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ब्लॉग पोस्ट (46)

  • भारतीय राजनीति में महिलाओं की भूमि और राजनीतिक प्रक्रिया

    महिलाएँ और राजनीतिक प्रक्रिया प्रश्न १ : नारीवाद से आप क्या समझते है । नारीवादी आंदोलन के उदय एवं विकास का वर्णन कीजिए । नारीवाद आधुनिक युग की एक महत्त्वपूर्ण विचारधारा तथा आन्दोलन है । प्राचीनकाल से ही नारियों के साथ विभिन्न क्षेत्रों में भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता रहा है । इस भेदभावपूर्ण व्यवहार के कारण नारियाँ समाज में अपनी भूमिका निभाने में काफी हद तक असमर्थ रही है । आरंभ से ही समाज पुरुष प्रधान रहा है जिसमें महिलाओ को दासी समझा जाता था और उसे पुरुष के समान अधिकारों से वंचित रखा जाता था । महिलाओं का क्षेत्र घर की चारदीवारी तक ही सीमित रखा गया था । उसको सिर्फ पुरुषों की सेवा करना , घर का कामकाज करना , सन्तान पैदा करना और उनका पालन पोषण करना जैसा कार्य ही सौंपा गया था । अनेक धार्मिक ग्रन्थों ने भी स्त्रियों द्वारा पुरुषों के अधीन रहने और उनके निर्देशन में काम करने का समर्थन किया है । पुरुषों द्वारा प्रायः नारियों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता रहा है जिसे प्रत्यक्ष रूप में आज भी देखा जा सकता है । नारियों की यह स्थिति केवल पिछड़े देशों में नहीं बल्कि विकसित देशों में भी मिलती है , जहाँ उन्हें पुरुषों के समाज दर्जा नहीं दिया जाता । यद्यपि आज विश्व के लगभग सभी देशों में संविधान तथा कानून द्वारा स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार दिये गये हैं ; परन्तु व्यवहार में आज भी वे निर्णय निर्माण प्रक्रिया ( Decision Making Process ) में बराबर की भागीदार नहीं है और उनके बारे में अधिकांश निर्णय पुरुषों द्वारा ही लिये जाते हैं । यद्यपि आज भी स्त्रियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जा रहा है , परन्तु आज उनमें जागृति आ गई है और उन्होंने अपने को संगठित करके पुरुषों के समान अधिकार तथा उनसे समानता प्राप्त करने के लिये संघर्ष करना आरम्भ कर दिया है । महिलाओं ने अपने हितों की सुरक्षा के लिये चलाये गये आन्दोलन को ही ' नारीवाद ' ( Feminism ) नाम दिया गया है । " स्त्रीवाद / नारीवाद की उत्पत्ति ( Origin of Feminism ) : नारीवाद ( Feminism ) शब्द की उत्पत्ति अंग्रेजी भाषा के शब्द ' Female ' से हुई है । ' Female ' का अर्थ है कि ' स्त्री ' अथवा ' स्त्री सम्बन्धी ' । अतः ' स्त्रीवाद ' एक ऐसा आन्दोलन है जिसका सम्बन्ध स्त्रियों के हितों की रक्षा से है । स्त्रीवाद / नारीवाद की परिभाषायें ( Definitions of Feminism ) विभिन्न विद्वानों में नारीवाद ' को अपने - अपने दृष्टिकोणों से परिभाषित किया है । कुछ विभिन्न परिभाषायें निम्नानुसार हैं ऑक्सफोर्ड शब्दकोष ( Oxford Dictionary ) के अनुसार , " नारीवाद स्त्रियों के अधिकारों की मान्यता , उनकी उपलब्धियों और अधिकारों की वकालत हैं । " - प्रसिद्ध समाजशास्त्री मेरी एवोस ( Mary Evous ) ने लिखा है कि " नारीवाद स्त्रियों की वर्तमान तथा भूतकाल की स्थिति का आलोचनात्मक मूल्यांकन है । यह स्त्रियों से संबंधित उन मूल्यों के लिये चुनौती है जो स्त्रियों को दूसरों के द्वारा प्रस्तुत की जाती है । " चारलोट बंच ( Carlotte Bunch ) के शब्दों में , " नारीवाद से अभिप्राय उन विभिन्न सिद्धान्तों और आन्दोलनों से है जो पुरुष की तरफदारी का विरोध तथा पुरुष के प्रति स्त्री की अधीनता की आलोचना करते हैं । जो लिंग पर आधारित अन् को समाप्त करने के लिये वचनबद्ध है । " जान चारवेट ( John Charvet ) के अनुसार , " नारीवाद का मूल सिद्धान्त यह है कि मौलिक योग्यता के पक्ष से पुरुषों तथा स्त्रियों से कोई अन्तर नहीं है । इस पक्ष में कोई भी पुरुष प्राणी अथवा स्त्री प्राणी नहीं है , बल्कि वे मानवीय प्राणी है । मनुष्य का स्त्रीत्व तथा महत्त्व लिंग के पक्ष से स्वतन्त्र हैं । " महाकोष इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका ( Encyclopaedia Britianica ) के अनुसार , " नारीवाद एक ऐसी धारणा है जिसका जन्म थोड़े समय पूर्व ही हुआ है । यह धारणा उन उद्देश्यो तथा विचारों का प्रतिनिधित्व करती है जो स्त्रियों के अधिकारों के पक्ष में चलाये गये आन्दोलनों के साथ सम्बन्धित हो । इसमें आन्दोलन के निजी , सामाजिक , राजनीतिक तथा आर्थिक पक्ष शामिल हैं तथा इसका उद्देश्य स्त्रियों को पुरुषों के समान पूर्ण समानता के स्तर पर लाना हैं । "मताधिकार के साथ ही अपना लिया गया , लेकिन फ्रांस , इटली , बेल्जियम , पर्तुगाल व स्पेन में महिलाओं को मताधिकार प्राप्त करने के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध तक प्रतीक्षा करनी पड़ी । ये सभी देश पूर्ण रूप से रोमन कैथोलिक्स के प्रभाव में थे । / वस्तुतः ईसाइयत और इस्लाम के नाम पर महिला मताधिकार का बहुत विरोध हुआ । द्वितीय महायुद्ध के बाद लोकतान्त्रिक मताधिकार ( स्त्री - पुरुष सभी वयस्क व्यक्तियों को मताधिकार ) के सिद्धान्त को लगभग प्रत्येक यूरोपीयन देश द्वारा अपना लिया गया था । स्विट्जरलैण्ड जैसे देश ही इसके अपवाद थे , जहां १ ९ ७० ई . तक महिलाओं को मताधिकार से वंचित रखा गया । एक अन्य तथ्य यह है कि कुछ देश महिलाओं को मताधिकार प्रदान करने के बाद भी महिलाओं की अपेक्षित राजनीतिक अयोग्यता ' की धारणा को अपनाए रहे । उदाहरण के लिए न्यूजीलैण्ड में महिलाओं को मताधिकार १८ ९ ३ ई . में प्रदान कर दिया गया , लेकिन उन्हें प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित होने का अधिकार १ ९ १ ९ ई . में Women's Parliamen tary Rights Act ' द्वारा प्रदान किया गया । फिनलैण्ड ऐसा पहला राज्य था , जिसने महिलाओं को एक साथ दोनों अधिकार ( मताधिकार और प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित होने का अधिकार ) १ ९ ०६ ई . में प्रदान किए । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ' मानव अधिकार आन्दोलन ' इतना प्रबल हो गया था कि भारत और अन्य अनेक देशों में ' वयस्क मताधिकार का सिद्धान्त ' ( स्त्री पुरुष दोनों के लिए समान राजनीतिक अधिकार ) लगभग बिना किसी विरोध और विवाद के स्वीकार कर लिया गया । आज विश्व के लगभग सभी लोकतान्त्रिक देशों में वयस्क मताधिकार को अपना लिया गया है । महिलाओं को पुरुषों के समान ही प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित होने का अधिकार भी प्राप्त है । व्यवहार के अन्तर्गत चुनावों में महिलाओं की भागीदारी और उनकी भूमिका निरन्तर बढ़ रही है , लेकिन निर्वाचित प्रतिनिधि संस्थाओं में उनका प्रतिनिधित्व और सम्पूर्ण रूप से राजनीतिक प्रक्रिया पर उनका प्रभाव बहुत कम है । एक सर्वेक्षण में बताया गया है कि विभिन्न देशों की संसदों ( व्यवस्थापिका सभाओं ) में कुल मिलाकर महिलाओं को १५.१ प्रतिशत प्रतिनिधित्व ( ४० , ३०४ में से ६,०६ ९ स्थान ) ही प्राप्त हैं और मन्त्रिपरिषदों में तो उन्हें कुल मिलाकर ६ प्रतिशत स्थान ही प्राप्त है । में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी में केवल यही बात सम्मिलित नहीं है कि महिलाएं मत दें , प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित हों , राजनीतिक समुदायों को समर्थन दे और विधायकों से सम्पर्क स्थापित करें , वरन् राजनीतिक भागीदारी में उन सभी संगठित गतिविधियों को सम्मिलित किया जा सकता है जो शक्ति सम्बन्धों को प्रभावित करता है या प्रभावित करने की चेष्टा करता है । शासक वर्ग का सक्रिय समर्थन , विरोध या प्रदर्शन भी राजनीतिक भागीदारी का अंग है । सार्थक भूमिका के लिए राजनीतिक प्रक्रिया में महिलाओं की कितनी भागीदारी होनी चाहिए , इस सम्बन्ध में ' महिलाओं की प्रस्थिति पर संयुक्त राष्ट्र आयोग ' ने १ ९९ ० ई . में सुझाव दिया है कि निर्णय लेने वाली संरचनाओं में महिलाओं की भागीदारी कम से कम ३० प्रतिशत होनी चाहिए । इसके बाद १ ९९ ५ ई . में इस बात पर चिन्ता भी व्यक्त की गई है कि ' आर्थिक और सामाजिक परिषद द्वारा अनुमोदित ३० प्रतिशत भागीदारी का लक्ष्य कहीं पर भी प्राप्त नहीं किया जा सका है ।

  • यूपी जनसंख्या नियंत्रण विधेयक

    हमारे देश में जनसंख्या नियंत्रण एक बहुत बड़ी समस्या है इसलिए इस समस्या को देखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण विधेयक, 2021 का प्रस्ताव रखा है। स्वतंत्रता के इतने वर्षों के बाद, भारत में उत्तर प्रदेश (यूपी) जनसंख्या नियंत्रण के उपाय करने वाला पहला राज्य बन गया है। ये केंद्र गर्भनिरोधक गोलियां और कंडोम वितरित करेंगे और परिवार नियोजन के तरीकों के बारे में जागरूकता भी फैलाएंगे। मसौदा नसबंदी ऑपरेशन, ट्यूबेक्टॉमी या पुरुष नसबंदी का उपयोग करने का प्रस्ताव करता है। उन्हें राज्य भर में गर्भधारण, प्रसव, जन्म और मृत्यु का अनिवार्य पंजीकरण भी सुनिश्चित करना होगा। यह समझना जरूरी है कि अगर कल से यूपी में सभी जोड़ों के दो बच्चे होने शुरू हो जाएंगे तो भी आबादी बढ़ती रहेगी। इसकी वजह राज्य में युवाओं की बड़ी संख्या है। जनसंख्या इसलिए नहीं बढ़ रही है कि दंपतियों के अधिक बच्चे हैं, बल्कि इसलिए कि आज हमारे पास अधिक युवा जोड़े हैं। विशेषज्ञों के अध्ययन और पिछले आंकड़े बताते हैं कि यह नीति शायद अधिक प्रभावी न हो क्योंकि यूपी की एक तिहाई आबादी युवा है और हमें इस कानून से वांछित परिणाम नहीं मिलेगा। गरीब लोगों को सरकारी योजनाओं और प्रोत्साहनों से रोकना भी अनुचित है क्योंकि कभी-कभी यह अत्यधिक गरीबी, कम शिक्षा और जागरूकता और गर्भनिरोधक उपायों या गर्भपात को वहन करने में असमर्थता के कारण भी होता है। दक्षिण भारत में, केरल और कर्नाटक में प्रजनन दर में गिरावट देखी गई है, जो शिक्षा और जागरूकता के कारण है, इसलिए यूपी सरकार को जनसंख्या नियंत्रण के लिए लोगों को शिक्षा और जागरूकता पर भी ध्यान देना चाहिए क्योंकि यह अधिकारों की रक्षा भी करेगी। लोग। नई जनसंख्या नीति में वर्ष 2026 तक प्रति हजार जनसंख्या पर 2.1 तथा 2030 तक 1.9 जनसंख्या पर जन्म दर लाने का लक्ष्य रखा गया है। समाजवादी पार्टी (सपा) ने जनसंख्या नियंत्रण नीति को "चुनाव प्रचार" कहा है - राज्य में आसन्न विधानसभा चुनाव - जैसा कि राजनीतिक विश्लेषक हैं। कांग्रेस के सलमान खुर्शीद ने कहा है कि राजनेताओं को अपने बच्चों की संख्या घोषित करनी चाहिए। जैसा कि होता है, उत्तर प्रदेश विधानमंडल पर डेटा विधानसभा की वेबसाइट बताती है कि यूपी विधानसभा में 50% से अधिक विधायक हैं, जहां भाजपा के पास 403 में से 304 सीटें हैं, जिनके दो से अधिक बच्चे हैं। बीजेपी के आधे से ज्यादा विधायकों के तीन या इससे ज्यादा बच्चे हैं. बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की नेता मायावती ने कहा कि आदित्यनाथ का कदम केवल चुनावों से प्रेरित है। उनके अनुसार, सरकार को "सरकार बनाने के तुरंत बाद लोगों में जागरूकता फैलाना" शुरू करना चाहिए था, अगर वह जनसंख्या के प्रबंधन के बारे में गंभीर थी। प्रस्तावित कानून न केवल अनावश्यक और हानिकारक है बल्कि संभावित रूप से राजनीतिक और जनसांख्यिकीय आपदा का कारण बन सकता है

  • चीन के संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

    ( १ ) चीन : भूमि और लोग ( २ ) संवैधानिक विकास ( i ) ' अफीम युद्ध ' और चीन में साम्याज्यवादी शक्तियों का हस्तक्षेप ( ii ) असफल ताइपिंग विद्रोह और चीन का भारी शोषण ( iii ) बाक्सर विद्रोह १ ९ ०० ई . भ ( iv ) १ ९ ११ की क्रान्ति और प्रथम गणराज्य की स्थापना ( v ) कोमिन्तांग पार्टी की स्थापना ( vi ) कोमिन्तांग - कोमिण्टर्न समझौता ( vii ) समझौते का अन्त और गृहयुद्ध का आरम्भ ( viii ) साम्यवादी दल में माओत्से तुंग का नेतृत्व ( ix ) जापान के विरुद्ध कोमिन्तांग साम्यवादी समझौता ( x ) साम्यवादियों द्वारा सत्ता का अधिग्रहण ( xi ) १ ९ ४ ९ से १ ९ ५४ तक की व्यवस्था ( xii ) १ ९ ५४ का संविधान ( xiii ) १ ९ ७५ का संविधान | हान ( Han ) ( xiv ) १ ९ ७८ का संविधान ( xv ) १ ९ ८२ का संविधान ( नया संविधान या वर्तमान संविधान ) चीन के संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और राजनीतिक परम्पराओं का वर्णन कीजिए । नैपोलियन बोनापार्ट ने एक बार चीन के विषय में कहा था कि , “ वह एक सोया हुआ दानव है , उसे सोने दो, क्योंकि जब वह उठेगा तो आतंक पैदा कर देगा । " चीन में साम्यवाद की स्थापन ने एशिया में वैसी ही समस्याएं उत्पन्न कर दी हैं , जैसी समस्याएं १ ९ १७ ई . में सोवियत रूस में साम्यवाद की स्थापना ने यूरोप के की थी । चीन की परम्परा विस्तारवादी रही है ओर यह आश्चर्य की बात नहीं है कि गत कुछ वर्षों में चीन ने अपनी इस विस्तारवादी नीति का परिचय दिया । ( १ ) चीन : भूमि और लोग - चीन एशिया महाद्वीप के मध्य में स्थित है । कोरिया की सीमा पर यालू नदी के लेकर वियतनाम की सीमा पर पेलुम नदी तक इसका विस्तार है । इसके दक्षिण में हिमालय पर्वत की श्रेणियां और उत्तर - पूर्व में रूस हैं । हिमालय पर्वत चीन को भारत , भूटान और नेपाल से अलग अलग करता है । चीन की राजधानी पेइचिंग है । अब क्षेत्र की दृष्टि से भी चीन विश्व का सबसे बड़ा देश है । इसका क्षेत्रफल ९ ७.६ लाख वर्ग किलोमीटर है । यह समस्त क्षेत्र ३४ प्रान्तो में बंटा हुआ है । पिछले लगभग दो दशक से चीन जनसंख्या नियन्त्रण के कार्यक्रम को अपना रहा है । पिछले दस वर्षों में जनसंख्या नियन्त्रण के इस कार्यक्रम में गति आयी हैं और भारतीय अनुभव की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि जनसंख्या वृद्धि पर लगभग रोक लगाने में सफल रहा है । यह | विशाल क्षेत्र और जनसंख्या चीन को युद्ध तथा विस्तारवादी नीति अपनाने और विश्व राजनीति में अग्रणी स्थान प्राप्त करने की दिशा में प्रेरित करती रही हैं । सोवियत रूस की भांति चीन एक बहु - जातीय देश हैं , जिसमें लगभग ९ ३ प्रतिशत हान जाति हैं । अन्य मूल जातियों में ये मुख्य हैं । अथवा चीनियों की प्रमुखता हैं । पूरे देश की जनसंख्या का | मंगोल , हुई , तिब्बती , कोरियन , मंचु आदि । चीन के विभिन्न जनसमूहों में अनेक प्रकार की विविधताएं पायी जाती हैं , फिर भी उनमें एक भाषा व | संस्कृति तथा अन्य कारणों से एकरसता है । सभी जातियों को एक राजनीतिक तथा आर्थिक व्यवस्था के अन्तर्गत पूर्ण सांस्कृतिक स्वायत्तता प्रदान कर | संविधान में भी इस एकरसता को बनाये रखने में योग दिया है । चीन की | मुख्य भाषा चीनी है , यद्यपि १५० अन्य भाषाएं और बोलियां भी चीन में प्रचलित हैं । चीन की ७५ प्रतिशत से अधिक जनसंख्या साक्षर हैं । भारत के ही समान चीन के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि है , | जिसमें लगभर ७५ प्रतिशत जनसंख्या लगी हुई है । खनिज पदार्थों का चीन में बाहुल्य है । चीन के प्रमुख उद्योग लोहा , इस्पात से बनी हुए मशीनें , मोटर्रे , जलयान , सीमेण्ट , कपड़ा , कागज और रबड़ के जूते इत्यादि हैं । चीन ने अपना लक्ष्य १ ९९ ० तक विश्व के प्रथम श्रेणी के औद्योगिक राष्ट्र की स्थिति को प्राप्त करना निर्धारित किया था । लेकिन चीन की परिस्थितियां इस लक्ष्य की प्राप्ति में बहुत अधिक सहायक नहीं हैं और विशाल क्षेत्र तथा अत्याधिक जनसंख्या वाले इस देश को आधुनिक कृषक राज्य की स्थिति प्राप्त करने के लिए एक लम्बा रस्ता तय करना होगा । अभी तो स्थिति यह है कि मौसम के देवता की थोड़ी - सी अकृपा से लाखों चीनी भयंकर भूख के कगार तक पहुंच जाते हैं । " ( २ ) संवैधानिक विकास चीन एक अत्यन्त प्राचीन देश है जिसकी संस्कृति और सभ्यता अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं । चीन की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को समझने के लिए १ ९ वी सदी से संवैधानिक विकास का अध्ययन किया जासकता है । १ ९ वी सदी से प्रारम्भ होकर बीसवी सदी के मध्य तक का चीन का संवैधानिक और राष्ट्रीय इतिहास साम्राज्यवादी कुचक्रो का ही परिचय देता हैं । - ( i ) ' अफीम युद्ध ' और चीन में साम्याज्यवादी शक्तियों का हस्तक्षेप इस समय चीन यूरोप के देशों की तुलना में अधिक उन्नत था । चीन की चाय , रेशमी कपड़े और चीनी मिट्टी के बर्तनों की यूरोप में बड़ी मांग थी । लेकिन इनके बदले में चीनी किसी भी यूरोपियन माल को खरीदने के लिए उत्सुक नहीं थे । प्रारम्भ में यूरोपीय व्यापारी चांदी और सोने के सिक्कों में भुगतान करते थे । लेकिन अधिक समय तक ऐसा नहीं किया जा सकता था , अतः १८ वी सदी में ब्रिटेन ने भुगतान की समस्या का नया हल निकाला । वे हिन्दुस्तान में अधिक से अधिक अफीम का उत्पादन कराकर इसे चीन में बेचने लगे और अफीम के इस तस्कर व्यापार से ब्रिटिश पूंजीपतियों की बहुत लाभ होने लगा । कैण्टन के भ्रष्ट अधिकारी भी तस्कर व्यापार में ब्रिटिश कम्पनियों की मदत करने लगे । चीन की सरकार ने प्रारम्भ में विदेशी व्यापार पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाये । लेकिन थोड़े समय बाद ही ब्रिटिश षडयन्त्र की गम्भीरता को अनुभव किया गया और चीनी सरकार ने अफीम लाने वाले ब्रिटिश जहाजों की तलाशी लेनी शुरू कर दी । ब्रिटिश सरकार इससे रुष्ट हो गयी और १८३ ९ -४२ में चीन और ब्रिटेन में प्रथम अफीम युद्ध हुआ । ब्रिटेन ने चीन को युद्ध में पराजित कर चीन पर पहली ' असमान सन्धि ' ( Unequal Treaty ) लादी । इसके बाद चीन को संयुक्त राज्य अमरीका और जापान के साथ भी इस प्रकार की ' असमान सन्धियां करनी पड़ी । इन्हें ' असमान सन्धि ' इस दृष्टि से कहा जाता है कि इनमें चीन के सम्मान और हितों की नितान्त उपेक्षा की गयी और हैरोल्ड सी . हिण्टन के मतानुसार , “ इन सन्धियों के परिणामस्वरूप चीन की सम्प्रभुता पर गम्भीर प्रतिबन्ध लगा दिये गए । " इन सन्धियों की शर्तों के कारण चीन के उद्योग धन्धों को बहुत हानि पहुंची । ( ii ) असफल ताइपिंग विद्रोह और चीन का भारी शोषण - साम्राज्यवादी देशों के भीषण शोषण की प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक थी और यह १८५०-६४ के ताइपिंग विद्रोह के रूप में हुई जो वस्तुतः चीन की पहली राष्ट्रीय और जनतन्त्रीय क्रान्ति थी , लेकिन यह सफल नहीं हो सकी । १८ ९ २ में साम्राज्यवादी शक्तियों ने चीन को औपनिवेशक प्रभाव क्षेत्रों में बांट लिया । मंचूरिया रूस के प्रभाव क्षेत्र में आ गया । शान्तुंग पर जर्मनी ने अधिकार कर लिया , जपान ने फूकियन को अपना प्रभाव क्षेत्र बनाया , दक्षिण - पूर्वी चीन फ्रांस के हिस्से में आया और मुख्य चीन की लगभग आधी भूमि ( याग्ट्सी और हागहो के मैदान ) ब्रिटेन के हिस्से में आ गयी । प्रत्येक साम्राज्यवादी देश को अपने प्रभाव क्षेत्र में पूंजी के निवेश ( Investment ) और संचार के विकास का लगभग एकाधिकार प्राप्त हो गया । अमरीका भी इस आर्थिक शोषण में शामिल था । इस स्थिति के सम्बन्ध में महान् चीनी सनयात सन ने कुछ रोष भरे शब्दों में कहा था कि , “ इस प्रकार चीन किसी एक देश का उपनिवेश या अर्द्ध - उपनिवेश तो नहीं बना , वरन् वह कई देशों का एक संयुक्त उपनिवेश बन गया । " I ( iii ) बाक्सर विद्रोह १ ९ ०० ई . - १ ९ ०० ई . में चीन में ' बाक्सर विद्रोह ' हुआ , जिसका उद्देश्य चीन में विदेशी प्रभाव और मांचू वंश का अन्त कर एक गणराज्य की स्थापना करना था । इस विद्रोह में अनेक विदेशी और ईसाई मारे गये । इस ब्रिदोह के पीछे राष्ट्रवादी नेता सनयात सेन का हाथ था , जो १८८५ ई . में चीन छोड़कर अमरीका चले गये थे और वहां से राष्ट्रवादियों का नेतृत्व कर रहे थे । सभी विदेशी शक्तियों ने इस विद्रोह का संगठित होकर सामना किया और उन्होने विद्रोह को दबाने के लिए अपनी सेनाएं भेज दी । विद्रोह की असफलता से चीन में विदेशी शक्तियों का प्रभाव और अधिक बढ़ गया । ( iv ) १ ९ ११ की क्रान्ति और प्रथम गणराज्य की स्थापना चीन में यद्यपि बाक्सर विद्रोह को दबा दिया गया , परन्तु राष्ट्रीय भावनाएं ज्यों - की - त्यो बनी रही । १ ९ ०५ में जापान के हाथों सोवियत रूस की पराजय ने चीन के राष्ट्रवाद को नयी प्रेरणा और शक्ति प्रदान की । इस क्रान्ति के प्रेरक आधुनिक चीन के निर्माता सनयात सेन थे । उनके तीन सिद्धान्तों जन राष्ट्रवाद , जन प्रजातन्त्र और जन आजीविका से प्रभावित होकर चीन के लोगों ने डॉ . सेन के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया और १ ९ ११ की क्रान्ति हुई । इस क्रान्ति से मांचू वंश के शासन का अन्त हो गया । क्रान्तिकारियों की एक सभा दिसम्बर १ ९ ११ को नानकिंग नगर में हुई और इस सभा ने चीन को एक गणराज्य घोषित कर दिया । डॉ . सनयात सेन को इस सभा ने अस्थायी राष्ट्रपति चुन लिया । लेकिन समस्त चीन में सनयात सेन का प्रभुत्व स्थापित नहीं हो सका और चीनी प्रधानमन्त्री युवान शीहकाई ने दक्षिण चीन में एक और गणराज्य स्थापित कर लिया । डॉ . सेन ने चीन की एकता को बनाये रखने के लिए युवान के पक्ष में अपना त्यागपत्र दि दिया । ( v ) कोमिन्तांग पार्टी की स्थापना युवान शीहकाई ने चीन की स्थिति में सुधार करने के लिए इंगलैण्ड , फ्रांस जर्मनी , रूस तथा जापान से ऋण लेने शुरू कर दिये । युवान का यह कार्य १ ९ ११ की क्रान्ति के घोषित सिद्धान्तों के विरुद्ध सनयात सेन के अनुयायियों ने इसका घोर विरोध किया । डॉ . सनयात सेन और उनके अनुयायियों ने अपने आप को कोमिन्ता पार्टी में संगठित कर दिया , जो एक राष्ट्रीय दल था । युवान शीहकाई को कोमिन्तांग पार्टी और उसके बाद जापान के अपमानित होना पड़ा और जून १ ९९ ६ में युवान शीहकाई की मृत्यु हो गयी । उसके पश्चात् कोमिन्तांग पार्टी का नेता ली युवर हंग राष्ट्रपति बन गया । इस तरह से समस्त चीन कोमिन्तांग पार्टी के नेतृत्व में संगठित हो गया । २/१६ ( vi ) कोमिन्तांग कोमिण्टर्न समझौता ( Knomintang Comintern Alliance ) - १ ९ १७ में पूर्व सोविक संघ में समाजवादी क्रान्ति हो गयीं । चीनी साम्यवादी दल रूस के मार्गदर्शन में अपना कार्य करने लगा । डॉ . सनयात सेन के नेतृल में जो कोमिन्ताग पार्टी गठित हुई थी , वह चीनी साम्यवादी दल का विरोध करने लगी । कोमिन्तांग पार्टी एक आरपुरा साम्राज्यवादी शक्तियों तथा दूसरी ओर साम्यवादी दल का विरोध सहन कर रही थी । १ ९ २३ ई . में सनयात सेन ने स्थिति में समझ कर पूर्व सोवियत संघ और कामिण्टर्न से समझौता कर लिया । लेनिन इन समझौते के आधार पर चीन में राष्ट्रीय क्रान्ति सफल बनाकर साम्राज्यवादी शक्तियों को आघात पहुंचाना चाहता था और डॉ . सेन की रुचि रूस से प्राप्त होने वाली विस सहायता में थी । समझौते के अन्तर्गत चीन में पूर्व सोवियत संघ के सैनिक और राजनीतिक सलाहकार भी आये । १ ९ २३६ डॉ . सेन ने चीनी साम्यवादियों से बातचीत करके एक समझौता किया और साम्यवादियों को अपने दल का सदस्य बनने की आज्ञा दे दी । साम्यवादियों ने जन समर्थन प्राप्त करने और दल को अन्दर से क्रान्तिकारी रूप प्रदान करने के उद्देश्य से कोमिन्ता दल में प्रवेश किया । इस सन्धि के अन्तर्गत ही डॉ . सेन के विश्वासपात्र सहयोगी च्यांग काई शेक ने सोवियत संघ में प्रशिक्षार प्राप्त किया और इसके अन्तर्गत ही ' बम्पाओ सैनिक अकादमी ' ( Whimpao Military Academy ) स्थापित की गई जिसके मुख्य अधिकारी च्यांग थे । ( vii ) समझौते का अन्त और गृहयुद्ध का आरम्भ - मार्च १ ९ २५ में डॉ . सेन की मृत्यु के बाद जब चीन का नेतृल च्यांग काई शेक के हाथ में आया , तो कोमिन्तांग - कोमिण्टर्न समझौते में तनाव उत्पन्न होने लगा । च्यांग काई शेक साम्यवाद प्रबल विरोधी थे और इस बात से चिन्तित थे कि साम्यवादियों द्वारा राष्ट्रवादी जनतन्त्रीय क्रान्ति को एक व्यापक वर्ग संघर्ष का स देने की कोशिश की जा रही है । १ ९ २७ में च्यांग काई शेक ने चीनी साम्यवादियों का सफाया करना शुरू कर दिया । चीन के साम्यवादी दल का प्रधान इस समय चेन तू शे था , जो च्यांग का सफल विरोध नहीं कर सका । चेन तू शे का स्थान ली ली सान द्वारा लिया गया और बार में ली ली सान का स्थान ' विद्यार्थी दल ' ( Returned Students ) के द्वारा ले लिया गया । लेकिन च्यांग काई शेक शासन है शक्ति का प्रतिरोध कर साम्यवादी क्रान्ति करने में ये सभी असफल रहे । मूल बात यह थी कि साम्यवादी दल के ये नेता का सिद्धान्तवादी थे और उन्होंने सोवियत संघ को अपना उदाहरण मानकर औद्योगिक श्रमिकों के बल पर क्रान्ति करने का प्रयत्न किया । लेकिन चीन की परिस्थितियों भिन्न होने और चीन एक कृषि प्रधान देश होने के कारण इसमें उन्हें सफलता प्राप्त नहीं है सकती थी । ( viii ) साम्यवादी दल में माओत्से तुंग का नेतृत्व - १ ९ ३५ में माओत्से तुंग ने चीनी साम्यवादी दल का पूर्ण नेतृत्व प्राप्त कर लिया । उन्होंने कोमिन्तांग की शक्ति का मुकाबला करने के लिए खुले युद्ध का स्थान पर गोरिल्ला युद्ध ( Guerils War ) की पद्धति अपनाने और कृषकों को चीन की प्रमुख क्रान्तिकारी शक्ति बनाने पर बल दिया । माओ प्रारम्भ से है यथार्थवादी नेता था और उसका विचार कि चीन में क्रान्ति की सफलता के लिए चीन के सभी वर्गों का समर्थन यहां तक कि छोट जमीदारों तक का समर्थन प्राप्त किया जाना चाहिए । ( ix ) जापान के विरुद्ध कोमिन्तांग साम्यवादी समझौता च्यांग काई शेक १ ९ २७ से ही साम्यवादियों क सफाया करने में लगा था , लेकिन १ ९ ३१ में जब जापान ने मंचूरिया पर कब्जा कर लिया और इस विषय में राष्ट्र संघ , ब्रिटेन और फ्रांस चीन की कोई मदद नहीं कर सके तो च्यांग काई शेक के मन को आघात पहुंचा । माओत्से तुंग , चाऊ एन लाई और त शाओ ची के नेतृत्त्व में इधर तो साम्यवादी अपने आपको शक्तिशाली बनाने में लगे थे , उधर यूरोप में फासीवादी तत्व बहु अधिक शक्तिशाली हो गये थे और चीन पर जपान के पुनः आक्रमण का खतरा बढ़ रहा था । ऐसी स्थिति में मास्को की प्रेरणा चीन की कोमिन्तांग सरकार और साम्यवादियों में समझौता सम्पन्न हो गया और उन्होंने अपनी संयुक्त शक्ति के बल पर जापान केसंकट का मुकाबला करने का निश्चय किया । कोमिन्तांग के साथ मिलकर जापान के विरुद्ध युद्ध करते हुए साम्यवादियों ने अपनी स्थिति बहुत सुदृढ कर ली । उन्होंने अपनी गोरिल्ला पद्धति को सुदृढ़ किया और ग्रामीण क्षेत्रों में जन - समर्थन प्राप्त किया । माओत्से तुंग ने सशस्त्र संघर्ष और संयुक्त मोर्चे की दुतरफा नीति अपनायी और १ ९३७-४५ के वर्षों में सफल साम्यवादी क्रान्ति के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर ली । ( x ) साम्यवादियों द्वारा सत्ता का अधिग्रहण १ ९ ४५ में जब द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हुआ , तब चीन औपचारिक रूप से तो च्यांग काई शेक और उनके कोमिन्तांग दल के नियन्त्रण में था लेकिन देश की वास्तविक शक्ति साम्यवादियों के हाथ में आ गयी थी । इस समय तक १० लाख व्यक्तियों की लाल सेना का गठन हो चुका था और २७ मुक्त क्षेत्र ( Liberated areas ) स्थापित किये जा चुके थे । कोमिन्तांग और साम्यवादी दल के बीच समझौते और एक मिली जुली सरकार की स्थापना का प्रयत्न किया गया , किन्तु इसमें सफलता प्राप्त नहीं हुई और १ ९ ४६ में दोनों पक्षों के बीच संघर्ष प्रारम्भ हो गया । कोमिन्तांग शासन में एकता का अभाव था और बढ़ते हुए भ्रष्टाचार के कारण यह जन समर्थन खोता जा रहा था । न केवल ग्रामीण जनता , वरनू शहरों के बुद्धिजीवी और विद्यार्थी भी इसके विरुद्ध हो गये थे । संयुक्त राज्य अमरीका से बहुत बड़ी मात्रा में वित्तीय और सैनिक सहायता प्राप्त होने के बावजूद कोमिन्तांग शासन साम्यवाद के बढ़ते हुए प्रसार को नहीं रोक सका । अन्त में , १ ९ ४ ९ कोमिन्तांग शासन का पतन हो गया , जबकि च्यांग काई शेक ने अपनी सेना के प्रमुख अंगो के साथ चीन की मुख्य भूमि को छोड़कर फारमोसा टापू में शरण ग्रहण की । साम्यवादियों ने शासन पर अधिकार कर लिया और १ अक्टूबर , १ ९ ४ ९ को माओत्से तुंग के नेतृत्व में चीन के जनवादी गणराज्य की स्थापना की घोषणा की गयी । ( xi ) १ ९ ४ ९ से १ ९ ५४ तक की व्यवस्था हैराल्ड हिण्टन ने लिखा है कि , “ अपने अस्तित्व के प्रथम पांच वर्षों में चीन के जनवादी गणराज्य की न तो कोई राष्ट्रीय व्यवस्थापिका सभा थी और न ही कोई औपचारिक संविधान । इनके स्थान पर चीन में चीनी जनता का राजनीतिक परामर्शदाता सम्मेलन , सामान्य कार्यक्रम और मूल विधि थे । " देश पर राजनितिक परामर्शदाता सम्मेलन द्वारा शासन किया जाता था और राज्य तथा प्रशासनिक ढांचे के मूल उद्देश्य सामान्य कार्यक्रम तथा मूल विधि के आधार पर निश्चित किये गये । ये दोनों प्रलेख ही संयुक्त रूप से चीन के अस्थायी संविधान के रूप में थे । विशेष बात यह थी कि राजनीतिक परामर्शदाता सम्मेलन में साम्यवादी दल के अतिरिक्त ७ अन्य राजनीतिक दलों और अल्पसंख्यक जातियों को भी प्रतिनिधित्व दिया गया था , किन्तु वास्तविक शक्ति साम्यवादी दल और इसके नेता माओत्से तुंग में ही निहित थी । परामर्शदाता सम्मेलन के द्वारा चीन में पहली जनगणना करायी गयी और अप्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर राष्ट्रीय जन कांग्रेस और स्थानीय जन कांग्रेस के निर्वाचन कराये गये । ( xii ) १ ९ ५४ का संविधान १ ९ ४ ९ को साम्यवादी क्रांति के बाद चीन में अब तक चार संविधानों को अपनाया जा चुका था । इनमें प्रथम १ ९ ५४ का संविधान है जो ४ नवम्बर , १ ९ ५४ से १६ जनवरी , १ ९ ७५ तक लागू रहा । इस संविधान के द्वारा चीन में एक जनवादी गणतन्त्र की स्थापना की गई , जिसका आधार ' जनवादी जनतांत्रिक अधिनायकवाद ' था । यह संविधान गणराज्य की स्थापना से समाजवाद की स्थापना तक के काल के लिए अर्थात एक संक्रमण कालीन संविधान था । लोकतांत्रिक केन्द्रबाद इस संविधान द्वारा स्थापित समस्त व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु था । ( xiii ) १ ९ ७५ का संविधान १ ९ ५४ का संविधान एक संक्रमणकालीन व्यवस्था मात्र था , अतः चीन की चौथी जन कांग्रेस द्वारा १७ जनवरी १ ९ ७५ से नवीन संविधान अपनाया गया । मार्क्सवाद लेनिनवाद - माओवाद इस संविधान का दार्शनिक वैचारिक आधार घोषित किया गया । यह लिखित और अत्याधिक संक्षिप्त ( ४ अध्यायों में बंटे हुए ३० अनुच्छेद ) संविधान था । इस संविधान में कहा गया था कि , चीन का जनवादी गणराज्य सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व का समाजवादी राज्य हैं । संविधान के प्रथम अनुच्छेद में ही चीन गणराज्य में साम्यवादी दल की नेतृत्वकारी भूमिका का उल्लेख किया गया था । संविधान के प्रतिवेदन में लियाशाओ ची ने कहा था कि , ' चीन का साम्यवादी दल देश के नेतृत्व का केन्द्र है । ' ( xiv ) १ ९ ७८ का संविधान - १ ९ ७५ का संविधान अत्यन्त संक्षिप्त संविधान था और इस संविधान में अनेक प्रमुख बातों का भी उल्लेख नहीं था । ऐसी स्थिति में १ ९ ७५ के संविधान को अपनाने के एक वर्ष बाद ही नवीन संविधान को अपनाने की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी । इसके अतिरिक्त ९ सितम्बर , १ ९ ७६ को माओत्से तुंग दिवंगत हो चुके थे और नये शासक माओ की नीतियों से कुछ असहमति रखते थे । इस पृष्ठभूमि में नवीन संविधान की आवश्यकता अनुभव करते हुए उसका निर्माण किया गया ।संविधान में भी केवल ६० अनुच्छेद थे । इस प्रकार यह भी एक संक्षिप्त संविधान ही था । संविधान द्वारा चीन में अ अतः ५ मार्च १ ९ ७८ ई . को चीन की पांचवी कांग्रेस द्वारा नया संविधान स्वीकृत कर , उसे लागू किया गया । गणतंत्र की स्थापना करते हुए समस्त सत्ता जनता में निहित की गई । संविधान के प्रथम अनुच्छेद में कहा गया था कि ज चीन सर्वहारा वर्ग की तानाशाही वाला एक समाजवादी राज्य है जिसका नेतृत्व श्रमिक वर्ग के हाथो में है और श्रमिकों के अटूट मैत्री के सम्बन्ध विद्यमान है । " संविधान के अनुच्छेद २ के अन्तर्गत शासन के समस्त अंगों तथा जीवन समस्त क्षेत्र साम्यवादी दल का एकाधिपत्य स्वीकार किया गया । संविधान में स्पष्ट कहा गया है की , चीन की समस्त जनता के नेतृत्व की साम्यवादी दल है । कामगर वर्ग राज्य सत्ता पर अपना नेतृत्व अपने अगुआ और प्रहरी चीन के साम्यवादी दल के माध्यम से रखता है । ( xv ) १ ९ ८२ का संविधान ( नया संविधान या वर्तमान संविधान ) - पृष्ठभूमि - १ ९ ७६ में माओ की मृत्यु के बाद चीन की आर्थिक , सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में माओ योगदान पर पुनर्विचार किया जाने लगा और १ ९ ७८ ई . के बाद सत्तारूढ़ शासक वर्ग के द्वारा विशेष रूप से यह अनुभव गया कि माओ का रूढ़िवादी साम्यवाद का मार्ग आज की परिस्थितियों के लिए उपयुक्त नहीं है और इसके स्थान पर प्रगतिक साम्यवाद तथा विकसित औद्योगिक तकनीक को अपनाये जाने की आवश्यकता है । १ ९ ७८ के संविधान पर विचार के लिए एक ' पुनरीक्षण समिति ' स्थापित की गयी थी । इस समिति के उपाध्यक्ष झेन ने नेशनल पीपुल्स कांफ्रेस ' ( चीन की संसद ) के समक्ष नये संविधान पर अपनी रिपोर्ट पेश की और ४ दिसम्बर , १६ को चीन का नया संविधान स्वीकृत किया गया । संविधान के अनुसार , देश में शोषक वर्ग समूह नष्ट कर दिया गया है तथा क संघर्ष अब समाज में नहीं हैं । यह विचार माओत्से तुंग के उस विचार से बिल्कुल हटकर है जिसमें सतत् क्रान्ति की बात कही थी । झेन ने सांस्कृतिक क्रान्ति को एक बड़ी गल्ती बताकर यह स्पष्ट कर दिया कि नया नेतृत्व माओवाद से पूरी तरह विमुख गया है । चीन में १ ९ ४ ९ में साम्यवादी शासन की स्थापना के बाद यह चौथा संविधान लागू किया गया है । राष्ट्रीय जनवादी कांग्रेस के ३,०३७ सदस्यों ने गुप्त मतदान प्रणाली से संविधान मसविदे में सुझाये गये संशोधनों पारित किया । इसमें दिलचस्प बात यह थी कि कुछ सदस्यों ने मतदान में भाग नहीं लिया । इससे यह स्पष्ट है कि कुछ लो परिवर्तन के इस दौर के खिलाफ भी है और मतदान में भाग न लेकर उन्होंने अपना विरोध प्रकट भी किया है । सबसे महत्व बात यह है कि चीन जैसा कम्युनिस्ट देश भी अब जनसंख्या विस्फोट से आतंकित हो उठा और संविधान द्वारा चीन के प्रत्ये दम्पति के लिए परिवार नियोजन आवश्यक कर्तव्य घोषित कर दिया गया है । इससे स्पष्ट है कि चीन भी अब कट्टरता छोड़ा राष्ट्रहित में संशोधनवादी नीति की ओर अग्रसर हो रहा है । चीन का १ ९ ५४ का संविधान रूसी ढांचे पर निर्मित था । चीनी और सोवियत संघ के संविधान की तुलना करते एम . ब्रेशर ने लिखा है कि सोवियत संघ और चीन की संसदे केवल मोहर लगाने वाली संस्थाएं थी । कालान्तर में परिवर्तन आवश्यकता अनुभव हुई और इसका प्रमुख कारण १ ९६६-६९ के बीच की सांस्कृतिक क्रान्ति की उपलब्धियों को संवैधानि जामा पहनाना था । फलस्वरूप १ ९ ५४ ई . के संविधान में अनेक परिवर्तन किये गये और इनका मुख्य उद्देश्य दल के केन्द्रीकृ नेतृत्व का सरकारी ढ़ांचे पर वर्चस्व स्थापित करना था । १ ९ ७५ तथा १ ९ ७८ के संविधान संक्रमणकालीन सिद्ध हुए । इन उद्देश्य एक स्वतन्त्र और अपेक्षाकृत वृहत औद्योगिक और आर्थिक व्यवस्था को विकसित करना था । १ ९ ८० से ही चीन ए महाशक्ति बनने की दिशा में आगे बढ़ रहा है , किन्तु कृषि , उद्योग , राष्ट्रीय सुरक्षा , विज्ञान और तकनीकी के आधुनिकीकरण समस्याएं बनी हुई है । अतः ऐसे संविधान की आवश्यकता अनुभव की गयी जिससे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था विश्व में अग्रणी व सके ।

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