तत्वज्ञान
भारतीय नीति शास्त्र का अर्थ
1. भारतीय नीति शास्त्र की व्याख्या इस प्रकार है नीति का अर्थ निर्देश आचरण अथवा आचरण का शास्त्र है
2. शास्त्र शब्द का अर्थ है आज्ञा आदेश नियम अथवा परंपरा पर निर्भर है
3. शास्त्र शब्द की व्युत्पाती है शास +स्ट्रन
4. सामान्यता शास्त्र का अर्थ प्रयोग ज्ञान होता है इसे विज्ञान भी कहते है |र
5. नीतिशास्त्र शास्त्र है जिसमे हम आचरण संबन्धित नियमो का अध्ययन करते है |
6. शास्त्र मे बताए हुए नियम सर्व व्यापी होते है उसी तरह इसके नियम भी सर्वव्यापी है |
7. इसे भारतीय कहा गया है क्योंकि यह भारत मे विदायमन नीति से संबन्धित है |
8. यह परंपरा वेदों से शुरु होती है और आज तक पूर्नजीवित होती चली आयी है |
9. इसमे बताये हुये सभी नियम पालन करने से सभी का कल्याण होता है |
10. इस लिए भारतीय नीतिशास्त्र का उद्देश कल्याण बताया गया है |
11. नीति शास्त्र और धर्म दोनों एक ही उद्देश से प्रेरित है |वह है मोक्ष
12. मोक्ष का अर्थ है दुख से मुक्ति
भारतीय नीतिशास्त्र का अभ्यास का विषय
भारतीय नीतिशास्त्र का विकास
प्राचीन काल
| मध्ययुगिंकाल
| अर्वीचीनकाल
|
प्राचीनकाल
वेद –चार वेद बताए गऐ है आ)ऋगवेद –यहसर्वप्रथम सरस्वती नदी के तट पर उत्पन्न हुई आर्य संस्कृति के प्राचीनतम और सर्वप्रथम साहित्य इस रूप से जाना जाता है इसमे शक्तियों को देवता रूप माना गया है जैसे जल के देवता वरुण अग्नि देव ऊषा इत्यादि इन सभी की स्तुति की गई है |इसमे ऋत का अर्थ दंड देने वाली सकती यह वरुण के पास होती है इसके अनुसार मर्यादा का उल्लेखन करने पर ऋत से दण्ड मिलता है यह नंसर्गिक शक्ति है ब्राह्मण ग्रंथ –किसी इच्छा से इन ग्रंथो मे यज्ञ याक इस पर बल दिया गया है |इसमे बताए हुये यज्ञ इच्छा पूर्ति अथवा स्वर्ग प्राप्ति के लिए है |इसके अनुसार यदि यज्ञ किया जाए तो उसका जल ईशवर को देना ही पड़ता है इसमे सत्कर्म करने पर स्वर्ग की प्राप्ति और दुष्कर्म के लिए नर्क की प्राप्ति बताई गाई है |
उपनिषद –उपनिषद शब्द का अर्थ है गुरु के पास बैठकार शीक्षा ग्रहण करना इस शिक्षावल्ली मे उदाहरण दिया गया है |सत्या बोलो ,धर्म के अनुसार आचरण करते थे केवल उसका ही पालन करो ग्रूहस्त धर्म का पालन करो स्वाध्याय और समाज प्रबोधन करो |
आख्यक –धर्मसूत्र ,पुराण इन ग्रंथो मे अनेक बोध कथाएँ सबताई हुई है जिसमे स्त्यकार्य करने के लिए प्रेरण दी है |
स्मृती –देवल स्मृति ,विष्णु स्मृति ,मनु स्मृति इत्यादि अनेक स्मृतिया ग्रंथ लिखे गए है जिसमे समाज मे रहने वाले सभी व्यक्तियों के लिए कर्तव्य और अधिकार बताए गए तथा सामाजिक नियमो को तोड़ने पर दण्ड का भी प्रावधान था
महाकवाय (रामायण-महाभारत )
रामायण यहा सबसे पहला महाकाव्य है इसके रचियाता वाल्मीकि ऋषि थे |रामायण की कथाएँ यही बताती है की रावण की तरह आचरण मत करो राम की तरह आचरण करो |
महाभारत –इसमे बताई हुई कथाएँ मनुष्य का मार्गदर्शन करती है जब दो प्रकार के धर्म के बीच संघर्ष होता है तो मनुष्य को कौन सा धर्म निभाना चाहिए व्यक्तिगत धर्म जैसे अपने रिश्ते निभाने चाहिए या समाज का हित मनुष्य को हमेशा रिश्तो और समाज मे से समाज का हित ही चुना जाना चाहिए |
गीता का प्रसंग -गीता की शुरुआत अर्जुन के मन मे शुरू हुई दुविधा से होता है जब युद्ध भूमि मे अर्जुन के सामने उसके अपने लोगो को देखकर उसने अपना धनुष नीचे रखा दिया और उसे शोक उत्तपन्न हुआ तब श्री कृष्ण ने उसे अपना क्षत्रिय धर्म निभाने का उपदेश दिया |
मध्ययुगीन काल
इस काल मे भारत मे अनेक विदेशी आक्रमण हुए और भारतीय सभ्यता मे बदलावओ हुये तत पशाच्यात अनेक संतो ने अपने काव्यो के द्वारा नीति का उपदेश जनता को दिया |यहा दो प्रकार है
1)सगुणोंपासक का अर्थ है मूर्ति पूजक जो मूर्ति की पुजा किया करते है
उदाहरण –सूरदास ,तुलसीदास ,संत मीरबाई,
2)निर्गुनोपासक जो मूर्ति पुजा को निषेद करते है उनको निर्गुनोपासक काहा जाता है
उदाहरण –कबीर ,रहीम ,नानक ,दादू
सूफी संप्रदाय
उदाहरण --चिश्ती ख्वाजा ,अब्दुल चिश्ती ,सोहबूदीन ,शेख अब्दुल जिलनी ,
अर्वीचीन काल
19 सदी के धर्म सुधारको के नैतिक विचार
इस काल मे सुधारको का मुख्य कार्य था समाज का सुधार इनमे प्रमुख थे
· राजा राम मोहन राय (सती प्रथा का विरोध )
· दयानन्द सरस्वती (विधवा विवहा )
· गोविंद रानडे (जाती प्रथा का विरोध )
· रामकृष्ण परमहंस (अध्यातमिकता का प्रसार )
· स्वामी विवेकानन्द (स्त्री शिक्षा मे योग दान )
समकालीन -20 वी सदी के आरंभ मे अंग्रेजी शासन मे कई कानून बनाकर जाती प्रथा और सती प्रथा का विरोध किया इसके साथ मे ही जाती भेद को समाप्त करने हेतु और प्राचीन काल के साहित्यों को महत्व देने के लिए कई प्रयस किए गए है इस काल के प्रमुख चितक है
· लोकयमान्य टिड़क
· अरविंद घोष
· डॉ राधकृष्णम
· महात्मा गांधी
· रवीन्द्रनाथ टैगोर
· इकबाल
· के,सी ,भटचार्य
दस स्वधर्म
स्वधर्म के अनुसार धर्म कुल दस है
॥धुती क्षमा दामोअस्तेय शैचमीन्द्रियनिग्रह
धिविधि सत्यमक्रोधोद्श्क धर्म लक्षणम ||
धुती –इसका अर्थ है धैर्य धारण करना अनेक प्रकार की समस्या आने पर भी हाथ मे लिए हुआ काम पूरी आस्था के साथ पूर्ण करना इससे साधन उत्सह और सफलता मिलता है |
क्षमा -दूसरों के द्वारा सताये जाने पर भी उन्हे परेशान ना करना ही क्षमा है |बलवान -निर्बल के प्रति ।धनवान निर्धन के प्रति ,विधवान मुर्खा के प्रति गुरु शिष्य के प्रति उदारता का आचरण कर इसको क्षमा कहते है |
दम –इंद्रियो का स्वामी मान है और मान को अपने वश मे रखना ही दम है इससे मन पर नियंत्रण रहता है और इंद्रियो पर भी इससे शांति सूख और आनंद मिलता है |
अस्तेय ---किसी का धन उसके अनुमति के बिना लेना चारी है इसीसे भिन्न अस्तेय कहलाता है किसी की कोई भी वस्तु अपनी समझना यहा भी चोरी है इसके विपरीत अस्तेय है वर्ण मे बताए हुए कर्तव्य ना करना और अपने काम को ना करने वाला चोर ही है |
शैचा –शैचा शास्त्रो विधान से मिट्टी जल आदि के द्वारा शरीर की पवित्रता रखना शैचा है मनुष्य मे बाहरी तथा आंतरिक दोनों प्रकारो की शुद्धता को ही शैच कहते है \शरीर वस्त्र भोजन तथा व्यवहार की शुद्धता ही बाहरी शुद्धता है तथा इंद्रिय मान आंतरिक बुद्धि की शुद्धता ही शैचा है
इंद्रिय निग्रह –चक्ष आदि पांचों इंद्रियो को अपने –अपने विषयो से अलग करना ही इंद्रिय –निग्रह कहलाता है । सभी इंद्रियो को वश मे रखना चाहिए । इंदर्यो की संख्या दस है । कमोन्द्रियो तथा ज्ञानेन्द्रियो को उनके निर्धारीत विषयो की और से रोककर उन्हे ईश्वर के ध्यान मे लगान ही इंद्रिय –निग्रह है सभी इंद्रियो को इस प्रकार वश मे करना चाहिए की वे धर्म अर्थ काम तथा मोक्ष पुरुषर्थों मे लगी रहे ।
धि –वेद शास्त्रो का तात्विक ज्ञान धि बुद्धि कहलाती है । बुद्धि या विवेक या शास्त्रो के ज्ञान को ही धि कहते है । धि के कारण से ही सभी प्राणियों मे मनुष्यो को सर्वक्षेष्ठ कहा गया है वही व्यक्ति बुद्धिमान है जो स्वय सुखी रहकर अन्य के सुखो का भी ध्यान रखता है । अपने लोगो के साथ उदारता और अन्य पर दया का भाव रखता है तथा सज्जनों से प्रेम ,दुष्टो के साथ अभिमान ,शत्रुओ के साथ शूरता ,बड़ो के साथ आदर तथा स्त्रियो के साथ चतुरता पूर्ण वयवहार ही बुद्धिमान व्यक्ति के लक्षण है |
विधा –आत्मा ज्ञान का ही नाम विधा है संसार को जानना ही विधा है तथा संसार की सभी वस्तुओ के संबंध मे विधा से ही जाना जाता है । कहा भी गया है
॥ चौरधर्य न च राजधर्य न भ्रातुभाज्य न च भारकारी व्यये कृते वर्धत एव नित्य विधाधन सर्वधन प्रधानम॥
सत्य----यथार्थ ज्यो क त्यो कथन करना ही सत्य है जिस बात को जैसे पढ़ा जाए देखा जाए उसको ठीक उसी रुपमे कहना ही सत्य बोलना है सत्य क अर्थ है असत्य का परित्याग इसका पालन जीवन मे मान ,वचन तथा कर्म से सदेवा करना चाहिए । सत्य क्षेष्ठ धर्म तथा ज्ञान है इससे आत्मा तथा बुद्धि को आन्नद की प्राप्ति होती है सत्य पर विश्व आधारित है । सत्य का आधार धर्म है । अंत सदेवा हमे सत्य का अनुसरण करना चाहिए ।
अक्रोध ---क्रोध के कारणो के विधमान रहने पर भी क्रोध का ना उतप्न्न न होना ही अक्रोध कहलाता है क्रोध ना करना ही अक्रोध है क्रोध मान की वह अशुभ अवस्था है जिस पर विजय पाना आवश्यक है क्रोध को वश तथा नियंत्रण मे करने से शांति तथा संतोष तथा आनन्द का अनुभव होता है ।
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