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आश्रम तथा आश्रम व्यवस्था का अर्थ

अपडेट करने की तारीख: 20 मार्च 2022

आश्रम तथा आश्रम व्यवस्था का अर्थ


परिचय - आश्रम व्यवस्था के स्पष्टीकरण से पूर्व आश्रम का शाब्दिक अर्थ जानना होगा । यह शब्द श्रम धातु से बन है । इस का आशय है ---कार्य या परिश्रम करना । इस शाब्दिक अर्थ को ध्यान मे रखते हुये भारतीय सामाजिक विचारक श्री प्रभु ने आश्रम व्यवस्था की व्याख्या करने का प्रयास किया है । उनके अनुसार आश्रम शब्द से दो तात्पर्य प्राप्त है 1) एक स्थान जहां व्यक्ति द्वरा परिश्रम किया जाए तथा 2)इसके प्रकार के परिश्रम के लिए की जाने वाली क्रिया । इस प्रकर कहा जा सकता है की आश्रम का आशया एक क्रिया स्थल से है ।

अब सवाल उठता है की भारतीय समाज मे आश्रम व्यवस्था का समावेश कब से हुआ है । कुछ विद्वानो का मत है की भारतीय समाज मे वैदिक काल से है आश्रम व्यवस्था विधमन थी ।



आश्रमो का विभाजन

जैसे की पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है की प्राचीन भारतीय सिधान्त के अनुसार व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन को चार भागो मे विभाजित किया गया था ,जिन्हे चार आश्रम कहा गया है । वैदिक मान्यताओ के अनुसार व्यक्ति की ओसत आयु 100 वर्ष मनी गयी थी । इस मान्यता के अधार पर 25-25 वर्ष की अवधि को एक –एक आश्रम के रूप मे स्वीकार किया गया था । अर्थात जन्म से 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य आश्रम , 25 से 50 तक की आयु अवधि गृहस्थ आश्रम ,50 से 75 वर्ष तक की आयु वानप्रस्थ आश्रम तथा 75 से मुत्यु तक का काल सन्यास आश्रम माना गया था । आश्रम –व्यवस्था का उद्देश्य व्यक्ति द्वारा चारो पुरुषार्थ (धर्म,अर्थ,काम ,तथा मोक्ष ) समुचित प्राप्ति था । चारो आश्रमो के विधि –विधानों तथा महत्व का वर्णन प्रस्तुत है ।


ब्रह्मचर्य आश्रमआश्रम –व्यवस्था का प्रथम आश्रम है ब्रह्मचर्य आश्रम का प्रारम्भ उपनयन-संस्कार से माना जाता था । शास्त्रो की मान्यताओ के अनुसार ब्राह्मण बालको का उपनयन संस्कार 8 वर्ष की आयु मे होता था । क्षत्रिय तथा वैश्य बालको का 11 से 12 वर्ष की आयु मे उपनयन संस्कार किया जाता था । उपनयन संस्कार से लेकर 25 वर्ष की आयु तक का काल ब्रह्मचर्य आश्रम माना जाता था । ब्रह्मचर्य आश्रम व्यक्ति के जीवन के विभिन्न पक्षो के लिए तैयारी का काल माना गया था । यह काल संयम ,नियन्त्रण एव अनुशासन का काल होता है । यौन –नियन्त्रण के अतिरिक्त हर प्रकर के अनुशासन सेवा –भाव ,कर्तव्य-पालन ।नैतिक एव चारित्रिक विकास ,शुद्धता तथा ज्ञानार्जन को ब्रह्मचर्य आश्रम के लिए अनिवार्य समझा गया है ।

इस काल मे बालक को गुरु के पास गुरु कुल मे ही रहना होता था । गुरुकुल मे पाहुचकर सर्वप्रथम गुरुकुल के नियमो की जानकारी दी जाती थी । तथा बालको को इन नियमो का पालन करना सिखया जाता था । गुरु की सेवा ,आज्ञा –पालन तथा नियमित संयमित जीवन का गुरुकुल जीवन मे सर्वाधिक महत्व होता था ।


गृहस्थ आश्रम आश्रम –व्यवस्था के अंतर्गत दूसरा आश्रम गृहस्थ आश्रम है । इस आश्रम का काल 25 से 50 वर्ष की आयु का काल माना गया है , परंतु व्यवहरिक रूप से यह आश्रम ब्रह्मचर्य आश्रम के उपरान्त संस्कारो से प्रारम्भ होता है यह आश्रम यथार्थ कर्म का आश्रम है । ब्रह्मचर्य आश्रम मे जो ज्ञान अर्जित किया जाता है उसे वास्तविक जीवन मे उतारा जाता है । गृहस्थ आश्रम से व्यक्ति के कर्तव्य एव दायित्व बढ़ जाते है । गृहस्थ का प्रथम कर्तव्य धर्म के अनुसार विवाह करके अपनी धर्म पत्नी से संतान उत्पन्न करना है । विवाह का उद्देश्य केवल भोग –विलास एव शारिरिक सुख प्राप्त करना नहीं माना गया बल्कि वंश परंपरा को बनाये रखना तथा पितृ ऋण से उऋण होना था । एक गृहस्थी के लिये अनिवार्य है की वह धर्म पूर्वक धन का उपार्जन (धन कमाना ) करे तथा उस धन से अपने परिवार का भरण –पोषण करे तथा अतिथियों का सत्कार करे । दान दे तथा समस्त सामाजिक दायित्वों को पूरा करे । धन का अनावश्यक सांचय नहीं करना चाहिए तथा अधार्मिक ढंग से धन का उपार्जन नहीं करना चाहिए


गृहस्थ आश्रम का महत्व

गृहस्थ आश्रम का महत्व न केवल स्वया व्यक्ति के लिए है बल्कि इस आश्रम का पूरे समाज अर्थात अन्य आश्रमो के लिए भी है शास्त्रो मे स्वीकार किया गया है की गृहस्थ जीवन मे पदार्पण किये बिना मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है ।


वानप्रस्थ आश्रम ;-

आश्रम व्यवस्था का तीसरा आश्रम वानप्रस्थ आश्रम है । जब गृहस्थ आश्रम के कर्तव्य एव दायित्व पूरे हो जाये तब वानप्रस्थ मे पदार्पण करने का विधान है । सैद्धांतिक रूप से 50 वर्ष के उपरान्त वानप्रस्थ आश्रम प्रारम्भ होता है । व्यवहरिक रूप से निर्देश यह है की जब बाल सफ़ेद होने लगे शरीर की त्वचा ढीली पड़ने लगे तथा संतान की संतान उत्पन्न हो जाये तब वानप्रस्थ मे पदार्पण करना चाहिए । वानप्रस्थ का शाब्दिक अर्थ है –वन को प्रस्थान अर्थात सामान्य गृहस्थ जीवन को छोड़कर , मोहा ,माया को त्याग कर वन को प्रस्थान करना तथा सन्यास मे प्रवेश की तैयारी का आश्रम है ।


वानप्रस्थ का विधान के अनुसार व्यक्ति को घर त्याग देना चाहिए तथा जंगल मे कुटीया बना कर रहन प्रारम्भ कर देना चाहिये । वह चाहे तो पत्नी को साथ रखा सकता है परंतु पत्नी से यौन संबंधो का पूर्ण निषेध्द होता है । वानप्रस्थी के लिए निर्देश है की वह जमीन पर सोये , दिन मे केवल एक बार आहार ग्रहण करे , अन्न को त्याग कर फल –फूल तथा कन्द मूल ही खाये । जीवो पर दया करे एव उंकिन रक्षा करे तथा वानप्रस्थी का जीवन सदा एव सरल होना चाहिये ।


वानप्रस्थ आश्रम महत्व ;-

वानप्रस्थ आश्रम का उद्देश्य शुद्धिकरण तथा सामाजिक –कल्याण है पारिवारिक दुष्टिकोण से भी वानप्रस्थ आश्रम का महत्व है । वानप्रस्थ आश्रम की मान्यताओ के अनुसार जब बेटो के बेटे हो जाए तो पिता को वानप्रस्थ ग्रहण करना चाहिए । इससे बेटो को परिवार का मुखिया बनने का अवसर प्राप्त हो जाता है ।


सन्यास आश्रम

आश्रम व्यवस्था का चौथा तथा अंतिम आश्रम सन्यास आश्रम है । सिद्धांतिक रूप से 75 वर्ष की आयु मे शरीरिक मुत्यु तक का काल सन्यास आश्रम वानप्रस्थ आश्रम के उपरांत की स्थिति है अंत जब वानप्रस्थी पूरी तरह से मोहा -माया से मुक्त हो जाये तो वह सन्यास आश्रम मे प्रवेश कर सकता है । कुछ का मत है की यदि गृहस्थ आश्रम से ही पूर्णतया संयम तथा आत्मा -नियंत्रण प्राप्त कर लिया जाये तो व्यक्ति सीधे ही सन्यास आश्रम मे सकता है ।


सन्यासी का एक मत पुरुषार्थ ,मोक्ष प्राप्त करना ही रहा जाता है । सन्यासी के लिए हर प्रकार के त्याग का विधान है । सन्यासी का न तो कोई स्थायी निवास होता है और न ही निश्चित जीवन । वह तो परिव्राजक हो जात है शरीर को चलाने के लिए भिक्षा द्वारा प्राप्त अल्प आहार ही ग्रहण किया जाता है किसी प्रकार की संचय की प्रवृती नहीं होनी चाहिए । तथा वृक्ष के नीचे निवास करना ,आत्मा ज्ञान की साधन ,किसी भी जीव से लगाव न रखना प्राणायाम द्वारा इंद्रिय निग्रह ततः सुख -दुख से परे रहना सन्यासी के मुख्य धर्म माने गए है इसी प्रकार सन्यासी का सामाजिक तथा सांसरिक जीवन समाप्त हो जाता है । कुछ शास्त्रो के अनुसार जब व्यक्ति के शारीरिक मुत्यु के के समय उसका दाह संस्कार नहीं बल्कि समाधि संस्कार करना चाहिये ।


सन्यास आश्रम का महत्व

यदि व्यवहरिक दुष्टि से देखा जाये तो ऐसा प्रतीत होता है की क्योंकि सन्यासी का एक मत पुरुषार्थ मोक्ष प्राप्ति है अंत: आश्रम का केवल व्यक्ति के लिए महत्व है तथा अन्य आश्रमो या पूरे समाज के लिए सन्यासी का कोई महत्व नहीं है सामाजिक जीवन मे सन्यासी का कोई महत्व भी नहीं होता है ।





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