बौद्ध नैतिक दर्शन के चार आर्य सत्य एव अष्टांग मार्ग
गौतम बुद्ध का यह मत था की दुख से मुक्ति ईश्वर ,आत्मा ,जगत सम्बन्धी दार्शनिक समस्याओ मे उलझने अथवा इसके विषय मे वाद –विवाद करने से नहीं अपितु आचरण की शुद्धता और दुख –निरोध प्रयास द्वारा ही संभव है । अंत उन्होने सभी दार्शनिक प्रशोनों को अव्याकृत –अर्थात न पूछे जाने योग्य ---कहकर अपने शीष्यों को उनमे न उलझने का उपदेश दिया । ईश्वर तथा आत्मा का अस्तित्व है या नहीं ,यदि ईश्वर और आत्मा की सत्ता है तो इनका स्वरूप क्या है यह जगत शाश्वत है अथवा नश्वर । इन दार्शनिक प्रश्नो के संबंध मे वाद विवाद काना वे निरर्थक ही मानते थे । उनका विचार था की संसार मे जिस दुखा की सत्ता निर्विवाद है उससे मुक्ति पाने के लिए प्रयास करने से पूर्व मनष्य का ऐसे दार्शनिक प्रश्न पूछना उसी प्रकर निरर्थक है । जिस प्रकार तीर से घायल किसी व्यक्ति का यह कहना की मैं अपने शरीर से इस तीर को तभी निकाल दूंगा ,जब मुझे यह बात दिया जाए की तीर चलाने वाले व्यक्ति की लंबाई ,मोटाई ,जाती ,आयु ,आदि क्या थी ?इस प्रकार दार्शनिक प्रश्नो के विवाद मे न पड़कर गोतम बुद्ध ने अपना संपूर्ण ध्यान संसार मे विधमान दुख तथा उससे मुक्ति प्रप्ता करने के उपायो पर ही केंद्रित किया ।
चार आर्य सत्या (Fourfold Noble Truth )
आचरण की शुद्धि तथा दुख से मुक्ति के लिए गोतम बुद्ध ने मनुष्य को जिस मार्ग का अनुसरण करने की शिक्षा दी है ,उसे अष्टांग मार्ग कहा जाता है । इस अष्टांग मार्ग का वर्णन उन्होने चार आर्य सत्यों के अंतर्गत किया है जो इस प्रकार है ;-
· संसार मे सर्वत्र दुख है ।
· इस व्यापक दुख का क्या कारण है ।
· दुख का विनाश अथवा निरोध सम्भव है ।
· दुख का विनाश अथवा निरोध करने का मार्ग है ।
बौद्ध –दर्शन मे इन चार आर्य सत्यों का बहुत महत्व है ,क्योंकि इस दर्शन का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को दुख से मुक्त होने का मार्ग बताना है । इन चार आर्य सत्यों का वर्णन निम्नलिखित है ।
प्रथम आर्य सत्या है संसार मे सभी प्राणियों का जीवन दुखमय है । जन्म ,वृद्धावस्था ,रोग ,मुत्यु , इच्छित वस्तु का प्राप्त न होना ,प्राप्त सुख नष्ट हो जाना ,अप्रिय वस्तुओ एव व्यक्तियों के साथ संपर्क ।प्रिय वस्तुओ और व्यक्तियों से वियोग आदि सभी दुखपूर्ण है । समस्त प्राणियों को अनेक प्रकार के रोग अथवा कष्ट घेरे रहता है । इस प्रकार संसार मे दुख की व्यापकता निर्विवाद है ।
दूसरा आर्य सत्य यह है की यह व्यापक दुख अकारण नहीं है इसका कोई कारण है । बुद्ध ने दुख के बाहर कारणो की श्रंखला बताई है । जिसमे अविधा को इसका प्रथम और मूलकरण माना गया है । बौद्धदार्शनिक के मतानुसार अविधा का अर्थ है आत्मा के स्वरूप तथा चार आर्य सत्यों को ठीक ठीक न जानना । दुख के इस मूल कारण अविधा के अतिरिक्त अन्य ग्यारह कारण है ---संस्कार ,विज्ञान ,नाम-रूप षडायतन ,स्पर्श ,वेदना ,तुष्णा ,उपदान ,भाव ,जाती ,और जरा –मरण । दुख के आदिकारण अविधा को छोड़कर शेष सभी कारण एक दूसरे से उत्पन्न होते है । उदहारणर्थ अविधा संसार मे जीवित रहने के संस्कारो को उत्पन्न करती है जिनके कारण प्राणी को बार –बार जन्म लेना पड़ता है । इन संस्कारो के कारण विज्ञान अथवा चेतना की उत्पाती होती है जिसके फलस्वरूप प्राणी जीवित रहता है। और दुख भोगता है । विज्ञान या चेतना के कारण प्राणी नाम –रूप अथवा आकार ग्रहण करते है । नाम –रूप से षडायतन ---अर्थात मन –अंखे नाक ,कान और जिंहा -त्वचा इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों की उत्पाती होती है । जिनके द्वार प्राणी सांसरिक वस्तुओ के संपर्क मे आता है । षडायतन के फलस्वरूप प्राणी स्पर्श –सुख का अनुभव करता है । जो वेदन –अर्थात इंद्रियजन्य सुखनुभूति को जन्म देता है । वेदन के कारण प्राणी मे तुष्णा अथवा संसार मे जीवित रहने और सुख भोगने की इच्छा उत्पन्न होती है जो उपदान –अर्थात सांसरिक वस्तुओ तथा स्त्री संतान आदि के प्रति आसवित को जन्म देती है । यह उपादान प्राणी मे भाव अथवा पुनर्जन्म की इच्छा को उत्पन्न करता है जिसके कारण उसे संसार मे पुनः जन्म –जिसे जाती कहा गया है ---लेना पड़ता है और इस जाती अथवा जन्म के फलस्वरूप उसे जरा –मरण संबंधी अनेक कष्ट भोगने पड़ते है दुख के उक्त बारह कारणो को ही भवचक्र माना गया है और इन्हे दावदश निदान भी कहा गया है ।
तीसरा आर्य सत्या यह है की दुख का निरोध अथवा विनाश संभाव है । बुद्ध यह मानते थे की मनुष्य दुख से मुक्ति प्राप्त कर सकता है यदि दुख उपर्युक्त समस्त कारणो को भली भांति समझकर उनका नीराकारण कर दिया दिया जाए तो वह स्वत: नष्ट हो जाएगा और मनुष्य सदा के लिए उससे मुक्त हो जाएगा । वस्तुत: बुद्ध के मतानुसार अन्य सभी वस्तुओ की भांति दुख भी अनित्य अथवा नश्वर है और उचित उपायो द्वारा इसे नष्ट करके मनुष्य इससे मुक्ति प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार मनुष्य के लिए सदैव दुख भोगते रहना अनिवार्य नहीं है ।
चौथा और अन्तिम आर्य सत्या यह है की दुख के विनाश अथवा निरोध का मार्ग है । इस आर्य सत्या का विशेष महत्व है ,क्योकि इसमे बुद्ध ने दुख –निरोध का उपाय अथवा मार्ग बताया है ।
अष्टांग मार्ग
दुख निरोध के उक्त मार्ग हो अष्टांग मार्ग कहा गया है । दुख से मुक्ति प्राप्त करने के इच्छुक प्रत्येक मनुष्य के लिए इस अष्टांग मार्ग मे आचरण सम्बन्धी आठ नियमो का पालन करना अनिवार्य माना गया है । जो निम्नलिखित है ;-
सम्यक् ज्ञान अथवा दुष्टि --- बुद्ध द्वारा बताए गए चार आर्य सत्यों को भली भांति समझना ।
सम्यक् संकल्प ---हिंसा ,लोभ ,मोहा ,क्रोध आदि समस्त दुर्गुणों का परित्याग करके अपने आचरण को सदैव पवित्र रखने का संकल्प
सम्यक् वचन –कभी झूठ न बोलाना , किसी की चुगली न करना , तथा किसी को कटु वचन न कहना
सम्यक् कर्मान्त ----हिंसा ,वासना ,तृप्ति आदि से सम्बन्धीत समस्त दुष्कर्मो का परित्याग करते हुए सदैव शुभ कर्म करना । यह नियम कपट ,धोखा ,चोरी ,जालसाजी आदि सभी प्रकार के दुष्कर्मो का निषेध करता है ।
सम्यक् आजीव---केवल उचित और न्यायपूर्ण उपायो द्वार ही जीविकोपार्जन करना । इस नियम के अनुसार जीविका कमाने के लिए मनुष्य को ऐसे कोई कार्य नहीं करना चाहिए जो नैतिकत के विरुद्ध हो ।
सम्यक् व्यायाम ----मन –मे उत्पन्न होने वाली समस्त दूर्भावनाओ का दमन करके ,उनके स्थान पर सदभावों तथा अच्छे विचारो को उत्पन्न करने का प्रयास करना ।
सम्यक् स्मृति-यह सदा स्मरण रखना की मन मन है और शरीर शरीर है इत्यादि । दूसरे शब्दो मे वस्तुओ के वास्तविक स्वरूप का स्मरण रखना । अन्यथा हम शरीर वासना इत्यादि जैसे को नित्य एव मूल्यवान समझकर उनके प्रति आसक्ति का अनुभव करने लगेगा।
सम्यक् समाधि ----हर्ष –विषाद ,राग –देव्ष आदि सभी प्रकार के सांसरिक से मुक्त होकर चित्त की पूर्ण एकाग्रता का प्राप्त करना । बुद्ध का कथन है की उपर्युक्त सभी नियमो का निष्ठापूर्वक पालन करके मनुष्य दुख से मुक्ति प्राप्त कर सकता है । इसी कारण इन नियमो को दुख निरोध का मार्ग माना गया है
मानव –जीवन के लिए बुद्ध के इस अष्टांग मार्ग का बहुत महत्व है । क्योंकि इसमे अतिशय भोगवाद तथा अत्यधिक कठोर सनयसवाद इन दोनों अतिवादी दुष्टिकोण का परित्याग करके मुक्ति के लिए मनुष्य को संतुलन माध्यम मार्ग का अनुसरण करने का उपदेश दिया गया है । वस्तुत ; दुख से मनुष्य की मुक्ति के लिए बुद्ध उस कठोर सनयसवाद को उचित नहीं मानते जिसका समर्थन जैन –दर्शन ने किया है । उनका विचार है की मुक्ति के लिए कठोर सनयसवाद भी उसी प्रकार त्याज्य है जिस प्रकार अतिशया भोगवाद । मनुष्य को इन दोनों के बीच का मार्ग अपनाते हुए न तो भोग –विलास मे अत्यधिक लिप्त होना चाहिए और न कठोर तपस्या द्वरा शरीर को अत्यधिक कष्ट देना चाहिए ।
निर्वाण
बुद्ध ने मोक्ष को निर्वाण कहा है जिसे प्राप्त करने के पश्चयत समस्त सांसरिक बंधनो तथा दुखो से मुक्ति मिल जाती है । निर्वाण –प्राप्ति के उपरांत मनुष्य की क्या स्थिति होती है ? इस संबंध मे बुद्ध का मत स्पष्ट नहीं है । यह कहा जाता है की उन्होने निर्वाण की अवस्था की तुलना दीप –शिखा के बुझने तथा अग्नि मे जलने वाले ईंधन के नि;शेष हो जाने से की थी । निर्वाण का अर्थ है ठंडा हो जाना अथवा बुझ जाना है
पंचशील
· प्रणतिपात विरति ---हिंसा से विरत रहना । या हिंसा से दूर रहना
· अदन्तादान विरति –प्राप्त न होने वाली वस्तु को न लेना या चोरी करना ।
· कममिथ्याचार विरति –काम तथा झूठे आचार से दूर रहना
· मुशवाद विरति –झूठ से दूर रहना
· सूरामैरयप्रमादस्थान विरति ---नशीली वस्तुओ तथा आलस्य से दूर रहना । ।
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