवाद की तरफ ले जाता
2. इनका बुद्धिवाद कठोरतवादी है
3. इनहोने विश्वनागरिकवादी की निव डाली परंतु व्यवहार मे देशप्रेम तक को स्वार्थ के आधीन कर दिया है
4. सिनिक्स का बुद्धिवाद निराशावादी है
स्टोइक्स ;-
1) स्टोइक्स के अनुसार सद्गुण ही परांशुभ है । इनहोने सद्गुण को कर्तव्य पालन पर ज्यादा ज़ोर दिया है
2) सिनिक्स के समान स्टोइक्स ने भी सुखवादी परंपरा की आलोचना की है
3) स्टोइक्स के अनुसार केवल व्यवहरिक विवेक ही उचित ,अनुचित का निर्णय करता है ।
4) भावशून्य जीवन ही प्रकृति के अनुसार जीवन है । यही आध्यात्मिक और कल्याणकरी जीवन है ।
5) स्टोइक्स ने सिनिक्स के विश्वनागरिकतवाद के सिधान्त को उसके वास्तविकतवाद मे स्थापित किया ।
आलोचन ;-
सिनिक्स के बुद्धिवाद पर जो भी अपेक्षा किये गए है ,वे सभी यहाँ पर भी लागू होते है ।
बुद्धिवाद –और सुखवाद मे अंतर
1) सुखवाद ईष्ट और अनिष्ट इन तत्वो का प्रमुख रूप से आध्यान करता है ,तो बुद्धिवाद उचित तथा अनुचित इन तत्वो का विचार करता है ।
2) सुखवाद के अनुसार कृति की योग्यता कृति के ईष्ट –अनिष्ट परिणाम से निशिचत होती है । लकीन बुद्धिवाद के अनुसार कृति की योग्यता योग्य और अयोग्य उस कृति के हेतु पर निशाचित होती है ।
3) सुखवाद के अनुसार कृति का परिणाम महत्वपूर्ण है तथा बुद्धिवाद के अनुसार उसका हेतु महत्वपूर्ण है ।
4) सुखवाद का नारा सुख के लिए सुख है तथा बुद्धिवाद का नारा कर्तव्य के लिए कर्तव्य है
5) सुखवाद सुखद प्रवुर्तियों को महत्व देता है तथा बुद्धिवाद कर्तव्य को महत्व देता है ।
6) सुखवाद भावना पर आधारित है तथा बुद्धिवाद बुद्धि पर आधारित है ।
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