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- भारतीय स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त 1947
15 अगस्त 1947 को भारत ने लगभग 200 वर्षों के ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता प्राप्त की। यह दिन न केवल भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है, बल्कि यह एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र के जन्म का प्रतीक भी है। इस ब्लॉग पोस्ट में, हम स्वतंत्रता संग्राम की प्रमुख घटनाओं, स्वतंत्रता के बाद के कानूनी परिवर्तनों और उनके लंबे समय तक चलने वाले प्रभावों पर चर्चा करेंगे। 2025 में, स्वतंत्रता के पूरे 78 वर्ष बीत चुके होंगे, लेकिन यह उत्सव 79वीं बार मनाया जाएगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि गणना 1947 से शुरू होकर समावेशी है। इसलिए, जहाँ भारत ने स्वतंत्रता के 78 वर्ष पूरे कर लिए हैं, वहीं 2025 का उत्सव 79वाँ अवसर है। "सच्ची आज़ादी वही है जब हर भारतीय न केवल अपने लिए, बल्कि अपने पड़ोसी, अपने समाज और अपने देश के लिए भी न्याय, समानता और सम्मान की भावना रखे।" स्वतंत्रता संग्राम की प्रमुख घटनाएँ 1857 का विद्रोह 1857 का विद्रोह, जिसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पहला युद्ध माना जाता है, ब्रिटिश शासन के खिलाफ व्यापक असंतोष को उजागर करता है। इस विद्रोह ने भारतीय सैनिकों और आम जनता के बीच एकता का एक करीबी उदाहरण प्रस्तुत किया। यह विद्रोह सशस्त्र संघर्ष के साथ-साथ गहरी राजनीतिक और सामाजिक असंतोष का भी प्रतीक था, जिसने आज़ादी की चाहत को जन्म दिया। महात्मा गांधी का नेतृत्व महात्मा गांधी ने 1915 में भारत लौटने के बाद स्वतंत्रता संग्राम में एक नई दिशा दी। उन्होंने सत्याग्रह और अहिंसा के सिद्धांतों का पालन करते हुए लाखों लोगों को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित किया। गांधी जी का 1930 में किया गया नमक सत्याग्रह एक महत्वपूर्ण उदाहरण है, जिसमें हजारों लोगों ने समुद्र के किनारे नमक बनाने के लिए आंदोलन किया। सविनय अवज्ञा आंदोलन 1930 में शुरू हुआ सविनय अवज्ञा आंदोलन ने चिंता की एक नई लहर को जन्म दिया। गांधी जी ने इस आंदोलन के तहत ब्रिटिश नमक कानून का उल्लंघन किया, और यह आंदोलन देशभर में बड़े पैमाने पर प्रगतिशील आवाज़ों को एकजुट करने में सफल रहा। इसी संघर्ष के दौरान, 240 मील की लंबी यात्रा के बाद, गांधी जी ने एक लाख से अधिक लोगों को प्रेरित किया। विभाजन और स्वतंत्रता 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता मिली, लेकिन यह विभाजन के साथ आया। भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजन ने लगभग लाखों लोगों को प्रभावित किया, और यह एक दुखद अध्याय बन गया। इस दौरान लाखों लोगों को अपने घर छोड़ने पड़े, जिससे सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने में बड़ी दरार आई। स्वतंत्रता के बाद के कानूनी परिवर्तन भारतीय संविधान का निर्माण भारतीय संविधान का निर्माण 26 जनवरी 1950 को हुआ। यह संविधान भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में स्थापित करता है और नागरिकों के 450 से अधिक अधिकारों और कर्तव्यों को परिभाषित करता है। संविधान की नीति और मूल सिद्धांतों ने एक मजबूत लोकतंत्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भूमि सुधार कानून स्वतंत्रता के बाद, भूमि सुधार कानूनों को लागू किया गया, जिससे जमींदारी प्रथा का अंत हुआ और लाखों किसानों को भूमि का मालिकाना हक मिला। इससे कृषि उत्पादन में 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी बड़ा फायदा हुआ। महिला अधिकारों का संरक्षण महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए कई कानून बनाए गए, जैसे कि विवाह अधिनियम और घरेलू हिंसा अधिनियम। इन कानूनों ने महिलाओं को सामाजिक और कानूनी अधिकार प्रदान किए। इसके चलते, आज लगभग 30 प्रतिशत महिलाएं कामकाजी हैं, जो पहले केवल 15 प्रतिशत थीं। शिक्षा का अधिकार 2009 में, शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू किया गया, जिसने सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिया। यह कानून शिक्षा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन था, जिसके परिणामस्वरूप 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए साक्षरता दर 90 प्रतिशत के पास पहुंच गई है। स्वतंत्रता के प्रभाव सामाजिक परिवर्तन स्वतंत्रता के बाद, भारत में सामाजिक परिवर्तन की एक नई लहर आई। जातिवाद, लिंग भेदभाव और अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ जागरूकता बढ़ी। इस प्रक्रिया में, विशेष रूप से सरकारी योजनाओं द्वारा, अनुसूचित जातियों और जनजातियों को विशेष सुविधाएं प्राप्त हुईं। आर्थिक विकास स्वतंत्रता के बाद, भारत ने औद्योगीकरण और आर्थिक विकास की दिशा में कई कदम उठाए। औद्योगिक क्षेत्र में 7 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर देखी गई। यह विकास न केवल आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था, बल्कि यह सामाजिक परिवर्तन के लिए भी आवश्यक था। अंतरराष्ट्रीय संबंध भारत ने स्वतंत्रता के बाद एक स्वतंत्र विदेश नीति अपनाई, जिसने उसे वैश्विक मंच पर एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी बना दिया। इसकी नीति नॉन-एलाइनमेंट मूवमेंट (NAM) के तहत, भारत ने विश्व के 120 से ज्यादा देशों के साथ संबंध स्थापित किए। जवाहरलाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री बने और उन्होंने मध्यरात्रि में प्रसिद्ध "ट्रिस्ट विद डेस्टिनी" भाषण दिया। भारतीय संविधान के लिए आंदोलनों की सारांश तालिका वर्ष आंदोलन / घटना मुख्य विशेषताएँ संवैधानिक महत्व 1857 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम अंग्रेजों के शासन के विरुद्ध विद्रोह, स्वशासन की माँग संविधान निर्माण की पहली प्रेरणा, स्वतंत्रता की चेतना जागृत हुई 1861 भारतीय परिषद अधिनियम 1861 भारतीयों को सीमित रूप से विधान परिषदों में सम्मिलित किया गया प्रतिनिधि संस्थाओं की शुरुआत 1885 भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना भारतीयों के लिए राजनीतिक मंच संवैधानिक सुधारों और स्वशासन की माँग का आधार बना 1892 भारतीय परिषद अधिनियम 1892 विधान परिषदों का विस्तार, अप्रत्यक्ष चुनाव की व्यवस्था प्रतिनिधि शासन की ओर कदम 1909 मर्ले-मिंटो सुधार (भारतीय परिषद अधिनियम 1909) मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल, भारतीय प्रतिनिधित्व बढ़ा सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की शुरुआत 1916–17 होम रूल आंदोलन (एनी बेसेन्ट, तिलक) ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर स्वशासन की माँग मोंटेग घोषणा (1917) का आधार 1919 मोंटेग-चेम्सफोर्ड सुधार (भारत शासन अधिनियम 1919) प्रांतीय द्वैध शासन (Dyarchy), द्विसदनीय विधानमंडल असंतोष बढ़ा, असहयोग आंदोलन का जन्म 1920–22 असहयोग आंदोलन (गाँधीजी) विदेशी संस्थाओं का बहिष्कार, स्वराज की माँग संविधान सभा की माँग को बल मिला 1927 साइमन कमीशन का बहिष्कार आयोग में कोई भारतीय सदस्य नहीं था भारतीयों द्वारा स्वयं संविधान बनाने की माँग तेज 1928 नेहरू रिपोर्ट भारतीयों द्वारा तैयार पहला संविधान का मसौदा स्वशासन व मौलिक अधिकारों की माँग 1929 लाहौर अधिवेशन (पूर्ण स्वराज घोषणा) पूर्ण स्वतंत्रता को लक्ष्य घोषित डोमिनियन स्टेटस की माँग समाप्त 1930–34 सविनय अवज्ञा आंदोलन और गोलमेज सम्मेलन ब्रिटिश कानूनों का बहिष्कार, संविधान पर चर्चा साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व और स्वशासन पर बहस 1935 भारत शासन अधिनियम 1935 प्रांतीय स्वायत्तता, संघीय योजना, द्विसदनीय व्यवस्था भारतीय संविधान के कई प्रावधान इसी पर आधारित 1942 भारत छोड़ो आंदोलन "अंग्रेजों भारत छोड़ो" का नारा, जनसंग्राम स्वतंत्रता और संविधान सभा की प्रक्रिया को तीव्र किया 1946 कैबिनेट मिशन योजना संविधान सभा के गठन का प्रस्ताव संविधान सभा का गठन हुआ 1947 भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम भारत का विभाजन और स्वतंत्रता संविधान सभा ने स्वतंत्र भारत के लिए संविधान बनाना शुरू किया 1946–1950 संविधान सभा की बैठकें डॉ. भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता में प्रारूप समिति संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ समापन विचार यह दिन न केवल स्वतंत्रता की याद दिलाता है, बल्कि विविधता में एकता, अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान और लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए नागरिकों की ज़िम्मेदारी का भी प्रतीक है। 15 अगस्त 1947 को मिली स्वतंत्रता ने भारत को एक नई दिशा दी। स्वतंत्रता संग्राम की घटनाएँ और उसके बाद के कानूनी परिवर्तन न केवल देश के भविष्य को बदलने में सहायक रहे, बल्कि उन्होंने भारतीय समाज को भी एक नई पहचान दी। आज, जब हम स्वतंत्रता के 78 वर्ष पूरे कर रहे हैं, हमें यह याद रखना चाहिए कि यह स्वतंत्रता केवल एक राजनीतिक उपलब्धि नहीं है, बल्कि यह हमारे अधिकारों, कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का भी प्रतीक है। भारत की स्वतंत्रता का यह सफर हमें यह सिखाता है कि एकजुटता, संघर्ष और समर्पण से हम किसी भी चुनौती का सामना कर सकते हैं।
- शिमला समझौता का सम्पूर्ण इतिहास
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि शिमला समझौता, जो 2 जुलाई 1972 को भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ, एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है। इसने दोनों देशों के बीच कश्मीर के विवादित क्षेत्र पर बातचीत के नए रास्ते खोले। यह समझौता भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच शिमला (हिमाचल प्रदेश, भारत) में हुआ था। इस ब्लॉग में हम समझौते के पीछे के कारण, प्रमुख बिंदुओं, उद्देश्यों, और दीर्घकालिक प्रभावों पर चर्चा करेंगे। यह समझौता 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद हुआ था, जिसमें पाकिस्तान की करारी हार हुई थी और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) स्वतंत्र राष्ट्र बन गया था। समझौते की ऐतिहासिक प्रासंगिकता पृष्ठभूमि: 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ था, जिसकी वजह बांग्लादेश में पाकिस्तान की सेना द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन और भारत में शरणार्थियों की बाढ़ थी। इस युद्ध में 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों ने भारत के सामने आत्मसमर्पण किया था, जो कि इतिहास में सबसे बड़ा आत्मसमर्पण था। भारत ने पाकिस्तान के कई क्षेत्र अपने नियंत्रण में ले लिए थे। युद्ध के बाद स्थायी शांति स्थापित करने और संबंधों को सामान्य करने के लिए दोनों देशों के बीच शिमला समझौता हुआ। शिमला समझौता, कश्मीर के मुद्दे को सुलझाने के लिए एक मील का पत्थर था। इससे पहले, भारत और पाकिस्तान के बीच 1947-48, 1965, और 1971 में युद्ध हो चुके थे। 1971 के युद्ध के परिणामस्वरूप पाकिस्तान का बंटवारा हुआ, जिसके चलते बांग्लादेश का गठन हुआ, और कश्मीर का मुद्दा और भी पेचीदा हो गया। उस समय, भारत ने बांग्लादेश के निर्माण के बाद अपनी स्थिति को मजबूत किया, जिससे पाकिस्तान का ध्यान शांति की दिशा में बढ़ा। शिमला समझौते के प्रमुख बिंदु शिमला समझौते में कई महत्वपूर्ण पहलू शामिल हैं: बातचीत का महत्व : समझौते में यह सुनिश्चित किया गया कि दोनों देश अपने विवादों को बातचीत के माध्यम से सुलझाने का प्रयास करेंगे। यह रणनीति भारत और पाकिस्तान के बीच संवाद को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक थी। लौटने की प्रक्रिया : इसमें दोनों देशों ने अपनी संप्रभुता का सम्मान करने और सैन्य कार्रवाई से बचने का वचन दिया। इससे सीमाओं पर सैन्य तनाव कम होने की उम्मीद जगाई गई। कश्मीर का मुद्दा : शिमला समझौते में कश्मीर क्षेत्र के विवाद पर बातचीत को प्राथमिकता दी गई, लेकिन यह समग्रता में बातचीत द्वारा सुलझाने का लक्ष्य रखा गया। क्षेत्रीय स्थिरता : समझौते ने क्षेत्रीय स्थिरता को प्राथमिकता दी और संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांतों का पालन करने का वचन दिया। यह कदम भविष्य की संभावित विवादों को कम करने के लिए महत्वपूर्ण था। सीमा विवाद शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाए जाएंगे : दोनों देश आपसी मुद्दों को द्विपक्षीय वार्ता से सुलझाएंगे, किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता नहीं होगी। लाइनों का सम्मान : युद्धविराम रेखा (Ceasefire Line) को फिर से चिन्हित करके इसे " नियंत्रण रेखा (Line of Control - LoC) " कहा गया, जिसे दोनों देश मानने को राज़ी हुए। 1971 के युद्ध में पकड़े गए युद्धबंदियों का समाधान : भारत ने पाकिस्तान के 93,000 युद्धबंदियों को बाद में मानवीय आधार पर रिहा किया। राजनीतिक कदम : दोनों देश अपने-अपने क्षेत्रों में सामान्य स्थिति बहाल करेंगे और युद्ध के प्रभाव को समाप्त करने के लिए राजनीतिक कदम उठाएंगे। संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान : एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का सम्मान करने का वचन दिया गया। उद्देश्य समझने की कोशिश शिमला समझौते के कई उद्देश्य थे, जैसे: शांति की स्थापना : दोनों देशों के बीच स्थायी शांति और स्थिरता की स्थापना को प्राथमिकता देना। यह एक ठोस आधार प्रदान करने की कोशिश थी।यह समझौता भारत और पाकिस्तान के बीच शांति बहाल करने का प्रयास था। तनाव में कमी : बिना युद्ध के तनाव को कम करना और आपसी संप्रभुता का सम्मान करना। इसके माध्यम से दोनों देशों ने एक-दूसरे के प्रति विश्वास निर्माण की दिशा में कदम बढ़ाए। बातचीत को बढ़ावा : दोनों देशों के बीच संवाद की प्रक्रियाओं को प्रोत्साहित करना ताकि विवादों का समाधान निकाला जा सके। उदाहरण के लिए, इसी तरह की बातचीत के तहत आगे कई वार्ताएँ हुईं, जो कश्मीर के विवाद को सुलझाने में मदद कर सकती थीं। इसने कश्मीर मुद्दे को द्विपक्षीय स्तर पर हल करने की रूपरेखा दी, जिससे संयुक्त राष्ट्र या किसी तीसरे पक्ष की भूमिका को नकारा गया। यह समझौता आज भी भारत के दृष्टिकोण से एक महत्वपूर्ण आधार है कि कश्मीर विवाद में कोई तीसरा पक्ष शामिल नहीं हो सकता। लंबे समय तक के प्रभाव शिमला समझौते का दीर्घकालिक प्रभाव दोनों देशों के साथ ही क्षेत्रीय स्थिरता पर पड़ा है। बातचीत की निरंतरता : यह एक नए संवाद की प्रक्रिया को आरंभ करता है, जिसने आगे चलकर कई अन्य समझौतों को जन्म दिया। इस तरह की कई वार्ताएँ आज भी जारी हैं। कश्मीर विवाद पर संवाद : इसने कश्मीर के मुद्दे को बातचीत के माध्यम से सुलझाने का प्रयास किया, जिससे दीर्घकालिक समाधान की संभावना पैदा हुई। क्षेत्रीय स्थिरता : समझौते ने क्षेत्रीय स्थिरता को बनाए रखने में सहायता की। इससे भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष में कमी आई है। आलोचनात्मक नजरिए शिमला समझौते की कुछ आलोचनाएँ भी हैं: प्रस्तावों का कार्यान्वयन : कई लोगों का मानना है कि समझौते को कार्यान्वित करने में वास्तविक चुनौतियाँ आईं, जिनके कारण विवादित मुद्दों की पुनरावृत्ति हुई। कश्मीर की स्थिति : कुछ आलोचकों का कहना है कि यह समझौता कश्मीर की समस्याओं का असली समाधान नहीं प्रदान करता और स्थिति को और जटिल कर देता है। भारत में कुछ लोगों का मानना था कि भारत ने युद्ध में जीत हासिल करने के बावजूद पाकिस्तान के साथ बहुत उदारता दिखाई और मजबूत स्थिति का पूरा लाभ नहीं उठाया। पाकिस्तान में भी कुछ आलोचक थे जिन्होंने इसे राष्ट्र की हार का प्रतीक माना। वर्तमान परिप्रेक्ष्य शिमला समझौते के बाद से, कश्मीर और भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में कई उतार-चढ़ाव आए हैं। वार्ता की प्रक्रिया कई बार बंद हो गई और कभी बढ़ी भी। उदाहरण के लिए, 2019 में भारतीय बलों द्वारा पुलवामा हमले के बाद हमला किया गया, जिससे तनाव बढ़ा। महत्व और भविष्य के दिशानिर्देश शिमला समझौता एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है। यह न केवल कश्मीर के मुद्दे पर बातचीत का रास्ता खोलता है, बल्कि दोनों देशों के बीच दीर्घकालिक संबंधों और क्षेत्रीय स्थिरता पर भी प्रभाव डालता है। Shimla's picturesque landscape representing the backdrop of the Shimla Agreement.
- आचरण का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
आचरण का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण www.lawtool.net पश्यचायत नीतिशास्त्र के गृहीत आधार भारतीय नीतिशास्त्र के समान पश्चयात नीतिशास्त्र के भी गृहीत आधार है । लकीन भारतीय तत्वज्ञों ने जिस प्रकार से गृहीत आधार का वर्गिकरण करते हुए उनका स्पष्टीकारण किया है । उस प्रकार का विस्तृत विवेचन पश्यचायत नीतिशास्त्र मे नहीं है । पश्चायत नीतिशास्त्र के अनुसार गृहीत आधार इस प्रकार है । 1. व्यक्तित्व – व्यक्तित्व नीतिशास्त्र का प्रमुख आधार है । नैतिक नियम बनाने के लिए व्यक्ति का विवेकशील हीना अवश्यक है नैतिकता का ज्ञान होना याने की शुभ –अशुभ का कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान होना आवश्यक है इस लिए नीतिशास्त्र ये मानकर ही आगे बढ़ता है । की व्यक्ति के पास नैतिकता का पूरा ज्ञान है । 2. विवेक - विवेक का अर्थ है बुद्धि ।विवेक नैतिकता का दूसरा गृहीत आधार है । मनुष्य मे बुद्धि तथा विवेक होने के कारण ही वह पशु से या जानवर से भिन्न है । मानुष्य बुद्धिमान प्राणी है या विवेकशील प्राणी है । इस विशवास से ही नैतिकता तथा अनैतिकता मनुष्य से ही संबन्धित मनी जाती है । अथवा मनी गई है । 3. संकल्प स्वतंत्रय - संकल्प स्वतंत्र्य प्रत्येक मनुष्य को । यह नीतिशास्त्र द्वारा स्वीकार किया गया है । प्रत्येक व्यक्ति को विचार करने की स्वतंत्रता है उसी प्रकार व्यक्ति को स्वतंत्र्य है । इसी ग्रहीत आधार के कारण ही प्रत्येक व्यक्ति को उसकी कृति का जिम्मेदार ठहराया जाता है । 4. काण्ट ‘’नामक बुद्धिवादी तत्वज्ञानी के अनुसार मनुष्य को संकल्प स्वतंत्र्य है वह विवेकशील प्राणी है । इसके अलावा उन्होने निम्न – गुहित आधार स्वीकार किए है । 5. काण्ट के अनुसार संकल्प स्वतंत्र्य नैतिकता तथा जीवन के लिए आवश्यक है । यदि मनुष्य अपने कर्मो को करने मे स्वतंत्र्य नहीं है तो वह अपने कर्मो के लिए उतरदायी भी नहीं है । इसलिए नैतिकता के लिए संकल्प स्वतंत्र्य होना आवश्यक है । 6. अत्मा की अमरता --- काण्ट के अनुसार इच्छा और कर्तव्य के सतत संघर्ष को जितना ही नैतिकता है । परंतु यह कार्य इतना कठिन है की एक सीमित जीवन मे उसको पूर्ण करना असंभव है । नैतिकता का ध्येय प्राप्त करने के लिए यह मानना की आत्मा अमर है अत्यंत आवश्यक है इसलिए आत्मा की अमरता को गुहित आधार के रूप मे स्वीकार किया गया है । नियतिवाद ,अनियतिवाद ,आत्मनियतिवाद संकल्प स्वतंत्र्य का प्रश्न तत्व ज्ञान मे अतिशय महत्वपूर्ण होता है । अगर हम मन लेते है की व्यक्ति संकल्प करने मे स्वतंत्र है या निर्णय लेने मे स्वतंत्र होता है । तभी हम उस कृति के लिए उसे जिम्मेदार ठहरा सकते है ,लकीन प्रश्न यही है ?इस विषय मे तत्वज्ञान के अन्तर्गत तीन प्रमुखवाद चर्चा मे है – 1. नियतिवाद , -- -नियतिवाद के अनुसार मनुष्य को कृति करने के लिए स्वतंत्र नहीं है । प्रत्येक कृति सुष्टि मे जो घटनाए एव दूसरे से जुड़ी हुई होती है उसका ही परिणाम है । प्रत्येक कृति व्यक्ति के चरित्र से आनुवंशिकता से तथा उसके परिस्थिति से जुड़ी हुई होती है और इन सभी घटको का कृति पर परिणाम होती है इसलिए मनुष्य संकल्प स्व्तंत्र्य मे स्वतंत्र नहीं है । 2. अनियतिवाद , इसके अनुसार हम कृति करने के लिए स्वतंत्र है । नीतिशास्त्र ,राज्यशास्त्र का कायदा अनियतिवाद पर ही आधारित है । नीतिशास्त्र के अनुसार हमे अपने कर्तव्य निभाने चाहिए । इसका अर्थ है की हमने यह मानलिया है की वह कर्तव्य करने की क्षमता हममे है । इसीलिए हम उस कृति के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र है । 3. आत्मनियतिवाद — नियतिवाद तथा अनियतिवाद दोनों पर विचार विमर्श करने के बाद इस निर्णय पे हम आते है की कुछा सच्चाई नियतिवाद मे है उसी प्रकार अनियातीवाद मे भी है । इसलिए इन दोनों का समानव्य करके आत्मनियतिवाद का स्पष्टी कारण दिया गया है । इनके अनुसार नियतिवाद के बारे मे सोचने से हमे ये समझ मे आता है की एक बार चरित्र प्रस्थपित होने पर हम उसी प्रकार की कृति करते है । लकीन चरित्र प्रस्थपित होने के पहले हम पूरी तरह से स्वतंत्र है । एक बार शराबी बन गए तो शराब जीवन का हिस्सा बन जाती है । कर्मो के प्रकार –पश्चात्य नीतिशास्त्र के अनुसार कर्म के तीन प्रकार है । a) स्वय निर्मित कर्म b) अनिच्छा कर्म c) असवायानिर्मित कर्म 1. स्वयनिर्मित कर्म – जो कृति किसी संकल्प के अनुसार की जाती है उसे स्वयानिर्मित कर्म कहते है । इसका अर्थ यह है की मनुष्य के सामने जब अनेक विकल्प होते है उसमे से किसी एक को चुनने के बाद उसी के अनुसार कृति की जाती है ,उसे स्वयानिर्मित कर्म कहते है । इसीलिए इस प्रकार की कृति के लिए वह पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराया जाता है इस प्रकार की कृति मनुष्य द्वारा पूरे होशोहवास मे की जाती है । 2. अनिच्छा कर्म -- - जब व्यक्ति की प्रकार का कर्म करने का निर्णय लेता है । लकीन कुछा अनपेक्षित परिस्थितियो के कारण उस कर्म को न करते हुए विपरीत कृति उसके हाथो से होती है इस प्रकार के कर्म को अनिच्छा कर्म कहाते है । याने जो कृति या कर्म स्वयानिर्मित कर्म से विपरीत होती है तब उसे अनिच्छा कर्म कहते है । जैसे की क्रीकेट मे मैच के आखरी गेंद पर बिना रन लिए आउट होना । 3. असवायानिर्मित कर्म – इसे अनैच्छीक कर्म भी कहते है । जिन कृतियों मे मनुष्य की इच्छाओ को स्थान नहीं होता उस प्रकार की कृतियो को अनैच्छिक या अस्वयानिर्मित कर्म कहते है ।इसमे कई प्रकर की शरारिक क्रियाये ,सहजात क्रियाये इंका अंतरभवा इसमे होता है । यह कृतियाँ नैसर्गिक होती है लकीन इसमे करने वाले का कोई हेतु नहीं होता है । इस प्रकार से नैतिक क्रियाओ का विशलेशन करने के पशचायत एक बात स्पष्ट होती है की केवल स्वयानिर्मित कर्मो के लिए ही मनुष्य को उस कृति के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। इस स्वयानिर्मित कर्म की प्रक्रिया इस प्रकार है। सर्वप्रथम मनुष्य को अपने जीवन मे कुछा वस्तुओ का आभाव दिखाई देता है या होता है । उस आभाव के कारण मन मे दुखद भावना उत्पन्न होती है । इस भावना को निकालने की इच्छा मन मे निर्माण होती है सुख और दुख के बीच मे अनेवाली यह इच्छा संघर्षात्मक विचार विनियम करके किसी एक विकल्प का आवंत करता है और उस विकल्प के अनुसार कृति करने का संकल्प करता है । इस प्रकार इस संकल्प को नैतिक महत्व नहीं है लकीन इस संकल्प के अनुसार की गई कृति महत्वपूर्ण होती है इसीलिए सही मायने मे नैतिक निर्णय का विषय संकल्प सहकृति है इस प्रकार यही कृति को स्वयानिर्मित कर्म मे अंत भूत करते हुए व्यक्ति को उस कृति का जिम्मेदार ठहराया जाना है । हेतु तथा उद्देश्य मे अंतर स्पष्ट कीजिये ? परीनंवाद तथा हेतुवाद नैतिक निर्णय का विषय क्या हो सकता है ?इसका उतर स्वया निर्मित कर्म मे यह दिया जाता है की फिर भी संकल्प सहकृति इसमे हेतु महत्वपूर्ण है या परिणाम महत्वपूर्ण है ? इसका भी निर्णय लिया जाता है भिन्न –भिन्न तत्वज्ञों ने इस विषय पर चर्चा की है । कुछा तत्वज्ञों के अनुसार कृति का परिणाम महत्वपूर्ण है । अगर उचित है या योग्य है तो ही वह कृति योग्य कहलाती है इस विचार धारा को ही परीनंवाद कहते है । इससे विपरीत कुछ तत्वज्ञों के अनुसार कृति की योगिता ,कृति के परिणाम पर आधारित न होते हुए उन कृतियो के पीछे मनुष्यो का जो हेतु होता है वह महत्वपूर्ण है । अगर हेतु सही है तो परिणाम चाहे बुरे ही क्यो न हो वह कृति अच्छी ही कहलाती है । इस विचार धारा हो हेतु वादी परम्परा कहते है । परिणाम तथा हेतु वाद परस्पर विरोधी नहीं है । यहाँ हेतु तथा उद्देश्य किसे कहते है ?यह स्पष्ट होना जरूरी है । इसका स्पष्टी कारण इसप्रकार से है नैतिक निर्णय के संदर्भ मे साध्य और साधन का विचार महत्वपूर्ण है । साध्य हमेशा साधनो का समर्थन करता है लेकिन कभी कभी साधनो द्वाराभी सध्या का समर्थन किया जाता है अगर सध्य अच्छा है तो उससे जुड़े साधन भी अच्छा होना जरूरी है क्या ?यह महातपूर्ण प्रश्न है जिसका उत्तर हेतु और उद्देश्य की संकल्पन मे ही मिलता है । हेतु तथा उद्देश्य / अभिप्राय बेन्थ्म और मिल इन तत्वज्ञों के अनुसार हेतु से परिणाम ज्यादा महत्वपूर्ण हिते है । हेतु याने कर्म करने की इच्छा है तथा उद्देश्य याने विशिष्ट ध्येय का विचार है । हेतु भावना का कारक कारण है तथा उद्देश्य अंतिम कारण है हेतु की तुलना मे उद्देश्य ज्यादा व्यापक है । स्व्यनिर्मित कर्म मे भी उद्देश्य को हेतु से ज्यादा महत्व दिया गया है । हेतु से उद्देश्य ज्यादा व्यापक है क्यो की उद्देश्य मे इष्ट तथा अनिष्ट दोनों परिणामो का विचार अंतभूत है । इसका स्पष्टी कारण इस प्रकार से भी दिया जाता है । इस प्रकार से उद्देश्य हेतु से हमेशा ही व्यापक होता है । उद्देश्य (अभिप्राय )के प्रकार तात्कालिक तथा प्रच्छन्न अभिप्राय । बाहरी तथा आंतरिक अभिप्राय । प्रत्येक्ष तथा अप्रत्येक्ष अभिप्राय चेतन तथा अचेतन अभिप्राय औपचारिक तथा यथार्थ अभिप्राय । तात्कालिक तथा प्रछ्न्न अभिप्राय – तात्कालिक जैसे डूबते हुए व्यक्ति को बचाने तथा प्रछन्न याने हर एक व्यक्ति की अपनी अपनी सोच होना । बाहरी तथा आंतरिक अभिप्राय – कुछ कर्म बाह्य स्वरूप मे अधिक महत्वपूर्ण होते है इसके विपरीत कुछ कर्म आंतरिक रूप से महत्वपूर्ण होते है । प्रत्येक्ष तथा अप्रत्येक्ष अभिप्राय -- -किसी व्यक्ति पर जान लेवा हमला करना यह प्र्त्येक्ष उद्देश्य है । तथा किसी ट्रेन मे बैठे एक व्यक्ति की जान लेने के लिए ट्रेन को उड़ा देना अप्रत्येक अभिप्राय है । चेतन तथा अचेतन अभिप्राय – यह उद्देश्य सजीव तथा निर्जीव से जुड़ा हुआ है । औपचारिक तथा यथार्थ अभिप्राय --- औपचारिक निर्णय प्रत्येक्ष निर्णय के समान होते है तथा यथार्थ निर्णय अप्रत्येक्ष निर्णय के समान होते है इस प्रकार उपयूक्त विवेचन द्वार यह स्पष्ट होता है की उद्देश्य याने असफल परिणाम तथा परिणाम याने सफल उद्देश्य है । कर्तव्य और अधिकार ---- अधिकार और कर्तव्य सापेक्ष शब्द है जो एक दुष्टि से अधिकार है वही दूसरे संबंध मे कर्तव्य हो जाता है । जहां अधिकार है वहाँ कर्तव्य है । नैतिक अधिकार जीने का अधिकार - जीने का अधिकार मनुष्य का सर्वप्रथम और मुख्य अधिकार है । इस अधिकार मे काम करने का अधिकार भी सम्मिलीत है इसीलिए किसी की हत्या करना गुनाह होता है । स्वतंत्रता का अधिकार – स्वतंत्रता का अधिकार के बिना नैतिक कार्यो की कल्पना असम्मभाव है प्रत्येक्ष व्यक्ति अपना ध्येय साध्य करने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए । इसीकारण गुलामीगिरी गुनाह है । संपत्ति का अधिकार स्वतंत्रता के अधिकार के साथ संपत्ति का भी अधिकार भी लगा हुआ हैजैसे रहने के लिए संपात्ति का अधिकार आवश्यक है अर्थात इस आधीकर का दुरुपयोग ठीक नहीं है । समझोते की पूर्ति का अधिकार –समझोते की पूर्ति का अधिकार तभी अर्थपूर्ण हो सकता है जैसे समझोते की पूर्ति के साधनो पर व्यक्ति का अधिकार हो अर्थात सम्पत्ति के अधिकार की सीमाये समझोते के अधिकार पर ही लागू होते है । शिक्षा का अधिकार – शिक्षा से ही व्यक्ति बनता है । नैतिक दुष्टिकोण से प्रत्येक व्यक्ति अपनी योगयता के अनुसार सर्वोत्तम शिक्षा पाने के लिए बाध्य है । नैतिक कर्तव्य जीवन का सम्मान – अपने और दूसरों के जीवन का सम्मान करना मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है । आत्महत्या तथा हत्या दोनों ही घोर अनैतिक कार्य है । स्वतन्त्रता का सम्मान – स्वतंत्रता के अधिकार के साथ स्वतंत्रता के सम्मान का कर्तव्य भी लगा हुआ है । इसीकारण दूसरों को गुलाम बनाना उनका शोषण करना घोर अन्याय है । चरित्र का सम्मान – चरित्र ही मनुष्य मे सर्वोच्चय गुण है इसीलिए हमे संव्यां और दूसरों के चरित्र का सम्मान चाहिए । सम्पत्ति के अधिकार के साथ सम्पत्ति के सम्मान का कर्तव्य भी लगा हुआ है । निजी संपत्ति का सदुपयोग करते समय दूसरों के संपत्ति मे बाधक नहीं बनना चाहिए इसी कारण चोरी करना नैतिक अपराध है सामाजिक व्यवस्था का सम्मान – व्यक्ति और समाज का कल्याण इस पर निर्भर है व्यक्ति के अधिकार की रक्षा तभी हो सकती है जब तक की सामाजिक व्यवस्था बनी रहे इसीलिए सामाजिक व्यवस्था का सम्मान करना चाहिए । सत्य का सम्मान – मनुष्य को अपने वचनो का पालन करना चाहिए । विचार तथा कर्म मे समजस्य रखना चाहिए । यह कर्तव्य समझोते के अधिकार से जुड़ा हुआ है । प्रकृति का सम्मान – प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति मे आस्था रखनी चाहिए । परिश्रम ही पुजा है समाज की प्रकृति व्यक्ति से जुड़ी हुई है । अधिकार और कर्तव्य मे परस्पर संबंध है अधिकार और कर्तव्य अन्योन्याश्रीत है । अधिकार और कर्तव्य परस्पर सापेक्ष है । अधिकार और कर्तव्य एक ही नैतिक नियमो के दो पहलू है ।
- बेन्थ्म का निकुष्ट उपयोगिता वादी नैतिक सुखवाद
बेन्थ्म का निकुष्ट उपयोगिता वादी नैतिक सुखवाद या बेन्थ्म का परिणाम का परिमाण त्मक उपयोगितावादी सुखवाद । बेन्थम का निकृष्ट उपयोगितावादी नैतिक सुखवाद (Jeremy Bentham's Quantitative Utilitarian Hedonism) एक ऐसा सिद्धांत है जो यह मानता है कि नैतिकता का मूल उद्देश्य सुख (Pleasure) को बढ़ाना और दुःख (Pain) को कम करना है , और इस सुख-दुःख का मूल्यांकन मात्रात्मक (Quantitative) रूप से किया जा सकता है। मुख्य विशेषताएँ: परिणामवादी दृष्टिकोण (Consequentialism) :बेन्थम का सिद्धांत यह मानता है कि किसी भी कार्य की नैतिकता उसके परिणामों से तय होती है। यदि किसी कार्य से अधिक लोगों को अधिक सुख मिलता है, तो वह नैतिक रूप से उचित है। सुख की मात्रात्मक गणना (Quantitative Measurement of Pleasure) :बेन्थम ने सुख को मात्रात्मक रूप से मापने का प्रयास किया और इसके लिए "हेडोनिक कैलकुलस (Hedonic Calculus)" नामक पद्धति प्रस्तावित की। इसके अंतर्गत निम्नलिखित तत्वों पर विचार किया जाता है: Intesity (तीव्रता) : सुख या दुःख कितना तीव्र है? Duration (अवधि) : वह कितनी देर तक रहेगा? Certainty (निश्चितता) : उसके घटित होने की कितनी संभावना है? Propinquity (निकटता) : वह कब घटित होगा – निकट भविष्य में या दूर? Fecundity (उत्पादकता) : वह आगे और कितना सुख/दुःख उत्पन्न करेगा? Purity (शुद्धता) : क्या उसमें दुःख की कोई मिलावट है? Extent (व्यापकता) : कितने लोगों को प्रभावित करेगा? सभी सुख समान माने जाते हैं :बेन्थम के अनुसार, सभी प्रकार के सुख मूल रूप से समान होते हैं — चाहे वह शारीरिक सुख हो या बौद्धिक। उनके अनुसार, "एक साधारण व्यक्ति का सुख उतना ही महत्वपूर्ण है जितना एक ज्ञानी का।" आलोचना: जॉन स्टुअर्ट मिल (J.S. Mill) ने बेन्थम की मात्रात्मक दृष्टिकोण की आलोचना करते हुए गुणात्मक सुखवाद (Qualitative Utilitarianism) का समर्थन किया, जिसमें कुछ सुखों को अन्य की तुलना में श्रेष्ठ माना गया (जैसे बौद्धिक सुख > शारीरिक सुख)। सुखवाद – बेन्थ्म इंग्लैंड के प्रसिद्ध राजनीतिक विचारक और समाज सुधारक थे । इनके अनुसार मानव स्वाभवत ; सुख चाहता है । अंत वह सुख के लिए कोई भी कार्य करता है । प्रत्येक मनुष्य का अंतिम लक्ष्य केवल सुख प्राप्ति होता है । मनोवैज्ञानिक सुखवाद - बेन्थ्म मनोवैज्ञानिक सुखवाद के समर्थक थे । इनके अनुसार निसर्ग ने ही मनुष्य को सुख तथा दुख के साम्राज्य मे रखा है । सुख की प्राप्ति और दुख की निवूत्ति यही मनुष्य के जीवन का सही नारा है । इसीलिए मनुष्य सदैव सुख की खोज करता है तथा दुख से दूर भागता है । नैतिक सुखवाद - बेन्थ्म ने अपने सिधान्त मनोवैज्ञानिक सुखवाद तथा नैतिक सुखवाद मे समन्वय स्थापित करने की चेष्टा की है वह लिखते है की प्रकृति ने मनुष्य को सुख और दुख नामक दो सर्वाशक्तिमान शासको के अधीन रख दिया है । हमे क्या करना चाहिए ?यह हमरे लिए महत्वपूर्ण है । नैतिक स्वार्थ सुखवाद - बेन्थ्म मनोवैज्ञानिक सुखवाद का समर्थन करते है और इसके अनुसार मनुष्य स्वभावत ; स्वार्थी होता है । अंत सुख प्राप्ति ही मानुष्य का पहला कर्तव्य होना सी चाहिए । यदि वह वस्तु सुख उत्पन्न कर सकता है वह शुभ है अन्यथा अशुभ है । परर्थ सुखवाद - बेन्थ्म मनोवैज्ञानिक सुखवाद का पुरुस्कार करते हुए बेन्थ्म स्वार्थ सुखवाद का ही समर्थन करते है । उनका कहना है की यह स्वप्न भी नहीं देखना चाहिए की मनुष्य अपने निजी स्वार्थ के बिना अपनी उंगली भी नहीं हिलाता । लेकिन यह कहते हुए बेन्थ्म पारर्थ की तरफ बढते हुए यह भी बताते है की मानुष्य को व्यक्तिगत सुख को ही नहीं बल्कि दूसरों के सुख को भी जीवन का लक्ष्य मानना चाहिए । दूसरों को सुखी बनाकर ही व्यक्ति को सच्चा सुख मिलता है । स्थूल /निकुष्ट उपयुक्तावादी सुखवाद पार्थवाद का समर्थन करते हुए बेन्थ्म उपयोगितावाद की तरफ बढ़ते है । अधिकतम लोगो का अधिकतम सुख ही नैतिकता का मापदंड होना चाहिए इस मत को स्वीकार करते हुए बेन्थ्म कहते है की उपयोगितावाद की सिद्धांता से अभिप्राय यह है की प्रत्येक आचरण को यह सिधान्त करता है जिससे प्रस्न्नता और सुख को बढ़ाया जा सके । त्ता एसे आचरण को अस्वीकार करना चाहिए जिससे दुख या प्रसन्नता घटती हो या प्रसन्नता कम होती हो इस प्रकार का आचरण मनुष्य को नहीं करना चाहिए । सुख का मापदण्ड - बेन्थ्म के उपयोगितावाद के मत का आध्ययन करने से एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है की अधिकतम निर्णय कैसे करे । इसके उत्तर मे बेन्थ्म का कहना है की सुखो के परिणाम को मापा जा सकता है । उन्होने सुख तथा दुख से भेद बतलाए है । और सुखो के परिणाम को मापने का तरीका बताया है । इसे ही सुख का मापदंड कहते है । बेन्थ्म के अनुसार सुखो को मापने के सात आयाम है । वे इस प्रकार है । सुखो के आयाम 1. तीव्रता - एक सुख दूसरे सुख की अपेक्षा अधिक तीव्र हो सकता है । उदा =खेलने का सुख सोने के सुख की अपेक्षा अधिक तीव्र होता है । अंत खेलने का सुख नैतिक दुष्टि से अधिक शुभ है । 2. अवधि - जो सुख अधिक समय तक स्थायी रहे वह नैतिक दुष्टि से अधिक शुभ रहेगा । यहा सोने का सुख खेलने के सुख से स्थायी है । 3. निकटता - एक सुख दूसरे सुख की अपेक्षा अधिक निकटता से प्रप्ता होता है । यहा पर सोने का सुख खेलने के सुख की अपेक्षा निकट है इसी लिए खेलने का सुख की अपेक्षा सोने का सुख अधिक शुभ है । 4. दुष्टियता - एक सुख दूसरे सुख की अपेक्षा अधिक निशिचित एव नि-निश्देहात्मक होता है । उदा –सोने के सुख मे खेलने के सुख की अपेक्षा अधिक निशिचिता पाई जाती है । 5. उत्पादकता - जो सुख अन्य सुख को भी उत्पन्न करता है नैतिक दुष्टि से अधिक शुभ है । सोने के सुख की अपेक्षा खेलने का सुख अधिक शुभ है । 6. स्वच्छता - कुछ सुख जो के दुखो से मुक्त होते है उन्हे स्वच्छ सुख कहते है । और ऐसा सुख शुभ है । यहां सोने का सुख खेलने के सुख की अपेक्षा स्वच्छ रहेगा । 7. प्रशाद्न्ता - कुछ सुख ऐसे होते है जो ज्यादा लोगो को प्रभावित करते है । यहाँ पर खेलने का सुख सोने के सुख से ज्यादा शुभ है । बेन्थ्म का परिणमात्मक सुखवाद - सुखो के परिणाम को मापने के सिधान्त को प्रस्तुत कर बेन्थ्म यह स्वीकार करते है । की सुखो मे परिमाणत्मक भेद है । , गुणात्मक भेद नहीं है । उनके अनुसार गुणो की दुष्टि से सभी सुख एक समान होते है , इसीलिए परिणामो को देखना आवश्यक है । यह विचार बेन्थ्म निम्न यूक्ती द्वारा व्यक्त करते है । सुख का परिणाम समान होने पर भी पुस्पिन का खेल भी उतना ही अच्छा है जितना कविता पाठ इसका तात्पर्य यह है की कारण की दुष्टि से क्रीडा और कविता मे कोई अंतर नहीं है । यानि दो कृतियो द्वारा उत्पन्न होने वाले सुख का परिणाम अगर समान हो तो उन दोनों कृतियों की नैतिकता एक समान होती है । इस प्रकार से बेन्थ्म ने परिणाम को अपने सुखवाद मे महत्व दिया है । नैतिक अंकुश - परिणामात्मक सुखवाद स्पष्ट करते हुऐ बेन्थ्म नैतिक अंकुश का समर्थन करते है एक ओर बेन्थ्म मनुष्य को जन्मजात स्वार्थी मानते है । तथा दूसरी ओर मनुष्य को परार्थी भी कहते है । स्वार्थी होते हुए मनुष्य परार्थी कैसे हो सकता है । यह प्रश्न यहा उपस्थित होता है । इसका उत्तर देते हुए बेन्थ्म नैतिक अंकुश के सिधान्त की स्थापना करते है । यह अंकुश चार प्रकार के है । भैतिक अंकुश राजनैतिक अंकुश सामाजिक अंकुश धार्मिक अंकुश A. भौतिक अंकुश - भौतिक अंकुश या प्रकृतिक अंकुश इसका अर्थ है । की प्रकृति द्वार लगाया गया अंकुश इसके उलंघन से शारीरिक कष्ट होता है । प्रकृति मनुष्य को एक सीमा तक भोगने की शक्ति देता है । उससे ज्यादा भोगने लगे तो शारीरिक कष्ट होता है । इस शारीरिक कष्ट के भय से वैसे ही कष्ट होता है जैसे की ज्यादा भोजन से शारीरिक कष्ट होता है। इस अवस्था मे मनुष्य दूसरे को भोजन देता है और इस प्रकार से मनुष्य परर्थी बनता है । B. राजनैतिक अंकुश – हर व्यक्ति पर कुछ राजनैतिक नियमो से बंधा रहता है । जिसके उलंघन से उसे दण्ड मिलता है । राज्य के दण्ड के भाय से व्यक्ति परार्थी बन जाता है । C. सामाजिक अंकुश – सामाजिक अंकुश समाज के वे नियम है जिनको भंग करने से समाज मे बदनामी होती है । इनके विपरीत अच्छा काम करने पर समाज मे प्रतिष्ठा मिलती है अंत समाज के भय से व्यक्ति स्वार्थी होते हुऐ भी परार्थी बन जाता है । D. धार्मिक अंकुश – इनमे धर्मग्रंथो मे दिये गए नियम आते है । व्यक्ति इन नियमो पर विश्वास करता है । ईश्वर के द्वारा प्राप्त पाप या पुण्य के कारण याने धार्मिक दबाव के कारण व्यक्ति परार्थी बन जाता है । इस प्रकार बेन्थ्म ने आपने सुखवाद के शुरूआता मनोवैज्ञानिक सुखवाद से करते हुए परिणात्मक उपयोगितावाद को समर्थन किया याने स्वार्थ सुखवाद से परार्थ सुखवाद के तरफ बढ़ते हुए अपना सुखवाद स्पष्ट किया । आलोचना 1. सुखवाद – बेन्थ्म ने सुखवाद का पुरस्कार किया है और सुखवाद जड़वाद पर आधारित होने के कारण एक कमजोर सिधान्त बन गया है । जिसके कारण सार्वभोमिक सिद्धांत की स्थापना नहीं हो सकती है । 2. मनोवैज्ञानिक सुखवाद ---बेन्थ्म का सुखवाद आधार मनोवैज्ञानिक सुखवाद है अंत मनोवैज्ञानिक सुखवाद मे जो दोष है वे सभी बेन्थ्म के इस सिद्धांत मे भी विदयमान है । 3. नैतिक सुखवाद – बेन्थ्म मे मनोवैज्ञानिक सुखवाद को आधार मानकर नैतिक सुखवाद का पुरस्कार किया है लेकिन क्या है से क्या करना चाहिए ?यह हम नहीं बता सकते क्यो की नैतिकता पहले आती है याने की मूल्यो का विचार पहले करके तथ्यो के बारे मे सोचना चाहिए । 4. स्वार्थ से पारार्थ की तरफ कोई मार्ग नहीं है । स्वार्थ ओर पारर्थ नितांत विरोधी तत्व है । उसमे स्मन्वय कदापि स्थापित किया जा सकता है । 5. अधिकतम सुख का निर्माण असंभव है । अधिकतम सुख कीस प्रकार से निशिचय करे ? इसका निर्णय असंभव है क्यों की सुख आत्मा निष्ठा होता है कोई एक रोटी से सुखी होता है तो कोई चार रोटियो से 6. नैतिक अंकुश को नैतिकता कहना अनुचित है । कोई भी कार्य बाहरी दबाव से किया जाये तो वह नैतिक नही हो सकता और नैतिक अंकुश बाहरी दबावो के कारण किये गए नैतिकता का पालन है । 7. सुख का मापदंड अव्यवहरिक है । सुख आत्मनिष्ठा होता है । साथ ही साथ देश और काला के अनुकूल परिवर्तनशील भी होत है । एक ही कर्म एक परिस्थिति मे दुख देता है इसलिए इसका कोई मूल्यांकन नहीं है । 8. व्यापकता का आयाम उपयुक्त नहीं है । बेन्थ्म ने परिगणमाँ मे व्यापक को स्थान दे परर्थवादी बनने की चेष्ठा की है । लेकिन इस मापदंड का बलिदान देना पड़ता है । 9. सुख को भौतिक वस्तुओ की तरफ मापा नहीं जा सकता । सुख एक मानसिक तत्व होने के कारण किसे ठोस भौतिक वस्तु की तरह उसे मापा नहीं जा सकता है । 10. गुणात्मक भेद की कमी -- बेन्थ्म ने सुखो मे परिणाम को ज्यादा महत्व दिया है और गुणात्मक भेद को अस्वीकार किया है उनके तत्वज्ञान ये सबसे बड़ी गलती है । इसी के कारण उनका सुखवाद निकुष्ट सुखवाद कहलाता है जिसका कोई सिधान्त नहीं बन सकता । बेन्थम के निकृष्ट (मात्रात्मक) उपयोगितावादी नैतिक सुखवाद का एक सारणीबद्ध तत्व विवरण (हिंदी में) Description (in English) सिद्धांत का नाम निकृष्ट उपयोगितावादी नैतिक सुखवाद Quantitative Utilitarian Hedonism प्रवर्तक जेरेमी बेन्थम (Jeremy Bentham) Jeremy Bentham मुख्य उद्देश्य अधिकतम लोगों को अधिकतम सुख पहुँचाना Greatest happiness for the greatest number मूल विचार नैतिकता का मूल्यांकन कार्य के परिणाम से होता है Morality judged by consequences (Consequentialism) सुख का प्रकार मात्रात्मक (सभी सुख समान) Quantitative (All pleasures are equal) सुख का मापन (Hedonic Calculus) 1. तीव्रता (Intensity) 2. अवधि (Duration) 3. निश्चितता (Certainty) 4. निकटता (Propinquity) 5. उत्पादकता (Fecundity) 6. शुद्धता (Purity) 7. व्यापकता (Extent) 1. Intensity 2. Duration 3. Certainty 4. Propinquity 5. Fecundity 6. Purity 7. Extent प्रमुख आलोचना सुख की गुणवत्ता की अनदेखी (सभी सुख बराबर नहीं) Ignores quality of pleasures प्रतिक्रिया जॉन स्टुअर्ट मिल ने गुणात्मक उपयोगितावाद प्रस्तुत किया J.S. Mill proposed qualitative utilitarianism बेन्थ्म
- पैराडॉक्स क्या होता है ?
पैरामीटर परिभाषा पैराडॉक्स (Paradox) एक ऐसा कथन या स्थिति होती है जो दिखने में विरोधाभासी (contradictory) लगती है, लेकिन उसके पीछे कोई गहरी सच्चाई या तर्क छिपा होता है। यह अक्सर हमारी सामान्य समझ या तर्क शक्ति को चुनौती देता है।पैराडॉक्स, एक ऐसा शब्द है जो सोचने में कठिनाई पैदा करने वाले विचारों या वाक्यों को व्यक्त करता है। ये विचार या कथन एक विरोधाभास पैदा करते हैं, जो हमें गहराई से सोचने पर मजबूर करते हैं। पैराडॉक्स का इतिहास बहुत पुराना है और यह विभिन्न क्षेत्रों में देखने को मिलता है, जैसे कि विज्ञान, दर्शन और कानून। इस ब्लॉग पोस्ट में, हम पैराडॉक्स के अर्थ, उनके ऐतिहासिक संदर्भ, और कानून की दुनिया में इसके महत्व पर चर्चा करेंगे। साथ में, भारतीय कानून के कुछ मामलों का जिक्र करेंगे जो पैराडॉक्स की श्रेणी में आते हैं। अंत में, एक दिलचस्प कहानी के माध्यम से पैराडॉक्स को समझाएंगे। पैराडॉक्स क्या होता है? पैराडॉक्स वह कथन होता है जो दो विरोधाभासी बातें एक साथ कहता है , लेकिन उन पर गहराई से सोचने पर एक सच्चाई सामने आती है। उदाहरण: "मैं झूठ नहीं बोलता।"अगर यह कथन एक झूठा व्यक्ति कह रहा है, तो क्या वह सच कह रहा है या झूठ? पैराडॉक्स ऐसे कथन होते हैं जो पहले तो विरोधाभासी लगते हैं, लेकिन गहराई में जाने पर वे सही प्रतीत होते हैं। उदाहरण के लिए, "यह कथन झूठा है।" यदि यह सच है, तो यह झूठा होना चाहिए। लेकिन यदि यह झूठा है, तो यह सच है। पैराडॉक्स हमारे सोचने के तरीके को चुनौती देते हैं। वे हमें अपने पूर्वाग्रहों और धारणाओं पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर करते हैं। पैराडॉक्स का इतिहास पैराडॉक्स की अवधारणा प्राचीन यूनानी दर्शन में बहुत महत्वपूर्ण थी। ज़ेनो (Zeno of Elea) नामक दार्शनिक ने सबसे पहले कई प्रसिद्ध पैराडॉक्स दिए, जैसे: अकिलीज़ और कछुए का पैराडॉक्स: तेज दौड़ने वाला अकिलीज़ कभी धीरे चलने वाले कछुए को नहीं पकड़ सकता, अगर कछुए को थोड़ी बढ़त दी जाए। यह तर्क आम समझ के खिलाफ है लेकिन गणितीय विश्लेषण द्वारा सुलझाया जा सकता है।यह विचार बाद में गणित, तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र और अंततः कानून में भी आया। पैराडॉक्स का इतिहास प्राचीन ग्रीस से आरंभ होता है। विभिन्न दार्शनिकों ने पैराडॉक्स को अपने विचारों में शामिल किया, जिनमें ज़ेना का नाम प्रमुख है। ज़ेना ने कई पैराडॉक्स प्रस्तुत किए, जैसे "अखिलेश का दौड़ता तीर।" मध्य युग में, पैराडॉक्स धार्मिक और दार्शनिक चर्चाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन समयों में, कई दार्शनिकों ने पैराडॉक्स का उपयोग करके अपनी विचारधाराओं को साबित या चुनौती देने का प्रयास किया। आधुनिक युग में, पैराडॉक्स को तर्कशास्त्र और गणित में भी सम्मिलित किया गया है। गणितीय पैराडॉक्स जैसे बर्कली का पैराडॉक्स यह साबित करते हैं कि पैराडॉक्स किसी स्थिति या विचार को संशोधित कर सकते हैं। कानून की दुनिया में पैराडॉक्स का महत्व कानून की दुनिया में पैराडॉक्स महत्वपूर्ण होते हैं। वे हमारे न्यायिक सोचने के तरीके को चुनौती देते हैं। कई बार ऐसे मामले आते हैं, जहां नैतिकता और कानूनी प्रावधानों में टकराव होता है। नैतिकता बनाम कानून कई बार, एक कानूनी निर्णय नैतिकता के खिलाफ होता है। उदाहरण के लिए, 2020 में एक भारतीय न्यायालय ने एक हत्या के मामले में आरोपी को सजा दी, जबकि सबूतों की कमी थी। इसने सवाल उठाया कि क्या कानूनी प्रणाली हमेशा न्याय देती है। लघु अपील कुछ मामलों में, आरोपी का बचाव उस स्थिति में पैराडॉक्स बन जाता है, जहां आरोपी अपने खिलाफ साक्ष्य प्रस्तुत करता है। जैसे कि एक आरोपी जिसने तर्क दिया कि उसके द्वारा किए गए अपराध के कारक उसके खिलाफ नहीं, बल्कि समाज के खिलाफ हैं। भारतीय कानून में पैराडॉक्स के मामले भारतीय कानून में कई ऐसे मामले हैं जो पैराडॉक्स की श्रेणी में आते हैं। यहां कुछ प्रमुख उदाहरण दिए गए हैं: मथुरा बनाम राज्य यह मामला भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत आता है। मथुरा का मामला एक पैराडॉक्स का उदाहरण है, जहां एक महिला को न्याय मिलने के बजाय उसके चरित्र पर सवाल उठाए गए। यह सवाल अभी भी चर्चा का विषय है कि क्या समाज में महिलाओं को सही न्याय मिल रहा है। बृजकिशोर बनाम राज्य इस मामले में, आरोपी ने के खिलाफ बताए गए सबूतों का इस्तेमाल करते हुए अपनी स्थिति को स्पष्ट किया। यह एक उलझन भरी स्थिति है, जहां आरोपी ने अपने पक्ष में साक्ष्य प्रस्तुत किया, जो सामान्यतः अप्रत्याशित होता है। ADM Jabalpur v. Shivkant Shukla (Habeas Corpus Case, 1976) आपातकाल के दौरान नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए थे। कोर्ट ने कहा कि "आपातकाल के दौरान कोई भी नागरिक कोर्ट में अपनी गिरफ्तारी को चुनौती नहीं दे सकता।" यह एक पैराडॉक्स था: कानून की रक्षा के लिए बनाए गए कानूनों को ही कानून के नाम पर कुचल दिया गया। Kesavananda Bharati v. State of Kerala (1973) संसद संविधान संशोधित कर सकती है, लेकिन संविधान का मूल ढांचा (Basic Structure) नहीं बदल सकती। यह निर्णय भी एक प्रकार का पैराडॉक्स है, जहां "संविधान बदलने की शक्ति" और "संविधान की आत्मा" में टकराव है। Suresh Kumar Koushal v. Naz Foundation (2013) सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 377 (समलैंगिक संबंधों को अपराध बताने वाली धारा) संवैधानिक है। यहाँ नैतिकता, अल्पसंख्यक अधिकार और कानून की व्याख्या के बीच टकराव सामने आया — एक सामाजिक पैराडॉक्स। Shreya Singhal v. Union of India (2015) – धारा 66A IT Act धारा 66A के तहत पुलिस किसी को भी "आपत्तिजनक पोस्ट" डालने पर गिरफ्तार कर सकती थी। सुप्रीम कोर्ट ने इसे संविधान के अनुच्छेद 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) के विरुद्ध बताया और रद्द कर दिया। पैराडॉक्स: कानून समाज में शांति बनाए रखने के लिए बना था, लेकिन वह भय और सेंसरशिप का हथियार बन गया। Shayara Bano v. Union of India (2017) – Triple Talaq Case इस केस में "तीन तलाक" को असंवैधानिक घोषित किया गया। पैराडॉक्स: धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर होने वाली एक प्रथा, महिलाओं के मौलिक अधिकारों के खिलाफ गई।धर्म बनाम संविधान — एक गहरा कानूनी संघर्ष। Justice K.S. Puttaswamy v. Union of India (2017) – Privacy Case आधार कार्ड से जुड़ी निजता की बहस। पैराडॉक्स: राज्य की डेटा संग्रह करने की जरूरत (राष्ट्रीय सुरक्षा, लाभ वितरण) बनाम नागरिक की निजता का अधिकार। पैराडॉक्स एक कहानी द्वारा हम एक कहानी के माध्यम से पैराॉक्स की अवधारणा को समझते हैं: कहानी: "काले और सफेद का संघर्ष" एक समय की बात है, एक छोटे से गाँव में दो रंगों की शक्तियों का जलवा था: काला और सफेद। गाँव में काले रंग की विशेषता थी कि वह जिनसे मिलता, उन्हें असफल करता, जबकि सफेद रंग सफलता और खुशी का स्रोत था। गाँव में एक प्रतियोगिता आयोजित हुई, जहां सभी रंगों को आमंत्रित किया गया। काले रंग ने अपने साथी को चुनौती दी, "अगर तुम मुझसे हार गए, तो गाँव में सदा के लिए काले को मान्यता मिलेगी!" सफेद रंग ने इस चुनौती को स्वीकार किया, लेकिन एक हफ्ते बाद परिणाम जानने की शर्त रखी। काले रंग ने खुशी से चुनौती स्वीकार की। हफ्ते भर तक, दोनों रंग विचार करते रहे कि वे कैसे जीत सकते हैं। अंत में, प्रतियोगिता का दिन आया। परिणाम घोषित होते ही, सफेद रंग ने काले रंग को दिमागी खेल में हराने की कोशिश की। सफेद ने सकारात्मकता के साथ खेला। जब परिणाम आया, तो सफेद रंग जीत गया। काले रंग ने कहा, "यह असंभव है! मैं हमेशा जीतता हूँ!" सफेद रंग ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, "जीत का असली मतलब केवल प्रतिस्पर्धा में नहीं है, बल्कि अपने गुण और विचार से बाहर निकलने में भी होता है।" इस कहानी ने यह सिखाया कि पैराडॉक्स केवल प्रतियोगिता में नहीं होते, बल्कि जीवन के विभिन्न पहलुओं में भी प्रकट होते हैं। एक कहानी द्वारा पैराडॉक्स समझें: "न्याय का जाल" कहानी का नाम: "दोषी कौन?" एक राजा ने एक अनोखा कानून बनाया: “कोई भी व्यक्ति जो राज्य के दरवाज़े पर आए और सच बोले, उसे अंदर आने दिया जाएगा। लेकिन अगर वह झूठ बोले, तो उसे फांसी दी जाएगी।” एक दिन एक व्यक्ति आया और बोला, “मैं मरने आया हूँ।” अब राजा के गार्ड परेशान हो गए: अगर यह सच कह रहा है, तो उसे अंदर आने देना चाहिए — पर तब वह मरेगा नहीं। अगर यह झूठ कह रहा है, तो उसे फांसी देनी चाहिए — पर तब वह सच कहेगा। तो अब क्या करें? यह एक पैराडॉक्स है — एक ऐसा कथन जिसने कानून को स्थिर कर दिया ।अंततः राजा को नियम में बदलाव करना पड़ा, क्योंकि इस कथन ने कानून के दोनों विकल्पों को विफल कर दिया। कानूनी नैतिकता बनाम कानूनी प्रक्रिया का पैराडॉक्स "क्या हर कानूनी चीज़ नैतिक भी होती है?" कुछ मामलों में कानून का पालन करने से अन्याय हो सकता है। उदाहरण: अगर किसी ग़रीब महिला ने अपने बच्चों को खाना देने के लिए चोरी की, और कानून उसे सज़ा देता है — क्या न्याय हुआ या अन्याय? व्यक्तिगत अधिकार बनाम सामाजिक व्यवस्था जब किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता समाज के हितों से टकराती है। उदाहरण: सोशल मीडिया पर कोई ऐसा विचार रखना जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, लेकिन वो विचार समाज में अशांति फैलाए — क्या हम उसे बोलने दें या चुप कराएं? दार्शनिक रूप से कानून में पैराडॉक्स क्यों ज़रूरी हैं? पैराडॉक्स हमें यह दिखाते हैं कि: कानून जड़ नहीं है , उसे ज़रूरतों और परिस्थिति के अनुसार लचीला रहना चाहिए। कानून केवल नियम नहीं , बल्कि न्याय, नैतिकता और मानवता का मिश्रण है। अल्बर्ट आइंस्टीन का एक कथन है जो यहाँ खूब जमता है: "अगर कोई विचार शुरुआत में मूर्खतापूर्ण न लगे, तो वह उम्मीद के लायक नहीं।" अंतिम विचार इस ब्लॉग पोस्ट में, हमने पैराडॉक्स का अर्थ, उनके इतिहास, और कानून की दुनिया में उनके महत्व की चर्चा की। भारतीय कानून के मामलों में पैराडॉक्स की उपस्थिति पर भी ध्यान दिया गया है। अंत में, एक कहानी के जरिए हमने यह सीखा कि जीवन में सही और गलत का निर्णय लेना कुछ-कुछ एक पैराडॉक्स के समान होता है। पैराडॉक्स केवल विचारों का विरोधाभास नहीं होते; ये हमें सोचने और समझने के नए तरीके प्रदान करते हैं। हमें चाहिए कि हम इनसे सीखें और अपनी जिंदगी को और बेहतर बनाएं।पैराडॉक्स कानून की दुनिया में सोच की सीमा को परखने का काम करते हैं।ये जजों और वकीलों को यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या सिर्फ कानून का पालन पर्याप्त है, या न्याय का भी विचार जरूरी है ।कानून में पैराडॉक्स परिवर्तन का संकेत हैं। वे दिखाते हैं कि कानून यांत्रिक नहीं , बल्कि जीवंत और विकसित होने वाला है।भारतीय संविधान भी एक "जीवंत दस्तावेज़" है, जो समय और समाज के साथ बदलने की क्षमता रखता है — और पैराडॉक्स इस विकास के उत्प्रेरक होते हैं। पैराडॉक्स क्या होता है ?
- महाराष्ट्र और गुजरात विभाजन का इतिहास
भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास संस्कृति, भाषा और राजनीति के बदलते समीकरणों से प्रभावित रहा है। महाराष्ट्र और गुजरात का विभाजन 1960 में हुआ, जो इन दोनों राज्यों के नागरिकों के लिए एक महत्वपूर्ण घटना थी। यह विभाजन न सिर्फ प्रशासनिक आवश्यकताओं का परिणाम था, बल्कि यह एक सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान की खोज का भी प्रतीक था। महाराष्ट्र और गुजरात का विभाजन 1 मई 1960 को हुआ था, जिससे महाराष्ट्र और गुजरात दो अलग-अलग राज्य बने। यह विभाजन भाषाई आधार पर किया गया था और इसे "महाराष्ट्र-गुजरात विभाजन" या "बॉम्बे राज्य का पुनर्गठन" कहा जाता है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि आजादी के बाद, 1950 में भारत को विभिन्न राज्यों में विभाजित किया गया था। उस समय, बॉम्बे राज्य (Bombay State) एक बड़ा राज्य था, जिसमें वर्तमान महाराष्ट्र, गुजरात, और कुछ अन्य क्षेत्र शामिल थे। 1950 के दशक में, भारत में भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की माँग ज़ोर पकड़ रही थी। महाराष्ट्र और गुजरात के लोग चाहते थे कि उनकी भाषाओं के आधार पर अलग-अलग राज्य बनाए जाएं। महाराष्ट्र और गुजरात के बीच की राजनीतिक सीमाएं वाणिज्यिक और सांस्कृतिक परंपराओं से प्रभावित थीं। पहले, दोनों क्षेत्र एक ही प्रशासन के तहत थे। लेकिन समय के साथ, उनकी महत्वाकांक्षाएं और भाषाई पहचान विकसित होने लगीं। ब्रिटिश राज के दौरान, जब प्रशासनिक विभाजन की प्रक्रिया शुरू हुई, तब यह अलगाव बढ़ने लगा। लोगों के बीच पहचान की भावना गहरी होने लगी। संघर्ष और आंदोलन संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन – मराठी भाषी जनता चाहती थी कि मुंबई सहित महाराष्ट्र एक अलग राज्य बने। इस आंदोलन में कई बड़े नेता शामिल थे, जैसे एस. एम. जोशी, पी. के. अत्रे, और अच्युतराव पटवर्धन । महागुजरात आंदोलन – गुजराती भाषी लोग अपने अलग गुजरात राज्य की माँग कर रहे थे। इसमें इंद्रजीत खांडेराव मेहता और रविशंकर महाराज जैसे नेता शामिल थे। भाषा का महत्व भाषा ने हमेशा समाज को एकता और पहचान प्रदान की है। महाराष्ट्र में मराठी और गुजरात में गुजराती भाषाओं का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। 1956 में भारतीय राज्यों के पुनर्गठन के दौरान भाषाई आधार पर राज्य निर्माण की बहस ने इन राज्यों की पहचान को मजबूत किया। उदाहरण के लिए, गुजरात में गुजराती भाषा की मान्यता से संबंधित लोगों ने अपने लोक संस्कृतियों को संरक्षित रखने का एक मजबूत आंदोलन शुरू किया। इससे संख्याओं में लोगों की एकजुटता बढ़ी। इसी प्रकार, महाराष्ट्र में मराठी भाषा ने भी सांस्कृतिक जागरूकता को बढ़ावा दिया। विभाजन और नया राज्य निर्माण भारत सरकार ने इन मांगों पर विचार किया और 1 मई 1960 को बॉम्बे राज्य को दो भागों में विभाजित कर दिया : महाराष्ट्र (मराठी भाषी लोगों के लिए) गुजरात (गुजराती भाषी लोगों के लिए) मुंबई का मुद्दा मुंबई को महाराष्ट्र में शामिल करने को लेकर विवाद था, क्योंकि यह एक प्रमुख आर्थिक केंद्र था और कुछ लोग इसे केंद्र शासित प्रदेश बनाने की वकालत कर रहे थे। लेकिन व्यापक संघर्ष और आंदोलन के बाद मुंबई को महाराष्ट्र में शामिल कर दिया गया । 1960 का विभाजन 1960 में, केंद्र सरकार ने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का निर्णय लिया। 1 मई 1960 को लागू हुए इस विभाजन का उद्देश्य गुजराती और मराठी भाषी लोगों की संस्कृति और पहचान को संरक्षित करना था। यह निर्णय उन लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ, जो एक अलग पहचान की तलाश में थे। गुजरात गठन के पीछे का मुख्य उद्देश्य वहां के गुजराती भाषी लोगों की सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखना था, जबकि महाराष्ट्र का लक्ष्य मराठी भाषी समुदाय के लिए एक सक्षम प्रशासन निर्मित करना था। विभाजन के प्रभाव इस विभाजन का गहरा प्रभाव सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य में पड़ा। दोनों राज्यों ने अपने-अपने विकास के रास्ते चुने। आर्थिक विकास: विभाजन के बाद महाराष्ट्र और गुजरात 1960 में जब महाराष्ट्र और गुजरात को बॉम्बे राज्य से अलग करके स्वतंत्र राज्य बनाए गए, तब दोनों राज्यों की आर्थिक स्थिति और विकास की संभावनाएं काफी अलग थीं। विभाजन के बाद, दोनों राज्यों ने अपनी-अपनी आर्थिक नीतियों और संसाधनों के अनुसार विकास किया। 1. औद्योगिक विकास पहलू महाराष्ट्र गुजरात मुख्य उद्योग ऑटोमोबाइल, आईटी, फार्मास्युटिकल, फिल्म और मीडिया पेट्रोकेमिकल्स, फार्मास्युटिकल्स, टेक्सटाइल, डायमंड कटिंग प्रमुख शहर मुंबई, पुणे, नागपुर, नासिक अहमदाबाद, सूरत, वडोदरा, राजकोट औद्योगिक नीति सेवा और वित्तीय क्षेत्र पर केंद्रित व्यापार और विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) आधारित निष्कर्ष : महाराष्ट्र ने आईटी और वित्तीय क्षेत्र में अधिक प्रगति की, जबकि गुजरात ने व्यापार और उत्पादन आधारित उद्योगों को प्राथमिकता दी। 2. कृषि और ग्रामीण विकास पहलू महाराष्ट्र गुजरात कृषि उत्पाद गन्ना, कपास, सोयाबीन, चावल कपास, मूंगफली, बाजरा, तिलहन सिंचाई प्रणाली सीमित सिंचाई सुविधाएँ, विदर्भ में सूखा प्रभावित क्षेत्र सरदार सरोवर डैम और चेक डैम योजनाओं से जल उपलब्धता बढ़ी कृषि नीतियाँ सहकारी बैंक और चीनी मिलों का विकास आधुनिक तकनीक, ड्रिप सिंचाई और सूखा-रोधी खेती पर ध्यान निष्कर्ष : गुजरात ने जल प्रबंधन और कृषि तकनीकों में बेहतर सुधार किया, जबकि महाराष्ट्र में कृषि उत्पादन सहकारी व्यवस्था पर निर्भर रहा। 3. बुनियादी ढांचा और निवेश पहलू महाराष्ट्र गुजरात परिवहन मुंबई-पुणे एक्सप्रेसवे, मेट्रो, समृद्ध रेलवे नेटवर्क मुंद्रा और कांडला बंदरगाह, मजबूत सड़क और रेलवे नेटवर्क ऊर्जा ऊर्जा मांग अधिक, परंतु उत्पादन सीमित सौर और पवन ऊर्जा उत्पादन में अग्रणी निवेश मुंबई वित्तीय केंद्र होने के कारण विदेशी निवेश आकर्षित करता है 'वाइब्रेंट गुजरात समिट' जैसी पहल से निवेशकों को आकर्षित किया निष्कर्ष : गुजरात ने इंफ्रास्ट्रक्चर और व्यापारिक नीतियों को बेहतर रूप से विकसित किया, जबकि महाराष्ट्र का बुनियादी ढांचा मुख्य रूप से वित्तीय और सेवा क्षेत्र पर केंद्रित रहा। 4. सेवा क्षेत्र और आर्थिक योगदान पहलू महाराष्ट्र गुजरात वित्तीय केंद्र मुंबई – BSE, NSE, RBI और प्रमुख बैंक व्यापारिक और निर्यात केंद्र आईटी और स्टार्टअप पुणे और मुंबई आईटी हब स्टार्टअप संस्कृति उभर रही है, परंतु आईटी सेक्टर सीमित पर्यटन और मनोरंजन बॉलीवुड, पर्यटन केंद्र (अजंता-एलोरा, कोंकण) ऐतिहासिक स्थल (गिर, स्टैच्यू ऑफ यूनिटी) निष्कर्ष : महाराष्ट्र ने वित्त, मीडिया और आईटी उद्योग में तेजी से वृद्धि की, जबकि गुजरात व्यापार और निर्यात में अधिक मजबूत रहा। 5. आर्थिक प्रदर्शन पहलू महाराष्ट्र गुजरात सकल राज्य घरेलू उत्पाद (GSDP) ₹38.79 लाख करोड़ (2022-23) ₹22.61 लाख करोड़ (2022-23) औद्योगिक विकास दर 12-15% वार्षिक औसत 14-16% वार्षिक औसत रोज़गार सृजन मुख्य रूप से सेवा और उद्योग क्षेत्र औद्योगिक उत्पादन और छोटे व्यापार समग्र निष्कर्ष महाराष्ट्र : सेवा क्षेत्र, वित्त, आईटी और मनोरंजन उद्योगों में आगे रहा। मुंबई जैसे बड़े महानगरों के कारण इसकी अर्थव्यवस्था अधिक विविधतापूर्ण और मजबूत बनी। गुजरात : व्यापार, विनिर्माण, और बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में अग्रणी रहा। औद्योगिक नीतियों और ऊर्जा उत्पादन में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण रही। सांस्कृतिक पहचान का विकास विभाजन के उपरांत, महाराष्ट्र और गुजरात की सांस्कृतिक पहचान में वृद्धि हुई। महाराष्ट्र में पुणे, मुंबई और नासिक जैसे शहरों ने सांस्कृतिक और शैक्षणिक गतिविधियों का केंद्र बनने का कार्य किया। गुजरात के अहमदाबाद, सूरत और वडोदरा जैसे शहरों ने अपने ऐतिहासिक महत्व को बनाए रखा। Mumbai's skyline showcasing a blend of heritage and modernity राजनीतिक अस्थिरता हालांकि, विभाजन ने कुछ मायनों में राजनीतिक अस्थिरता को भी जन्म दिया। स्थानीय राजनीतिक दलों ने जातिवाद और भाषाई मुद्दों को उठाकर अपनी स्थिति को मजबूत करने का प्रयास किया। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र में शिवसेना जैसी पार्टियों का उदय हुआ, जबकि गुजरात में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने अपनी राजनीतिक पहचान स्थापित की। एकता की दिशा भले ही महाराष्ट्र और गुजरात के बीच विभाजन हुआ, लेकिन इसके बाद भी सांस्कृतिक और आर्थिक अंतर्संबंध बने रहे। दोनों राज्यों ने एक-दूसरे की परंपराओं, खाद्य संस्कृति, और त्योहारों को सम्मान देना जारी रखा है। वर्तमान संदर्भ समय के साथ, महाराष्ट्र और गुजरात के संबंधों में बहुत सुधार हुआ है। आज, दोनों राज्य एक-दूसरे के व्यापारिक, शैक्षणिक, और सांस्कृतिक स्थलों का आदान-प्रदान करते हैं। विभासिक अवसरों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से दोनों राज्यों के बीच अंतर्संबंध मजबूत हुए हैं, जिससे लोक व्यापार बढ़ा है और सांस्कृतिक गतिविधियों में भागीदारी भी। सारांश निष्कर्ष महाराष्ट्र और गुजरात का विभाजन भारत में भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की एक महत्वपूर्ण घटना थी। 1 मई को महाराष्ट्र दिवस और गुजरात दिवस के रूप में मनाया जाता है, जो इस ऐतिहासिक विभाजन की याद दिलाता है। महाराष्ट्र और गुजरात का विभाजन एक जटिल और बहुआयामी प्रक्रिया का परिणाम था, जिसने दोनों राज्यों की पहचान और विकास को प्रभावित किया। यह विभाजन विवाद और राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दे सकता है, लेकिन समय के साथ, दोनों राज्यों के बीच संबंधों में मजबूती आई है। आज महाराष्ट्र और गुजरात एक-दूसरे के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। उनकी सांस्कृतिक मूल्य एक-दूसरे में समाहित हो चुके हैं। विभाजन के बाद की यात्रा यह सिखाती है कि चाहे कितनी भी राजनीतिक या प्रशासनिक बाधाएं हों, सांस्कृतिक संबंध हमेशा बनाए रखा जा सकता है। A bustling street market in Ahmedabad showcasing local culture and entrepreneurship
- धर्मनिरपेक्षता की उत्पत्ति और विश्वव्यापी प्रभाव की खोज: एक ऐतिहासिक जांच
धर्मनिरपेक्षता, जिसे अंग्रेजी में secularism कहते हैं, एक करामाती सिद्धांत है जो धार्मिक स्वतंत्रता और मानव अधिकारों की रक्षा करता है। यह विचारधारा न केवल भारत, बल्कि सम्पूर्ण विश्व पर एक महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है। आधुनिक समाज में इसकी प्रासंगिकता को समझना आवश्यक है। धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा धर्मनिरपेक्षता एक ऐसा सिद्धांत है जो सुनिश्चित करता है कि राज्य और धर्म के बीच स्पष्ट अंतर हो। इसका मूल उद्देश्य सभी धर्मों के प्रति समानता और स्वतंत्रता को बढ़ावा देना है। धर्मनिरपेक्ष देशों में, सरकार धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करती और सभी धर्मों को समान अधिकार देती है। इसका मुख्य सिद्धांत यह है कि किसी भी व्यक्ति को उसके धार्मिक विश्वास के कारण भेदभाव का सामना नहीं करना चाहिए। जब समाज में हर किसी का धर्म को मानने या न मानने का समान अधिकार होता है, तो यह एक संतुलित समाज की नींव रखता है। धर्मनिरपेक्षता का इतिहास प्राचीन भारत प्राचीन भारत में धर्मनिरपेक्षता का विचार प्रारंभिक काल से ही विद्यमान था। उदाहरण के लिए, सम्राट अशोक के समय में विभिन्न धर्मों के प्रति सहिष्णुता का प्रचार किया गया। इससे यह स्पष्ट होता है कि भारत का इतिहास एक ऐसे सांस्कृतिक संगम का है, जहां हर धर्म को मान्यता प्राप्त थी। यूरोप का पुनर्जागरण 16वीं से 18वीं सदी के बीच यूरोप में पुनर्जागरण और धार्मिक संघर्षों ने धर्मनिरपेक्षता को एक नया आकार दिया। कई देशों में, जैसे कि फ्रांस और इंग्लैंड, लोगों ने धार्मिक विश्वासों से मुक्ति पाने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की दिशा में कदम बढ़ाए। यह एक ऐसा समय था जब लोग धार्मिक मामलों में सरकार के हस्तक्षेप के खिलाफ आवाज उठाने लगे। आधुनिक समय 20वीं सदी में, धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता मिली। विशेष रूप से, उन देशों में जहां धार्मिक भेदभाव में वृद्धि हो रही थी, जैसे कि पूर्वी यूरोप के कई देश। कई देशों ने अपने संविधान में धर्मनिरपेक्षता का समावेश किया, जैसे कि भारत, जिसने 1950 में अपने संविधान को लागू किया। धर्मनिरपेक्षता का महत्व धर्मनिरपेक्षता का सबसे बड़ा महत्व यह है कि यह समाज में मेल-मिलाप और सहिष्णुता को बढ़ावा देती है। इसके कई महत्वपूर्ण पहलू हैं: धार्मिक स्वतंत्रता : यह व्यक्तियों को अपने धार्मिक विश्वासों के अनुसार जीने की स्वतंत्रता देती है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में, धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का समर्थन करते हुए, 79 प्रतिशत नागरिक मानते हैं कि विभिन्न धर्मों के बीच सहिष्णुता आवश्यक है। समानता और न्याय : धर्मनिरपेक्षता सुनिश्चित करती है कि राज्य सभी धार्मिक समूहों के प्रति निष्पक्ष है। इसमें किसी एक धर्म को प्राथमिकता नहीं दी जाती। इसके चलते, भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार, हर नागरिक को समान अधिकार प्राप्त हैं। शिक्षा के क्षेत्र में सुधार : धर्मनिरपेक्षता शिक्षा क्षेत्र में धार्मिक पूर्वाग्रह को खत्म करने में मदद करती है। उदाहरण के लिए, स्कूलों में विभिन्न पृष्ठभूमियों के छात्रों के लिए तर्क और तर्कशक्ति पर जोर दिया जाता है। दुनिया के धर्मनिरपेक्ष देश वर्तमान में, कई देशों ने धर्मनिरपेक्षता को अपनाया है। इनमें प्रमुख देश शामिल हैं: फ्रांस : वहाँ का संविधान धर्मनिरपेक्षता का पालन करता है, जो सभी नागरिकों को अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता देने की अनुमति देता है। अमेरिका : यहाँ, धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत राज्य के कार्यों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। तुर्की : धर्मनिरपेक्षता को एक मूलभूत सिद्धांत माना जाता है, लेकिन यहाँ इसके कार्यान्वयन में चुनौतियाँ भी हैं। भारत : यहाँ के संविधान में धर्मनिरपेक्षता को अनुच्छेद 25 से 28 में परिभाषित किया गया है। यह नागरिकों को अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता देता है। धर्मनिरपेक्षता के उदाहरणों में संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा के अलावा ऑस्ट्रेलिया और अधिकांश यूरोपीय देश भी शामिल हैं। इन देशों ने स्पष्ट रूप से धार्मिक संस्थाओं को सरकारी कार्यों से अलग रखा है। चुनौतीपूर्ण परिदृश्य हालांकि, धर्मनिरपेक्षता सभी जगह सफल नहीं हो पाई है। कुछ देशों में, जैसे कि सऊदी अरब और अफगानिस्तान, धार्मिक कट्टरता और भेदभाव का सामना किया गया है। यहाँ तक कि कई देशों में धर्मनिरपेक्षता को अपनाने में विफलता देखी गई है, जिस कारण सामाजिक संघर्ष बढ़े हैं। धर्मनिरपेक्षता और मानवाधिकार जब मानवाधिकारों की बात आती है, तो धर्मनिरपेक्षता का महत्व और बढ़ जाता है। यह सिद्धांत कहता है कि किसी भी धार्मिक विश्वासों के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए। विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने, जैसे कि संयुक्त राष्ट्र, इस विचार पर जोर दिया है कि धर्मनिरपेक्षता मानवाधिकारों की रक्षा के लिए आवश्यक है। समाज की भलाई का आधार धर्मनिरपेक्षता एक ऐसा सिद्धांत है जो मानवता के लिए महत्वपूर्ण है। यह न केवल धार्मिक सहिष्णुता में योगदान देता है, बल्कि सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों की रक्षा भी करता है। धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा का विकास और वैश्विक प्रासंगिकता इस बात का संकेत देती है कि समाज के विकास के लिए यह कितना आवश्यक है। A diverse community gathering emphasizing secularism's essence धर्मनिरपेक्षता आज के संदर्भ में व्यक्तिगत स्वतंत्रता ही नहीं, बल्कि एक स्थायी और शांतिपूर्ण समाज के निर्माण का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। यह सभी मानवता के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है। भविष्य की संभावनाएँ धर्मनिरपेक्षता का भविष्य के लिए बढ़ना न केवल अन्याय के खिलाफ लड़ाई में महत्वपूर्ण है, बल्कि यह एक ऐसे विश्व की दिशा में इंगित करता है जहाँ सभी प्रजातियाँ, धर्म और संस्कृति का सम्मान किया जाएगा। इस विचार को अपनाने से समाज में समरसता और स्थिरता आएगी। लक्ष्य की ओर बढ़ते कदम धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को स्वीकृत करना और लागू करना एक वैश्विक आवश्यकता है। यह न केवल व्यक्तिगत विकास में मदद करता है, बल्कि इससे समाज में स्थिरता और गरिमा भी बढ़ती है। धर्मनिरपेक्षता को केवल एक विचार के रूप में नहीं, बल्कि एक जीवन के दृष्टिकोण के रूप में देखना चाहिए, जो सभी को एक साथ लाता है और हमारे समाज को एक नई दिशा देने का कार्य करता है।
- भारत में मुगल साम्राज्य का उत्थान और पतन
मुगल साम्राज्य भारत के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण साम्राज्यों में से एक था। कई शताब्दियों तक फैले इस साम्राज्य का भारतीय उपमहाद्वीप की संस्कृति, वास्तुकला और सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य पर गहरा प्रभाव पड़ा। इस संपादकीय में, हम मुगल साम्राज्य के उदय की समयरेखा, इसके पतन के कारणों और महत्वपूर्ण शासकों और उनके शासनकाल का पता लगाएंगे। भारत में मुगल साम्राज्य का आगमन मुगल साम्राज्य की स्थापना 1526 में बाबर ने की थी, जो तैमूर और चंगेज खान का वंशज था। उसने पानीपत की पहली लड़ाई में इब्राहिम लोदी को हराकर साम्राज्य की स्थापना की। यह जीत इसलिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि इसने भारत में लगभग तीन शताब्दियों के मुगल प्रभुत्व की शुरुआत की। बाबर की रणनीति में पारंपरिक युद्ध को नवीन रणनीति के साथ जोड़ा गया था। उसकी सेनाएँ अपेक्षाकृत छोटी थीं, लेकिन व्यवस्थित रूप से प्रशिक्षित थीं, और उसने युद्ध के मैदान में गतिशीलता पर ज़ोर दिया। उल्लेखनीय रूप से, उसने तोपखाने का उपयोग किया, जिसने उसे भारतीय शासकों की बड़ी लेकिन कम संगठित सेनाओं के खिलाफ़ काफ़ी फ़ायदा पहुँचाया। इस बिंदु से आगे, बाबर ने एक नए राजवंश की नींव रखी, जिसने न केवल सैन्य रणनीति बल्कि भारत में शासन, संस्कृति और वास्तुकला को भी प्रभावित किया। साम्राज्य का विस्तार अकबर मुगल राजवंश का सबसे उल्लेखनीय सम्राट अकबर था, जो 1556 में सिंहासन पर बैठा था। उसका शासन 1605 तक चला और इसे अक्सर मुगल साम्राज्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। अकबर ने सत्ता को मजबूत करने और सांस्कृतिक एकीकरण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से कई सुधार लागू किए। उन्होंने विभिन्न भारतीय राज्यों के साथ कूटनीति में शामिल होकर, स्थानीय राजकुमारियों से विवाह करके और धार्मिक सहिष्णुता की नीति शुरू करके एक एकीकृत साम्राज्य बनाने की कोशिश की। सुलह-ए-कुल के उनके दर्शन ने विभिन्न धर्मों के बीच शांति और सह-अस्तित्व की वकालत की। अकबर के अधीन, साम्राज्य का काफी विस्तार हुआ। उल्लेखनीय विजयों में गुजरात, बंगाल और दक्कन पठार के कुछ हिस्से शामिल थे। अकबर कला के अपने संरक्षण के लिए भी प्रसिद्ध हैं, जिससे मुगल चित्रकला और वास्तुकला का उत्कर्ष हुआ, जिसका प्रमाण शानदार फतेहपुर सीकरी का निर्माण है। जहाँगीर और शाहजहाँ अकबर के बाद, उनके बेटे जहाँगीर ने 1605 से 1627 तक शासन किया। जहाँगीर के शासनकाल में कला के प्रति प्रशंसा और फ़ारसी और भारतीय संस्कृति का निरंतर मिश्रण देखने को मिला। वह अपनी उदार नीतियों के लिए जाने जाते थे और अक्सर चित्रकला और कविता जैसे व्यक्तिगत हितों पर ध्यान केंद्रित करते थे। जहाँगीर के बाद शाहजहाँ का शासन आया, जो अपने स्मारकीय वास्तुशिल्प योगदानों के लिए प्रसिद्ध हैं, जिनमें सबसे उल्लेखनीय ताजमहल है। 1628 से 1658 तक का उनका शासन मुगल वास्तुकला में एक उच्च बिंदु माना जाता है। ताजमहल उनकी प्यारी पत्नी मुमताज महल की याद में बनाया गया था और यह प्रेम और सुंदरता का प्रतीक है। औरंगजेब मुगल साम्राज्य का अंतिम महत्वपूर्ण शासक औरंगजेब था, जिसने 1658 से 1707 तक शासन किया। शासन के प्रति उसका दृष्टिकोण अपने पूर्ववर्तियों से काफी अलग था। औरंगजेब ने साम्राज्य का विस्तार अपनी सबसे बड़ी सीमा तक किया, लेकिन वह अपनी रूढ़िवादी इस्लामी नीतियों और अकबर द्वारा समर्थित धार्मिक सहिष्णुता से अलग होने के लिए भी जाना जाता था। औरंगजेब के आक्रामक सैन्य अभियानों ने साम्राज्य के संसाधनों को खत्म कर दिया और विभिन्न धार्मिक समुदायों को अलग-थलग कर दिया। उनके शासनकाल को अक्सर साम्राज्य के पतन की शुरुआत के रूप में देखा जाता है, जिसने भविष्य के संघर्षों की नींव रखी। मुगल साम्राज्य के पतन के लिए जिम्मेदार कारक मुगल साम्राज्य का पतन अचानक नहीं हुआ, बल्कि यह कई कारकों से प्रभावित एक जटिल प्रक्रिया थी। आंतरिक संघर्ष और उत्तराधिकार संकट पतन के प्राथमिक कारणों में से एक आंतरिक संघर्ष था। 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद, साम्राज्य को महत्वपूर्ण उत्तराधिकार संकटों का सामना करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप कई कमजोर शासक बने। इन शासकों में अपने पूर्ववर्तियों के प्रशासनिक कौशल और सैन्य कौशल का अभाव था, जिसके कारण विखंडन हुआ और अधिकार का नुकसान हुआ। आर्थिक गिरावट मुगल साम्राज्य के विशाल क्षेत्रों को एक विश्वसनीय राजस्व प्रणाली की आवश्यकता थी; हालाँकि, अत्यधिक कराधान और भ्रष्टाचार ने अर्थव्यवस्था को कमजोर कर दिया। प्राकृतिक आपदाओं और उपेक्षा के कारण साम्राज्य की रीढ़, कृषि क्षेत्र में गिरावट आने लगी। क्षेत्रीय शक्तियों का उदय इसके साथ ही, क्षेत्रीय शक्तियों ने अपनी स्वतंत्रता का दावा करना शुरू कर दिया। मराठा, सिख और ब्रिटिश औपनिवेशिक हितों के उदय ने साम्राज्य को और भी खंडित कर दिया। विशेष रूप से मराठा साम्राज्य ने एक महत्वपूर्ण चुनौती पेश की, जो तेजी से विस्तार कर रहा था और मुगल अधिकार को कमजोर कर रहा था। ब्रिटिश उपनिवेश मुगल साम्राज्य के अंतिम पतन का पता ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बढ़ते प्रभाव से लगाया जा सकता है। शुरू में व्यापारियों के रूप में स्वागत किए जाने के बाद, उनकी बढ़ती शक्ति सैन्य टकरावों में परिणत हुई, जिसके परिणामस्वरूप अंततः भारत पर ब्रिटिश उपनिवेश स्थापित हो गया। एंग्लो-मैसूर युद्धों में मुगल सेना की निर्णायक हार और उसके बाद ब्रिटिश अधिग्रहण ने 1858 तक मुगल साम्राज्य को प्रभावी रूप से समाप्त कर दिया। मुगल साम्राज्य की विरासत अपने अंतिम पतन के बावजूद, मुगल साम्राज्य ने भारतीय समाज पर एक अमिट छाप छोड़ी। सांस्कृतिक योगदान साम्राज्य को उसके सांस्कृतिक योगदानों के लिए जाना जाता है, खास तौर पर वास्तुकला, चित्रकला और साहित्य में। लाल किला, हुमायूं का मकबरा और ताजमहल जैसी वास्तुकला की अद्भुत कलाकृतियाँ दुनिया भर से पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव केंद्रीकृत शासन पर मुगलों के जोर ने भारत में बाद की राजनीतिक संरचनाओं को प्रभावित किया। मुगल प्रशासन के कई पहलुओं, जिसमें नौकरशाही प्रणाली भी शामिल है, को भविष्य की सरकारों ने अपनाया। धार्मिक समन्वयवाद अकबर द्वारा शुरू की गई धार्मिक सहिष्णुता की नीति ने एक अनूठी भारतीय पहचान की नींव रखी जो विविधता का जश्न मनाती है। इस समन्वयवादी संस्कृति ने आधुनिक युग में भी भारतीय समाज को प्रभावित करना जारी रखा। A view of the Taj Mahal, a symbol of Mughal architecture and love. निष्कर्ष मुगल साम्राज्य भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय का प्रतिनिधित्व करता है, जो अपनी समृद्धि, सांस्कृतिक विविधता और शासन की जटिलताओं के लिए जाना जाता है। इसके उत्थान और पतन को समझना आज भारत के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। बाबर से लेकर औरंगजेब तक मुगल शासकों की विरासत, आकर्षण और विद्वानों की रुचि को जगाती है। जब कोई इस साम्राज्य पर विचार करता है, तो यह शक्ति, संस्कृति और पहचान के जटिल ताने-बाने की याद दिलाता है जो भारत को परिभाषित करता है। मुगल साम्राज्य की कहानी विजय और त्रासदी, चमक और पतन की कहानी है, जो एक सभ्यता की यात्रा को समेटे हुए है जिसने भारतीय इतिहास के पाठ्यक्रम को आकार दिया है। The Red Fort, an enduring symbol of Mughal architectural excellence.
- मुगल साम्राज्य का चरमोत्कर्ष और विघटन-I
मुगल साम्राज्य का चरमोत्कर्ष और विघटन-I शाहजहाँ के शासनकाल के अंतिम वर्ष उसके पुत्रों के बीच उत्तराधिकार के लिए भयंकर युद्ध से भरे हुए थे। मुसलमानों या तैमूरियों में उत्तराधिकार की कोई स्पष्ट परंपरा नहीं थी। शासक द्वारा उत्तराधिकार के अधिकार को कुछ मुस्लिम राजनीतिक विचारकों ने स्वीकार कर लिया था। इस प्रकार, गद्दी पर अपना दावा जताने से पहले सांगा को अपने भाइयों के साथ कड़ा संघर्ष करना पड़ा। 1657 के अंत में, शाहजहाँ दिल्ली में बीमार पड़ गया और कुछ समय के लिए उसका जीवन निराशाजनक हो गया, लेकिन उसने खुद को संभाला और दारा की प्रेमपूर्ण देखभाल में धीरे-धीरे अपनी ताकत वापस पा ली। इस बीच, तरह-तरह की अफ़वाहें फैल गई थीं। कहा जाता था कि शाहजहाँ की मृत्यु हो चुकी है और दारा अपने स्वार्थ के लिए सच्चाई को छिपा रहा है। कुछ समय बाद, शाहजहाँ धीरे-धीरे नाव से आगरा पहुँच गया। इस बीच, शहजादे, बंगाल में शुजा, गुजरात में मुराद और दक्कन में औरंगज़ेब, या तो इन अफ़वाहों को सच मान चुके थे या फिर उन पर विश्वास करने का नाटक कर रहे थे और उत्तराधिकार के अपरिहार्य युद्ध की तैयारी कर रहे थे। अपने बेटों के बीच संघर्ष को टालने के लिए उत्सुक, जो साम्राज्य के लिए विनाश का कारण बन सकता था, और अपने शीघ्र अंत की आशंका करते हुए, शाहजहाँ ने अब अपने सबसे बड़े बेटे दारा को अपना उत्तराधिकारी (वली-अहद) नामित करने का फैसला किया। उसने दारा के मनसब को 40,000 ज़ात से बढ़ाकर अभूतपूर्व दर्जा दे दिया। 60,000 की राशि। दारा को सिंहासन के बगल में एक कुर्सी दी गई, और सभी रईसों को निर्देश दिया गया कि वे दारा को अपने भावी शासक के रूप में मानें। लेकिन इन कार्यों ने शाहजहाँ की आशा के अनुसार सहज उत्तराधिकार सुनिश्चित करने के बजाय, अन्य राजकुमारों को शाहजहाँ की दारा के प्रति पक्षपात के बारे में आश्वस्त कर दिया। इस प्रकार इसने सिंहासन के लिए बोली लगाने के उनके संकल्प को मजबूत किया। औरंगजेब की अंतिम जीत की ओर ले जाने वाली घटनाओं का विस्तार से अनुसरण करना हमारे लिए आवश्यक नहीं है। औरंगजेब की सफलता के कई कारण थे। दारा द्वारा अपने विरोधियों को कम आंकना और विभाजित सलाह दारा की हार के लिए जिम्मेदार दो प्रमुख कारक थे। अपने बेटों की सैन्य तैयारियों और राजधानी पर चढ़ाई करने के उनके फैसले के बारे में सुनकर शाहजहाँ ने दारा के बेटे सुलेमान शिकोह के नेतृत्व में मिर्जा राजा जय सिंह की सहायता से एक सेना पूर्व की ओर भेजी थी, ताकि शुजा से निपटा जा सके जिसने खुद को ताज पहनाया था। एक और सेना जोधपुर के शासक राजा जसवंत सिंह के नेतृत्व में मालवा भेजी गई थी। मालवा पहुँचने पर जसवंत ने पाया कि उसका सामना औरंगज़ेब और मुराद की संयुक्त सेना से था। दोनों राजकुमार संघर्ष करने पर आमादा थे और उन्होंने जसवंत को एक तरफ़ खड़े होने के लिए आमंत्रित किया। जसवंत पीछे हट सकते थे, लेकिन पीछे हटना अपमानजनक मानते हुए उन्होंने लड़ने का फैसला किया, हालाँकि परिस्थितियाँ निश्चित रूप से उनके खिलाफ थीं। धर्मत में औरंगजेब की जीत (15 अप्रैल 1658) ने उसके समर्थकों का हौसला बढ़ाया और उसकी प्रतिष्ठा बढ़ाई, जबकि इससे दारा और उसके समर्थक हताश हो गए। इस बीच, दारा ने एक गंभीर गलती की। अपनी स्थिति की मजबूती पर अति-आत्मविश्वास में उसने पूर्वी अभियान के लिए अपनी कुछ बेहतरीन सेनाएँ नियुक्त कर दीं। इस प्रकार, उसने राजधानी आगरा को नष्ट कर दिया। सुलेमान शिकोह के नेतृत्व में सेना पूर्व की ओर बढ़ी और उसने अपना अच्छा प्रदर्शन किया। इसने बनारस के पास शुजा को चौंका दिया और उसे हरा दिया (फरवरी 1658)। इसके बाद इसने बिहार में उसका पीछा करने का फैसला किया- मानो आगरा का मामला पहले ही तय हो चुका था। धर्मत में हार के बाद, इन सेनाओं को आगरा वापस लौटने के लिए एक्सप्रेस लेटर भेजे गए। जल्दबाजी में एक संधि (7 मई 1658) करने के बाद, सुलेमान शिकोह ने पूर्वी बिहार में मुंगेर के पास अपने कैंप से आगरा की ओर कूच किया। लेकिन यह बहुत कम संभावना थी कि वह औरंगजेब के साथ संघर्ष के लिए समय पर आगरा लौट सके। धर्मात के बाद, दारा ने सहयोगियों की तलाश करने के लिए व्यग्र प्रयास किए। उसने जसवंत सिंह को बार-बार पत्र भेजे जो जोधपुर में सेवानिवृत्त हो चुके थे। उदयपुर के राणा से भी संपर्क किया गया। जसवंत सिंह धीरे-धीरे ~जमेर के पास पुष्कर चले गए। धन के साथ एक सेना खड़ी करने के बाद दारा द्वारा प्रदान की गई सेना के साथ, वह वहाँ राणा के उसके साथ आने की प्रतीक्षा कर रहा था। लेकिन राणा को औरंगजेब ने पहले ही 7000 की रैंक देने और चित्तौड़ के पुनः किलेबंदी पर विवाद के बाद 1654 में शाहजहाँ और दारा द्वारा जब्त किए गए परगने वापस करने के वादे के साथ जीत लिया था। औरंगजेब ने राणा को धार्मिक स्वतंत्रता और 'राणा सांगा के बराबर अनुग्रह' का वादा भी किया। इस प्रकार, दारा महत्वपूर्ण राजपूत राजाओं को भी अपने पक्ष में करने में विफल रहा। ·-- सतनुगढ़ की लड़ाई (29 मई 1658) - मूल रूप से एक अच्छी सेनापति की लड़ाई थी, दोनों पक्ष संख्या में लगभग बराबर थे (प्रत्येक पक्ष में लगभग 50,000 से 60,000)। इस क्षेत्र में, दारा औरंगजेब का मुकाबला नहीं कर सका। हाड़ा राजपूत और बारबा के सैयद, जिन पर दारा काफी हद तक निर्भर था, जल्दबाजी में भर्ती की गई सेना की कमज़ोरी की भरपाई नहीं कर सके! औरंगज़ेब की सेना युद्ध में कठोर थी और उसका नेतृत्व अच्छा था। औरंगजेब ने हमेशा यह दिखावा किया था कि आगरा आने का उसका एकमात्र उद्देश्य अपने बीमार पिता को देखना और उन्हें 'विधर्मी' दारा के नियंत्रण से मुक्त करना था। लेकिन औरंगजेब और दारा के बीच युद्ध एक ओर धार्मिक रूढ़िवाद और दूसरी ओर उदारवाद के बीच था। मुस्लिम और हिंदू दोनों ही सरदार दोनों प्रतिद्वंद्वियों के समर्थन में समान रूप से विभाजित थे। हम पहले ही प्रमुख राजपूत राजाओं के रवैये को देख चुके हैं। इस संघर्ष में, जैसा कि कई अन्य में होता है, सरदारों का रवैया उनके व्यक्तिगत हितों और व्यक्तिगत राजकुमारों के साथ उनके संबंधों पर निर्भर करता था। दारा की हार और भागने के बाद, शाहजहाँ को आगरा के किले में घेर लिया गया। औरंगजेब ने किले की जल आपूर्ति के स्रोत पर कब्जा करके शाहजहाँ को आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर किया। शाहजहाँ को किले के महिला कक्षों में कैद कर दिया गया था और उन पर कड़ी निगरानी रखी जाती थी, हालाँकि उनके साथ बुरा व्यवहार नहीं किया जाता था। वहाँ वे आठ वर्षों तक रहे - उनकी प्रिय पुत्री जहाँआरा ने उन्हें प्यार से पाला, जिन्होंने स्वेच्छा से किले के भीतर रहना चुना था। शाहजहाँ की मृत्यु के बाद वह फिर से लोक जीवन में लौट आईं और औरंगजेब ने उन्हें बहुत सम्मान दिया और उन्हें राज्य की प्रथम महिला का पद दिया। उसने उनकी वार्षिक पेंशन भी बारह लाख रुपये से बढ़ाकर सत्रह लाख रुपये कर दी। औरंगजेब और मुराद के बीच हुए समझौते की शर्तों के अनुसार, राज्य का बंटवारा दोनों के बीच होना था। लेकिन औरंगजेब का साम्राज्य साझा करने का कोई इरादा नहीं था। इसलिए, उसने मुराद को कैद कर लिया और उसे ग्वालियर जेल भेज दिया। दो साल बाद उसकी हत्या कर दी गई। सामूगढ़ में युद्ध हारने के बाद दारा लाहौर भाग गया था और अपने आस-पास के इलाकों पर नियंत्रण बनाए रखने की योजना बना रहा था। लेकिन औरंगज़ेब जल्द ही एक मजबूत सेना के साथ पड़ोस में आ पहुँचा। दारा का साहस जवाब दे गया। उसने बिना किसी लड़ाई के लाहौर छोड़ दिया और सिंध भाग गया। इस तरह, उसने लगभग अपनी किस्मत तय कर ली। हालाँकि यह दो साल से ज़्यादा समय तक चलता रहा, लेकिन इसका नतीजा बहुत बुरा रहा। मारवाड़ के शासक जसवंत सिंह के निमंत्रण पर दारा का सिंध से गुजरात और फिर अजमेर में जाना और उसके बाद के विश्वासघात के बारे में सब जानते हैं। अजमेर के पास देवड़ा की लड़ाई (मार्च 1659) दारा द्वारा औरंगज़ेब के खिलाफ लड़ी गई आखिरी बड़ी लड़ाई थी। दारा ईरान भाग सकता था, लेकिन वह अफगानिस्तान में फिर से अपनी किस्मत आजमाना चाहता था। रास्ते में बोलन दर्रे में एक विश्वासघाती अफगान सरदार ने उसे बंदी बना लिया और अपने खूंखार दुश्मन को सौंप दिया। न्यायविदों के एक पैनल ने फैसला सुनाया कि दारा को 'विश्वास और पवित्र कानून की रक्षा के लिए और राज्य के कारणों से और सार्वजनिक शांति के विध्वंसक के रूप में' जीवित रहने नहीं दिया जा सकता। यह उस तरीके की खासियत है जिसमें औरंगजेब ने अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए धर्म का इस्तेमाल किया। दारा की फांसी के दो साल बाद, उसके बेटे सुलेमान शिकोह, जिसने गढ़वाल के शासक के पास शरण ली थी, को उसने आक्रमण के आसन्न खतरे के कारण औरंगजेब को सौंप दिया। जल्द ही उसका भी वही हश्र हुआ जो उसके पिता का हुआ था। इससे पहले, औरंगजेब ने इलाहाबाद के पास खजवाह में शुजा को हराया था (दिसंबर 1658)। उसके खिलाफ आगे के अभियान की जिम्मेदारी मीर जुमला को सौंपी गई, जिसने लगातार दबाव डाला जब तक कि शुजा को भारत से बाहर अराकार्ट (अप्रैल 1660) में खदेड़ नहीं दिया गया। इसके तुरंत बाद, विद्रोह भड़काने के आरोप में उसे और उसके परिवार को अराकानियों के हाथों अपमानजनक मौत मिली। गृहयुद्ध ने साम्राज्य को दो साल से अधिक समय तक विचलित रखा, जिससे पता चला कि न तो शासक द्वारा नामांकन, न ही साम्राज्य के विभाजन की योजना सिंहासन के दावेदारों द्वारा स्वीकार की जाने की संभावना थी। सैन्य बल उत्तराधिकार के लिए एकमात्र मध्यस्थ बन गया और गृह युद्ध लगातार अधिक विनाशकारी होते गए। सिंहासन पर सुरक्षित रूप से बैठने के बाद, औरंगजेब ने भाइयों के बीच मौत तक युद्ध की कठोर मुगल प्रथा के प्रभावों को कुछ हद तक कम करने की कोशिश की। जहाँआरा बेगम के कहने पर, दारा के बेटे सिफिर शिकोह को 1673 में जेल से रिहा कर दिया गया, उसे मनसब दिया गया और उसकी शादी करा दी गई औरंगजेब की एक बेटी से। मुराद के बेटे इज्जत बख्श को भी रिहा कर दिया गया, उसे एक मनसब दिया गया और औरंगजेब की एक अन्य बेटी से उसकी शादी कर दी गई। इससे पहले, 669 में, दारा की बेटी जानी बेगम, जिसकी देखभाल जहाँआरा ने अपनी बेटी की तरह की थी, की शादी औरंगजेब के तीसरे बेटे मुहम्मद आज़म से हुई थी। औरंगजेब के परिवार और पराजित भाइयों के बच्चों और पोते-पोतियों के बीच कई अन्य विवाह हुए। इस प्रकार, तीसरी पीढ़ी में औरंगजेब और उसके पराजित भाइयों के परिवार एक हो गए। औरंगजेब का शासनकाल-उनकी धार्मिक नीति औरंगजेब ने अपने लंबे शासनकाल में बहुत समय तक शासन किया। मुगल साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया। अपने चरम पर यह उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में जिंजी तक और पश्चिम में इज्:दुकुश से लेकर पूर्व में चटगांव तक फैला हुआ था। औरंगजेब एक मेहनती शासक साबित हुआ और उसने शासन के कामों में खुद को या अपने अधीनस्थों को कभी नहीं बख्शा। उसके पत्रों से पता चलता है कि वह राज्य के सभी मामलों पर कितना ध्यान देता था। वह एक सख्त अनुशासनवादी था जिसने अपने बेटों को भी नहीं बख्शा। 1686 में उसने गोलकुंडा के शासक के साथ साज़िश करने के आरोप में राजकुमार मुअज्जम को कैद कर लिया और उसे 12 साल तक जेल में रखा। उसके अन्य बेटों को भी जेल में रहना पड़ा। औरंगजेब का इतना खौफ था कि अपने जीवन के आखिरी दिनों में भी जब मुअज्जम काबुल का गवर्नर था, तो वह कांप उठता था। हर बार जब उसे अपने पिता का पत्र मिलता था, जो उस समय दक्षिण भारत में थे। अपने पूर्ववर्तियों के विपरीत, औरंगजेब को दिखावा पसंद नहीं था। उनका निजी जीवन सादगी से भरा था। उन्हें एक रूढ़िवादी, ईश्वर से डरने वाले मुसलमान होने की प्रतिष्ठा प्राप्त थी। समय के साथ, उन्हें एक जिंदाबाद या 'जीवित संत' माना जाने लगा। हालांकि, इतिहासकारों में इस बारे में गहरी मतभेद है। एक शासक के रूप में औरंगज़ेब की उपलब्धियों के बारे में कुछ लोगों के अनुसार, उसने अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति को उलट दिया और इस तरह हिंदूओं की साम्राज्य के प्रति वफ़ादारी को कमज़ोर कर दिया। उनके अनुसार, इसके परिणामस्वरूप, लोकप्रिय विद्रोह हुए, जिसने साम्राज्य की जीवन शक्ति को कम कर दिया। उसके संदेहास्पद स्वभाव ने उसकी समस्याओं को और बढ़ा दिया, जिससे ख़फ़रख़ान के शब्दों में, 'उसके सभी उपक्रम लंबे समय तक चले' और विफलता में समाप्त हो गए। इतिहासकारों का एक और समूह सोचता है कि औरंगज़ेब को गलत तरीके से बदनाम किया गया है, कि हिंदुओं ने उसे धोखा दिया है। औरंगजेब के पूर्ववर्तियों की लापरवाही के कारण अतीरंगजेब विश्वासघाती हो गया था, इसलिए औरंगजेब के पास कठोर तरीके अपनाने और मुसलमानों को एकजुट करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, जिनके समर्थन पर साम्राज्य को लंबे समय तक टिके रहना था। हालाँकि, औरंगजेब पर शोध कार्यों में एक नई प्रवृत्ति उभरी है। इन कार्यों में, सामाजिक, आर्थिक और संस्थागत विकास के संदर्भ में अतीरंगजेब की राजनीतिक और धार्मिक नीतियों का आकलन करने का प्रयास किया गया है। उनके विश्वासों में रूढ़िवादी होने के बारे में कोई संदेह नहीं है। उन्हें दार्शनिक बहस या रहस्यवाद में कोई दिलचस्पी नहीं थी - हालाँकि वह कभी-कभी सूफी संतों से आशीर्वाद लेने के लिए जाते थे और उन्होंने अपने बेटों को सूफीवाद में शामिल होने से नहीं रोका। भारत में पारंपरिक रूप से अपनाए जाने वाले मुस्लिम कानून के हनफी स्कूल पर अपना रुख रखते हुए, औरंगजेब ने जवाबीत नामक धर्मनिरपेक्ष फरमान जारी करने में संकोच नहीं किया। उनके आदेशों और सरकारी नियमों और विनियमों का एक संग्रह ज़वाबित-ए-आलमगीरी नामक एक पुस्तक में एकत्र किया गया था। सैद्धांतिक रूप से, ज़वाबित शरिया का पूरक थे। हालाँकि, व्यवहार में, उन्होंने कभी-कभी भारत में मौजूद परिस्थितियों के मद्देनजर शरिया को संशोधित किया, जो शर्जा में प्रदान नहीं किया गया था। इस प्रकार, एक रूढ़िवादी मुसलमान होने के अलावा, औरंगजेब एक शासक भी था। वह इस राजनीतिक वास्तविकता को शायद ही भूल सकता था कि भारत की भारी आबादी हिंदू थी, और वे अपने धर्म से गहराई से जुड़े हुए थे। कोई भी नीति जिसका अर्थ हिंदुओं और शक्तिशाली हिंदू राजाओं और जमींदारों से पूर्ण अलगाव था, स्पष्ट रूप से अव्यवहारिक थी। औरंगजेब की धार्मिक नीति का विश्लेषण करते समय, हम सबसे पहले नैतिक और धार्मिक नियमों पर ध्यान दे सकते हैं। अपने शासनकाल की शुरुआत में, उसने सिक्कों पर कलमा लिखने पर रोक लगा दी- कहीं ऐसा न हो कि कोई सिक्का पैरों तले रौंदा जाए या हाथ से हाथ में जाते समय अपवित्र हो जाए। उसने नौरोज़ का त्यौहार बंद कर दिया क्योंकि इसे ईरान के सफ़वी शासकों द्वारा पसंद की जाने वाली एक पारसी प्रथा माना जाता था। सभी प्रांतों में मुहतसिब नियुक्त किए गए थे। इन अधिकारियों को यह देखने के लिए कहा गया था कि लोग शरिया के अनुसार अपना जीवन जिएँ। इस प्रकार, इन अधिकारियों का काम यह देखना था कि शराब और भांग जैसे नशीले पदार्थों का सार्वजनिक स्थानों पर सेवन न किया जाए। वे बदनाम घरों, जुआघरों आदि को नियंत्रित करने और वजन और माप की जाँच करने के लिए भी जिम्मेदार थे। दूसरे शब्दों में, वे यह सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार थे कि शरिया और ज़वाहित (धर्मनिरपेक्ष फरमान) द्वारा निषिद्ध चीजों का यथासंभव खुलेआम उल्लंघन न किया जाए। मुहतरियों की नियुक्ति करते समय औरंगजेब ने इस बात पर जोर दिया कि राज्य नागरिकों, विशेषकर मुसलमानों के नैतिक कल्याण के लिए भी जिम्मेदार है। लेकिन इन अधिकारियों को नागरिकों के निजी जीवन में हस्तक्षेप न करने का निर्देश दिया गया था। बाद में, अपने शासन के ग्यारहवें वर्ष (1669) में औरंगजेब ने कई कदम उठाए जिन्हें शुद्धतावादी कहा गया है। वे यह दिखाने के लिए किए गए थे कि सम्राट उन सभी प्रथाओं का विरोध करता है जो शरिया के अनुसार नहीं हैं या जिन्हें अंधविश्वास माना जा सकता है। कुछ कदम आर्थिक और सामाजिक प्रकृति के थे। इस प्रकार, उसने दरबार में गाने पर रोक लगा दी और आधिकारिक संगीतकारों को पेंशन दी गई। हालांकि, वाद्य संगीत और नौबत (तिल: न्ज़ियाल बैंड) जारी रहे। गायन को हरम की महिलाओं, राजकुमारों और व्यक्तिगत कुलीनों द्वारा संरक्षण दिया जाता रहा। जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, यह ध्यान देने योग्य बात है कि शास्त्रीय भारतीय संगीत पर सबसे अधिक फ़ारसी रचनाएँ औरंगज़ेब के शासनकाल में लिखी गई थीं और औरंगज़ेब स्वयं वीणा बजाने में निपुण था। इस प्रकार, औरंगज़ेब द्वारा विरोध करने वाले संगीतकारों को यह ताना मारना कि वे अपने साथ ले जा रहे संगीत के ताबूत को ज़मीन के नीचे गाड़ दें ताकि 'उसकी कोई प्रतिध्वनि फिर से न उठे' केवल एक नाराज़गी भरी टिप्पणी थी। औरंगजेब ने झरोखा दर्शन या बालकनी से जनता को अपने दर्शन कराने की प्रथा बंद कर दी क्योंकि वह इसे अंधविश्वासी और इस्लाम के विरुद्ध मानता था। इसी प्रकार, उसने बादशाह के जन्मदिन पर उसे सोने-चाँदी और अन्य वस्तुओं से तौलने की रस्म पर भी रोक लगा दी। यह प्रथा, जो स्पष्टतः अकबर के शासनकाल में शुरू हुई थी, व्यापक हो गई थी और छोटे सरदारों पर बोझ बन गई थी। लेकिन सामाजिक राय का भार बहुत अधिक था। औरंगजेब को अपने बेटों के लिए इस समारोह की अनुमति देनी पड़ी, जब वे बीमारी से ठीक हो गए। उसने ज्योतिषियों को पंचांग बनाने से मना किया। लेकिन शाही परिवार के सदस्यों सहित सभी ने इस आदेश का उल्लंघन किया। इसी प्रकार के कई अन्य नियम, कुछ नैतिक चरित्र के और कुछ तपस्या की भावना पैदा करने के लिए जारी किए गए थे। सिंहासन कक्ष को सस्ते और सरल शैली में सुसज्जित किया जाना था; डेर्क्स को चांदी के बजाय चीनी मिट्टी के स्याही-स्टैंड का उपयोग करना था; रेशम के कपड़ेजब दीवान-ए-आम में सोने की रेलिंग लगाई गई तो उसकी जगह सोने पर जड़े लाजवर्द की रेलिंग लगाई गई। यहां तक कि इतिहास लेखन का आधिकारिक विभाग भी अर्थव्यवस्था के उपाय के रूप में बंद कर दिया गया। मुसलमानों के बीच व्यापार को बढ़ावा देने के लिए, जो लगभग पूरी तरह से राज्य के समर्थन पर निर्भर थे, औरंगजेब ने पहले तो मुस्लिम व्यापारियों को माल के आयात पर उपकर के भुगतान से काफी हद तक छूट दी। लेकिन जल्द ही उसने पाया कि मुस्लिम व्यापारी इसका दुरुपयोग कर रहे थे, यहां तक कि हिंदू व्यापारियों के माल को अपना बताकर राज्य को धोखा दे रहे थे। इसलिए औरंगजेब ने मुस्लिम व्यापारियों पर उपकर फिर से लगा दिया, लेकिन इसे दूसरों से वसूले जाने वाले शुल्क का आधा ही रखा। इसी तरह, उसने पेशकार और करोड़ी (छोटे राजस्व अधिकारी) के पदों को मुसलमानों के लिए आरक्षित करने की कोशिश की, लेकिन जल्द ही उसे रईसों के विरोध और योग्य मुसलमानों की कमी के कारण इसमें बदलाव करना पड़ा। अब हम औरंगजेब के कुछ अन्य कदमों की ओर ध्यान आकर्षित कर सकते हैं जिन्हें भेदभावपूर्ण कहा जा सकता है और जो अन्य धर्मों को मानने वाले लोगों के प्रति कट्टरता की भावना दर्शाते थे। सबसे महत्वपूर्ण था औरंगजेब का मंदिरों के प्रति रवैया और जज़िया कर लगाना। अपने शासनकाल के आरंभ में औरंगजेब ने मंदिरों, आराधनालयों, चर्चों आदि के संबंध में शरा की स्थिति को दोहराया कि 'लंबे समय से बने मंदिरों को ध्वस्त नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन कोई नया मंदिर बनाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।' इसके अलावा, पुराने पूजा स्थलों की मरम्मत की जा सकती है 'क्योंकि इमारतें हमेशा के लिए नहीं टिक सकतीं।' यह स्थिति बनारस, वृंदावन आदि के ब्राह्मणों को जारी किए गए कई मौजूदा फरमानों में स्पष्ट रूप से बताई गई है। 1. मंदिरों के संबंध में औरंगजेब का आदेश कोई नया नहीं था। इसने सल्तनत काल के दौरान मौजूद सकारात्मकता की पुष्टि की और जिसे शाहजहाँ ने अपने शासनकाल के आरंभ में दोहराया था। व्यवहार में, इसने स्थानीय अधिकारियों को 'दीर्घकालिक मंदिर' शब्दों की व्याख्या के लिए व्यापक स्वतंत्रता दी। इस मामले में शासक की निजी राय और भावना भी अधिकारियों के साथ विचार करने के लिए बाध्य थी। उदाहरण के लिए, शाहजहाँ के पसंदीदा के रूप में उदारवादी विचारों वाले नर के उदय के बाद, नए मंदिरों पर रोक लगाने के उनके आदेश के अनुसरण में कुछ मंदिरों को ध्वस्त कर दिया गया था। औरंगजेब, जैसा किगुजरात के राज्यपाल ने गुजरात में कई मंदिरों को नष्ट करने का आदेश दिया। कई मामलों में, इसका मतलब था मूर्तियों को विकृत करना और मंदिरों को बंद करना। अपने शासनकाल की शुरुआत में, औरंगजेब ने पाया कि इनमें से कई मंदिरों में मूर्तियों को पुनर्स्थापित कर दिया गया था और मूर्ति पूजा फिर से शुरू हो गई थी। इसलिए, औरंगजेब ने 1665 में फिर से आदेश दिया कि इन मंदिरों को नष्ट कर दिया जाए। सोमनाथ का प्रसिद्ध मंदिर जिसे उसने अपने शासनकाल के शुरू में नष्ट करने का आदेश दिया था, जाहिर तौर पर ऊपर वर्णित मंदिरों में से एक था। . . . '. . . - . . . - ऐसा नहीं लगता है कि नए मंदिरों पर प्रतिबंध लगाने के औरंगजेब के आदेश के कारण शासनकाल की शुरुआत में बड़े पैमाने पर मंदिरों का विनाश हुआ। बाद में, जब औरंगजेब को मराठों, जाटों आदि जैसे कई वर्गों से राजनीतिक विरोध का सामना करना पड़ा, तो उसने दंड के उपाय और चेतावनी के रूप में लंबे समय से बने हिंदू मंदिरों को भी नष्ट करना उचित समझा। इसके अलावा, उसने मंदिरों को विध्वंसक विचारों को फैलाने के केंद्र के रूप में देखना शुरू कर दिया, यानी ऐसे विचार जो रूढ़िवादी तत्वों को स्वीकार्य नहीं थे। इस प्रकार, जब उसे 1669 में पता चला कि थट्टा, मुल्तान और विशेष रूप से बनारस के कुछ मंदिरों में हिंदू और मुसलमान दोनों ही ब्राह्मणों से शिक्षा लेने के लिए दूर-दूर से आते थे, तो उसने सख्त कार्रवाई की। औरंगजेब ने सभी प्रांतों के राज्यपालों को आदेश जारी किया कि वे ऐसी प्रथाओं को रोकें और उन मंदिरों को नष्ट करें जहाँ ऐसी प्रथाएँ होती थीं। इन आदेशों के परिणामस्वरूप, बनारस में विश्वनाथ का प्रसिद्ध मंदिर और मथुरा में केशव राय का मंदिर जैसे कई मंदिर नष्ट कर दिए गए, जिन्हें बीर सिंह देव बुंदेला ने जाँगीर के शासनकाल में बनवाया था और उनकी जगह मस्जिदें बनवा दी गईं। इन मंदिरों के विनाश का राजनीतिक प्रभाव भी पड़ा। · मआसिर-ए-आलमगीरी के लेखक मुस्तैद खान ने केसिलियावा रायबरेली के मंदिर की मृत्यु के संदर्भ में लिखा है, 'सम्राट के विश्वास की ताकत और ईश्वर के प्रति उनकी भक्ति की भव्यता के इस उदाहरण को देखकर, गर्वित राजा दब गए और आश्चर्यचकित होकर दीवार की ओर मुंह करके खड़े हो गए।'इसी संदर्भ में उड़ीसा में पिछले दस से बारह वर्षों में निर्मित कई मंदिरों को भी नष्ट कर दिया गया। लेकिन ऐसा नहीं लगता कि मंदिरों को नष्ट करने के कोई सामान्य आदेश थे। मुस्तैद खान, जिन्होंने अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत में औरंगजेब का इतिहास लिखा था और जो औरंगजेब के साथ निकटता से जुड़े थे, का दावा है कि औरंगजेब के आदेशों का उद्देश्य 'इस्लाम की स्थापना' करना था और सम्राट ने राज्यपालों को सभी मंदिरों को नष्ट करने और इन अविश्वासियों, यानी हिंदुओं के धर्म के सार्वजनिक अभ्यास पर प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया। यदि मुस्तैद खान का संस्करण सही था, तो इसका मतलब यह होगा कि औरंगजेब शरिया की स्थिति से बहुत आगे निकल गया, क्योंकि शरिया गैर-मुसलमानों को उनके धर्म का पालन करने से प्रतिबंधित नहीं करता था जब तक कि वे शासक के प्रति वफादार थे, आदि। न ही हमें मुस्तैद खान द्वारा सुझाए गए तरीकों पर राज्यपालों को कोई जवाब मिला है। हालाँकि, शत्रुता की अवधि के दौरान स्थिति अलग थी। इस प्रकार, 1679-80 के दौरान जब मारवाड़ के राठौरों और उदयपुर के राणा के साथ युद्ध की स्थिति थी, तो जोधपुर और उसके परगना और उदयपुर में कई पुराने मंदिर नष्ट कर दिए गए थे। मंदिरों के प्रति अपनी नीति में औरंगजेब भले ही औपचारिक रूप से शरिया के दायरे में रहा हो, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस मामले में उसका रुख उसके पूर्ववर्तियों द्वारा अपनाई गई व्यापक सहिष्णुता की नीति के लिए एक झटका था। इसने एक ऐसा माहौल बनाया कि किसी भी बहाने से मंदिरों को नष्ट करना न केवल क्षमा किया जाएगा बल्कि सम्राट द्वारा इसका स्वागत किया जाएगा। हालाँकि हमारे पास औरंगजेब द्वारा हिंदू मंदिरों और मठों को अनुदान देने के उदाहरण हैं, कुल मिलाकर, हिंदू मंदिरों के प्रति औरंगजेब की नीति से उत्पन्न माहौल हिंदुओं के बड़े वर्गों में बेचैनी पैदा करने वाला था। हालाँकि, ऐसा लगता है कि मंदिरों के विनाश के लिए औरंगजेब का उत्साह 1679 के बाद कम हो गया, क्योंकि हमें 1681 और 1707 में उसकी मृत्यु के बीच दक्षिण में मंदिरों के किसी भी बड़े पैमाने पर विनाश के बारे में नहीं सुनने को मिलता है। लेकिन अंतराल में एक नया उत्तेजक, जिज़िया या मतदान कर पेश किया गया था। हम पहले ही जज़िया की पृष्ठभूमि और अरब और तुर्की शासकों द्वारा भारत में इसके परिचय के बारे में बता चुके हैं। शरिया के अनुसार, मुस्लिम राज्य में, गैर-मुसलमानों के लिए जज़िया का भुगतान अनिवार्य (वाजिब) था। अकबर ने इसे उन कारणों से समाप्त कर दिया था, जिनका उल्लेख हमने किया है। हालाँकि, रूढ़िवादी धर्मशास्त्रियों का एक वर्ग जज़िया के पुनरुद्धार के लिए आंदोलन कर रहा था, ताकि धर्मशास्त्रियों सहित इस्लाम की श्रेष्ठ स्थिति सभी के सामने प्रकट हो सके। हमें बताया जाता है कि सिंहासन पर बैठने के बाद, औरंगज़ेब ने कई मामलों पर जज़िया को पुनर्जीवित करने पर विचार किया, लेकिन राजनीतिक विरोध के डर से ऐसा नहीं किया। अंततः, 1679 में, अपने शासनकाल के बाईसवें वर्ष में, उसने अंततः इसे फिर से लागू कर दिया। औरंगज़ेब के बारे में इतिहासकारों के बीच काफी चर्चा हुई है इस कदम के पीछे क्या कारण थे। आइए पहले देखें कि यह क्या नहीं था। इसका उद्देश्य हिंदुओं को इस्लाम में धर्मांतरित करने के लिए मजबूर करने के लिए आर्थिक दबाव डालना नहीं था, क्योंकि इसका प्रभाव हल्का था - महिलाएं, बच्चे, विकलांग और निर्धन, यानी जिनकी आय जीवनयापन के साधनों से कम थी, उन्हें छूट दी गई थी, जैसा कि सरकारी सेवा में थे। न ही, वास्तव में, हिंदुओं के किसी भी महत्वपूर्ण वर्ग ने इस कर के कारण पहले के समय में अपना धर्म बदला था। दूसरे, यह किसी कठिन वित्तीय स्थिति से निपटने का साधन नहीं था। हालाँकि कहा जाता है कि जिज़िया से होने वाली आय काफी थी, औरंगज़ेब ने बहुत सारे उपकरों को त्याग कर एक बड़ी राशि का त्याग किया था, जिन्हें अबवाब कहा जाता था, जिन्हें शरिया द्वारा अनुमोदित नहीं किया गया था और इसलिए उन्हें अवैध माना जाता था। हालाँकि, जिज़िया से मिलने वाला पैसा शाही खजाने में नहीं जाता था, बल्कि धार्मिक वर्गों द्वारा उपयोग के लिए निर्धारित किया जाता था। वास्तव में, जिज़्या की पुनः-स्थापना राजनीतिक और शास्त्रीय प्रकृति की थी। इसका उद्देश्य राज्य की रक्षा के लिए मुसलमानों को मराठों और राजपूतों के विरुद्ध संगठित करना था, जो हथियार उठा रहे थे, और संभवतः दक्कन के मुस्लिम राज्यों, विशेष रूप से गोलकुंडा के विरुद्ध, जो काफिर मराठों के साथ गठबंधन में था। इसके अलावा, जिज़्या ईमानदार, ईश्वर-भक्त मुसलमानों द्वारा एकत्र किया जाना था, जिन्हें विशेष रूप से इस उद्देश्य के लिए नियुक्त किया गया था, और इसकी आय उलेमा के लिए आरक्षित थी। इस प्रकार यह धर्मशास्त्रियों के लिए एक बड़ी रिश्वत थी, जिनके बीच बहुत अधिक बेरोजगारी थी। लेकिन इस कदम के संभावित लाभों की तुलना में नुकसान अधिक थे। हिंदुओं ने इसका कड़ा विरोध किया, जिन्होंने इसे भेदभाव का प्रतीक माना; इसके संग्रह के तरीके में कुछ नकारात्मक विशेषताएं भी थीं। करदाता को इसे व्यक्तिगत रूप से अदा करना पड़ता था और कभी-कभी इस प्रक्रिया में उसे धर्मशास्त्रियों के हाथों अपमानित होना पड़ता था। चूँकि ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि राजस्व के साथ-साथ जज़िया वसूला जाता था, इसलिए शहरों में रहने वाले संपन्न हिंदू इन प्रथाओं से अधिक प्रभावित थे। इसलिए, ऐसे कई अवसर आए जब हिंदू व्यापारियों ने अपनी दुकानें बंद कर दीं और इस उपाय के खिलाफ हड़ताल की। इसके अलावा, बहुत भ्रष्टाचार था और कई मामलों में, जज़िया वसूलने वाले को मार दिया गया। लेकिन औरंगज़ेब किसानों को जज़िया के भुगतान में छूट देने के लिए अनिच्छुक था, तब भी जब प्राकृतिक आपदाओं के कारण भूमि राजस्व में छूट दी जानी थी। अंततः उन्हें 1705 में 'दक्षिण में युद्ध की अवधि के लिए' जजिया को निलंबित करना पड़ा (जिसका कोई अंत नहीं दिख रहा था)। यह शायद ही उनके जीवन को प्रभावित कर सका। मराठों के साथ बातचीत। धीरे-धीरे पूरे देश में जजिया का प्रचलन बंद हो गया। इसे औपचारिक रूप से 1712 में औरंगजेब के उत्तराधिकारियों ने खत्म कर दिया। कुछ आधुनिक लेखकों का मानना है कि औरंगजेब के कदम भारत को दोर-उल-हरब या काफिरों की भूमि से दार-उल-इस्लाम या मुसलमानों द्वारा बसाए गए देश में बदलने के लिए थे। लेकिन इसका कोई आधार नहीं है, वास्तव में, जिस राज्य में इस्लाम के कानून लागू होते हैं और जहां शासक मुसलमान होता है, वह दार-उल-इस्लाम होता है। ऐसी स्थिति में, जो हिंदू मुस्लिम शासक के अधीन हो जाते हैं और जजिया देने के लिए सहमत हो जाते हैं, वे शरिया के अनुसार ज़िम्मी या संरक्षित लोग होते हैं। इसलिए, भारत में राज्य को तुर्कों के आगमन के बाद से ही दार-उल-इस्लाम माना जाता था। यहां तक कि जब मराठा जनरल महादजी सिंधिया ने 1772 में दिल्ली पर कब्जा कर लिया और मुगल बादशाह उनके हाथों की कठपुतली बन गए, तब भी धर्मशास्त्रियों ने फैसला सुनाया कि राज्य दार-उल-इस्लाम बना रहेगा क्योंकि इस्लाम के कानून लागू रहेंगे और सिंहासन पर एक मुसलमान का कब्जा होगा। हालांकि औरंगजेब ने इस्लाम में धर्मांतरण को बढ़ावा देना वैध माना, लेकिन जबरन धर्मांतरण के व्यवस्थित या बड़े पैमाने पर प्रयासों के सबूतों की कमी है। 1 हिंदू कुलीनों के साथ भेदभाव भी नहीं किया गया। हाल ही में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि औरंगजेब के शासनकाल के उत्तरार्ध में कुलीन वर्ग में हिंदुओं की संख्या लगातार बढ़ती गई, जब तक कि मराठों सहित हिंदुओं की संख्या शाहजहाँ के अधीन एक-चौथाई के मुकाबले कुलीन वर्ग का लगभग एक-तिहाई नहीं हो गई। एक अवसर पर, औरंगजेब ने एक याचिका पर लिखा जिसमें धार्मिक आधार पर दावा किया गया था कि 'धर्म के साथ सांसारिक मामलों का क्या संबंध और क्या अधिकार है? और धर्म के मामलों में कट्टरता में प्रवेश करने का क्या अधिकार है? तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म है, मेरे लिए मेरा है। यदि यह नियम (तुम्हारे द्वारा सुझाया गया) स्थापित हो जाता तो मेरा कर्तव्य होता कि मैं सभी (हिंदू) राजाओं और उनके अनुयायियों को नष्ट कर देता। इस प्रकार, औरंगजेब का प्रयास राज्य की प्रकृति को बदलने के लिए इतना नहीं था, बल्कि इसके मूल रूप से इस्लामी चरित्र को फिर से स्थापित करना था। औरंगजेब की धार्मिक मान्यताओं को उसकी राजनीतिक नीतियों का आधार नहीं माना जा सकता। जबकि एक रूढ़िवादी मुसलमान के रूप में वह कानून के सख्त पत्र को बनाए रखने के इच्छुक थे, एक शासक के रूप में वह इसके लिए उत्सुक थे।साम्राज्य को मजबूत और विस्तारित करना। इसलिए, वह हिंदुओं का समर्थन यथासंभव खोना नहीं चाहता था। हालाँकि, एक ओर उसके धार्मिक विचार और विश्वास, और दूसरी ओर उसकी राजनीतिक या सार्वजनिक नीतियाँ, कई मौकों पर एक-दूसरे से टकराती थीं, जिससे औरंगज़ेब को मुश्किल विकल्पों का सामना करना पड़ता था। कभी-कभी इसने उसे विरोधाभासी नीतियों को अपनाने के लिए प्रेरित किया, जिससे साम्राज्य को नुकसान पहुँचा। https://hi.lawtool.net/
- मराठों का उदय
मराठों का उदय हम पहले ही देख चुके हैं कि अहमदनगर और अजमेर की प्रशासनिक और सैन्य व्यवस्था में मराठों की महत्वपूर्ण स्थिति थी, और मुगलों के दक्कन की ओर बढ़ने के साथ ही सरकारी मामलों में उनकी शक्ति और प्रभाव बढ़ गया था। दक्कनी सुल्तानों और मुगलों दोनों ने उनका समर्थन पाने की कोशिश की, और मलिक अंबर ने उन्हें अपनी सेना में बड़ी संख्या में सहायक के रूप में इस्तेमाल किया। हालाँकि कई प्रभावशाली मराठा परिवार-मोरे, घाटगे, निंबालकर आदि ने कुछ क्षेत्रों में स्थानीय अधिकार का प्रयोग किया, लेकिन मराठों के पास राजपूतों की तरह कोई बड़ा, अच्छी तरह से स्थापित राज्य नहीं था। इतना बड़ा राज्य स्थापित करने का श्रेय शाहजी भोंसले और उनके बेटे शिवाजी को जाता है। जैसा कि हमने देखा है, कुछ समय के लिए शाहजी ने अहमदनगर में किंगमेकर की भूमिका निभाई और मुगलों को चुनौती दी। हालाँकि, 1636 की संधि के द्वारा शाहजी ने अपने प्रभुत्व वाले क्षेत्रों को छोड़ दिया। वह बीजापुर की सेवा में शामिल हो गए और अपनी ऊर्जा कर्नाटक में लगा दी। यह शिवाजी द्वारा पूना के आसपास एक बड़ी रियासत बनाने के प्रयास की पृष्ठभूमि बनाता है। शिवाजी का आरंभिक जीवन शाहजी ने पूनाजागीर को अपनी उपेक्षित वरिष्ठ पत्नी जीजाबाई और अपने नाबालिग बेटे शिवाजी के लिए छोड़ दिया था। शिवाजी ने अपनी योग्यता तब दिखाई जब 18 वर्ष की छोटी सी उम्र में उन्होंने पूना के निकट कई पहाड़ी किलों पर विजय प्राप्त की।164-47 के वर्षों में राजगढ़, कोंडाना और तोमा पर विजय प्राप्त की। 1647 में अपने संरक्षक दादाजी कोंडादेव की मृत्यु के बाद, शिवाजी अपने स्वामी बन गए और अपने पिता की जागीर का पूरा नियंत्रण उनके पास आ गया। शिवाजी ने विजय का अपना वास्तविक करियर 1656 में शुरू किया जब उन्होंने मराठा प्रमुख चंद्र राव मोरे से जावली पर विजय प्राप्त की। जावली राज्य और मोरे का संचित खजाना महत्वपूर्ण था । जावली की विजय ने उन्हें निर्विवाद रूप से शासक बना दिया। मावला क्षेत्र या पहाड़ी इलाकों पर कब्ज़ा कर लिया और सतारा क्षेत्र और तटीय पट्टी, कोंकण तक अपना रास्ता खोल दिया। मावली पैदल सैनिक उसकी सेना का एक मज़बूत हिस्सा बन गए। उनकी मदद से उसने पूना के पास पहाड़ी किलों की एक और श्रृंखला हासिल करके अपनी स्थिति मज़बूत कर ली। 1657 में बीजापुर पर मुग़ल आक्रमण ने शिवाजी को बीजापुरी प्रतिशोध से बचाया। शिवाजी ने पहले औरंगज़ेब के साथ बातचीत की, फिर पाला बदला और मुग़ल इलाकों में गहरी पैठ बनाई, और भरपूर लूट हासिल की। जब औरंगज़ेब ने गृहयुद्ध की तैयारी के लिए नए बीजापुर शासक के साथ समझौता किया, लेकिन उसने शिवाजी पर भरोसा नहीं किया और बीजापुर शासक को सलाह दी कि वह उसे उस बीजापुरी क्षेत्र से निकाल दे, जिस पर उसने कब्ज़ा किया था और अगर वह उसे काम पर रखना चाहता था, तो उसे कर्नाटक में मुग़ल सीमाओं से दूर काम पर रखे। औरंगज़ेब के दूर होने के बाद उत्तर में, शिवाजी ने बीजापुर की कीमत पर विजय अभियान फिर शुरू किया। वह घाट और समुद्र के बीच की तटीय पट्टी में घुस गया और उसके उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया। उसने कई अन्य पहाड़ी किलों पर भी कब्ज़ा कर लिया। अब बीजापुर ने कठोर कार्रवाई करने का फैसला किया। इसने शिवाजी के खिलाफ एक प्रमुख बीजापुरी सरदार अफजल खान को 10,000 सैनिकों के साथ भेजा और उसे किसी भी तरह से उसे पकड़ने का निर्देश दिया। उन दिनों विश्वासघात आम बात थी और अफजल खान और शिवाजी दोनों ने कई मौकों पर विश्वासघात का सहारा लिया था। शिवाजी की सेनाएं खुली लड़ाई की आदी नहीं थीं और इस शक्तिशाली सरदार के साथ खुली लड़ाई से कतराती थीं। अफजल खान ने शिवाजी को व्यक्तिगत मुलाकात के लिए निमंत्रण भेजा और बीजापुरी दरबार से उन्हें माफ़ी दिलाने का वादा किया। यह मानते हुए कि यह एक जाल था, शिवाजी तैयार होकर गए और खान की हत्या कर दी (1659) एक चालाक लेकिन साहसी तरीके से। शिवाजी ने अपनी नेतृत्वहीन सेना को खदेड़ दिया और उसके सामान और उपकरणों सहित उसके तोपखाने पर कब्ज़ा कर लिया। जीत से उत्साहित, मराठा सैनिकों ने पन्हाला के शक्तिशाली किले पर कब्ज़ा कर लिया और दक्षिण कोंकण और कोल्हापुर जिलों में व्यापक विजय प्राप्त की। शिवाजी के कारनामों ने उन्हें एक महान व्यक्ति बना दिया। उनकी प्रसिद्धि बढ़ती गई और उन्हें जादुई शक्तियों का श्रेय दिया जाने लगा। मराठा क्षेत्रों से लोग उनकी सेना में शामिल होने के लिए उनके पास आते थे; यहाँ तक कि अफ़गान भाड़े के सैनिक भी, जो पहले बीजापुर की सेवा में थे, उनकी सेना में शामिल हो गए। इस बीच, औरंगज़ेब मुग़ल सीमाओं के इतने नज़दीक मराठा शक्ति के उदय पर नज़र रख रहा था। औरंगज़ेब ने दक्कन के नए मुग़ल गवर्नर शाइस्ता ख़ान को, जो औरंगज़ेब से विवाह के रिश्ते से जुड़ा था, शिवाजी के क्षेत्रों पर आक्रमण करने का निर्देश दिया। शुरू में, युद्ध शिवाजी के लिए बुरा रहा। शाइस्ता ख़ान ने पूना (1660) पर कब्ज़ा कर लिया और उसे अपना मुख्यालय बना लिया। फिर उसने शिवाजी से कोंकण का नियंत्रण छीनने के लिए टुकड़ियाँ भेजीं। शिवाजी के लगातार हमलों के बावजूद; और मराठा रक्षकों की बहादुरी के कारण मुगलों ने उत्तरी कोरिकन पर अपना नियंत्रण सुरक्षित कर लिया। एक कोने में धकेल दिए जाने पर शिवाजी ने एक साहसिक कदम उठाया। उन्होंने पूना में शाइस्ता खान के शिविर में घुसपैठ की और रात में खान के हरम में हमला किया (1663), उनके बेटे और उनके एक कप्तान को मार डाला और खान को घायल कर दिया। इस साहसी हमले ने खान को अपमानित किया और शिवाजी का कद फिर से बढ़ गया। गुस्से में औरंगजेब ने शाइस्ता खान को बंगाल स्थानांतरित कर दिया, यहां तक कि स्थानांतरण के समय उसे एक साक्षात्कार देने से भी मना कर दिया, जैसा कि प्रथा थी। इस बीच, शिवाजी ने एक और साहसिक कदम उठाया। उन्होंने सूरत पर हमला किया, जो कि प्रमुख मुगल बंदरगाह था, और उसे जी भरकर लूटा (1664), और खजाने से लदे घर लौट आए। पुरंदर की संधि और शिवाजी की आगरा यात्रा शाइस्ता खान की विफलता के बाद, औरंगजेब ने शिवाजी से निपटने के लिए अंबर के राजा जय सिंह को नियुक्त किया, जो औरंगजेब के सबसे भरोसेमंद सलाहकारों में से एक थे। जय सिंह को पूर्ण सैन्य और प्रशासनिक अधिकार दिए गए ताकि वह किसी भी तरह से दक्कन में मुगल वायसराय पर निर्भर न रहे और सीधे सम्राट से निपटे।अपने पूर्ववर्तियों के विपरीत, जय सिंह ने मराठों को कम नहीं आंका। उन्होंने सावधानीपूर्वक कूटनीतिक और सैन्य तैयारी की। उन्होंने शिवाजी के सभी प्रतिद्वंद्वियों और विरोधियों से अपील की और यहां तक कि शिवाजी को अलग-थलग करने के लिए बीजापुर के सुल्तान को अपने पक्ष में करने की कोशिश की। पूना की ओर मार्च करते हुए जय सिंह ने शिवाजी के प्रदेशों के मध्य में हमला करने का फैसला कियापुरंदर किला जहाँ शिवाजी ने अपने परिवार और अपने खजाने को रखा था।जय सिंह ने पुरंदर (1665) को घेर लिया और सभी मराठाओं को हरा दियाकिले के गिरने की आशंका और किसी भी तरफ से राहत की संभावना न होने पर शिवाजी ने जय सिंह के साथ बातचीत शुरू की। कठिन सौदेबाजी के बाद निम्नलिखित शर्तों पर सहमति बनी: (i) शिवाजी के कब्जे वाले 35 किलों में से 23 किले और उनके आसपास का इलाका, जिससे हर साल चार लाख हून का राजस्व मिलता था, मुगलों को सौंप दिए गए, जबकि बाकी 12 किले, जिनसे सालाना एक लाख हून का राजस्व मिलता था, शिवाजी को 'सिंहासन के प्रति सेवा और वफादारी की शर्त पर' दिए गए। (ii) बीजापुरी कोंकण में चार लाख हून प्रति वर्ष का इलाका, जिस पर शिवाजी का पहले से ही कब्जा था, उन्हें दे दिया गया। इसके अलावा, बीजापुर का इलाका, जिसकी कीमत पांच लाख हून प्रति वर्ष थी, जो ऊंचे इलाकों (बालाघाट) में था, जिस पर शिवाजी को विजय प्राप्त करनी थी, भी उन्हें दे दिया गया। इसके बदले में उसे मुगना को 40 लाख रुपये किश्तों में देने थे। शिवाजी ने व्यक्तिगत सेवा से छूट मांगी। इसलिए, उनके स्थान पर उनके नाबालिग बेटे संभाजी को 5000 का मनसब प्रदान किया गया। हालाँकि, शिवाजी ने दक्कन में किसी भी मुगल अभियान में व्यक्तिगत रूप से शामिल होने का वादा किया। जय सिंह ने चतुराई से शिवाजी और बीजापुर शासक के बीच विवाद का मुद्दा खड़ा कर दिया। लेकिन जय सिंह की योजना की सफलता इस बात पर निर्भर थी कि मुगलों ने बीजापुर क्षेत्र से शिवाजी को जो कुछ दिया था, उसकी भरपाई करने के लिए मुगलों का समर्थन किया होता। यह घातक दोष साबित हुआ। औरंगजेब ने शिवाजी के बारे में अपनी शंकाएँ अभी भी दूर नहीं की थीं, और बीजापुर पर मुगल-मराठा संयुक्त हमले की बुद्धिमत्ता पर संदेह कर रहा था। लेकिन जय सिंह के विचार बड़े थे। उन्होंने शिवाजी के साथ गठबंधन को बीजापुर और पूरे दक्कन की विजय का प्रारंभिक बिंदु माना। और एक बार ऐसा हो जाने के बाद, शिवाजी के पास कोई विकल्प नहीं रह जाता। औरंगजेब को लिखा, 'हम शिवाजी को घेरे रहेंगे, जैसे कि एक वृत्त के बीच में घेरा गया हो।' हालांकि, बीजापुर के खिलाफ मुगल-मराठा अभियान विफल रहा। शिवाजी को पन्हाला किले पर कब्जा करने के लिए नियुक्त किया गया था, लेकिन वह भी असफल रहा। अपनी भव्य योजना को अपनी आंखों के सामने ध्वस्त होते देख, जय सिंह ने शिवाजी को आगरा में सम्राट से मिलने के लिए राजी किया। जय सिंह ने सोचा कि अगर शिवाजी और औरंगजेब में सुलह हो जाती है, तो औरंगजेब को बीजापुर पर नए सिरे से आक्रमण करने के लिए अधिक संसाधन देने के लिए राजी किया जा सकता है। लेकिन यह यात्रा एक आपदा साबित हुई। शिवाजी अपमानित महसूस किया जब उन्हें 5000 के मनसबदारों की श्रेणी में रखा गया जब औरंगजेब ने सलाह के लिए उन्हें पत्र लिखा। जयसिंह ने शिवाजी के साथ नरम व्यवहार करने का जोरदार तर्क दिया। लेकिन इससे पहले कि कोई निर्णय लिया जा सके, शिवाजी नजरबंदी से भाग निकले (1666)। शिवाजी के भागने का तरीका इतना प्रसिद्ध है कि उसे यहां दोहराया नहीं जा सकता। औरंगजेब हमेशा शिवाजी को भागने देने में अपनी लापरवाही के लिए खुद को दोषी मानता था। इसमें कोई संदेह नहीं है कि शिवाजी की आगरा यात्रा मराठों के साथ मुगल संबंधों में महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई- हालांकि घर लौटने के बाद दो साल तक शिवाजी चुप रहे। इस यात्रा ने साबित कर दिया कि जय सिंह के विपरीत, औरंगजेब शिवाजी के साथ गठबंधन को बहुत महत्व नहीं देता था। उसके लिए, जैसा कि बाद के घटनाक्रमों से साबित हुआ, शिवाजी के बारे में औरंगजेब की जिद्दी शंकाएं, उनके महत्व को पहचानने से इनकार करना औरंगजेब की सबसे बड़ी राजनीतिक गलतियों में से एक थी। शिवाजी के साथ अंतिम विच्छेद- शिवाजी का प्रशासन और उपलब्धियाँ औरंगजेब ने पुरंदर की संधि की संकीर्ण व्याख्या पर जोर देकर शिवाजी को अपने विजय अभियान को फिर से शुरू करने के लिए उकसाया, हालांकि बीजापुर के खिलाफ अभियान की विफलता के साथ, संधि का आधार खत्म हो गया था। शिवाजी बीजापुर से किसी भी मुआवजे के बिना मुगलों को 23 किलों और चार लाख हूण प्रति वर्ष के क्षेत्र के नुकसान को स्वीकार नहीं कर सके। उन्होंने मुगलों के साथ संघर्ष को फिर से शुरू किया, 1670 में सूरत को दूसरी बार आक्रमण किया । अगले चार वर्षों के दौरान, उन्होंने मुगलों से पुरंदर सहित अपने कई किलों को वापस ले लिया और मुगल क्षेत्रों, विशेष रूप से बरार और खानदेश में गहरी पैठ बनाई। उत्तर-पश्चिम में अफगान विद्रोह के साथ मुगलों की व्यस्तता ने शिवाजी की मदद की। 1674 में शिवाजी ने रायगढ़ में औपचारिक रूप से अपना राज्याभिषेक किया। शिवाजी पूना में एक छोटे जागीरदार से बहुत आगे निकल चुके थे। अब तक वे मराठा सरदारों में सबसे शक्तिशाली थे और अपने साम्राज्य की सीमा और सेना के आकार के कारण वे कमजोर दक्कनी सुल्तानों के बराबर दर्जा प्राप्त कर सकते थे। इसलिए, औपचारिक राज्याभिषेक के कई उद्देश्य थे। इसने उन्हें मराठा सरदारों में से किसी से भी ऊंचे स्थान पर रख दिया, जिनमें से कुछ उन्हें एक नवयुवक के रूप में देखते रहे थे। अपनी सामाजिक स्थिति को और मजबूत करने के लिए शिवाजी ने कुछ प्रमुख पुराने मराठा परिवारों में विवाह किए- मोहिते, शिर्के आदि। समारोह के ऊपर रहने वाले पुजारी गागा भट्ट ने एक औपचारिक घोषणा भी की कि शिवाजी एक उच्च कोटि के क्षत्रिय थे। अंततः एक स्वतंत्र शासक के रूप में शिवाजी के लिए अब दक्कनी सुल्तानों के साथ विद्रोही के रूप में नहीं बल्कि समानता के आधार पर संधि करना संभव हो गया। यह मराठा राष्ट्रीय भावना के आगे विकास में भी एक महत्वपूर्ण कदम था। 1676 में शिवाजी ने एक साहसिक नया उद्यम शुरू किया। हैदराबाद में भाइयों मदन्ना और अखन्ना की सक्रिय सहायता और समर्थन से शिवाजी ने बीजापुर कर्नाटक में एक अभियान चलाया। कुतुब शाह ने अपनी राजधानी में शिवाजी का भव्य स्वागत किया और एक औपचारिक समझौता किया। कुतुब शाह ने शिवाजी को प्रतिवर्ष एक लाख हूण (पांच लाख रुपये) की सहायता देने पर सहमति व्यक्त की और एक मराठा राजदूत को उनके दरबार में रहना था। कर्नाटक में प्राप्त क्षेत्र और लूट को साझा किया जाना था। कुतुब शाह ने शिवाजी की सहायता के लिए सैनिकों और तोपखाने की एक टुकड़ी की आपूर्ति की और उनकी सेना के खर्च के लिए धन भी प्रदान किया। यह संधि शिवाजी के लिए बहुत अनुकूल थी और इसने उन्हें बीजापुर के अधिकारियों से जिंजी और वेल्लोर पर कब्जा करने और अपने सौतेले भाई, एकोजी के कब्जे वाले अधिकांश क्षेत्रों को जीतने में सक्षम बनाया। हालाँकि शिवाजी ने 'हैंदव-धर्मोद्धारक' (हिंदू धर्म का रक्षक) की उपाधि धारण की थी, शिवाजी ने कुतुब शाह के साथ कुछ भी साझा करने से इनकार कर दिया, जिससे उसके साथ उनके संबंध खराब हो गए।कर्नाटक अभियान शिवाजी का अंतिम प्रमुख अभियान था। शिवाजी द्वारा बनाया गया जिंजी का अड्डा, मराठों के विरुद्ध औरंगजेब के व्यापक युद्ध के दौरान उनके बेटे राजाराम के लिए शरणस्थली साबित हुआ।शिवाजी की मृत्यु 1680 में कर्नाटक अभियान से लौटने के कुछ समय बाद ही हो गई थी। इस बीच, उन्होंने प्रशासन की एक सुदृढ़ प्रणाली की नींव रखी थी। शिवाजी की प्रशासन प्रणाली काफी हद तक दक्कनी राज्यों की प्रशासनिक प्रथाओं से उधार ली गई थी। यद्यपि उन्होंने आठ मंत्रियों को नियुक्त किया था, जिन्हें कभी-कभी अष्टप्रधान कहा जाता था, यह मंत्रिपरिषद की प्रकृति का नहीं था, प्रत्येक मंत्री सीधे शासक के प्रति उत्तरदायी होता था। सबसे महत्वपूर्ण मंत्री पेशवा थे जो वित्त और सामान्य प्रशासन की देखभाल करते थे, और सर-ए-नौबत (सेनापति) जो एक सम्मान का पद था और आम तौर पर प्रमुख मराठा सरदारों में से एक को दिया जाता था। मज्तेमदा लेखाकार होता था, जबकि वकेनावी खुफिया जानकारी, डाक और घरेलू मामलों के लिए जिम्मेदार होता था। स्मुनावी या चिन्तक राजा को उसके पत्र-व्यवहार में मदद करते थे। दबीर समारोहों का संचालक होता था और विदेशी शक्तियों के साथ व्यवहार में राजा की सहायता भी करता था। न्यायधीश और पंडितराव न्याय और स्पष्ट अनुदानों के प्रभारी थे। इन अधिकारियों की नियुक्ति से अधिक महत्वपूर्ण शिवाजी की सेना और राजस्व व्यवस्था का संगठन था। शिवाजी नियमित सैनिकों को नकद वेतन देना पसंद करते थे, हालांकि कभी-कभी सरदारों को राजस्व अनुदान (सरंजाम) मिलता था। सेना में कड़ा अनुशासन बनाए रखा जाता था, किसी भी महिला या नर्तकी को सेना के साथ जाने की अनुमति नहीं थी। अभियानों के दौरान प्रत्येक सैनिक द्वारा लूटी गई राशि का सख्ती से हिसाब रखा जाता था। नियमित सेना (पगा) में लगभग 30,000 से 40,000 घुड़सवार होते थे, जो ढीले सहायक (सिलहदार) से अलग होते थे, जिनकी देखरेख हवलदार करते थे जिन्हें निश्चित वेतन मिलता था। किलों की सावधानीपूर्वक निगरानी की जाती थी, मावली पैदल सैनिकों और तोपचियों को वहाँ नियुक्त किया जाता था। हमें बताया जाता है कि विश्वासघात से बचने के लिए प्रत्येक किले की देखरेख के लिए समान रैंक के तीन लोगों को नियुक्त किया जाता था। राजस्व प्रणाली मलिक अंबर की प्रणाली पर आधारित प्रतीत होती है। 1679 में अन्नाजी दत्तो द्वारा एक नया राजस्व मूल्यांकन पूरा किया गया था। यह सोचना सही नहीं है कि शिवाजी ने ज़मींदारी (डेफमुकी) प्रणाली को समाप्त कर दिया था, या उन्होंने अपने अधिकारियों को जागीर (मोकासा) नहीं दिया था। हालाँकि, शिवाजी ने मीरासदारों, यानी भूमि पर वंशानुगत अधिकार रखने वालों की सख्त निगरानी की। स्थिति का वर्णन करते हुए, अठारहवीं शताब्दी में लिखने वाले सभासद कहते हैं कि ये वर्ग सरकार को अपने संग्रह का केवल एक छोटा हिस्सा देते थे। 'इसके बाद, मीरासदारों ने खुद को मजबूत किया।गांवों में बुर्ज, महल और किले बनाना, पैदल सैनिकों और बंदूकधारियों की भर्ती करना... यह वर्ग अनियंत्रित हो गया था और उसने 'देश' पर कब्ज़ा कर लिया था। शिवाजी ने उनके गढ़ों को नष्ट कर दिया और उन्हें मजबूर किया कि वे झुक जाएँ। शिवाजी ने पड़ोसी मुगल क्षेत्रों पर अंशदान लगाकर अपनी आय में वृद्धि की। यह अंशदान जो भू-राजस्व का एक-चौथाई था, उसे चौथई (एक-चौथाई)-चौथ कहा जाने लगा। शिवाजी न केवल एक योग्य सेनापति, एक कुशल रणनीतिकार और एक चतुर कूटनीतिज्ञ साबित हुए, बल्कि उन्होंने देशमुखों की शक्ति पर अंकुश लगाकर एक मजबूत राज्य की नींव भी रखी। सेना उनकी नीतियों, तीव्रता और युद्ध कौशल का एक प्रभावी साधन थी। आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण कारक था। सेना अपने वेतन के लिए काफी हद तक पड़ोसी क्षेत्रों की लूट पर निर्भर थी। लेकिन इस राज्य को सिर्फ 'युद्ध-राज्य' नहीं कहा जा सकता। यह क्षेत्रीय चरित्र का था, इसमें कोई संदेह नहीं है, लेकिन इसका एक लोकप्रिय आधार जरूर था। इस हद तक, शिवाजी एक लोकप्रिय राजा थे, जिन्होंने मुगल अतिक्रमणों के खिलाफ क्षेत्र में लोकप्रिय इच्छाशक्ति का प्रतिनिधित्व किया। औरंगजेब और दक्कनी राज्य (1658-87) दक्कनी राज्यों के साथ औरंगजेब के संबंधों में तीन चरणों का पता लगाना संभव है। पहला चरण 1668 तक चला, जिसके दौरान मुख्य प्रयास बीजापुर से अहमदनगर राज्य के क्षेत्रों को पुनः प्राप्त करना था, जो 1636 की संधि द्वारा उसे सौंप दिए गए थे; दूसरा चरण 1684 तक चला, जिसके दौरान दक्कन में मुख्य खतरा मराठों को माना जाता था, और शिवाजी और उसके बाद उनके बेटे, के खिलाफ़ विद्रोह करने के प्रयास किए गए थे। मुगलों ने दक्कनी राज्यों के क्षेत्रों को हड़प लिया और साथ ही उन्हें अपने पूर्ण आधिपत्य और नियंत्रण में लाने का प्रयास किया। अंतिम चरण तब शुरू हुआ जब औरंगजेब मराठों के खिलाफ बीजापुर और गोलकुंडा का सहयोग पाने से निराश हो गया और उसने फैसला किया कि मराठों को नष्ट करने के लिए पहले बीजापुर और गोलकुंडा को जीतना जरूरी है। 1636 की संधि, जिसके तहत शाहजहाँ ने समर्थन वापस लेने के लिए अहमदनगर राज्य के एक तिहाई क्षेत्र रिश्वत के रूप में दिए थे।मराठों को दिया गया यह वादा कि मुगल बीजापुर और गोलकुंडा पर कभी विजय नहीं करेंगे, शाहजहाँ ने खुद ही त्याग दिया था। 1657-58 में गोलकुंडा और बीजापुर के विलुप्त होने का खतरा था। गोलकुंडा को भारी क्षतिपूर्ति देनी पड़ी और बीजापुर को 1636 में उसे दिए गए निज़ामशाही क्षेत्रों को सौंपने के लिए सहमत होना पड़ा। इसके लिए 'औचित्य' यह था कि इन दोनों राज्यों ने कर्नाटक में व्यापक विजय प्राप्त की थी और यह 'मुआवजा' मुगलों को इस आधार पर मिलना था कि दोनों राज्य मुगल जागीरदार थे और उनकी विजय मुगलों की ओर से उदार तटस्थता के कारण संभव हुई थी। वास्तव में दक्कन में मुगल सेनाओं को बनाए रखने की लागत बहुत अधिक थी और मुगलों के नियंत्रण में दक्कनी क्षेत्रों से होने वाली आय इसे पूरा करने के लिए अपर्याप्त थी। लंबे समय तक, लागत मालवा और गुजरात के खजानों से प्राप्त अनुदानों से पूरी की जाती थी। दक्कन में सीमित प्रगति की नीति की बहाली के दूरगामी परिणाम हुए, ऐसा लगता है कि न तो शाहजहाँ और न ही औरंगज़ेब ने इसका ठीक से अनुमान लगाया: इसने मुगल संधियों और वादों में हमेशा के लिए विश्वास को नष्ट कर दिया और मराठों के खिलाफ 'दिलों का मिलन' असंभव बना दिया - एक ऐसी नीति जिसे औरंगज़ेब ने एक चौथाई सदी तक बड़ी दृढ़ता के साथ अपनाया, लेकिन बहुत कम सफलता मिली। प्रथम चरण (1658-68) सिंहासन पर बैठने के बाद औरंगजेब को दक्कन में दो समस्याओं का सामना करना पड़ा: शिवाजी की बढ़ती शक्ति से उत्पन्न समस्या और 1636 की संधि द्वारा उसे सौंपे गए क्षेत्रों को बीजापुर को सौंपने के लिए राजी करने की समस्या। कल्याणी और बीदर को 1657 में सुरक्षित कर लिया गया था। परेंडा को 1660 में रिश्वत देकर सुरक्षित कर लिया गया था। शोपुर अभी भी बचा हुआ था। अपने राज्यारोहण के बाद औरंगजेब ने जय सिंह से शिवाजी और आदिल शाह दोनों को दंडित करने के लिए कहा।इससे मुगल हथियारों की श्रेष्ठता और अपने विरोधियों को कम आंकने में औरंगजेब का विश्वास झलकता है। लेकिन जय सिंह एक चतुर राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने औरंगजेब से कहा, 'इन दोनों पर एक साथ हमला करना मूर्खता होगी।' जय सिंह एकमात्र मुगल राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने इस अवधि के दौरान दक्कन में पूरी तरह से आगे बढ़ने की नीति की वकालत की। जय सिंह का मानना था कि मराठा समस्या का समाधान बिना किसी समझौते के नहीं हो सकता। बीजापुर पर आक्रमण की योजना बनाते समय जयसिंह ने औतांगजेब को लिखा था, 'बीजापुर की विजय समस्त दक्कन और कर्नाटक की विजय की प्रस्तावना है।' लेकिन औरंगजेब इस साहसिक नीति से पीछे हट गया। हम केवल कारणों का अनुमान लगा सकते हैं: उत्तर-पश्चिम में इब्राहिम के शासक ने एक धमकी भरा रवैया अपनाया था; दक्कन की विजय के लिए अभियान लंबा और कठिन होगा और इसके लिए खुद सम्राट की उपस्थिति की आवश्यकता होगी क्योंकि बड़ी सेनाओं को किसी कुलीन या महत्वाकांक्षी राजकुमार के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता था, जैसा कि शाहजहाँ ने अपने दुर्भाग्य से पाया था। इसके अलावा, जब तक शाहजहाँ जीवित था, औरंगजेब दूर के अभियान पर जाने का जोखिम नहीं उठा सकता था। अपने सीमित संसाधनों के साथ, जय सिंह का बीजापुर अभियान (1665) असफल साबित हुआ। इस अभियान ने मुगलों के खिलाफ दक्कनी राज्यों के संयुक्त मोर्चे को फिर से बनाया, क्योंकि कुतुब शाह ने बीजापुर की सहायता के लिए एक बड़ी सेना भेजी थी। दक्कनियों ने छापामार रणनीति अपनाई, जय सिंह को बीजापुर की ओर आकर्षित किया और ग्रामीण इलाकों को तबाह कर दिया ताकि मुगलों को कोई रसद न मिल सके। जय सिंह ने पाया कि उसके पास शहर पर हमला करने का कोई साधन नहीं था क्योंकि वह घेराबंदी करने वाली बंदूकें नहीं लाया था, और शहर को घेरना असंभव था। पीछे हटना महंगा साबित हुआ, और इस अभियान से जयसिंह को न तो अतिरिक्त क्षेत्र मिला और न ही धन। निराशा और औरंगज़ेब की निंदा ने जय सिंह की मृत्यु (1667) को शीघ्र कर दिया। अगले वर्ष (1668) मुगलों ने रिश्वत देकर शोलापुर का आत्मसमर्पण करवा लिया। इस प्रकार पहला चरण समाप्त हो गया। दूसरा चरण (1668-84) मुगलों ने 1668 से 1676 के बीच दक्कन में अपना दबदबा कायम किया। इस अवधि के दौरान एक नया कारक गोलकुंडा में मदन्ना और अखन्ना का सत्ता में आना था। इन दो प्रतिभाशाली भाइयों ने 1672 से लेकर 1687 में राज्य के विलुप्त होने तक गोलकुंडा पर शासन किया। भाइयों ने गोलकुंडा, बीजापुर और शिवाजी के बीच त्रिपक्षीय गठबंधन स्थापित करने की कोशिश की नीति अपनाई। बीजापुर दरबार में गुटों के झगड़ों और शिवाजी की अति महत्वाकांक्षा के कारण यह नीति समय-समय पर बाधित होती रही। बीजापुर के गुटों पर एक सुसंगत नीति का पालन करने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। उन्होंने अपने तात्कालिक हितों के आधार पर मुगलों के पक्ष में या उनके खिलाफ रुख अपनाया। शिवाजी ने लूटपाट की और मुगलों के खिलाफ बारी-बारी से बीजापुर का समर्थन किया। हालांकि बढ़ती मराठा शक्ति से गंभीर रूप से चिंतित औरंगजेब, ऐसा लगता है, दक्कन में मुगल विस्तार को सीमित करने के लिए उत्सुक था। इसलिए, बीजापुर में एक दल को स्थापित करने और समर्थन देने के लिए बार-बार प्रयास किए गए, जो शिवाजी के खिलाफ मुगलों के साथ सहयोग करेगा, और जिसका नेतृत्व गोलकुंडा नहीं करेगा। इस नीति के अनुसरण में, मुगल सैन्य हस्तक्षेपों की एक श्रृंखला बनाई गई, जिसका विवरण बहुत कम रुचि का है। मुगल कूटनीतिक और सैन्य प्रयासों का एकमात्र परिणाम मुगलों के खिलाफ तीन दक्कनी शक्तियों के संयुक्त मोर्चे का फिर से दावा करना था। 1679-80 में मुगल वायसराय दिलेर खान द्वारा बीजापुर पर कब्जा करने का अंतिम हताश प्रयास भी विफल रहा, मुख्यतः इसलिए कि किसी भी मुगल वायसराय के पास दक्कनी राज्यों की संयुक्त सेनाओं का मुकाबला करने का साधन नहीं था। एक नया तत्व जो खेल में लाया गया वह था · माचिस की तीली से लैस कर्नाटकी पैदल सैनिक। बरार के प्रमुख प्रेम नाइक द्वारा भेजे गए तीस हज़ार सैनिक 1679-बीजापुर की मुगल घेराबंदी का सामना करने में एक प्रमुख कारक थे। शिवाजी ने भी बीजापुर को राहत देने के लिए एक बड़ी सेना भेजी और सभी दिशाओं में मुगल प्रभुत्व पर हमला किया। इस प्रकार, दिलेर खान मुगल क्षेत्रों को मराठा छापों के लिए खुला छोड़ने के अलावा कुछ भी हासिल नहीं कर सका। इसलिए, उसे औरंगजेब ने वापस बुला लिया। तीसरा चरण (1684-87) इस प्रकार, 1676 के दौरान मुगलों को बहुत कम सफलता मिली। जब औरंगजेब 1681 में अपने विद्रोही बेटे, राजकुमार अकबर की खोज में दक्कन पहुंचा, तो उसने अपनी सेना को शिवाजी के बेटे और उत्तराधिकारी संभाजी के खिलाफ केंद्रित कर दिया, साथ ही बीजापुर और गोलकुंडा को मराठों से अलग करने के लिए नए सिरे से प्रयास किए। उसके प्रयासों का नतीजा पहले के प्रयासों से अलग नहीं था। मराठा मुगलों के खिलाफ एकमात्र ढाल थे, और दक्कनी राज्य इसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। औरंगजेब ने अब इस मुद्दे को बलपूर्वक हल करने का फैसला किया। उन्होंने आदिल शाह को एक जागीरदार के रूप में शाही सेना को रसद की आपूर्ति करने, मुगल सेनाओं को अपने क्षेत्र से मुक्त मार्ग की अनुमति देने और मराठों के खिलाफ युद्ध के लिए 5000 से 6000 घुड़सवारों की एक टुकड़ी की आपूर्ति करने के लिए बुलाया। उन्होंने यह भी मांग की कि बीजापुर के प्रमुख शारजा खान को भी सेना में शामिल किया जाए। मुगलों के खिलाफ़ कुलीन वर्ग के विद्रोह को खदेड़ दिया जाना चाहिए। अब खुला विच्छेद अपरिहार्य था। आदिल शाह ने गोलकुंडा और संभाजी दोनों से मदद की अपील की, जो तुरंत दी गई। दक्कनी राज्यों की संयुक्त सेना भी मुगल सेना की पूरी ताकत का सामना नहीं कर सकी, खासकर जब इसकी कमान खुद मुगल सम्राट के पास थी। हालाँकि, बीजापुर के पतन से पहले 18 महीने की घेराबंदी हुई, जिसमें औरंगजेब अंतिम चरणों के दौरान व्यक्तिगत रूप से मौजूद था (1686)। यह बीजापुर के खिलाफ जगन्नाथ सिंह (1665) और दिलेर खान (1679-80) की शुरुआती हार के लिए पर्याप्त औचित्य प्रदान करता है। बीजापुर के पतन के बाद गोलकुंडा के खिलाफ अभियान अपरिहार्य था। कुतुब शाह के 'पाप' इतने अधिक थे कि उन्हें माफ नहीं किया जा सकता था। उसने काफिरों मदन्ना और अखन्ना को सर्वोच्च शक्ति दी थी और कई मौकों पर शिवाजी की मदद की थी। उसका सबसे हालिया विश्वासघात औरंगजेब की चेतावनियों के बावजूद बीजू पटनायक को सौंप दिया गया। इससे पहले 1685 में कड़े प्रतिरोध के बावजूद मुगलों ने गोलकुंडा पर कब्जा कर लिया था। बादशाह ने भारी भरकम कुछ इलाकों को सौंपने और मदन्ना और अखन्ना को बाहर निकालने के बदले में कुतुब शाह को माफ करने पर सहमति जताई थी। कुतुब शाह ने इस पर सहमति जताई थी। मदन्ना और अखन्ना को सड़कों पर घसीट कर ले जाया गया और उनकी हत्या कर दी गई (1686)। लेकिन यह अपराध भी कुतुब शाह को बचाने में नाकाम रहा। 1687 की शुरुआत में मुगलों ने गोलकुंडा की घेराबंदी शुरू की और छह महीने से ज़्यादा चले अभियान के बाद विश्वासघात और रिश्वतखोरी के कारण किला गिर गया। औरंगज़ेब ने जीत हासिल कर ली थी, लेकिन जल्द ही उसे पता चल गया कि बीजापुर और गोलकुंडा का विनाश उसकी मुश्किलों की शुरुआत भर था। औरंगज़ेब के जीवन का आखिरी और सबसे कठिन दौर अब शुरू हुआ। औरंगजेब, मराठा और दक्कन:अंतिम चरण (1687-1707) बीजापुर और गोलकुंडा के पतन के बाद, औरंगजेब मराठों के खिलाफ अपनी सारी ताकतें केंद्रित करने में सक्षम हो गया।1689 में, संभाजी को संगमेश्वर में उनके गुप्त ठिकाने पर मुगल सेना ने आश्चर्यचकित कर दिया। उन्हें औरंगजेब के सामने पेश किया गया और एक विद्रोही और काफिर के रूप में मार डाला गया। यह निस्संदेह औरंगजेब की ओर से एक और बड़ी राजनीतिक गलती थी। वह बीजापुर और गोलकुंडा पर अपनी विजय पर मुहर लगा सकता था, अगर वह समझौता कर लेता।संभाजी को मारकर उसने न केवल यह मौका खो दिया, बल्कि मराठों को एक नया कारण भी दे दिया। मराठा राज्य को नष्ट करने के बजाय, औरंगजेब ने मराठा विरोध को दक्कन में सर्वव्यापी बना दिया। संभाजी के छोटे भाई राजाराम को राजा के रूप में ताज पहनाया गया, लेकिन मुगलों द्वारा उनकी राजधानी पर हमला किए जाने पर उन्हें भागना पड़ा। राजाराम ने पूर्वी तट पर जिंजी में शरण ली और वहीं से मुगलों के खिलाफ लड़ाई जारी रखी। इस प्रकार, मराठा प्रतिरोध पश्चिम से पूर्वी तट तक फैल गया। हालाँकि, इस समय, औरंगजेब अपनी शक्ति के चरम पर था, उसने अपने सभी दुश्मनों पर विजय प्राप्त की थी। कुछ सरदारों की राय थी कि औरंगजेब को उत्तर भारत लौट जाना चाहिए और मराठों के खिलाफ अभियान चलाने का काम दूसरों पर छोड़ देना चाहिए। 1690 और 1703 के बीच की अवधि के दौरान, औरंगजेब ने मराठों के साथ बातचीत करने से हठपूर्वक इनकार कर दिया। राजाराम को जिंजी में घेर लिया गया, लेकिन घेराबंदी लंबी चली। 1698 में जिंजी पर कब्ज़ा कर लिया गया, लेकिन राजाराम बच निकला। मराठा प्रतिरोध बढ़ता गया और मुगलों को कई गंभीर पराजय का सामना करना पड़ा। मराठों ने अपने कई किलों पर फिर से कब्ज़ा कर लिया और राजाराम सतारा वापस आने में सक्षम हो गए।निडर होकर औरंगजेब ने सभी मराठा किलों को वापस जीतने की ठानी। 1700 से 1705 तक साढ़े पांच साल तक औरंगजेब अपने थके-हारे और बीमार शरीर को एक किले से दूसरे किले की घेराबंदी में घसीटता रहा। बाढ़, बीमारी और मराठा सैनिको ने मुगलों को भयानक नुकसान पहुंचाया।जिस कारण मुगल सेना में सेना में धीरे-धीरे थकान और असंतोष बढ़ता गया। मनोबल गिरने लगा और कई जागीरदारों ने मराठों के साथ गुप्त समझौते किए और मराठों द्वारा उनकी जागीरों में बाधा न डालने पर चौथ देने पर सहमति जताई। 1703 में औरंगजेब ने मराठों के साथ बातचीत शुरू की। वह संभाजी के बेटे शाहू को छोड़ने के लिए तैयार था, जिसे उसकी माँ के साथ सतारा में बंदी बना लिया गया था। 1706 तक औरंगजेब को यह विश्वास हो गया था कि सभी मराठा किलों पर कब्ज़ा करने का उसका प्रयास निरर्थक है। वह धीरे-धीरे औरंगाबाद की ओर पीछे हट गया, जबकि एक उत्साही मराठा सेना उसके इर्द-गिर्द मंडरा रही थी और उसने पीछे छूटे हुए लोगों पर हमला कर दिया। इस प्रकार, जब 1707 में औरंगजेब ने औरंगाबाद में अपनी अंतिम सांस ली, तो वह अपने पीछे एक ऐसा साम्राज्य छोड़ गया जो बुरी तरह से बिखरा हुआ था और जिसमें सभी आंतरिक समस्याएं चरम पर थीं। मराठों का उदय
- दक्षिण भारत: चोल साम्राज्य
दक्षिण भारत: चोल साम्राज्य (900-1200) छठी और आठवीं शताब्दी के दौरान दक्षिण भारत में चोल साम्राज्य का उदय हुआ। इनमें सबसे महत्वपूर्ण पल्लव और पांड्य थे, जिन्होंने आधुनिक तमिलनाडु पर शासन किया, आधुनिक केरल के चेर और चालुक्य थे, जिन्होंने महाराष्ट्र क्षेत्र या दक्कन पर शासन किया। चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय ने हर्ष को हराया था और उसे अपने राज्य का विस्तार करने की अनुमति नहीं दी थी, जैसे कि अल्लाव और पांड्य के पास मजबूत नौसेनाएँ थीं। उन्होंने दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों और चीन के साथ आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी नौसेनाओं ने उन्हें कुछ समय के लिए श्रीलंका के कुछ हिस्सों पर आक्रमण करने और शासन करने में सक्षम बनाया। नौवीं शताब्दी में उभरे चोल साम्राज्य ने प्रायद्वीप के एक बड़े हिस्से को अपने नियंत्रण में ले लिया। चोलों ने एक शक्तिशाली नौसेना विकसित की जिसने उन्हें श्रीलंका और मालदीव पर विजय प्राप्त करने में सक्षम बनाया। इसका प्रभाव दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों तक भी महसूस किया गया। चोल साम्राज्य को दक्षिण भारतीय इतिहास में चरमोत्कर्ष का प्रतीक कहा जा सकता है। चोल साम्राज्य का उदय चोल साम्राज्य के संस्थापक विजयालय थे, जो पहले पल्लवों के सामंत थे। उन्होंने 850 ई. में तंजौर पर कब्ज़ा कर लिया। और नौवीं शताब्दी के अंत तक, चोलों ने कांची (टोंडईमंडलम) के दोनों पल्लवों को हरा दिया और फांड्या को कमज़ोर कर दिया, जिससे दक्षिणी तमिल देश उनके नियंत्रण में आ गया। लेकिन चोलों को राष्ट्रकूटों के खिलाफ़ अपनी स्थिति की रक्षा करने में मुश्किलों का सामना करना पड़ा। जैसा कि हमने पिछले अध्याय में उल्लेख किया है, कृष्ण तृतीय ने चोल राजा को हराया और चोल साम्राज्य के उत्तरी भाग पर कब्ज़ा कर लिया। यह चोलों के लिए एक गंभीर झटका था, लेकिन वे तेज़ी से उबर गए, खासकर 965 में कृष्ण तृतीय की मृत्यु और राष्ट्रकूट साम्राज्य के पतन के बाद। राजराजा और राजेंद्र प्रथम का काल सबसे महान चोल शासक राजराजा (985-1014) और उनके पुत्र राजेंद्र प्रथम (1014-1044) थे। राजराजा ने त्रिवेंद्रम में चेरा नौसेना को नष्ट कर दिया और क्विलोन पर हमला किया। फिर उसने मदुरै पर विजय प्राप्त की और पांड्य राजा को पकड़ लिया। उसने श्रीलंका पर भी आक्रमण किया और उसके उत्तरी भाग को अपने साम्राज्य में मिला लिया। ये कदम आंशिक रूप से दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ व्यापार को अपने नियंत्रण में लाने की उसकी इच्छा से प्रेरित थे। कोरोमंडल तट और मालाबार दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ भारत के व्यापार के केंद्र थे। उसके नौसैनिक कारनामों में से एक मालदीव की विजय थी। राजराजा ने कर्नाटक में गंगा साम्राज्य के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों पर कब्ज़ा कर लिया और वेंगी पर कब्ज़ा कर लिया। राजेंद्र को उनके पिता के जीवनकाल में ही उत्तराधिकारी नियुक्त किया गया था, और सिंहासन पर बैठने से पहले उन्हें प्रशासन और युद्ध का काफी अनुभव था। उन्होंने पांड्य और चेर देशों को पूरी तरह से जीतकर और उन्हें अपने साम्राज्य में शामिल करके राजराजा की विलय नीति को आगे बढ़ाया। श्रीलंका की विजय भी पूरी हो गई थी, जिसमें श्रीलंका के राजा और रानी के मुकुट और शाही चिह्न युद्ध में जब्त कर लिए गए थे। श्रीलंका अगले 50 वर्षों तक चोल नियंत्रण से खुद को मुक्त नहीं कर सका। राजराजा और राजेंद्र प्रथम ने विभिन्न स्थानों पर अनेक शिव और विष्णु मंदिर बनवाकर अपनी विजयों को चिह्नित किया। इनमें सबसे प्रसिद्ध तंजौर का बृहक्लेश्वर मंदिर था जो 1010 में बनकर तैयार हुआ था। चोल शासकों ने इन मंदिरों की दीवारों पर शिलालेख लिखवाने की प्रथा अपनाई, जिससे उनकी विजयों का ऐतिहासिक वर्णन मिलता है। यही कारण है कि हम चोलों के बारे में उनके पूर्ववर्तियों से कहीं अधिक जानते हैं। राजेंद्र प्रथम के शासनकाल में सबसे उल्लेखनीय कारनामों में से एक कलिंग से बंगाल तक का मार्च था जिसमें चोल सेनाओं ने गंगा नदी पार की और दो स्थानीय राजाओं को हराया। यह अभियान, जिसका नेतृत्व एक चोल सेनापति ने किया था, 1022 में हुआ और इसके बाद महान विजेता समुद्रगुप्त ने जिस मार्ग का अनुसरण किया था, उसी मार्ग से विपरीत दिशा में आगे बढ़ना था। इस अवसर की याद में, राजेंद्र प्रथम ने गंगईकोंडचोल ('गंगा पर विजय प्राप्त करने वाले चोल') की उपाधि धारण की। उन्होंने कावेरी नदी के मुहाने के पास एक नई राजधानी बनाई और इसे गंगईकोंडचोलपुरम ('गंगा पर विजय प्राप्त करने वाले चोल का शहर') कहा। राजेंद्र प्रथम के समय में एक और भी उल्लेखनीय उपलब्धि पुनर्जीवित श्री विजय साम्राज्य के खिलाफ नौसेना अभियान थे। श्री विजय साम्राज्य, जिसे 10वीं शताब्दी में पुनर्जीवित किया गया था, मलय प्रायद्वीप, सुमात्रा, जावा और पड़ोसी द्वीपों तक फैला हुआ था और चीन के लिए विदेशी व्यापार मार्ग को नियंत्रित करता था। श्री विजय साम्राज्य के शैलेंद्र वंश के शासक बौद्ध थे और चोलों के साथ उनके सौहार्दपूर्ण संबंध थे। शैलेंद्र शासक ने नागपट्टनम में एक बौद्ध मठ बनवाया था और उसके कहने पर राजेंद्र प्रथम ने इसके रखरखाव के लिए एक गांव दान में दिया था। दोनों के बीच दरार का कारण स्पष्ट रूप से चोलों की भारतीय व्यापारियों के लिए बाधाओं को दूर करने और चीन के साथ व्यापार का विस्तार करने की उत्सुकता थी। अभियानों के कारण कदारम या केदाह और मलय प्रायद्वीप और सुत्रा में कई अन्य स्थानों पर विजय प्राप्त हुई। चोल नौसेना इस क्षेत्र में सबसे मजबूत थी और कुछ समय के लिए बंगाल की खाड़ी को 'चोल झील' में बदल दिया गया था। चोल शासकों ने चीन में कई दूतावास भी भेजे। ये आंशिक रूप से कूटनीतिक और आंशिक रूप से वाणिज्यिक थे। चोल दूतावास 1016 और 1033 में चीन पहुँचे। 70 व्यापारियों का एक चोल दूतावास 1077 में चीन पहुँचा और एक चीनी खाते के अनुसार, '81,800 ताँबे की कड़ियाँ' यानी 'काँच के बर्तन, कपूर, ब्रोकेड, गैंडे के सींग, हाथी दाँत आदि' से बनी 'भेंट' की वस्तुओं के बदले में चार लाख रुपये से अधिक प्राप्त किए। 'भेंट' शब्द का इस्तेमाल चीनी लोग 'भेंट' के लिए लाए गए सभी वस्तुओं के लिए करते थे। चोल शासकों ने राष्ट्रकूटों के उत्तराधिकारी चालुक्यों के साथ लगातार युद्ध किया। इन्हें बाद के चालुक्य कहा जाता है और उनकी राजधानी कल्याणी थी। चोल और बाद के चालुक्यों के बीच वेंगी (रायलसीमा), तुंगभद्रा नगर और उत्तर-पश्चिम कर्नाटक में गंगा शासित क्षेत्र पर आधिपत्य के लिए संघर्ष हुआ। इस प्रतियोगिता में कोई भी पक्ष निर्णायक जीत हासिल करने में सक्षम नहीं था और अंततः इसने दोनों राज्यों को समाप्त कर दिया। यह भी प्रतीत होता है कि इस समय के दौरान युद्ध अधिक कठोर होते जा रहे थे। चोल शासकों ने लूटपाट की औरकल्याणी समेत चालुक्य शहरों को लूटा और ब्राह्मणों और बच्चों समेत लोगों का कत्लेआम किया। उन्होंने पांड्या देश में भी ऐसी ही नीति अपनाई, लोगों को डराने के लिए सैन्य कॉलोनियाँ बसाईं। उन्होंने श्रीलंका के शासकों की प्राचीन राजधानी अनुराधापुरा को नष्ट कर दिया और उनके राजा और रानी के साथ कठोर व्यवहार किया। ये चोल साम्राज्य के इतिहास में कलंक हैं। हालाँकि, एक बार जब उन्होंने किसी देश पर विजय प्राप्त कर ली, तो चोलों ने वहाँ प्रशासन की एक सुदृढ़ व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास किया; चोल प्रशासन की एक उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि उन्होंने अपने साम्राज्य के सभी गाँवों में स्थानीय स्वशासन को प्रोत्साहित किया। चोल साम्राज्य बारहवीं शताब्दी के दौरान फलता-फूलता रहा, लेकिन तेरहवीं शताब्दी के आरंभ में इसका पतन हो गया। महाराष्ट्र क्षेत्र में बाद का चालुक्य साम्राज्य भी बारहवीं शताब्दी में समाप्त हो गया था। चोल राजवंश का स्थान दक्षिण में पांड्यों और होयसलों ने ले लिया और बाद के चालुक्यों की जगह यादवों और काकतीय राजाओं ने ले ली। इन सभी राज्यों ने कला और वास्तुकला को संरक्षण दिया। दुर्भाग्य से, वे लगातार एक-दूसरे के खिलाफ लड़ते हुए, शहरों को लूटते हुए और मंदिरों को भी नहीं छोड़ते हुए खुद को कमजोर कर लेते थे। अंततः, चौदहवीं शताब्दी की शुरुआत में दिल्ली के सुल्तानों ने उन्हें नष्ट कर दिया। चोल शासन-स्थानीय स्वशासन चोल प्रशासन में राजा सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति था।सारी सत्ता उसके हाथ में थी, लेकिन उसे सलाह देने के लिए मंत्रियों की एक परिषद थी। राजा अक्सर प्रशासन की देखरेख के लिए यात्रा पर जाते थे। चोलों के मुख्य सैनिक हाथी, घुड़सवार और पैदल सेना थे जिन्हें सेना के तीन अंग कहा जाता था। पैदल सेना आम तौर पर भालों से लैस होती थी। अधिकांश राजाओं के पास अंगरक्षक होते थे जो अपनी जान की कीमत पर भी राजाओं की रक्षा करने की शपथ लेते थे। तेरहवीं शताब्दी में केरल का दौरा करने वाले वेनिस के यात्री मार्को पोलो का कहना है कि सभी। जो सैनिक अंगरक्षक थे, उन्होंने राजा की मृत्यु के समय उसकी चिता में खुद को जला लिया-'-यह कथन शायद अतिशयोक्तिपूर्ण हो। चोलों के पास एक मजबूत नौसेना भी थी, जैसा कि हमने देखा है, जिसका मालाबार और कोरोनडेल तट पर और कुछ समय के लिए बंगाल की पूरी खाड़ी पर प्रभुत्व था। चोल राज्य में केंद्रीय नियंत्रण के क्षेत्र और विभिन्न प्रकार के स्थानीय नियंत्रण के अंतर्गत शिथिल रूप से प्रशासित क्षेत्र शामिल थे। राज्य में पहाड़ी लोग और आदिवासी शामिल थे। प्रशासन की मूल इकाई नाडू थी जिसमें कई गाँव शामिल थे। जिनके बीच घनिष्ठ रिश्तेदारी और अन्य करीबी संबंध थे। तालाबों, कुओं आदि जैसे सिंचाई कार्यों के माध्यम से और पहाड़ी या आदिवासी लोगों को कृषक में परिवर्तित करके नई भूमि को खेती के अधीन लाया गया, जिससे नाडू की संख्या में वृद्धि हुई। ब्राह्मणों और मंदिरों को दिए जाने वाले अनुदान में वृद्धि हुई, जिससे खेती का विस्तार करने में मदद मिली। चोल साम्राज्य में नाडू को वलनाडू में समूहीकृत किया गया था। चोल राज्य को चार मंडलम या प्रांतों में विभाजित किया गया था। कभी-कभी, शाही परिवार के राजकुमारों को प्रांतों का गवर्नर नियुक्त किया जाता था। अधिकारियों को आम तौर पर राजस्व देने वाली भूमि का आवंटन करके भुगतान किया जाता था। चोल शासकों ने शाही सड़कों का एक नेटवर्क बनाया जो व्यापार के साथ-साथ सेना की आवाजाही के लिए भी उपयोगी था। चोल साम्राज्य में व्यापार और वाणिज्य खूब फला-फूला और कुछ विशाल व्यापारिक संघ थे जो जावा और सुमात्रा के साथ व्यापार करते थे। चोलों ने सिंचाई पर भी ध्यान दिया। इस उद्देश्य के लिए कावेरी नदी और अन्य नदियों का उपयोग किया गया। सिंचाई के लिए कई तालाब बनाए गए। कुछ चोल शासकों ने भूमि राजस्व में सरकार का हिस्सा तय करने के लिए भूमि का विस्तृत सर्वेक्षण किया। हमें नहीं पता कि सरकार का हिस्सा वास्तव में कितना था। भूमि कर के अतिरिक्त, चोल शासकों की आय व्यापार पर टोल, व्यवसायों पर कर और पड़ोसी क्षेत्रों की लूट से भी होती थी। चोल शासक धनी थे और वे कई शहरों और भव्य स्मारकों का निर्माण कर सकते थे, जिनमें मंदिर भी शामिल थे। हम पहले ही राष्ट्रकूट साम्राज्य के कुछ क्षेत्रों में गांवों में स्थानीय स्वशासन का उल्लेख कर चुके हैं। हम चोल साम्राज्य में ग्राम सरकार के बारे में कई शिलालेखों से अधिक जानते हैं। हम दो सभाओं के बारे में सुनते हैं, जिन्हें उर और सभा या महासभा कहा जाता था। उर गांव की एक आम सभा थी। हालाँकि, हम महासभा के कामकाज के बारे में अधिक जानते हैं। यह वयस्क पुरुषों की एक सभा थी: ब्राह्मण गाँवों में जिन्हें अग्रहारम कहा जाता था। ये ब्राह्मण बस्तियों वाले गाँव थे जिनमें अधिकांश भूमि लगान-मुक्त थी। इन गाँवों में कर का एक बड़ा हिस्सा था। स्वायत्तता। गाँव के मामलों का प्रबंधन एक कार्यकारी समिति द्वारा किया जाता था, जिसमें संपत्ति के मालिक शिक्षित व्यक्तियों को लॉटरी द्वारा या रोटेशन द्वारा चुना जाता था। इन सदस्यों को हर तीन साल में सेवानिवृत्त होना पड़ता था। भूमि राजस्व के मूल्यांकन और संग्रह में मदद करने, कानून और व्यवस्था, न्याय आदि के रखरखाव के लिए अन्य समितियाँ थीं। महत्वपूर्ण समितियों में से एक तालाब समिति थी जो खेतों में पानी के वितरण की देखभाल करती थी। महासभा नई भूमि वितरित कर सकती थी और उन पर स्वामित्व अधिकार का प्रयोग कर सकती थी। यह गाँव के लिए ऋण भी जुटा सकता था और कर लगा सकता था। इन चोल गांवों में स्वशासन की व्यवस्था बहुत अच्छी थी। कुछ हद तक यह व्यवस्था अन्य गांवों में भी काम करती थी। हालांकि, सामंतवाद का विकास, जिसकी चर्चा एक अध्याय में की गई है, उनकी स्वायत्तता को सीमित कर दिया गया। सांस्कृतिक जीवन चोल शासन में भक्ति आंदोलन का और विकास हुआ और चरमोत्कर्ष हुआ, जिसकी चर्चा हम अलग से कर चुके हैं। यह आंदोलन मंदिरों से बहुत निकटता से जुड़ा हुआ था। चोल साम्राज्य की सीमा और संसाधनों ने शासकों को तंजौर, गंगईकोंडा चोलपुरम, कांची आदि जैसी बड़ी राजधानियाँ बनाने में सक्षम बनाया। शासकों ने बड़े-बड़े घर और बड़े-बड़े महल बनाए, जिनमें भोज कक्ष, विशाल उद्यान और छतें थीं। इस प्रकार, हमें उनके प्रमुखों के लिए सात या पाँच मंज़िला घरों के बारे में पता चलता है। दुर्भाग्य से, उस काल के कोई भी महल नहीं बचे हैं। अब तंजौर के पास एक छोटा-सा गाँव है, जिसे चोल साम्राज्य के नाम से जाना जाता है। हालाँकि, शासकों और उनके मंत्रियों के शानदार महलों और उतने ही शानदार घरों का वर्णन जिसमें धनी व्यापारी रहते थे, इस अवधि के साहित्य में पाया जाता है। दक्षिण में मंदिर वास्तुकला चोलों के शासनकाल में अपने चरम पर पहुँच गई। इस अवधि के दौरान प्रचलित वास्तुकला की शैली को द्रविड़ कहा जाता है, क्योंकि यह मुख्य रूप से दक्षिण भारत तक ही सीमित थी। इस शैली की मुख्य विशेषता गर्भगृह (सबसे भीतरी कक्ष जहाँ मुख्य देवता निवास करते हैं) के ऊपर कई मंजिलों का निर्माण था। मंजिलों की संख्या पाँच से सात तक भिन्न होती थी, और उनकी एक विशिष्ट शैली थी जिसे विमान कहा जाता था। एक स्तंभ मंडप नामक हॉल, जिसमें विस्तृत नक्काशीदार खंभे और सपाट छत होती थी, आमतौर पर गर्भगृह के सामने रखा जाता था। यह एक दर्शक हॉल के रूप में कार्य करता था और कई अन्य गतिविधियों के लिए एक स्थान था जैसे कि देवदासियों द्वारा किए जाने वाले औपचारिक नृत्य - देवताओं की सेवा के लिए समर्पित महिलाएं। कभी-कभी, गर्भगृह के चारों ओर एक मार्ग होता था ताकि भक्त इसके चारों ओर घूम सकें। इस मार्ग में कई अन्य देवताओं की प्रतिमाएँ रखी जा सकती थीं। यह पूरी संरचना ऊँची दीवारों से घिरे एक प्रांगण में संलग्न थी, जिसके भीतर गोपुरम नामक ऊँचे द्वार थे। समय के साथ, विरनाएँ ऊँची होती गईं, प्रांगणों की संख्या दो या तीन हो गई, और गोपत्रम भी अधिक से अधिक विस्तृत होते गए। इस प्रकार मंदिर एक छोटा शहर या महल बन गया, जिसमें पुजारियों और कई अन्य लोगों के लिए रहने के कमरे उपलब्ध कराए गए थे। मंदिरों को आम तौर पर अपने खर्चों के लिए भूमि का राजस्व-मुक्त अनुदान प्राप्त होता था। उन्हें धनी व्यापारियों से अनुदान और भरपूर दान भी मिला। कुछ मंदिर इतने अमीर हो गए कि उन्होंने व्यापार शुरू कर दिया, पैसे उधार दिए और व्यापारिक उद्यमों में हिस्सा लिया। उन्होंने खेती को बेहतर बनाने, तालाब, कुएँ आदि खोदने और सिंचाई चैनल उपलब्ध कराने पर भी पैसा खर्च किया। द्रविड़ शैली के मंदिर स्थापत्य का एक प्रारंभिक उदाहरण कांचीपुरम में आठवीं शताब्दी का कैलासनाथ मंदिर है। शैली के सबसे बेहतरीन और विस्तृत उदाहरणों में से एक, हालांकि, राजराजा प्रथम द्वारा निर्मित तंजौर में बृहदीश्वर मंदिर द्वारा प्रदान किया गया है। इसे राजराजा मंदिर भी कहा जाता है क्योंकि चोलों की आदत थी कि वे मंदिरों के प्रांगणों में राजाओं और रानियों की प्रतिमाएँ स्थापित करते थे। गंगईकोंडाचोलपुरम का मंदिर, हालांकि जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है, चोलों के अधीन मंदिर स्थापत्य का एक और बेहतरीन उदाहरण है। दक्षिण भारत में अन्य स्थानों पर भी बड़ी संख्या में मंदिर बनाए गए। हालाँकि, यह याद रखना अच्छा होगा कि इनमें से कुछ गतिविधियों के लिए आय चोल शासकों द्वारा पड़ोसी क्षेत्रों की आबादी की लूट से प्राप्त की गई थी। चोलों के पतन के बाद, मंदिर निर्माण गतिविधि कल्याणी के चालुक्य और होयसल के अधीन जारी रही। धारवाड़ जिले और होयसल की राजधानी हलेबिड में बड़ी संख्या में मंदिर थे। इनमें से सबसे शानदार होयसलेश्वर मंदिर है। यह चालुक्य शैली का सबसे अच्छा उदाहरण है। देवताओं और उनके सेवकों, पुरुषों और महिलाओं दोनों की छवियों के अलावा(यलशा और यक्षिणी) मंदिरों में बारीक नक्काशीदार पैनल हैं जो नृत्य, संगीत और युद्ध और प्रेम के दृश्यों सहित जीवन का एक व्यस्त चित्रमाला दिखाते हैं। इस प्रकार, जीवन धर्म के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ था। आम आदमी के लिए, मंदिर केवल पूजा के लिए एक स्थान नहीं थे, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का केंद्र भी थे। इस अवधि के दौरान दक्षिण भारत में मूर्तिकला की कला ने उच्च स्तर प्राप्त किया। इसका एक उदाहरण श्रवण बेलगोला में गोमतेश्वर की विशाल मूर्ति थी। एक अन्य पहलू मूर्ति निर्माण था जो नटराज नामक शिव की नृत्य आकृति में अपने चरम पर पहुंच गया। इस अवधि के नटराज के आंकड़े, विशेष रूप से कांस्य में, उत्कृष्ट कृतियाँ मानी जाती हैं। इसके कई बेहतरीन उदाहरण भारत और विदेशों के संग्रहालयों में पाए जा सकते हैं। इस काल में विभिन्न राजवंशों के शासकों ने कला और साहित्य को भी संरक्षण दिया। जबकि संस्कृत को उच्च संस्कृति की भाषा माना जाता था और कई राजाओं के साथ-साथ विद्वानों और दरबारी कवियों ने भी इसमें लिखा था, इस काल की एक उल्लेखनीय विशेषता भारत की स्थानीय भाषाओं में साहित्य का विकास था। छठी और नौवीं शताब्दी के बीच तमिल राज्यों में कई लोकप्रिय संत हुए जिन्हें नयनमार और अलवर कहा जाता था जो क्रमशः शिव और विष्णु के भक्त थे। उन्होंने अपनी रचनाएँ तमिल में लिखीं। शैव संतों की रचनाएँ, जिन्हें बारहवीं शताब्दी के आरंभ में तिरुमुरई नाम से ग्यारह खंडों में संग्रहित किया गया था, पवित्र मानी जाती हैं और उन्हें पाँचवाँ वेद माना जाता है। कंबन का युग, जिसे ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और बारहवीं शताब्दी के आरंभ में रखा गया है, तमिल साहित्य में स्वर्ण युग माना जाता है। कंबन की रामायण को तमिल साहित्य में एक क्लासिक माना जाता है। माना जाता है कि कंबन चोल राजा के दरबार में रहते थे। कई अन्य लोगों ने भी रामायण और महाभारत से अपने विषय लिए और इस तरह इन क्लासिक्स को लोगों के करीब लाया। तमिल से छोटी होने के बावजूद कन्नड़ भी इस अवधि के दौरान एक साहित्यिक भाषा बन गई। राष्ट्रकूट, चालुक्य और होयसल शासकों ने कन्नड़ के साथ-साथ तेलुगु को भी संरक्षण दिया। राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष ने कन्नड़ में काव्यशास्त्र पर एक किताब लिखी। कई जैन विद्वानों ने भी कन्नड़ के विकास में योगदान दिया। पंपा, पोन्ना और रन्न को कन्नड़ कविता के तीन रत्न माना जाता है। हालाँकि वे-जैन धर्म के अलावा, उन्होंने रामायण और महाभारत से लिए गए विषयों पर भी लिखा। चालुक्य राजा के दरबार में रहने वाले नन्नैया ने महाभारत का तेलुगु संस्करण शुरू किया। उनके द्वारा शुरू किया गया काम तेरहवीं शताब्दी में टिक्कन्ना द्वारा पूरा किया गया था। तमिल रामायण की तरह, तेलुगु महाभारत भी एक क्लासिक है जिसने बाद के कई लेखकों को प्रेरित किया। इन साहित्यों में कई लोक या लोकप्रिय विषय भी मिलते हैं। लोकप्रिय विषय जो संस्कृत से नहीं लिए गए थे और जो लोकप्रिय भावनाओं और भावनाओं को दर्शाते हैं उन्हें तेलुगु में देसी या ग्रामीण कहा जाता है। इस प्रकार, हम देख सकते हैं कि आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक का समय न केवल क्षेत्रीय राज्यों के विकास और क्षेत्रीय एकीकरण के लिए उल्लेखनीय था, बल्कि सांस्कृतिक विकास और दक्षिण भारत में व्यापार और वाणिज्य और कृषि के विकास का भी काल था। चोलों के अधीन विदेशी व्यापार के विकास के साथ व्यापारियों और कारीगरों ने अपनी ताकत बढ़ाई।
- उत्तरी भारत: तीन साम्राज्यों का युग
उत्तरी भारत: तीन साम्राज्यों का युग (800-1000) हर्ष के साम्राज्य के बाद, उत्तर भारत, दक्कन और दक्षिण भारत में कई बड़े राज्यों का उदय हुआ। उत्तर भारत में गुप्त और हर्ष के साम्राज्य के विपरीत, उत्तर भारत का कोई भी अन्य राज्य पूरी गंगा घाटी को अपने नियंत्रण में नहीं ला सका। अपनी जनसंख्या और अन्य संसाधनों के साथ गंगा घाटी वह आधार थी जिस पर गुप्त शासकों और हर्ष ने समृद्ध समुद्री बंदरगाहों और निर्माताओं के साथ व्यापार किया, जो विदेशी व्यापार के लिए महत्वपूर्ण था। मालवा और राजस्थान गंगा घाटी और भारत के बीच आवश्यक संपर्क थे। गुजरात। इसने उत्तर भारत में एक साम्राज्य की भौगोलिक सीमाओं को परिभाषित किया। दक्षिण भारत में, चोल कृष्णा, गोदावरी और कावेरी को अपने नियंत्रण में लाने में सक्षम थे। यह दक्षिण भारत में उनके वर्चस्व का आधार था। उत्तर भारत और दक्कन में 750 और 1000 ईस्वी के बीच बड़े राज्य उभरे। ये पाल साम्राज्य थे, जिन्होंने नौवीं शताब्दी के मध्य तक पूर्वी भारत पर प्रभुत्व किया; प्रतिहार साम्राज्य, जिसने मध्य तक पश्चिमी भारत और ऊपरी गंगा घाटी पर प्रभुत्व किया। दसवीं शताब्दी के अंत में, राष्ट्रकूट साम्राज्य ने दक्कन पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया और उत्तर तथा दक्षिण भारत के क्षेत्रों पर भी नियंत्रण किया। इसके बाद, उसने बड़े क्षेत्रों में स्थिर सरकारें बनाईं, कृषि का विस्तार किया, तालाब और नहरें बनवाईं और मंदिरों सहित कला और साहित्य को संरक्षण दिया। तीनों में से राष्ट्रकूट साम्राज्य सबसे लंबे समय तक चला। यह न केवल उस समय का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था, बल्कि आर्थिक और सांस्कृतिक मामलों में उत्तर और दक्षिण भारत के बीच एक सेतु का काम भी करता था। उत्तर भारत में वर्चस्व के लिए संघर्ष : पाल हर्ष की मृत्यु के बाद का काल राजनीतिक असमंजस का काल था। कुछ समय के लिए कश्मीर के शासक ललितादित्य ने पंजाब को अपने अधीन कर लिया और कन्नौज पर भी नियंत्रण कर लिया, जिसे हर्ष के समय से ही उत्तर भारत की संप्रभुता का प्रतीक माना जाता था - एक ऐसा स्थान जिसे बाद में दिल्ली ने हासिल किया। कन्नौज पर नियंत्रण का मतलब ऊपरी गंगा घाटी और उसके व्यापार और कृषि के समृद्ध संसाधनों पर नियंत्रण भी था। ललितादित्य ने बंगाल या गौड़ पर भी आक्रमण किया और उसके राजा को मार डाला। लेकिन पाल और गुर्जर-प्रतिहारों के उदय के साथ उसकी शक्ति कम हो गई। पाल और प्रतिहार बनारस से दक्षिण बिहार तक फैले क्षेत्र पर नियंत्रण के लिए एक-दूसरे से भिड़ गए, जिसमें फिर से समृद्ध संसाधन और अच्छी तरह से विकसित शाही परंपराएँ थीं। प्रतिहारों का दक्कन के राष्ट्रकूटों से भी टकराव हुआ। पाल साम्राज्य की स्थापना गोपाल ने की थी, संभवतः 750 ई. में जब उन्हें क्षेत्र के प्रतिष्ठित लोगों द्वारा वहां व्याप्त अराजकता को समाप्त करने के लिए राजा चुना गया था। गोपाल का जन्म किसी उच्च या शाही परिवार में नहीं हुआ था, उनके पिता संभवतः एक सैनिक थे। उन्होंने बंगाल को अपने नियंत्रण में एकीकृत किया और यहां तक कि मगध (बिहार) को भी अपने नियंत्रण में लाया। गोपाल के बाद 770 ई. में उनके बेटे धर्मपाल ने शासन किया, जिन्होंने 1810 ई. तक शासन किया। उनके शासनकाल में कन्नौज और उत्तर भारत पर नियंत्रण के लिए पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूटों के बीच त्रिपक्षीय संघर्ष हुआ। प्रतिहार शासक गौड़ (बंगाल) पर आगे बढ़े, लेकिन निर्णय लिए जाने से पहले ही प्रतिहार शासक को राष्ट्रकूट शासक ध्रुव ने हरा दिया और उन्हें राजस्थान के रेगिस्तान में शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। ध्रुव फिर दक्कन लौट गया। इससे धर्मपाल के लिए मैदान खाली हो गया, जिसने कन्नौज पर कब्जा कर लिया और एक भव्य दरबार आयोजित किया, जिसमें पंजाब, पूर्वी राजस्थान आदि के जागीरदार शासक शामिल हुए। हमें बताया जाता है कि धर्मपाल का शासन उत्तर-पश्चिम में भारत की सबसे दूर की सीमा तक फैला हुआ था और शायद इसमें मालवा और बरार भी शामिल थे। जाहिर है, इसका मतलब यह था कि इन क्षेत्रों के शासकों ने धर्मपाल की अधीनता स्वीकार कर ली थी। हालाँकि, धर्मपाल उत्तर भारत में अपनी शक्ति को मजबूत नहीं कर सका। नागभट्ट द्वितीय के अधीन प्रतिहार शक्ति पुनर्जीवित हुई। धर्मपाल पीछे हट गया, लेकिन मोंग्यिर के पास पराजित हो गया। बिहार और आधुनिक पूर्वी उत्तर प्रदेश के बीच विवाद का विषय बना रहा। पाल और प्रतिहार। हालाँकि, बंगाल के अलावा बिहार भी अधिकांश समय पालों के नियंत्रण में रहा। उत्तर में विफलता ने पाल शासकों को अपनी ऊर्जा को दूसरी दिशाओं में मोड़ने के लिए मजबूर किय धर्मपाल के पुत्र देवपाल, जो 810 ई. में सिंहासन पर बैठे और 40 वर्षों तक शासन किया, ने प्रागज्योतिषपुर (असम) और उड़ीसा के कुछ हिस्सों पर अपना नियंत्रण बढ़ाया। संभवतः आधुनिक नेपाल का एक हिस्सा भी पाल आधिपत्य में लाया गया था। इस प्रकार, आठवीं शताब्दी के मध्य से लेकर नौवीं शताब्दी के मध्य तक लगभग सौ वर्षों तक पाल शासकों ने पूर्वी भारत पर अपना प्रभुत्व बनाए रखा। कुछ समय के लिए उनका नियंत्रण वाराणसी तक फैल गया। उनकी शक्ति का प्रमाण एक अरब व्यापारी सुलेमान द्वारा दिया गया है, जो नौवीं शताब्दी के मध्य में भारत आया था और उसने इसका विवरण लिखा था। वह पाल साम्राज्य को रुहमा (या धर्म, संक्षिप्त रूप से ऊहरमपाल) कहते हैं, और कहते हैं कि पाल शासक अपने पड़ोसियों, प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों के साथ युद्ध में था, लेकिन उसके सैनिक उसके विरोधियों की तुलना में अधिक संख्या में थे। वह हमें बताता है कि पाल राजा के साथ 50,000 हाथियों की सेना होना आम बात थी, और उसकी सेना में 10,000-15,000 लोग 'कपड़े धोने और कपड़े सिलने' के काम में लगे थे। भले ही ये आंकड़े अतिरंजित हों, हम यह मान सकते हैं कि पालों के पास एक बड़ी सैन्य शक्ति थी। लेकिन हम नहीं जानते कि उनके पास एक बड़ी स्थायी सेना थी या उनकी सेना में ज्यादातर सामंती सेनाएँ थीं। पालों के बारे में जानकारी हमें तिब्बती इतिहास से भी मिलती है, हालाँकि ये सत्रहवीं शताब्दी में लिखे गए थे। इनके अनुसार पाल शासक बौद्ध शिक्षा और धर्म के महान संरक्षक थे। नालंदा विश्वविद्यालय जो पूरे पूर्वी विश्व में प्रसिद्ध था, धर्मपाल द्वारा पुनर्जीवित किया गया था, और इसके खर्चों को पूरा करने के लिए 200 गाँव अलग रखे गए थे। उन्होंने विक्रमशिला विश्वविद्यालय की भी स्थापना की, जो नालंदा के बाद दूसरे स्थान पर था। यह मगध में गंगा के तट पर एक पहाड़ी की चोटी पर, सुखद वातावरण के बीच स्थित था। पाल शासकों ने कई विहार बनवाए, जिनमें बड़ी संख्या में बौद्ध भिक्षु रहते थे। पाल शासकों के तिब्बत के साथ घनिष्ठ सांस्कृतिक संबंध भी थे। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान संतरक्षित और दीपांकर (जिन्हें अतिसा कहा जाता था) को तिब्बत आमंत्रित किया गया था, और उन्होंने वहाँ बौद्ध धर्म का एक नया रूप पेश किया। परिणामस्वरूप, कई तिब्बती बौद्ध अध्ययन के लिए नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों में आए। हालाँकि पाल शासकों ने बौद्ध धर्म को बढ़ावा दिया, लेकिन वे तिब्बती बौद्ध धर्म के अनुयायी नहीं थे। बौद्ध धर्म के समर्थकों के अलावा, उन्होंने शैव और वैष्णव धर्म को भी अपना संरक्षण प्रदान किया। उन्होंने उत्तर भारत से बड़ी संख्या में ब्राह्मणों को अनुदान दिया, जो बंगाल में आकर बस गए। उनकी बस्तियों ने क्षेत्र में खेती के विस्तार में मदद की और कई चरवाहों और खाद्य-संग्रहकर्ताओं को खेती करने के लिए मजबूर किया। बंगाल की बढ़ती समृद्धि ने दक्षिण पूर्व एशिया के देशों-बर्मा, मलाया, जावा, सुमात्रा आदि के साथ व्यापार और सांस्कृतिक संपर्क बढ़ाने में मदद की। दक्षिण पूर्व एशिया के साथ व्यापार बहुत लाभदायक था और इसने पाल साम्राज्य की समृद्धि में बहुत योगदान दिया और इन देशों से बंगाल में सोने और चांदी के आगमन को बढ़ावा दिया। शक्तिशाली शैलेन्द्र राजवंश, जो बौद्ध धर्म में आस्था रखता था और जिसने मलाया, जावा, सुमात्रा और पड़ोसी द्वीपों पर शासन किया था, ने पाल दरबार में कई दूतावास भेजे और नालंदा में एक मठ बनाने की अनुमति मांगी, और पाल शासक देवपाल से इसके रखरखाव के लिए पाँच गाँव देने का अनुरोध किया। अनुरोध स्वीकार कर लिया गया और यह दोनों साम्राज्यों के बीच घनिष्ठ संबंधों का प्रमाण है। प्रतिहार जिन प्रतिहारों ने लंबे समय तक कन्नौज पर शासन किया, उन्हें गुर्जर-प्रतिहार भी कहा जाता है। अधिकांश विद्वान मानते हैं कि वेगुर्जरों से उत्पन्न हुए थे जो जाटों की तरह पशुपालक और लड़ाकू थे।प्रतिहारों ने मध्य और पूर्वी राजस्थान में कई रियासतें स्थापित कीं।मालवा और गुजरात पर नियंत्रण के लिए उनका राष्ट्रकूटों से टकराव हुआ और बाद में कन्नौज के लिए, जिसका तात्पर्य ऊपरी गंगा घाटी पर नियंत्रण था। प्रतिहारों ने सबसे पहले भीनमाल में अपनी राजधानी बनाई थी, लेकिन नागभट्ट प्रथम के अधीन उन्हें प्रमुखता मिली, जिन्होंने सिंध के अरब शासकों को कड़ा प्रतिरोध दिया, जो राजस्थान, गुजरात, पंजाब आदि पर अतिक्रमण करने की कोशिश कर रहे थे। अरबों ने गुजरात की ओर एक बड़ा हमला किया, लेकिन 738 में गुजरात के चालुक्य शासक द्वारा उन्हें निर्णायक रूप से पराजित कर दिया गया। हालाँकि अरबों के छोटे-मोटे हमले जारी रहे, लेकिन उसके बाद अरबों ने कोई ख़तरा नहीं रहा। ऊपरी गंगा घाटी और मालवा पर अपना नियंत्रण बढ़ाने के शुरुआती प्रतिहार शासकों के प्रयासों को राष्ट्रकूट शासकों ध्रुव और गोपाल तृतीय ने पराजित कर दिया। 790 और फिर 806-07 में राष्ट्रकूटों ने प्रतिहारों को हराया और फिर वापस दक्कन की ओर चले गए, जिससे पालों के लिए मैदान खुला रह गया। शायद राष्ट्रकूटों का मुख्य उद्देश्य मालवा और गुजरात पर आधिपत्य जमाना था। प्रतिहार साम्राज्य के वास्तविक संस्थापक और राजवंश के सबसे महान शासक भोज थे। भोज के आरंभिक जीवन या उनके सिंहासन पर बैठने के समय के बारे में हमें अधिक जानकारी नहीं है। उन्होंने साम्राज्य का पुनर्निर्माण किया और लगभग 836 ई. तक उन्होंने कन्नौज को पुनः प्राप्त कर लिया, जो लगभग एक शताब्दी तक प्रतिहार साम्राज्य की राजधानी रहा। भोज ने पूर्व में अपना प्रभुत्व बढ़ाने का प्रयास किया, लेकिन पाल शासक देवपाल ने उन्हें पराजित कर दिया। इसके बाद उन्होंने मध्य भारत और दक्कन तथा गुजरात की ओर रुख किया। इससे राष्ट्रकूटों के साथ संघर्ष फिर से शुरू हो गया। नर्मदा के तट पर एक खूनी लड़ाई में भोज मालवा के काफी हिस्से और गुजरात के कुछ हिस्सों पर अपना नियंत्रण बनाए रखने में सफल रहे। लेकिन वह दक्कन में आगे नहीं बढ़ सका। इसलिए उसने अपना ध्यान फिर से उत्तर की ओर लगाया। एक शिलालेख के अनुसार, उसका क्षेत्र सतलुज नदी के पश्चिमी किनारे तक फैला हुआ था। अरब यात्री हमें बताते हैं कि प्रतिहार शासकों के पास भारत में सबसे अच्छी घुड़सवार सेना थी। मध्य एशिया और अरब से घोड़ों का आयात उस समय भारत के व्यापार का एक महत्वपूर्ण सामान था। देवपाल की मृत्यु और पाल साम्राज्य के कमजोर होने के बाद, भोज ने पूर्व में भी अपने साम्राज्य का विस्तार किया। भोज का नाम किंवदंतियों में प्रसिद्ध है। शायद, अपने जीवन के शुरुआती हिस्से में भोज के साहसिक कारनामों, अपने खोए हुए साम्राज्य की क्रमिक पुनः विजय और कन्नौज की अंतिम वापसी ने उनके समकालीनों की कल्पना को प्रभावित किया। भोज विष्णु के भक्त थे, और उन्होंने 'आदिवराह' की उपाधि धारण की, जो उनके कुछ सिक्कों में अंकित पाई गई है। उन्हें कभी-कभी मिहिर भोज कहा जाता है ताकि उन्हें उज्जाल के भोज परमार से अलग किया जा सके जिन्होंने थोड़े बाद में शासन किया। भोज की मृत्यु संभवतः 885 में हुई थी। उनके बाद महेंद्रपाल प्रथम ने शासन किया। महेंद्रपाल ने लगभग 908-09 तक शासन किया और भोज के साम्राज्य को बनाए रखा तथा इसे मगध और उत्तरी बंगाल तक फैलाया। उनके शिलालेख काठियावाड़, पूर्वी पंजाब और अवध में भी पाए गए हैं। महेंद्रपाल ने कश्मीर के राजा के साथ युद्ध लड़ा लेकिन उसे भोज द्वारा जीते गए पंजाब के कुछ क्षेत्रों को उसे सौंपना पड़ा। इस प्रकार, पाटीहारों ने नौवीं शताब्दी की शुरुआत से लेकर दसवीं शताब्दी के मध्य तक सौ से अधिक वर्षों तक उत्तर भारत पर अपना आधिपत्य बनाए रखा। बगदाद के मूल निवासी अल-मसूदी, जिन्होंने 915-16 में गुजरात का दौरा किया था, इस बात की गवाही देते हैं। प्रतिहार शासकों की महान शक्ति और प्रतिष्ठा और उनके साम्राज्य की विशालता के लिए। वह गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य को अल-जुजर (गुर्जर का एक भ्रष्ट रूप) कहता है, और राजा बौरा, संभवतः भोज द्वारा प्रयुक्त आदिवराह की गलत उच्चारण उपाधि है, हालाँकि उस समय तक भोज की मृत्यु हो चुकी थी। अल-मसूदी का कहना है कि जुजर के साम्राज्य में 1,80,000 गाँव, शहर और ग्रामीण क्षेत्र थे और यह लगभग 2000 किमी लंबा और 2000 किमी चौड़ा था। राजा की सेना में चार डिवीजन थे, जिनमें से प्रत्येक में 7,00,000 से 9,00,000 पुरुष थे: 'उत्तर की सेना के साथ वह मुल्तान के शासक और अन्य मुसलमानों के खिलाफ लड़ता है जो उसके साथ गठबंधन करते हैं।' दक्षिण की सेना ने राष्ट्रकूटों के खिलाफ लड़ाई लड़ी, और पूर्व की सेना ने पालों के खिलाफ। उसके पास युद्ध के लिए प्रशिक्षित केवल 2000 हाथी थे, लेकिन देश के किसी भी राजा की तुलना में यह सबसे अच्छी घुड़सवार सेना थी। प्रतिहार विद्या और साहित्य के संरक्षक थे। महान संस्कृत कवि और नाटककार राजशेखर भोज के पोते महिपाल के दरबार में रहते थे। प्रतिहारों ने कन्नौज को कई बेहतरीन इमारतों और मंदिरों से भी सजाया। आठवीं और नौवीं शताब्दी के दौरान, कई भारतीय विद्वान बगदाद में खलीफा के दरबार में दूतावासों के साथ गए। इन विद्वानों ने भारतीय विज्ञान, विशेष रूप से गणित, बीजगणित और चिकित्सा को अरब दुनिया में पेश किया। हमें उन भारतीय राजाओं के नाम नहीं पता जिन्होंने ये दूतावास भेजे। प्रतिहार सिंध के अरब शासकों के प्रति अपनी शत्रुता के लिए प्रसिद्ध थे। इसके बावजूद, ऐसा लगता है कि भारत और पश्चिम एशिया के बीच विद्वानों और सामानों की आवाजाही इस अवधि के दौरान भी जारी रही। 915 और 918 के बीच, राष्ट्रकूट राजा इंद्र ने कन्नौज पर फिर से हमला किया और शहर को तबाह कर दिया। इससे प्रतिहार साम्राज्य कमज़ोर हो गया और गुजरात संभवतः राष्ट्रकूटों के हाथों में चला गया, क्योंकि अल-मसूदी हमें बताता है कि प्रतिहार साम्राज्य की समुद्र तक पहुँच नहीं थी। गुजरात का नुकसान, जो विदेशी व्यापार का केंद्र था और पश्चिम एशियाई देशों में उत्तर भारतीय सामानों के लिए मुख्य आउटलेट था, प्रतिहारों के लिए एक और झटका था। एक अन्य राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय ने लगभग 963 में उत्तर भारत पर आक्रमण किया और प्रतिहार शासक को हराया। इसके बाद प्रतिहार साम्राज्य का तेजी से विघटन हुआ। जब पाल और प्रतिहार उत्तर भारत पर शासन कर रहे थे, तब दक्कन पर राष्ट्रकूटों का शासन था, जो एक उल्लेखनीय राजवंश था, जिसने योद्धाओं और योग्य प्रशासकों की एक लंबी श्रृंखला तैयार की। इस राज्य की स्थापना दंतिदुर्ग ने की थी, जिन्होंने आधुनिक शोलापुर के पास मान्यखेत या मालखेड में अपनी राजधानी स्थापित की थी। राष्ट्रकूटों ने जल्द ही उत्तरी महाराष्ट्र के पूरे क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया। उन्होंने गुजरात और मालवा के आधिपत्य के लिए प्रतिहारों से भी मुकाबला किया, जैसा कि हमने ऊपर देखा है। हालाँकि उनके आक्रमणों के परिणामस्वरूप राष्ट्रकूट साम्राज्य का विस्तार गंगा घाटी तक नहीं हुआ, लेकिन वे बहुत सारा लूटपाट लेकर आए और राष्ट्रकूटों की प्रसिद्धि में इज़ाफा किया। राष्ट्रकूटों ने वेंगी (आधुनिक आंध्र प्रदेश में) के पूर्वी चालुक्यों और दक्षिण में कांची के पल्लवों और मदुरै के पांड्यों के खिलाफ़ भी लगातार लड़ाई लड़ी। संभवतः सबसे महान राष्ट्रकूट शासक गोविंदा तृतीय (793-814) और अमोघवर्ष (814-878) थे। कन्नौज के नागभट्ट के विरुद्ध सफल अभियान और मालवा पर कब्ज़ा करने के बाद गोविंदा तृतीय दक्षिण की ओर मुड़ गए। एक शिलालेख में हमें बताया गया है कि गोविंदा ने 'केरल, पांड्या और चोल राजाओं को भयभीत कर दिया और पल्लवों को नष्ट कर दिया। कर्नाटक के गंग, जो नीचता के कारण असंतुष्ट हो गए थे, उन्हें बेड़ियों में जकड़ दिया गया और उनकी मृत्यु हो गई।' लंका के राजा और उनके मंत्री, जो अपने हितों के प्रति लापरवाह थे, उन्हें पकड़ लिया गया और उन्हें कैदी बनाकर हलापुर लाया गया। लंका के राजा की दो मूर्तियाँ मान्यखेत ले जाई गईं और शिव मंदिर के सामने विजय के स्तंभों की तरह स्थापित की गईं। अमोघवर्ष ने 64 वर्षों तक शासन किया, लेकिन स्वभाव से उन्होंने युद्ध की अपेक्षा धर्म और साहित्य की खोज को प्राथमिकता दी। वे स्वयं एक लेखक थे और उन्हें काव्यशास्त्र पर पहली कन्नड़ पुस्तक लिखने का श्रेय दिया जाता है। वे एक महान निर्माता थे और कहा जाता है कि उन्होंने इंद्र नगर को श्रेष्ठ बनाने के लिए राजधानी मान्यखेत का निर्माण किया था। अमोघवर्ष के अधीन सुदूर राष्ट्रकूट साम्राज्य में कोई विद्रोह नहीं हुआ। इन्हें मुश्किल से रोका जा सका और उनकी मृत्यु के बाद ये फिर से शुरू हो गए। उनके पोते इंद्र तृतीय (915-927) ने साम्राज्य को फिर से स्थापित किया। 915 में महिपाल की हार और कन्नौज की लूट के बाद इंद्र तृतीय अपने समय का सबसे शक्तिशाली शासक था।उस समय भारत आए अल-मसूदी के अनुसार, राष्ट्रकूट राजा बलहारा या वल्लभराज भारत के सबसे महान राजा थे और अधिकांश भारतीय शासक उनकी अधीनता स्वीकार करते थे और उनके दूतों का सम्मान करते थे। उनके पास बड़ी सेनाएँ और असंख्य हाथी थे। कृष्ण तृतीय (934-963) प्रतिभाशाली शासकों की पंक्ति में अंतिम थे। वह मालवा के परनारास और वेंगी के पूर्वी चालुक्यों के खिलाफ संघर्ष में लगे हुए थे। उन्होंने तंजौर के क्लियोला शासक के खिलाफ भी अभियान चलाया, जिसने कांची के पालफवों को हटा दिया था। कृष्ण तृतीय ने चोल राजा परंतक प्रथम (949 ई.) को हराया और चोल साम्राज्य के उत्तरी भाग पर कब्ज़ा कर लिया। फिर उन्होंने रामेश्वरम की ओर दबाव डाला और वहाँ विजय का एक स्तंभ स्थापित किया और एक मंदिर बनवाया। उनकी मृत्यु के बाद, उनके सभी विरोधी उनके उत्तराधिकारी के खिलाफ एकजुट हो गए। राष्ट्रकूट की राजधानी मालखेड को 972 में लूट लिया गया और जला दिया गया। इसने राष्ट्रकूट साम्राज्य के अंत को चिह्नित किया। इस प्रकार दक्कन में राष्ट्रकूट शासन लगभग दो सौ वर्षों तक चला, दसवीं शताब्दी के अंत तक। राष्ट्रकूट शासक अपने धार्मिक विचारों में सहिष्णु थे और न केवल शैव और वैष्णव बल्कि जैन धर्म को भी संरक्षण देते थे। एलोरा में शिव का प्रसिद्ध चट्टान-कट मंदिर नौवीं शताब्दी में राष्ट्रकूट राजाओं में से एक कृष्ण प्रथम द्वारा बनाया गया था। उनके उत्तराधिकारी अमोघवर्ष के बारे में कहा जाता है कि वे जैन थे, लेकिन उन्होंने अन्य धर्मों का भी संरक्षण किया। राष्ट्रकूटों ने मुस्लिम व्यापारियों को बसने की अनुमति दी और अपने प्रभुत्व में इस्लाम का प्रचार करने की अनुमति दी। हमें बताया जाता है कि मुसलमानों का अपना मुखिया था और राष्ट्रकूट साम्राज्य के कई तटीय शहरों में उनकी दैनिक प्रार्थना के लिए बड़ी मस्जिदें थीं। इस सहिष्णु नीति ने विदेशी व्यापार को बढ़ावा देने में मदद की जिससे राष्ट्रकूट समृद्ध हुए। राष्ट्रकूट राजा कला और साहित्य के महान संरक्षक थे। उनके दरबार में, हम न केवल संस्कृत के विद्वान पाते हैं, बल्कि कवि और अन्य लोग भी पाते हैं जो प्रकृति और अपभ्रंश में लिखते थे; इसलिए भ्रष्ट भाषाएँ लिखी गईं जो विभिन्न आधुनिक भारतीय भाषाओं की अग्रदूत थीं। महान अपभ्रंश कवि स्वयंभू और उनके पुत्र संभवतः राष्ट्रकूट दरबार में रहते थे। राजनीतिक विचार और संगठन इन साम्राज्यों में प्रशासन की व्यवस्था गुप्त साम्राज्य, उत्तर में हर्ष के साम्राज्य और दक्कन में चालुक्यों के विचारों और प्रथाओं पर आधारित थी। पहले की तरह, सम्राट सभी मामलों का केंद्र था। वह प्रशासन का प्रमुख होने के साथ-साथ सशस्त्र बलों का सेनापति भी था। वह एक शानदार दरबार में बैठता था। पैदल सेना और घुड़सवार सेना के दस्ते प्रांगण में तैनात रहते थे। पकड़े गए युद्ध-हाथी और घोड़ों को उसके सामने परेड कराया जाता था। उसके साथ शाही कक्षपाल भी होते थे, जो जागीरदारों, सामंतों, राजदूतों और अन्य उच्च अधिकारियों के आने-जाने को नियंत्रित करते थे, जो नियमित रूप से राजा की सेवा करते थे। राजा न्याय भी करता था। दरबार न केवल राजनीतिक मामलों और न्याय का केंद्र था, बल्कि सांस्कृतिक जीवन का भी केंद्र था। दरबार में नर्तकियाँ और कुशल संगीतकार उपस्थित रहते थे। राजा के घर की महिलाएँ भी उत्सव के अवसरों पर दरबार में उपस्थित रहती थीं। अरब लेखकों के अनुसार राष्ट्रकूट साम्राज्य में महिलाएँ अपना चेहरा नहीं ढकती थीं। राजा का पद आम तौर पर वंशानुगत होता था। उस समय के विचारकों ने समय की असुरक्षा के कारण राजा के प्रति पूर्ण निष्ठा और आज्ञाकारिता पर जोर दिया। राजाओं के बीच और राजाओं और उनके जागीरदारों के बीच अक्सर युद्ध होते रहते थे। हालाँकि राजा अपने राज्यों में कानून और व्यवस्था बनाए रखने का प्रयास करते थे, लेकिन उनकी भुजाएँ शायद ही कभी बहुत दूर तक फैली होती थीं। जागीरदार शासक और स्वायत्त सरदार अक्सर राजा के प्रत्यक्ष प्रशासन के क्षेत्र को सीमित कर देते थे, हालाँकि राजाओं ने महाराजाधिराज परम-भट्टारक आदि जैसी उच्च पदवियाँ अपनाईं और सभी भारतीय शासकों में चक्रवर्ती या सर्वोच्च होने का दावा किया। समकालीन लेखक मेधातिथि का मानना है कि चोरों और हत्यारों से अपनी रक्षा के लिए हथियार रखना व्यक्ति का अधिकार था। उनका यह भी मानना है कि अन्यायी राजा का विरोध करना उचित था। इस प्रकार, मुख्य रूप से पोत्राणों में प्रस्तुत शाही अधिकारों और विशेषाधिकारों के बारे में चरम दृष्टिकोण सभी विचारकों द्वारा स्वीकार नहीं किया गया था। उत्तराधिकार के बारे में नियम कठोर रूप से तय नहीं थे। सबसे बड़ा बेटा अक्सर उत्तराधिकारी बनता था, लेकिन ऐसे कई उदाहरण हैं जब सबसे बड़े बेटे को अपने छोटे भाइयों से लड़ना पड़ा और कभी-कभी उनसे हार गया। इस प्रकार; राष्ट्रकूट शासक ध्रुव और गोविंदा चतुर्थ ने अपने बड़े भाइयों को पदच्युत कर दिया। कभी-कभी शासक सबसे बड़े बेटे या किसी अन्य पसंदीदा बेटे को अपना युवराज या उत्तराधिकारी नियुक्त करते थे। उस स्थिति में, युवराज राजधानी में रहता था और प्रशासन के काम में मदद करता था। छोटे बेटों को कभी-कभी प्रांतीय गवर्नर नियुक्त किया जाता था। राजकुमारियों को सरकारी पदों पर शायद ही कभी नियुक्त किया जाता था, लेकिन हमारे पास एक उदाहरण है जब राष्ट्रकूट राजकुमारी, चंद्रबलाबे, जो अमोघवर्ष प्रथम की बेटी थी, ने कुछ समय के लिए रायचूर दोआब का प्रशासन किया था। राजाओं को आम तौर पर कई मंत्रियों द्वारा सलाह दी जाती थी। मंत्रियों को राजा द्वारा चुना जाता था, आम तौर पर प्रमुख परिवारों से। उनका पद अक्सर वंशानुगत होता था। इस प्रकार, पाल राजाओं के मामले में, हम सुनते हैं कि एक ब्राह्मण परिवार ने धर्मपाल और उसके उत्तराधिकारियों को चार क्रमिक मुख्य मंत्री प्रदान किए। ऐसे मामलों में, मंत्री बहुत शक्तिशाली हो सकते थे। हालाँकि हम केंद्रीय सरकार के कई विभागों के बारे में सुनते हैं, लेकिन हमें नहीं पता कि उनमें से कितने थे और वे कैसे काम करते थे; पुरालेख और साहित्यिक अभिलेखों से, ऐसा प्रतीत होता है कि लगभग हर राज्य में एक पत्राचार मंत्री होता था जिसमें विदेशी मामले, एक राजस्व मंत्री, कोषाध्यक्ष, सशस्त्र बलों के प्रमुख (सेनापति), मुख्य न्यायाधीश, और पुरोहित शामिल होते थे। एक से अधिक पद एक व्यक्ति में समाहित किए जा सकते थे, और शायद मंत्रियों में से एक को मुख्य मंत्री माना जाता था, जिस पर राजा दूसरों की तुलना में अधिक निर्भर करता था। पुरोहित को छोड़कर सभी मंत्रियों से अपेक्षा की जाती थी कि वे सैन्य अभियानों का नेतृत्व भी करें, जब ऐसा करने के लिए कहा जाए। हम शाही घराने (अंतपुर) के अधिकारियों के बारे में भी सुनते हैं। चूँकि राजा सभी शक्तियों का स्रोत था, इसलिए घराने के कुछ अधिकारी बहुत शक्तिशाली हो गए। साम्राज्य के रखरखाव और विस्तार के लिए सशस्त्र सेनाएँ बहुत महत्वपूर्ण थीं। हमने पहले ही अरब यात्रियों से साक्ष्य उद्धृत किए हैं कि पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूट राजाओं के पास बड़ी और सुव्यवस्थित पैदल सेना और घुड़सवार सेना थी, और बड़ी संख्या में युद्ध-हाथी थे। हाथियों को शक्ति का तत्व माना जाता था और उन्हें बहुत महत्व दिया जाता था। हाथियों की सबसे बड़ी संख्या पाल राजाओं के पास थी। राष्ट्रकूट और प्रतिहार राजाओं ने अरब और पश्चिम एशिया से समुद्र के रास्ते और खुरासान (पूर्वी फारस) और मध्य एशिया से ज़मीन के रास्ते बड़ी संख्या में घोड़े आयात किए थे। माना जाता है कि प्रतिहार राजाओं के पास देश की सबसे बेहतरीन घुड़सवार सेना थी। युद्ध के लिए इस्तेमाल होने वाले घोड़ों का कोई उल्लेख नहीं है। कुछ राजाओं, खासकर राष्ट्रकूटों के पास बड़ी संख्या में किले थे। वे विशेष सैनिकों द्वारा गढ़ बनाए गए थे और उनके अपने स्वतंत्र कमांडर थे। पैदल सेना में नियमित और अनियमित सैनिक शामिल थे और जागीरदारों द्वारा दिए जाने वाले लेवी भी शामिल थे। नियमित सैनिक अक्सर वंशानुगत होते थे और कभी-कभी पूरे भारत के विभिन्न क्षेत्रों से खींचे जाते थे। इस प्रकार, पाल पैदल सेना में मालवा, खासा (असम), लता (दक्षिण गुजरात) और कर्नाटक के सैनिक शामिल थे। पाल राजाओं और संभवतः राष्ट्रकूटों के पास अपनी नौसेनाएँ थीं, लेकिन हम उनकी ताकत और संगठन के बारे में ज़्यादा नहीं जानते। साम्राज्यों में सीधे प्रशासित क्षेत्र और जागीरदार प्रमुखों द्वारा शासित क्षेत्र शामिल थे। जहाँ तक उनके आंतरिक मामलों का सवाल था, राष्ट्रकूट स्वायत्त थे और उनका एक सामान्य दायित्व था वफ़ादारी, एक निश्चित कर का भुगतान करना और अधिपति को सैनिकों का कोटा प्रदान करना। कभी-कभी, विद्रोह से बचने के लिए किसी जागीरदार प्रमुख के बेटे को अधिपति की सेवा में रहना पड़ता था। जागीरदार प्रमुखों को विशेष अवसरों पर अधिपति के दरबार में उपस्थित होना पड़ता था और कभी-कभी उन्हें अपनी एक बेटी का विवाह अधिपति या उसके किसी बेटे से करना पड़ता था। लेकिन जागीरदार प्रमुख हमेशा स्वतंत्र होने की आकांक्षा रखते थे और उनके और अधिपति के बीच अक्सर युद्ध होते रहते थे। इस प्रकार, राष्ट्रकूटों को वेंगी (आंध्र) और कर्नाटक के जागीरदार प्रमुखों के खिलाफ़ लगातार लड़ना पड़ता था; प्रतिहारों को मालवा के परमारों और बुंदेलखंड के चंदेलों से लड़ना पड़ा। पाल और प्रतिहार साम्राज्यों में प्रत्यक्ष रूप से प्रशासित क्षेत्र भुक्त (प्रांत) और मंडल या विसय (जिला) में विभाजित थे। प्रांत के गवर्नर को उपरिक और जिले के प्रमुख को विसयपति कहा जाता था। उपरिक से भूमि राजस्व एकत्र करने और सेना की मदद से कानून और व्यवस्था बनाए रखने की अपेक्षा की जाती थी। विसयपति को अपने अधिकार क्षेत्र में ऐसा करने की अपेक्षा की जाती थी। इस अवधि के दौरान, छोटे सरदारों का एक समूह था, जिन्हें सामंत या बलजोगपति कहा जाता था, जो कई गांवों पर शासन करते थे। विसयपति और ये छोटे सरदार एक-दूसरे में विलीन हो जाते थे और बाद में उन दोनों के लिए सामंत शब्द का इस्तेमाल अंधाधुंध तरीके से किया जाने लगा। राष्ट्रकूट साम्राज्य में, प्रत्यक्ष रूप से प्रशासित क्षेत्रों को राष्ट्र (प्रांत), विसय और भुक्ति में विभाजित किया गया था। राष्ट्र को राष्ट्रपति कहा जाता था और वह पुरोहित और प्रतिहार साम्राज्यों में उपरीक के समान कार्य करता था। विसय एक आधुनिक जिले की तरह था और भुक्ति उससे छोटी इकाई थी। पाल और प्रतिहार साम्राज्यों में विसय से नीचे की इकाई को पट्टाल कहा जाता था। इन छोटी इकाइयों की सटीक भूमिका ज्ञात नहीं है। ऐसा लगता है कि उनका मुख्य उद्देश्य भूमि राजस्व की वसूली और कानून और व्यवस्था पर कुछ ध्यान देना था। लगभग सभी अधिकारियों को लगान-मुक्त भूमि का अनुदान देकर भुगतान किया जाता था। इससे स्थानीय अधिकारियों और वंशानुगत प्रमुखों के बीच का अंतर धुंधला हो गया और छोटे जागीरदार। इसी तरह, तशत्रपति या राज्यपाल को कभी-कभी जागीरदार राजा का दर्जा और उपाधि प्राप्त होती थी। इन क्षेत्रीय विभाजनों के नीचे गाँव था। गाँव प्रशासन की मूल इकाई था। गाँव का प्रशासन गाँव के मुखिया और गाँव के लेखाकार द्वारा चलाया जाता था, जिनके पद आम तौर पर वंशानुगत होते थे। उन्हें लगान-मुक्त भूमि के अनुदान से भुगतान किया जाता था। मुखिया को अक्सर गाँव के बुजुर्गों द्वारा अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना पड़ता था, जिन्हें ग्राम महाजन या ग्राम महात्तर कहा जाता था। राष्ट्रकूट साम्राज्य में, विशेष रूप से कर्नाटक में, हमें बताया जाता है कि स्थानीय स्कूलों, तालाबों, मंदिरों और सड़कों का प्रबंधन करने के लिए ग्राम समितियाँ थीं। वे ट्रस्ट में धन या संपत्ति भी प्राप्त कर सकते थे और उनका प्रबंधन कर सकते थे। ये उप-समितियाँ मुखिया के साथ घनिष्ठ सहयोग में काम करती थीं और राजस्व संग्रह का एक प्रतिशत प्राप्त करती थीं। साधारण विवादों का भी इन समितियों द्वारा निर्णय लिया जाता था। कस्बों में भी ऐसी ही समितियाँ होती थीं, जिनसे व्यापार संघों के प्रमुख भी जुड़े होते थे। कस्बों और उनके आस-पास के इलाकों में कानून और व्यवस्था बनाए रखना कोष्ट पाल या कोतवाल की जिम्मेदारी थी - एक ऐसा व्यक्ति जो कई कहानियों से जाना जाता है। इस काल की एक महत्वपूर्ण विशेषता दक्कन में वंशानुगत राजस्व अधिकारियों का उदय था जिन्हें नाद गवुंडा या देसा ग्रामकुटा कहा जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि वे महाराष्ट्र में बाद के समय के देशमुखों और देशपांडों के समान कार्य करते थे। इस विकास ने, उत्तर भारत में छोटे सरदारों के साथ, जिनका हमने अभी उल्लेख किया है, समाज और राजनीति पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला। जैसे-जैसे इन वंशानुगत तत्वों की शक्ति बढ़ती गई, ग्राम समितियाँ कमजोर होती गईं। केंद्रीय शासक के लिए भी उन पर अधिकार जमाना और उन्हें नियंत्रित करना मुश्किल था। जब हम कहते हैं कि सरकार 'सामंती' हो रही थी, तो हमारा मतलब यही होता है। ध्यान में रखने वाली एक और बात उस समय राज्य और धर्म के बीच का संबंध है। उस समय के कई शासक शिव या विष्णु के भक्त थे, या वे बौद्ध या जैन धर्म की शिक्षाओं का पालन करते थे। उन्होंने ब्राह्मणों, बौद्ध विहारों या जैन मंदिरों को अच्छा दान दिया। लेकिन, कुल मिलाकर, उन्होंने सभी धर्मों को संरक्षण दिया और किसी को भी उसके धार्मिक विश्वासों के लिए सताया नहीं। मुसलमानों का भी राष्ट्रकूट राजाओं द्वारा स्वागत किया गया और उन्हें अपने धर्म का प्रचार करने की अनुमति दी गई। आम तौर पर, एक राजा को अपने धर्म का प्रचार करने की अनुमति दी जाती थी। पुरोहित से यह अपेक्षा नहीं की जाती थी कि वह रीति-रिवाजों या धर्मशास्त्र नामक विधि-पुस्तकों द्वारा निर्धारित आचार संहिता में हस्तक्षेप करे। लेकिन उसने ब्राह्मणों की रक्षा करने और समाज को चार राज्यों या वर्णों में विभाजित रखने का सामान्य कर्तव्य निभाया। पुरोहित से इस मामले में राजा का मार्गदर्शन करने की अपेक्षा की जाती थी। लेकिन यह नहीं सोचना चाहिए कि पुरोहित राज्य के मामलों में हस्तक्षेप करता था या राजा पर हावी होता था। इस काल में धर्मशास्त्र के सबसे बड़े व्याख्याता मेधातिथि कहते हैं कि राजा का अधिकार धर्मशास्त्रों, जिनमें जच्चा-बच्चा भी शामिल है, और अर्थशास्त्र या राजनीति के विज्ञान, दोनों से प्राप्त होता था। उसका सार्वजनिक कर्तव्य या राजधर्म अर्थशास्त्र, यानी राजनीति के सिद्धांतों पर आधारित होना था। इसका वास्तव में मतलब यह था कि राजनीति और धर्म को, सार रूप में, अलग रखा गया था, धर्म अनिवार्य रूप से राजा का व्यक्तिगत कर्तव्य था। इस प्रकार, राजाओं पर पुजारियों या उनके द्वारा बताए गए पवित्र नियमों का कोई प्रभाव नहीं था। हालाँकि, शासकों की स्थिति को वैध बनाने और मजबूत करने के लिए धर्म महत्वपूर्ण था। इसलिए कई शासकों ने अक्सर अपनी राजधानियों में भव्य मंदिर बनवाए और मंदिरों के रखरखाव और ब्राह्मणों को अच्छी-खासी ज़मीन दी। उत्तरीभारत:तीन साम्राज्यों का युग
- बाल अधिकार-RIGHTS OF CHILDREN
बच्चों के अधिकार वर्तमान समय में बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा एवं संवर्धन की ओर गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है। हालांकि यह मुद्दा सबसे ज्यादा चर्चा में रहा है, लेकिन अभी तक इस संबंध में ज्यादा कुछ हासिल नहीं हो सका है। बचपन किसी भी व्यक्ति के जीवन का सबसे संवेदनशील और कमजोर चरण होता है। इसे समाज में मौजूद सभी बुराइयों से सुरक्षित रखना होगा। बचपन किसी व्यक्ति के समग्र व्यक्तित्व के विकास के लिए महत्वपूर्ण प्रारंभिक वर्ष होता है। आज के बच्चे कल के युवा और देश की भावी पीढ़ी का निर्माण करते हैं। इसलिए हर देश को इनका पालन सुनिश्चित करने के लिए मजबूत पहल करनी चाहिए। बच्चों को आगे बढ़ने के लिए विशेष देखभाल और मदद की जरूरत है। उन्हें स्वतंत्र, निष्पक्ष और सुरक्षित वातावरण प्रदान करना समाज और सरकार की जिम्मेदारी बन जाती है। बच्चों को अधिकारों की एक सुविकसित प्रणाली के रूप में अतिरिक्त सुरक्षा की आवश्यकता है एक बच्चे को अठारह वर्ष से कम आयु के व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है। ऐसा माना जाता है कि बच्चे अपने आप में नागरिक हैं। वे मानवाधिकारों के पूर्ण स्पेक्ट्रम के हकदार हैं। भले ही बच्चे अपने लिए किसी अधिकार का दावा करने की स्थिति में न हों, उनके माता-पिता और अभिभावक या संबंधित वयस्क या राज्य उनकी ओर से इन अधिकारों का प्रयोग कर सकते हैं। भारत ने बच्चों के अधिकारों के लिए अंतरराष्ट्रीय मानदंडों और सम्मेलनों को स्वीकार किया है, संविधान और अन्य माध्यमों से उनके लिए अधिकार प्रदान किए हैं। हालाँकि, कई विकासशील समाजों के समान, भारत में भी, बड़े पैमाने पर गरीबी जैसी कुछ अंतर्निहित समस्याएं हैं जो अभाव की स्थिति को जन्म देती हैं। बच्चों के लिए। इस इकाई में हम बच्चों के अधिकारों, उनका उल्लंघन कैसे होता है, उनके कार्यान्वयन के लिए क्या प्रयास किए गए हैं और उनकी स्थिति पर चर्चा करते हैं। बच्चों के अधिकार: विभिन्न आयाम बच्चों के अधिकारों की अवधारणा अपेक्षाकृत हाल ही की है। यह मान्यता बढ़ती जा रही है कि बच्चों की विशेष देखभाल की जानी चाहिए। पहले एक बच्चे को एक वयस्क के अंग के रूप में या उससे जुड़े हुए देखा जाता था, लेकिन नए दृष्टिकोण के साथ उन्हें स्वतंत्र प्राणी के रूप में देखा जाता है। उन्हें संविधान और कानून द्वारा सुनिश्चित सभी अधिकार प्रदान किये जाने चाहिए। बच्चे के अस्तित्व और जीवन और बच्चे के लिए जीवन की न्यूनतम गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार (ESC) अधिकारों की आवश्यकता है। इनमें भोजन, कपड़े, आश्रय, चिकित्सा देखभाल/स्वास्थ्य, शिक्षा आदि का अधिकार शामिल है। ESC अधिकार महत्वपूर्ण हैं क्योंकि बच्चों के स्वास्थ्य और गरीबी के बीच घनिष्ठ संबंध है। गरीबी के परिणामस्वरूप बच्चों को अपर्याप्त पोषण मिलता है जिससे शिशु मृत्यु दर और खराब स्वास्थ्य होता है। बच्चों के अधिकार सर्वोत्तम हित सिद्धांत पर आधारित हैं। इसका मतलब यह है कि बच्चे के संबंध में किया गया कोई भी कदम उसके सर्वोत्तम हित में होना चाहिए। अधिकारों के विषय के रूप में बच्चे की राय का सम्मान किया जाना चाहिए। इसका मतलब है कि बच्चे को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, विचार की स्वतंत्रता, विवेक की स्वतंत्रता और सभा की स्वतंत्रता का अधिकार है। बच्चों का वयस्कों के समान मूल्य है और प्रत्येक बच्चे का अधिकार है। बच्चों को बिना किसी भेदभाव के अपने अधिकारों का आनंद लेना चाहिए। विकलांग बच्चों, वंचित समूहों के बच्चों और लड़कियों को अन्य लोगों के समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए। विकलांग बच्चों को विशेष उपचार, शिक्षा और देखभाल का अधिकार होना चाहिए। बच्चे के अस्तित्व और विकास को सुनिश्चित करना सरकार और समाज का दायित्व है। प्रत्येक बच्चे का जन्म के तुरंत बाद पंजीकरण होना चाहिए और उसे नाम और राष्ट्रीयता का अधिकार होना चाहिए। बचपन का अपने आप में एक मूल्य होता है। इसे वयस्कता की प्रारंभिक अवस्था के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। समाज का दायित्व है कि वह बच्चे के लिए अपने बचपन का आनंद लेने के लिए परिस्थितियाँ बनाए। बच्चों से संबंधित सभी कार्यों में, चाहे वे सार्वजनिक और निजी सामाजिक कल्याण संस्थानों, अदालत, प्रशासनिक अधिकारियों या विधायी निकायों द्वारा किए जाएं, बच्चे का सर्वोत्तम हित प्राथमिक विचार होगा।बाल अधिकारों के उल्लंघन के विभिन्न रूपजैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, बच्चों की कम उम्र और उनके स्वस्थ विकास की आवश्यकता के कारण विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है। उस उद्देश्य के लिए उन्हें विशिष्ट तरीके से अधिकारों का आनंद लेने की आवश्यकता है। समाज में हमें ऐसे कई तरीके मिलते हैं जिनसे बच्चों को न केवल उपेक्षित किया जाता है बल्कि उन्हें न्यूनतम अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। बाल श्रम और बाल अधिकार हमारे देश में अनगिनत बच्चे विभिन्न प्रकार के कार्यों में लगे हुए हैं। बालश्रम में काम करने वाले चार साल के बच्चों से लेकर परिवार के खेत में मदद करने वाले सत्रह साल के बच्चे तक शामिल हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में कई बच्चे कृषि के लिए काम करते हैं; घरेलू सहायिका के रूप में; शहरी क्षेत्रों में व्यापार और सेवाओं में, जबकि कुछ विनिर्माण और निर्माण में काम करते हैं। भारतीय संदर्भ में, बाल श्रम का अर्थ है 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चे और काम करना। ऐसा माना जाता है कि दुनिया में सबसे ज्यादा बाल मजदूर भारत में हैं। हमारे जैसे समाज में बाल श्रम को सामाजिक असमानता के परिणाम के रूप में भी देखा जाता है।चूँकि भारत एक गरीब देश है, इसलिए कई बच्चे अपने परिवार के लिए टीम बनाकर काम करते हैं। कभी-कभी बच्चे के बड़े होने पर काम करना और कमाना एक सकारात्मक अनुभव हो सकता है। लेकिन ज्यादातर समय बच्चे गरीबी के कारण काम करने को मजबूर होते हैं। बच्चे अक्सर खतरनाक और अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में लंबे समय तक काम करते हैं। उन्हें स्थायी शारीरिक और मनोवैज्ञानिक क्षति का सामना करना पड़ता है। जिस के कारण जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं, वे आंखों की क्षति, फेफड़ों की बीमारी, अवरुद्ध विकास और गठिया की संवेदनशीलता के कारण विकलांग हो जाते हैं। भारत में रेशम के धागे बनाने वाले बच्चे अपने हाथों को उबलते पानी में डुबोते हैं जिससे वे जल जाते हैं और उन पर छाले पड़ जाते हैं। कई लोग कारखानों में काम करते समय मशीनरी से निकलने वाले धुएं में सांस लेते हैं। कई बच्चों में अस्वस्थ कामकाजी परिस्थितियों के कारण संक्रमण विकसित हो जाता है। ILO के बाल श्रम के सबसे बुरे स्वरूप कन्वेंशन द्वारा बाल श्रम के कुछ रूपों पर प्रतिबंध के बावजूद, कई बच्चे अमानवीय परिस्थितियों में मेहनत कर रहे हैं।इस तरह असंख्य बच्चे सामान्य बचपन से वंचित रह जाते हैं। कई बच्चों का अपहरण कर लिया जाता है और उन्हें अपने घर और परिवार से दूर काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। उन्हें आंदोलन की स्वतंत्रता से वंचित कर दिया गया है। उन्हें कार्यस्थल छोड़कर अपने परिवार के पास घर जाने का कोई अधिकार नहीं है। बच्चे लंबे समय तक, बहुत कम वेतन पर, या कभी-कभी बिना वेतन के काम करते हैं। उन्हें अक्सर कारावास और पिटाई जैसे शारीरिक शोषण का शिकार होना पड़ता है। उन्हें खतरनाक कीटनाशकों के संपर्क में लाया जाता है और खतरनाक उपकरणों के साथ काम कराया जाता है। ये तथ्य बच्चों के मानवीय पहनावे के घोर उल्लंघन को दर्शाते हैं। बाल अधिकारों पर कन्वेंशन यह प्रदान करता है कि बच्चों - अठारह वर्ष से कम उम्र के सभी व्यक्तियों को "जब तक कि बच्चे पर लागू कानून के तहत, वयस्कता पहले प्राप्त न हो जाए" - को किसी भी ऐसे काम को करने से संरक्षित करने का अधिकार है जो उनके लिए खतरनाक हो सकता है। बच्चे की शिक्षा में हस्तक्षेप करना, या बच्चे के स्वास्थ्य या शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, नैतिक या सामाजिक विकास के लिए हानिकारक होना।" दुनिया भर में लाखों महिलाएं और लड़कियां अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए उपलब्ध कुछ विकल्पों में से एक के रूप में घरेलू काम की ओर रुख करती हैं। वे यौन शोषण के आसान शिकार बन जाते हैं। सरकारों ने व्यवस्थित रूप से उन्हें अन्य श्रमिकों को मिलने वाली प्रमुख श्रम सुरक्षा से वंचित कर दिया है। घरेलू कामगार, जो अक्सर अपने परिवारों का भरण-पोषण करने के लिए असाधारण बलिदान देते हैं, दुनिया में सबसे अधिक शोषित और प्रताड़ित श्रमिकों में से हैं। बाल श्रम भारतीय अर्थव्यवस्था का एक अनियमित, अस्पष्ट क्षेत्र है, इसलिए घटना के पैमाने को दर्शाने वाले आंकड़े काफी भिन्न हैं। भारत सरकार का अनुमान है कि देश के लगभग 13 मिलियन बच्चे कृषि में, घरेलू सहायकों के रूप में, सड़क के किनारे रेस्तरां में और कांच, कपड़ा और अनगिनत अन्य सामान बनाने वाले कारखानों में कार्यरत हैं। दुनिया भर में कई दान और गैर-सरकारी संगठनों का तर्क है कि यह आंकड़ा बहुत अधिक है। बंधुआ बाल मजदूरी बंधुआ बाल मजदूरी बच्चों के अधिकारों के उल्लंघन का सबसे खराब रूप है। दुनिया भर के देशों में लाखों बच्चे बंधुआ बाल मजदूर के रूप में काम करते हैं। बंधुआ मजदूरी में फंसकर वे अपना बचपन, शिक्षा और अवसर खो देते हैं। बंधुआ मजदूरी तब होती है जब एक परिवार को एक बच्चे-लड़के या लड़की को नियोक्ता को सौंपने के लिए अग्रिम भुगतान प्राप्त होता है। अधिकांश मामलों में बच्चा कर्ज से छुटकारा नहीं पा सकता, न ही परिवार बच्चे को वापस खरीदने के लिए पर्याप्त धन जुटा सकता है। कार्यस्थल को अक्सर इस तरह से संरचित कियाजाता है कि बच्चे की कमाई से "खर्च" या "ब्याज" इतनी मात्रा में काट लिया जाता है कि बच्चे के लिए कर्ज चुकाना लगभग असंभव हो जाता है। कुछ मामलों में, श्रम पीढ़ीगत होता है, यानी, एक बच्चे के दादा या परदादा को नियोक्ता से कई साल पहले वादा किया गया था, इस समझ के साथ कि प्रत्येक पीढ़ी नियोक्ता को एक नया कर्मचारी प्रदान करेगी-अक्सर बिना किसी वेतन के। 1956 वी.एन. द्वारा बंधुआ मजदूरी को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। गुलामी, दास व्यापार और संस्थानों और प्रथाओं के उन्मूलन पर अनुपूरक सम्मेलनगुलामी के समान. बच्चों का यौन शोषण और दुर्व्यवहार बाल यौन शोषण और इसकी रोकथाम सभी देशों में, विशेषकर भारत में, बड़ी समस्या बन गई है। बच्चों का यौन शोषण परिवार के भीतर और बाहर, जैसे सामाजिक समूहों में और वंचित स्थितियों, जैसे अनाथालयों, दोनों में हो सकता है। बाल यौन शोषण के खिलाफ विशिष्ट कानूनों का अभाव है। इस विषय पर जागरूकता की कमी के कारण लोग आम तौर पर अनभिज्ञ हैं। इस तरह के दुर्व्यवहार पीड़ितों पर ऐसे निशान छोड़ जाते हैं जिन्हें मिटाना बहुत मुश्किल होता है। इनके परिणामस्वरूप बच्चों में मनोवैज्ञानिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं। बाल यौन शोषण और उत्पीड़न के मुद्दे पर अधिक जागरूकता की आवश्यकता है। हमें आगे आना चाहिए और बच्चों की मदद करनी चाहिए क्योंकि वे अपनी रक्षा नहीं कर सकते। राज्य को दुर्व्यवहार की रोकथाम और पीड़ितों के उपचार के लिए सामाजिक कार्यक्रम विकसित करने के उपाय करने चाहिए। कुछ गैर सरकारी संगठन इस मुद्दे पर काम कर रहे हैं। बच्चों के यौन शोषण और दुर्व्यवहार में बाल तस्करी, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी, सेक्स टूरिज्म शामिल हैं। बाल तस्करी का अर्थ है वेश्यावृत्ति सहित यौन कार्यों के लिए बच्चों को बेचना या खरीदना। इसमें यौन या श्रम शोषण, जबरन श्रम या गुलामी के उद्देश्यों के लिए बच्चे की भर्ती, परिवहन, स्थानांतरण, आश्रय या प्राप्ति शामिल है। बच्चों की तस्करी एक मानवाधिकार त्रासदी है जिसमें दुनिया भर में दस लाख से अधिक बच्चों के शामिल होने का अनुमान है। दुनिया भर में हर साल सैकड़ों बच्चों की तस्करी की जाती है। उन्हें शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण और सवेतन रोजगार के झूठे वादों पर भर्ती किया जाता है। इन बच्चों को कभी-कभी जीवन-घातक परिस्थितियों में राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर और पार ले जाया जाता है। फिर उन्हें शोषणकारी श्रम में धकेल दिया जाता है और उनके नियोक्ताओं द्वारा शारीरिक और मानसिक शोषण किया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत बाल तस्करी को "गुलामी के समान प्रथा" और "बाल श्रम के सबसे खराब रूपों" में से एक के रूप में प्रतिबंधित किया गया है। बच्चों की तस्करी को खत्म करना राज्यों का तत्काल और तत्काल दायित्व है। वेश्यावृत्ति का अर्थ है पैसे के बदले में बच्चों को वयस्कों के साथ यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर करना। बच्चों को यौन गतिविधियों में दिखाना या तस्वीरें खींचना या फिल्माना या बच्चे के यौन भाग को प्रदर्शित करना अश्लीलता है। सेक्स टूरिज्म बच्चों के खिलाफ एक और अपराध है जो बच्चों को पीडोफाइल के लिए पेश करने या विभिन्न प्रकार की यौन गतिविधियों के लिए बच्चों का उपयोग करने का संकेत देता है।बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन, (अनुच्छेद 34, 35 और 36) बच्चों के यौन शोषण और यौन शोषण से संबंधित है। देशों का कर्तव्य है कि वे बच्चों को गैरकानूनी यौन गतिविधियों के लिए मजबूर करने या प्रेरित करने या वेश्यावृत्ति या अश्लील साहित्य और तस्करी के लिए उनका शोषण करने से रोकने के लिए उपाय करें। लैंगिक भेदभाव भारतीय समाज एक पितृसत्तात्मक समाज है जिसमें महिलाओं और लड़कियों के प्रति बहुत भेदभाव होता है। बच्चों में बालिकाओं के अधिकारों का हनन अधिक हो रहा है। उसके साथ कभी भी लड़के के बराबर व्यवहार नहीं किया जाता। महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रहों की जड़ें गहरी हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनके साथ दुर्व्यवहार होता है, जो बचपन से ही शुरू हो जाता है। परिवार या स्कूलों में उनके साथ कभी भी उनके पुरुष समकक्षों के बराबर व्यवहार नहीं किया जाता। इसका परिणाम लड़कियों में कम आत्मसम्मान और आत्मविश्वास की कमी है। बालिकाओं के अस्तित्व, स्वास्थ्य देखभाल और पोषण, शिक्षा, सामाजिक अवसर और सुरक्षा के अधिकार को पहचानना होगा और इसे सामाजिक और आर्थिक प्राथमिकता बनाना होगा। इसके साथ ही यदि इन अधिकारों को सुनिश्चित करना है तो गरीबी, कुपोषण और महिलाओं की निम्न स्थिति का कारण बनने वाली बुनियादी संरचनात्मक असमानताओं को भी संबोधित करना होगा। बालिकाओं के खिलाफ सभी भेदभाव को खत्म करने के लिए सरकार और गैर सरकारी संगठनों द्वारा एक शैक्षिक अभियान की आवश्यकता है। बच्चों के अधिकार आप संयुक्त राष्ट्र के बारे में पाठ्यक्रम सीएचआर-11 में पहले ही पढ़ चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा अपनाया गया बाल अधिकारों पर कन्वेंशन। 1989 में महासभा। यह विशेष रूप से बाल अधिकारों के लिए समर्पित पहला प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय उपकरण रहा है। बाल और भारत के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन भारत संयुक्त राष्ट्र में शामिल हो गया। बच्चों के हितों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दोहराने के लिए 11 दिसंबर 1992 को बाल अधिकारों पर कन्वेंशन। यह सम्मेलन विभिन्न सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक वास्तविकताओं को ध्यान में रखता है जिनमें बच्चे रहते हैं। इसमें कहा गया है कि अठारह वर्ष से कम उम्र के सभी लोगों को सम्मेलन में सभी अधिकार हैं। ये अधिकार अच्छे जीवन, सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कृति आदि का अधिकार हैं। यह यौन शोषण, अवैध दवाओं से सुरक्षा, अपहरण और बच्चों के खिलाफ किसी भी अन्य प्रकार की क्रूरता के खिलाफ भी अधिकार प्रदान करते हैं। कन्वेंशन बच्चे को एक विषय के रूप में मान्यता देता है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उनके अधिकारों को प्रभावित करने वाले निर्णय लेने में भागीदारी की गारंटी देता है। संयुक्त राष्ट्र ने 1979 को बाल वर्ष के रूप में घोषित किया। बाल अधिकारों पर कन्वेंशन में शामिल होने वाले सदस्य देशों को अपने देश में कन्वेंशन के कार्यान्वयन की स्थिति के बारे में एक आवधिक रिपोर्ट प्रस्तुत करने की आवश्यकता होती है। तदनुसार, पहली भारत देश रिपोर्ट 1997 में संयुक्त राष्ट्र को प्रस्तुत की गई थी। दूसरी देश रिपोर्ट 2001 में बच्चों के अधिकारों पर प्रस्तुत की गई थी जिस पर 21 जनवरी 2004 को जिनेवा में एक मौखिक सुनवाई में चर्चा की गई थी। संयुक्त राष्ट्र समिति ने रिपोर्ट की सराहना की और अपनी टिप्पणियाँ और टिप्पणियाँ दीं। अगली देश रिपोर्ट 2008 में आने वाली थी। बाल अधिकार सम्मेलन (CRC) के कार्यान्वयन की निगरानी और CRC के कार्यान्वयन से सीधे जुड़ी सभी गतिविधियों की निगरानी के लिए महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा एक राष्ट्रीय समन्वय समूह का गठन किया गया है। भारत ने सितंबर 2004 में बाल अधिकारों पर कन्वेंशन के दो वैकल्पिक प्रोटोकॉल पर भी हस्ताक्षर किए हैं, अर्थात् (1) सशस्त्र संघर्षों में बच्चों की भागीदारी पर, और (2) बच्चों की बिक्री, बाल वेश्यावृत्ति और बाल पोर्नोग्राफ़ी पर। संवैधानिक प्रावधान आप पिछली इकाई में पहले ही पढ़ चुके हैं कि भारत के संविधान में मौलिक अधिकार और राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत अपने नागरिकों के प्रति राज्य के मौलिक दायित्वों को निर्धारित करते हैं। संविधान के भाग में परिभाषित मौलिक अधिकार नस्ल, जन्म स्थान, धर्म, जाति, पंथ या लिंग के बावजूद लागू होते हैं। वे बच्चों पर भी लागू होते हैं. इन अधिकारों में से एक विशेष रूप से बच्चों की सुरक्षा करना है। इसे कारखानों आदि में बच्चों के रोजगार पर प्रतिबंध के रूप में जाना जाता है। अनुच्छेद 24 प्रदान करता है; "चौदह वर्ष से कम उम्र के किसी भी बच्चे को किसी कारखाने या खदान में काम करने के लिए नियोजित नहीं किया जाएगा या किसी अन्य खतरनाक रोजगार में नहीं लगाया जाएगा। "उपरोक्त के अलावा अब बच्चों को शिक्षा का अधिकार भी दिया गया है। पहले यह अधिकार संविधान के अनुच्छेद 45 में निदेशक सिद्धांत के रूप में मौजूद था। संविधान के 86वें संशोधन 2002 ने शिक्षा के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 21 ए के तहत मौलिक अधिकार बना दिया है। उपरोक्त मौलिक अधिकारों के अलावा, राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों पर अध्याय-IV में भी बच्चों के लिए विशेष प्रावधान प्रदान किए गए हैं: अनुच्छेद 39(ई) में प्रावधान है कि श्रमिकों, पुरुषों और महिलाओं के स्वास्थ्य और ताकत और बच्चों की कोमल उम्र का दुरुपयोग नहीं किया जाता है और नागरिकों को आर्थिक आवश्यकता से उनकी उम्र या ताकत के लिए अनुपयुक्त व्यवसायों में प्रवेश करने के लिए मजबूर नहीं किया जाता है। अनुच्छेद 39 (एफ) में प्रावधान है कि बच्चों को स्वस्थ तरीके से और स्वतंत्रता और सम्मान की स्थितियों में विकसित होने के अवसर और सुविधाएं दी जाती हैं और बचपन और युवावस्था को शोषण और नैतिक और भौतिक परित्याग के खिलाफ संरक्षित किया जाता है। अनुच्छेद 45 में कहा गया है कि राज्य इस संविधान के प्रारंभ से दस साल की अवधि के भीतर, सभी बच्चों को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का प्रयास करेगा। बाल संरक्षण के लिए कानून संवैधानिक गारंटी के अलावा, राज्य ने बच्चों की सुरक्षा के लिए कई कानून बनाए हैं। इनमें से कुछ नीचे दिए गए हैं: भारतीय दंड संहिता। अपहरण और मानव तस्करी के अपराधों में नाबालिगों के लिए विशेष प्रावधान शामिल हैं। 363 ए में नाबालिगों का अपहरण कर उन्हें भीख मांगने के लिए नियोजित करने, वेश्यावृत्ति के लिए लड़कियों के निर्यात और आयात के लिए दंड का प्रावधान है। धारा 366 ए नाबालिग लड़कियों को भारत के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में ले जाने से संबंधित है। धारा 366 बी में आयात करना अपराध है। भारत के बाहर किसी भी देश से 21 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों को वेश्यावृत्ति के उद्देश्य से लाया जाता है। वेश्यावृत्ति के उद्देश्य से नाबालिगों को बेचना धारा 372 के तहत एक दंडनीय अपराध है। धारा 373 वेश्यावृत्ति के उद्देश्य से नाबालिगों को खरीदने पर दंडनीय है। किसी लड़की का इस इरादे या जानकारी के साथ अपहरण करना कि उसे अवैध यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर किया जा सके, मजबूर किया जा सके या बहकाया जा सके, एक आपराधिक अपराध है। शादी के लिए किसी लड़की को जबरन ले जाना या उसका अपहरण करना भी एक अपराध है। बच्चों के अधिकार 16 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ यौन संबंध बनाना बलात्कार है। यह बात मायने नहीं रखती कि यह उसकी सहमति से किया गया या उसके बिना। (धारा 376) पति भी बलात्कार का दोषी हो सकता है यदि उसने अपनी 15 वर्ष से कम उम्र की पत्नी के साथ यौन संबंध बनाया हो। बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम 1986। यह अधिनियम मई की एक अधिसूचना के माध्यम से यात्रियों, माल या मेल के परिवहन, सिंडर बीनने, रेलवे स्टेशनों पर खानपान की स्थापना, रेलवे स्टेशन के निर्माण, बंदरगाह प्राधिकरण द्वारा विस्फोटकों और आतिशबाजी की बिक्री, बूचड़खानों/बूचड़खानों आदि से संबंधित नौकरियों में बच्चों के रोजगार पर प्रतिबंध लगाता है। 26, 1993, अधिनियम के तहत निषिद्ध नहीं किए गए सभी रोजगारों में बच्चों की कामकाजी परिस्थितियों को विनियमित किया गया है। घरेलू काम पर प्रतिबंध लगाने के लिए कानून: अक्टूबर 2006 में भारत सरकार ने 14 साल से कम उम्र के बच्चों द्वारा घरेलू काम और कुछ अन्य प्रकार के श्रम पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक कानून बनाकर एक और स्वागत योग्य कदम उठाया। नए कानून में घरेलू काम, रेस्तरां और होटल के साथ-साथ घरेलू काम भी शामिल हैं। श्रम। इसका मतलब है कि 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को घरेलू नौकर या किसी भी तरह की मदद के रूप में नियोजित नहीं किया जा सकता है और न ही उन्हें होटल, रेस्तरां, ढाबों आदि में नियोजित किया जा सकता है। कानून के तहत ऐसे पदों पर काम करने वाले बच्चों को हटाकर उनका पुनर्वास किया जाना चाहिए और जो बच्चों का उपयोग कर रहे हैं अवैध रूप से मुकदमा चलाया जाएगा और दंडित किया जाएगा। अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम: यह अधिनियम संयुक्त राष्ट्र के तहत भारत के दायित्वों के अनुसरण में अधिनियमित किया गया था। व्यक्तियों के अवैध व्यापार और महिलाओं के शोषण के दमन के लिए कन्वेंशन। इसका उद्देश्य बच्चों की तस्करी को रोकना भी है। इस अधिनियम के तहत बचाई गई बाल वेश्या के साथ देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता वाले बच्चे के रूप में व्यवहार किया जाना चाहिए। ऐसे बच्चों को बाल कल्याण समिति के संरक्षण में लाया जाना चाहिए। उपरोक्त कानून बच्चों की सुरक्षा और कल्याण के लिए सरकार द्वारा समय-समय पर अपनाए गए कुछ विधायी उपायों के उदाहरण हैं। ऐसे और भी कानून हैं जो केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा बनाए गए हैं। किशोर न्याय प्रणाली बच्चे सामान्यतः मासूम होते हैं। हालाँकि परिस्थितियों के कारण कभी-कभी कोई बच्चा अपराध कर सकता है। भारतीय कानून के अनुसार, 7 साल से कम उम्र के बच्चे द्वारा किया गया कोई भी कार्य अपराध नहीं है। यदि कोई बच्चा (16 वर्ष से कम उम्र का लड़का और 18 वर्ष से कम उम्र की लड़की) अपराध करता है तो बच्चे के साथ बाल अपराध न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम 2000 के तहत व्यवहार किया जाना चाहिए। अधिनियम प्रदान करता है: • आपराधिक प्रक्रिया संहिता में किसी भी बात के बावजूद, राज्य सरकारें कानून का उल्लंघन करने वाले किशोरों से निपटने के लिए किशोर न्याय बोर्ड का गठन कर सकती हैं। • एक बोर्ड में एक मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी का न्यायिक मजिस्ट्रेट, जैसा भी मामला हो, शामिल होगा और दो सामाजिक कार्यकर्ता होंगे जिनमें से कम से कम एक महिला होगी। किसी भी मजिस्ट्रेट को बोर्ड के सदस्य के रूप में नियुक्त नहीं किया जाएगा जब तक कि उसके पास बाल मनोविज्ञान या बाल कल्याण में विशेष ज्ञान या प्रशिक्षण न हो। (धारा 4) कोई भी राज्य सरकार या तो स्वयं या स्वैच्छिक संगठन के साथ एक समझौते के तहत, प्रत्येक जिले या जिलों के समूह में अवलोकन गृहों की स्थापना और रखरखाव कर सकती है, जैसा कि किसी किशोर के कानून के साथ संघर्ष या किसी भी जांच के लंबित रहने के दौरान अस्थायी रूप से प्राप्त करने के लिए आवश्यक हो सकता है। उन्हें इस अधिनियम (धारा 8) के तहत। • जैसे ही कानून का उल्लंघन करने वाले किसी किशोर को पुलिस द्वारा पकड़ा जाता है, उसे विशेष किशोर पुलिस इकाई या नामित पुलिस अधिकारी के प्रभार में रखा जाएगा जो तुरंत मामले की रिपोर्ट बोर्ड के सदस्य को देगा (धारा 10)। • जहां किसी किशोर को गिरफ्तार किया जाता है, उस पुलिस स्टेशन या विशेष किशोर पुलिस इकाई का प्रभारी अधिकारी, जहां किशोर को लाया गया है, गिरफ्तारी के बाद जितनी जल्दी हो सके सूचित करेगा। (A) माता-पिता या अभिभावक या किशोर, यदि उसे ऐसी गिरफ्तारी का दोषी पाया जा सकता है और उसे उस बोर्ड में उपस्थित होने का निर्देश दिया जा सकता है जिसके समक्ष किशोर उपस्थित होगा, और (B) ऐसी गिरफ्तारी के परिवीक्षा अधिकारी को किशोर के पूर्ववृत्त और पारिवारिक पृष्ठभूमि और अन्य भौतिक परिस्थितियों के बारे में जानकारी प्राप्त करने में सक्षम बनाना जिससे बोर्ड को जांच करने में सहायता मिल सके। बच्चों के अधिकारों का कार्यान्वयन कानूनी प्रावधानों के अलावा बाल अधिकारों और बच्चों के लिए कल्याणकारी योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए निम्नलिखित विशेष उपाय अपनाए गए हैं: एकीकृत बाल विकास सेवाएँ (ICDS) ICDS को 1975 में एक केंद्र प्रायोजित योजना के रूप में लॉन्च किया गया था जिसका उद्देश्य था: (ए) छह वर्ष से कम उम्र के बच्चों और गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं के पोषण और स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार करना; (बी) बच्चे के उचित मनोवैज्ञानिक, शारीरिक और सामाजिक विकास की नींव रखना; (सी) मृत्यु दर, रुग्णता, कुपोषण और स्कूल छोड़ने वालों की घटनाओं को कम करने के लिए, (डी) बाल विकास को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न विभागों के बीच नीति और कार्यान्वयन का प्रभावी समन्वय प्राप्त करना; (ई) उचित स्वास्थ्य और पोषण शिक्षा के माध्यम से बच्चे के स्वास्थ्य और पोषण संबंधी जरूरतों की देखभाल करने के लिए मां की क्षमता को बढ़ाना। बच्चों के लिए राष्ट्रीय चार्टर बच्चों के लिए राष्ट्रीय चार्टर सरकार द्वारा अपनाया गया एक नीति दस्तावेज है जो बच्चों के प्रति सरकार और समुदाय की भूमिकाओं और जिम्मेदारियों और उनके परिवारों, समाज और देश के प्रति बच्चों के कर्तव्यों को उजागर करता है। इसे 9 फरवरी, 2004 को अधिसूचित किया गया था। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग बाल अधिकार प्रथाओं को सुनिश्चित करने के लिए और संयुक्त राष्ट्र के प्रति भारत की प्रतिबद्धता के जवाब में। इस आशय की घोषणा करते हुए भारत सरकार ने बाल अधिकार संरक्षण के लिए एक राष्ट्रीय आयोग की स्थापना की। भारत की संसद ने 2006 में ऐसे आयोग के गठन के लिए एक अधिनियम बनाया। अध्यक्ष के अलावा, इसमें बाल स्वास्थ्य, शिक्षा, बाल देखभाल और विकास, किशोर न्याय, विकलांग बच्चों, बाल श्रम उन्मूलन, बाल मनोविज्ञान या समाजशास्त्र और बच्चों से संबंधित कानून के क्षेत्रों से छह सदस्य होंगे। आयोग के पास शिकायतों की जांच करने और बाल अधिकारों से वंचित करने और अन्य चीजों के अलावा बच्चों की सुरक्षा और विकास प्रदान करने वाले कानूनों के गैर-कार्यान्वयन से संबंधित मामलों पर स्वत: संज्ञान लेने की शक्ति है। बाल अधिकारों की रक्षा के लिए कानून द्वारा प्रदान किए गए सुरक्षा उपायों की जांच और समीक्षा करने के उद्देश्य से, आयोग उनके प्रभावी कार्यान्वयन के लिए उपायों की सिफारिश कर सकता है। यदि आवश्यक हो तो यह संशोधन का सुझाव दे सकता है, और शिकायतों पर गौर कर सकता है और बच्चों के संवैधानिक और कानूनी अधिकारों के उल्लंघन के मामलों का स्वत: संज्ञान ले सकता है। आयोग को बाल अधिकारों के उचित कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने और बच्चों से संबंधित कानूनों और कार्यक्रमों के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने-शिकायतों की जांच करने और बाल अधिकारों से वंचित होने से संबंधित मामलों का स्वत: संज्ञान लेने का अधिकार है; बच्चों की सुरक्षा और विकास प्रदान करने वाले कानूनों का कार्यान्वयन न करना और उनके कल्याण के उद्देश्य से नीतिगत निर्णयों, दिशानिर्देशों या निर्देशों का अनुपालन न करना और बच्चों के लिए राहत की घोषणा करना और राज्य सरकारों को उपचारात्मक उपाय जारी करना। बच्चों के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना भारत सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग ने मई 2002 में आयोजित संयुक्त राष्ट्र महासभा के विशेष सत्र में बच्चों के लिए निर्धारित लक्ष्यों और निर्धारित निगरानी योग्य लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए 2005 में बच्चों के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना का मसौदा तैयार किया। संबंधित मंत्रालयों/विभागों में बच्चों के लिए दसवीं पंचवर्षीय योजना और लक्ष्य तथा संबंधित मंत्रालयों और विभागों, राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों, सरकारों, गैर-सरकारी संगठनों और विशेषज्ञों के परामर्श से। संशोधित मसौदे में भारतीय बच्चों की पोषण स्थिति में सुधार, नामांकन दर में वृद्धि और स्कूल छोड़ने की दर में कमी, प्राथमिक शिक्षा का सार्वभौमिकरण, प्रतिरक्षा के लिए कवरेज में वृद्धि आदि के लिए 2001-2010 के दशक के लक्ष्य, उद्देश्य और रणनीतियाँ शामिल थीं। अधिकारों के संरक्षण में गैर सरकारी संगठनों की भूमिका भारत में विभिन्न गैर सरकारी संगठन बाल अधिकार, बाल तस्करी, बाल वेश्यावृत्ति, लैंगिक न्याय, अस्तित्व और स्वास्थ्य और कई अन्य विषयों पर काम कर रहे हैं। बचपन बचाओ आंदोलन बाल श्रम उन्मूलन के लिए समर्पित ऊर्जावान गैर सरकारी संगठनों में से एक है। कुछ गैर सरकारी संगठन इन बच्चों के आश्रय, स्वास्थ्य, शिक्षा और प्रशिक्षण के लिए काम कर रहे हैं। गैर सरकारी संगठन भी बाल श्रम के क्षेत्र में श्रमिकों के रूप में लगे बच्चों को बचाने और उनके पुनर्वास के लिए काम कर रहे हैं। भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय द्वारा सड़क पर रहने वाले बच्चों के कल्याण के लिए एक केंद्रीय योजना शुरू की गई है। यह योजना सड़क पर रहने वाले बच्चों के मुद्दों पर काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों को अनुदान सहायता देती है। गैर सरकारी संगठन सूचना के प्रसार और बच्चों की दुर्दशा और अधिकारों के बारे में जागरूकता पैदा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। वे राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग या उपयुक्त अदालतों में जनहित याचिका के रूप में भी मामले दायर कर सकते हैं। कुछ गैर सरकारी संगठनों ने ऐसी जनहित याचिकाओं के माध्यम से कई बच्चों को बंधुआ मजदूर जहाज से बचाया है। सामान्य तौर पर जहां तक मानवाधिकार और अन्य सामाजिक अधिकारों की बात है। .., बाल अधिकारों के प्रचार-प्रसार एवं संरक्षण में एनजीओ की अहम भूमिका है। जागरूकता पैदा करना ऐसा माना जाता है कि बच्चों के अधिकारों के बारे में जागरूकता पैदा करना हमारे लक्ष्य को प्राप्त करने का सबसे महत्वपूर्ण तरीका है। समाज और राज्य कुल मिलाकर बच्चों की स्थिति के प्रति अनभिज्ञ रहे हैं। अब समय आ गया है कि हमें इस संबंध में कार्रवाई शुरू करनी चाहिए। प्रत्येक नागरिक को सभी बच्चों के लिए एक खुशहाल और स्वस्थ बचपन सुनिश्चित करने के प्रति अपनी जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए। इन अधिकारों की प्राप्ति के लिए सभी अधिकारों और उनका उल्लंघन करने वाली स्थितियों के बारे में गंभीर जागरूकता आवश्यक है। बच्चों को अपने अधिकारों का दावा करने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। सरकार को सरकारी एजेंसियों, मीडिया, न्यायपालिका, जनता और स्वयं बच्चों के बीच बाल मुद्दों के बारे में व्यापक जागरूकता फैलाना सुनिश्चित करना है। विशेषकर बाल यौन शोषण के संदर्भ में बच्चों को यौन शिक्षा प्रदान करना उचित प्रतीत होता है। बाल अधिकारों को बढ़ावा देने और उनकी सुरक्षा के लिए अभियान चलाए जाने चाहिए। सभी सरकारी कार्यक्रमों और नीतियों को इस उद्देश्य को लक्षित करना चाहिए। अन्य संस्थानों और संरचनाओं को भी इस मुद्दे पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास करना चाहिए। व्यापक जागरूकता पैदा करने से निश्चित रूप से बच्चों के लिए एक बेहतर समाज के निर्माण में मदद मिलेगी। ऐसे कुछ कारक हैं जो बच्चों की खराब दुर्दशा को बढ़ाते हैं, जैसे जाति, लिंग, गरीबी, विस्थापन आदि। भारतीय समाज में यदि बच्चे निम्न वर्ग के हों तो उनकी स्थिति और खराब होती है। ये बच्चे भयावह परिस्थितियों में रहते हैं और ;उच्च जातियों द्वारा बंधुआ मजदूरी और अन्य प्रकार के शोषण के लिए मजबूर किया जाता है। ये जातियां ग्रामीण इलाकों में अलग-थलग यहूदी बस्तियों में रहती हैं। उनके पास विकास और विकास के किसी भी अवसर का अभाव है। उन्हें शायद ही कोई शिक्षा या रोजगार मिलता है। वे ज्यादातर मजबूर मजदूर के रूप में काम करते हैं। बहुत सारे बच्चे कुपोषण और भुखमरी से मर जाते हैं लेकिन सरकार इसे पहचानने और दर्ज करने से इनकार कर देती है। चूँकि बच्चे आश्रित और कमज़ोर होते हैं इसलिए वयस्कों को उन्हें उनके अधिकारों का एहसास कराने में मदद करनी चाहिए। यदि हम बाल अधिकारों के प्रति गंभीरता से प्रतिबद्ध हैं तो संस्थाओं और समाज की दिशा में बदलाव की आवश्यकता है। हमें बच्चों को हमारे समान अधिकारों और अधिकारों के साथ समान नागरिक के रूप में सोचना शुरू करना चाहिए। बच्चों के साथ सहानुभूति की वस्तु नहीं बल्कि समाज में हितधारक के रूप में व्यवहार किया जाना चाहिए। राज्य को बाल देखभाल सेवाओं पर ध्यान देना चाहिए। ऐसे कई सड़क पर रहने वाले बच्चे हैं जो गरीबी, पारिवारिक विघटन, सशस्त्र संघर्ष और आपदाओं के कारण बेघर हो जाते हैं। किसी अनाथ या परित्यक्त बच्चे या देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता वाले बच्चे के पुनर्वास के लिए गोद लेना सबसे अच्छे तरीकों में से एक है। भारतीय समाज में गोद लेना काफी आम है। हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार है। इसका मतलब यह है कि राज्य मुफ्त शिक्षा प्रदान करने के लिए बाध्य है। हालाँकि, केवल 6 से 14 वर्ष की आयु के बीच की प्राथमिक शिक्षा ही इस अधिकार के अंतर्गत आती है। हालाँकि राज्य ने बुनियादी ढाँचा तैयार किया था और लगभग पूर्ण नामांकन सुनिश्चित किया था, लेकिन स्कूलों में पीने के पानी, शौचालय और उबाऊ शिक्षण विधियों जैसी खराब सुविधाओं के कारण कई बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं। स्कूल न जाने वाले बच्चों को वापस स्कूल में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। बच्चों को स्कूल का आनंद मिले यह सुनिश्चित करने के लिए शिक्षा प्रणाली में सुधार करना होगा। खराब स्वच्छता और बुनियादी सुविधाएं और जाति के आधार पर भेदभाव सबसे बड़ी बाधाएं हैं। सबसे जटिल कारणों में से एक जो बच्चों को शिक्षा के अधिकार से वंचित करता है, वह है गांवों में घटती आजीविका, जिसके परिणामस्वरूप मौसमी प्रवासन होता है। के कई हिस्सों में मौसमी प्रवासन एक वास्तविकता बन गया है। देश, लगातार सूखे और पर्यावरणीय गिरावट के कारण। सर्व शिक्षा अभियान 2010 तक (यूनिवर्सल एलीमेंट्री एजुकेशन) हासिल करने के लिए काम कर रहा है। देश संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार चार्टर (1999) का भी हस्ताक्षरकर्ता है; और बाल अधिकार सम्मेलन (1989) के अनुच्छेद 28 के अनुसार प्राथमिक शिक्षा को बेहतर बनाने की जिम्मेदारी सरकार की है सभी के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क उपलब्ध। बाल अधिकार RIGHTS OF CHILDREN
- स्विस संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि व राजनीतिक परंपराएँ
स्विस संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि व राजनितिक परंपरा लगभग ५० लाख जनसंख्या और १६ हजार वर्गमील भूमि का देश स्विट्जरलैण्ड विश्व के सबसे छोटे स्वत राज्यों में से एक है , लेकिन अपनी विशिष्ट राजनीतिक संस्थाओं के कारण स्विस संविधान और शासन व्यवस्था के अध्ययन निश्चित रूप से बहुत अधिक महत्त्व है । साधारण व्यक्ति के लिए स्विट्जरलैण्ड विश्व का सबसे प्रमुख प्राकृतिक सौन्दर्य का स्थल , रेड क्रॉस और प्रसिद्ध घड़ियों का निर्माण स्थल ही है , लेकिन राजनीति विज्ञान के विद्यार्थी के लिए यह इससे बहुत अधिक है । यह प्रजातन्त्र का घर और विश्व की सबसे प्रमुख राजनीतिक प्रयोगशाला है । स्विट्जरलैण्ड की राजधानी बर्न है । संघीय सरकार २ / १ ९ के मुख्य कार्यालय यही पर स्थित है । "स्विट्जरलैण्ड का संवैधानिक विकास ( CONSTITUTIONAL DEVELOPMENT OF SWITZERLAND ) : १२ ९ १ का राज्यमण्डल या स्थायी मैत्री संघ वर्तमान स्विट्जरलैण्ड के निर्माण की प्रक्रिया और स्विट्जरलैण्ड के संवैधानिक विकास का प्रारम्भ १२ ९ १ से समझा जा सकता है जबकि ऊरी , स्वेज और अण्डरवाल्डेन द्वारा आत्मरक्षा हेतु एक राज्यमण्डल ( League ) की स्थापना की गयी । इसके पूर्व वर्तमान स्विट्जरलैण्ड के क्षेत्र में अलग - अलग कैण्टन आस्ट्रिया के हैप्सबर्ग शासकों के अधीन थे , लेकिन १२ ९ १ में तीन कैण्टनों ने हैप्सबर्ग शासन से स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए एक राज्यमण्डल की स्थापना की । हैप्सबर्ग शासन द्वारा इन तीनों कैण्टनों को पुनः अपने अधीन कर लेने का प्रयत्न किया गया , यह कैण्टन अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा करने में सफल रहे । इससे प्रोत्साहित होकर अन्य कैण्टन भी राज्यमण्डल की ओर प्रवृत्त हुए और १३५३ तक इस राज्यमण्डल में ८ कैण्टन शामिल हो गये । १६४८ तक इस राज्य मण्डल में १३ कैण्टन शामिल हो गये , जो सभी जर्मन भाषाभाषी थे । राज्यमण्डल की प्रतिष्ठा में भी निरन्तर वृद्धि हुई और १६४८ की बेस्टफेलिया की सन्धि में इसे एक सम्प्रभु राज्य के रूप में मान्यता प्रदान की गयी । राज्यमण्डल की दुर्बलता (Weakness of Confederation ) - यद्यपि यह राज्यमण्डल बाहरी आक्रमणों के विरुद्ध अपने अस्तित्व को बनाये रखने में सफल रहा , लेकिन राज्यमण्डल निश्चित रूप से बहुत अधिक दुर्बल था । राज्यमण्डल में अपनी कोई स्थायी केन्द्रीय सरकार नहीं थी । इसकी एकमात्र संस्था ' डाईट ' ( Dict ) थी , जिसके समय - समय पर सम्मेलन अवश्य होते थे और उसमें राष्ट्रीय महत्त्व के प्रश्नों पर विचार होता था , परन्तु जो कैण्टन बहुमत निर्णय से असहमत हों , उन पर वे निर्णय लागू नहीं होते थे । प्रतिनिधि अपने कैण्टनों द्वारा दिये गये आदेशों के अनुसार ही कार्य करते थे । न कोई संघीय कार्यपालिका थी और न कोई संघीय सेना ; न कोई राष्ट्रीय नागरिकता थी और न काई संघीय जनपदाधिकारी वर्ग । इसके अतिरिक्त विभिन्न कैण्टनों की शासन - प्रणालियों में प्रचुर विभिन्नता थी । ६ कैण्टनों में प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र था , ३ कैण्टनों में सीमित मताधिकार के साथ प्रतिनिध्यात्मक प्रजातन्त्र और ४ कैण्टन कुलीनतन्त्रात्मक थे । धार्मिक मतभेदों के कारण १७१२ में दूसरा गृहयुद्ध छिड़ गया , जिसने स्विस राज्यमण्डल को बड़ा दुर्बल कर दिया । इसलिए अनेक इतिहासकारों का तो यहां तक मत है कि इस समय स्विस राज्यमण्डल नाम की कोई वस्तु थी ही नहीं । ब्रुक्स का कहना है कि “ इस समय स्विट्जरलैण्ड का केन्द्रीय शासन ' राज्यमण्डल के विधान ' ( Articles of Confedertion ) के अन्तर्गत संचालित संयुक्त राज्य अमरीका के केन्द्रीय शासन से भी अधिक शक्तिहीन था । " हेल्वेटिक गणराज्य की स्थापना ( Establishment of Helvetic Republic , 1798-1815 ) - इस स्थिति में क्रान्तिकारी फ्रांसीसी सेनाओं ने स्विट्जरलैण्ड पर आक्रमण कर राज्यमण्डल की निर्बलता को नितान्त स्पष्ट कर दिया । विजय के पश्चात् फ्रांसीसी क्रान्तिकारीयों ने पुराने राज्यमण्डल के स्थान पर नवीन गणतन्त्र की स्थापना की और इसे ' हेल्वेटिक गणराज्य ' का नाम दिया । यह नवीन गणतन्त्र वास्तव में फ्रांस का एक संरक्षित राज्य था और पेरिस में एक नवीन संविधान बनाकर इस पर लाद दिया गया था । इस नवीन संविधान और उसके अन्तर्गत स्थापित की गयी व्यवस्था के सबसे प्रमुख लक्षण एकात्मकता , केन्द्रीय सत्ता और सुदृढ़ नौकरशाही थे । यह नवीन व्यवस्था स्विट्जरलैण्ड की मूल स्थानीयता की प्रवृत्ति के इतनी अधिक विरुद्ध थी कि इसका विरोध होना नितान्त स्वाभाविक था । शीघ्र ही लगभग समस्त स्विट्जरलैण्ड में इस व्यवस्था के विरुद्ध अशान्ति और विद्रोह फैल गया । | स्विट्जरलैण्ड में पुनः शान्ति और व्यवस्था स्थापित करने के उद्देश्य से नेपोलियन ने हस्तक्षेप किया और स्विट्जरलैण्ड के ६० प्रतिनिधियों को पेरिस बुलाकर इन्हें फ्रांसीसी परामर्शदाताओं की सहायता से स्विट्जरलैण्ड के लिए एक नवीन संविधान रचने का कार्य सौंपा गया । सन् १८०३ में नेपोलियन ने प्रसिद्ध ' एक्ट ऑफ मेडिएशन ' ( Act of Mediation ) की घोषणा की जिसने हेल्वेटिक गणतन्त्र का अन्त कर नवीन संविधान को क्रियान्वित कर दिया । इस नवीन संविधान ने बहुत कुछ अंशो में राज्यमण्डल की व्यवस्था को पुनर्जीवित कर दिया गया और कैण्टनों को पर्याप्त सीमा तक स्वायत्तता प्रदान कर दी गयी । वियना कांग्रेस और नवीन संविधान ( Vienna Congress and New Contitution , 1815-1848 ) - १८ ९ ३ में नेपोलियन की पराजय के पश्चात यूरोप के संयुक्त राज्यों ने १८१४ में स्विस डायट को एक नया संविधान बनाने के लिए विवश किया । इस नवीन व्यवस्था को ' पैक्ट ऑफ पेरिस ' ( Pact of Paris ) कहा जाता है और १८१५ की वियना कांग्रेस ने इस नवनिर्मित संविधान को स्वीकार कर लिया । वियना कांग्रेस ने जहां एक ओर स्विट्जरलैण्ड की आन्तरिक व्यवस्था की , वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय राजनीति में स्विट्जरलैण्ड की स्थायी तटस्थता की घोषणा कर इसकी वैदेशिक स्थिती भी निष कर दी । वियना कांग्रेस का यह निश्चित रूप से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य था जिसे वर्तमान समय तक मान्यता प्राप्त है । स्विस राज्यसंघ की सदस्य संख्या २२ हो गयी और यह जर्मन , फ्रेंच तथा इटालियन तीन भाषाओं से सम्बन्धित लोगों का भाषाभाषी राज्य हो गया । पेरिस पैक्ट को इस दृष्टि से प्रतिक्रियावादी कहा जाता है कि इसने स्थानीय स्वायत्तता को अत्यधि महत्त्व दिया और संघीय शक्ति को दुर्बल कर दिया । संघर्ष और केन्द्रवादी शक्तियों की विजय ( Struggle and Conquest of Centralizing Forces १८१५ में नवीन व्यवस्था लागू किये जाने के बाद से ही कैण्टनों के मध्य संवैधानिक और धार्मिक मतभेद और उनके परिणामस्वर संघर्ष प्रारम्भ हो गया । इस संघर्ष के दो पक्ष थे एक पक्ष , सुधारवादी प्रोटेस्टेण्ट और दूसरा पक्ष प्रतिक्रियावादी कैथोलि कैण्टनों का सुधारवादी पक्ष , जिसे रेडीकल्स ' का नाम दिया गया , अधिक एकात्मकता और केन्द्रीयकरण का समर्थक लेकिन प्रतिक्रियावादी पक्ष , जिसे ' फेडरलिस्ट्स ' ( Federalists ) का नाम दिया गया , कैण्टनों के लिए अधिकाधिक स्वायत चाहता था । १८४७ में यह संघर्ष अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया , जबकि ७ कैथोलिक कैण्टनों ने राज्यमण्डल से पृथक हो अपने लिए पृथक् संघ ' सुन्दरबण्ड ' ( Sunderbund ) की स्थापना का प्रयत्न किया । १ ९ दिन ( १०-२९ नवम्बर १८४७ ) के गृहयुद्ध में राज्य संघ की सेनाओं ने कैथोलिक ' कैण्टनों ' की सेनाओं को पराजित कर दिया और केन्द्रवादी पक्ष की विजय - सन् १८४८ का संविधान ( Constitution of 1848 ) - युद्ध की समाप्ति पर संघीय डायट ने यह अनुभव कि कि केन्द्रीय सरकार पर्याप्त शक्तिशाली होनी चाहिए , जिससे वह बाहरी आक्रमणों का सामना तथा आन्तरिक क्षेत्र में शान्ति ॐ व्यवस्था बनाये रखने का कार्य सफलतापूर्वक कर सके । अतः तद्नुसार शासन प्रणाली में परिवर्तन करने के लिए फरवरी १८१८ में १४ सदस्यों के एक आयोग की नियुक्ति की गयी । लगभग ५० दिन ( ११ फरवरी -८ अप्रैल १८४८ ) के परिश्रम से इस आ ने संविधान का एक प्रारूप तैयार किया , जिस पर ५ अगस्त से २ सितम्बर तक विभिन्न कैण्टनों में लोकनिर्णय लिया गय लोकनिर्णय में जनता द्वारा भारी बहुमत से स्वीकार किये जाने और २२ में से १५ ½ कैण्टनों द्वारा इसे स्वीकार कर लिये जाने नया संविधान १२ सितम्बर , १८४८ से लागू कर दिया गया । सन् १८७४ का पूर्ण संवैधानिक संशोधन ( Complete Constitutional Revision of 1874 ) स १८४८ में निर्मित संविधान के अन्तर्गत संविधान के पूर्ण संशोधन और आंशिक संशोधन की व्यवस्था की गयी है । इस व्यवस्था के अन्तर्गत अब तक संविधान में ५७ संशोधन किये जा चुके हैं , लेकिन इसमें पूर्ण संशोधन १८७४ में ही किया गया और इस का सर्वाधिक महत्त्व है । वर्तमान स्विस शासन प्रणाली का मूल आधार १८४८ में निर्मित और १८७४ में संशोधित किया गय संविधान ही है । सन् १ ९ ८७४ के इस पूर्ण संशोधन के आधार पर चार दिशाओं में परिवर्तन किये गये ( १ ) शासन - शक्ति के अधिकांश का केन्द्रीकरण , ( २ ) प्रत्यक्ष प्रजातन्त्रवाद की दिशा में प्रगति , ( ३ ) आर्थिक तथा सामाजिक क्षेत्र में अधिकाधिक राजकीय हस्तक्षेप , तथा ( ४ ) धार्मिक महन्तों की शक्ति पर प्रहार तथा समाप्ति संविधान के इस पूर्ण संशोधन में १८४८ के संविधान की १४ धाराएं बिलकुल रद्द कर दी गयी , ४० संशोधित हुई तो २१ नई धाराएं अपनायी गयीं । यह संशोधित संविधान १ ९ अप्रैल , १८७४ को जनता तथा राज्यों के बहुमत द्वारा स्वीकार कर लिया गया । यह संशोधित संविधान ११ मई , १८७४ से प्रभावी हुआ । पूर्ण संशोधन का एक महत्त्वपूर्ण कार्य संघीय सरकार की समस्त सेना पर नागरिक ताका पूर्ण आधिपत्य स्थापित करना था । १८७४ के उपरान्त संवैधानिक विकास ( Constitutional Development after 1874 ) १८७४ के रान्त संवैधानिक विकास से लेकर अब तक संविधान में अनेक संशोधन हो चुके है । संशोधन के परिणामस्वरूप संघीय सरकार की शक्तियों का और केन्द्रीकरण हुआ है और इन संशोधनों ने जीवन के आर्थिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में शासन को और अधिक उत्तरदायित्व सौंपे हैं । इसके साथ ही कानून निर्माण में लोकनिर्णय को अपनाकर लोगों को कानून निर्माण में पहले से अधिक भूमिका और शक्ति प्रदान की गई । १ ९ ३५ में एक आन्दोलन के माध्यम से मांग की गयी कि स्विट्जरलैण्ड के संविधान में पुन पूर्ण संशोधन होना चाहिए । इस आन्दोलन के समर्थक चाहते थे कि कैण्टनों की शक्तियां में वृद्धि की जाये , विधानमण्डलों के इस नवनिर्मित संविधान को स्वीकार कर लिया । वियना कांग्रेस ने जहां एक ओर स्विट्जरलैण्ड की आन्तरिक व्यवस्था निर्धारि की , वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय राजनीति में स्विट्जरलैण्ड की स्थायी तटस्थता की घोषणा कर इसकी वैदेशिक स्थिती भी निर्धारित कर दी । वियना कांग्रेस का यह निश्चित रूप से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य था जिसे वर्तमान समय तक मान्यता प्राप्त है । इसी सम स्विस राज्यसंघ की सदस्य संख्या २२ हो गयी और यह जर्मन , फ्रेंच तथा इटालियन तीन भाषाओं से सम्बन्धित लोगों का बह भाषाभाषी राज्य हो गया । पेरिस पैक्ट को इस दृष्टि से प्रतिक्रियावादी कहा जाता है कि इसने स्थानीय स्वायत्तता को अत्यधिद महत्त्व दिया और संघीय शक्ति को दुर्बल कर दिया । था . संघर्ष और केन्द्रवादी शक्तियों की विजय ( Struggle and Conquest of Centralizing Forces ) , १८१५ में नवीन व्यवस्था लागू किये जाने के बाद से ही कैण्टनों के मध्य संवैधानिक और धार्मिक मतभेद और उनके परिणामस्वरू संघर्ष प्रारम्भ हो गया । इस संघर्ष के दो पक्ष थे- एक पक्ष , सुधारवादी प्रोटेस्टेण्ट और दूसरा पक्ष , प्रतिक्रियावादी कैथोलिक कैण्टनों का सुधारवादी पक्ष , जिसे ' रेडीकल्स ' का नाम दिया गया , अधिक एकात्मकता और केन्द्रीयकरण का समर्थक लेकिन प्रतिक्रियावादी पक्ष , जिसे ' फेडरलिस्ट्स ' ( Federalists ) का नाम दिया गया , कैण्टनों के लिए अधिकाधिक स्वायत्तता चाहता था । १८४७ में यह संघर्ष अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया , जबकि ७ कैथोलिक कैण्टनों ने राज्यमण्डल से पृथक होकर अपने लिए पृथक् संघ ' सुन्दरबण्ड ' ( Sunderbund ) की स्थापना का प्रयत्न किया । १ ९ दिन ( १०-२९ नवम्बर १८४७ ) के इस गृहयुद्ध में राज्य संघ की सेनाओं ने कैथोलिक ' कैण्टनों ' की सेनाओं को पराजित कर दिया और केन्द्रवादी पक्ष की विजय हुई । सन् १८४८ का संविधान ( Constitution of 1848 ) युद्ध की समाप्ति पर संघीय डायट ने यह अनुभव किया कि केन्द्रीय सरकार पर्याप्त शक्तिशाली होनी चाहिए , जिससे वह बाहरी आक्रमणों का सामना तथा आन्तरिक क्षेत्र में शान्ति और व्यवस्था बनाये रखने का कार्य सफलतापूर्वक कर सके । अतः तद्नुसार शासन प्रणाली में परिवर्तन करने के लिए फरवरी १८४८ में १४ सदस्यों के एक आयोग की नियुक्ति की गयी । लगभग ५० दिन ( ११ फरवरी -८ अप्रैल १८४८ ) के परिश्रम से इस आयोग ने संविधान का एक प्रारूप तैयार किया , जिस पर ५ अगस्त से २ सितम्बर तक विभिन्न कैण्टनों में लोकनिर्णय लिया गया । लोकनिर्णय में जनता द्वारा भारी बहुमत से स्वीकार किये जाने और २२ में से १५ ½ कैण्टनों द्वारा इसे स्वीकार कर लिये जाने पर नया संविधान १२ सितम्बर , १८४८ से लागू कर दिया गया । सन् १८७४ का पूर्ण संवैधानिक संशोधन ( Complete Constitutional Revision of 1874 ) सन् १८४८ में निर्मित संविधान के अन्तर्गत संविधान के पूर्ण संशोधन और आंशिक संशोधन की व्यवस्था की गयी है । इस व्यवस्था के अन्तर्गत अब तक संविधान में ५७ संशोधन किये जा चुके हैं , लेकिन इसमें पूर्ण संशोधन १८७४ में ही किया गया और इसी का सर्वाधिक महत्त्व है । वर्तमान स्विस शासन प्रणाली का मूल आधार १८४८ में निर्मित और १८७४ में संशोधित किया गया । संविधान ही है । सन् १८७४ के इस पूर्ण संशोधन के आधार पर चार दिशाओं में परिवर्तन किये गये ( १ ) शासन - शक्ति के अधिकांश का केन्द्रीकरण , ( २ ) प्रत्यक्ष प्रजातन्त्रवाद की दिशा में प्रगति , ( ३ ) आर्थिक तथा सामाजिक क्षेत्र में अधिकाधिक राजकीय हस्तक्षेप , तथा ( ४ ) धार्मिक महन्तों की शक्ति पर प्रहार तथा समाप्ति संविधान के इस पूर्ण संशोधन में १८४८ के संविधान की १४ धाराएं बिलकुल रद्द कर दी गयी , ४० संशोधित हुई तो २१ नई धाराएं अपनायी गयीं । यह संशोधित संविधान १ ९ अप्रैल , १८७४ को जनता तथा राज्यों के बहुमत द्वारा स्वीकार कर लिया गया । यह संशोधित संविधान ११ मई , १८७४ से प्रभावी हुआ । पूर्ण संशोधन का एक महत्त्वपूर्ण कार्य संघीय सरकार की समस्त सेना पर नागरिक सत्ता का पूर्ण आधिपत्य स्थापित करना था । १८७४ के उपरान्त संवैधानिक विकास ( Constitutional Development after 1874 ) - १८७४ के उपरान्त संवैधानिक विकास से लेकर अब तक संविधान में अनेक संशोधन हो चुके है । संशोधन के परिणामस्वरूप संघीय सरकार की शक्तियों का और केन्द्रीकरण हुआ है और इन संशोधनों ने जीवन के उत्तरदायित्व सौंपे हैं । इसके साथ ही कानून - निर्माण में लोकनिर्णय को अपनाकर लोगों को कानून निर्माण में पहले से अधिक भूमिका और शक्ति प्रदान की गई । १ ९ ३५ माध्यम से मांग एक आन्दोलन के आर्थिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में शासन को और अधिक की गयी कि स्विट्जरलैण्ड के संविधान में पुनः में पूर्ण संशोधन होना चाहिए । इस आन्दोलन के समर्थक चाहते थे कि कैण्टनों की शक्तियां में वृद्धि की जाये , विधानमण्डलों के चुनाव व्यावसायिक प्रतिनिधित्व ' ( Vocational Representation ) के सिद्धान्त के अनुसार हों और अन्ततोगत्वा स्विट्जरलैण्ड से एक ' निगमनात्मक राज्य ' ( Corporate State ) की स्थापना की जाय , किन्तु यह मांग अस्वीकृत कर दी गयी और वर्तमान समय में स्विस संविधान में पूर्ण संशोधन की कोई सम्भावना नहीं है । स्विट्जरलैण्ड की राजनीतिक परंपराएँ स्विस राजनीतिक परंपराओं व संवैधानिक महत्त्व का अध्ययन निम्न बिंदुओं के आधार पर किया जा सकता है ( १ ) विश्व का सर्वाधिक प्राचीन गणतन्त्र ( Oldest Republic of the World ) स्विट्जलैण्ड विश्व का सर्वाधिक प्राचीन गणतन्त्रीय राज्य है । सन् १८४८ के संविधान द्वारा स्विट्जरलैण्ड में गणतन्त्र की स्थापना हुई , उस समय वह आधुनिक विश्व का अकेला गणतन्त्र था । सन् १८४८ के पूर्व भी स्विट्जरलैण्ड में इस प्रकार का राजतन्त्र नहीं रहा , जिस प्रकार का राजतन्त्र इंग्लैण्ड , फ्रांस या सोविएत रूस में था । स्विस नागरिक न केवल वंशानुगत राजा वरन् किसी एक निर्वाचित प्रधान को भी पूर्ण शक्ति प्रदान करने के विरुद्ध रहे हैं और इस गणतन्त्रीय भावना की अत्यधिक प्रबलता के कारण ही उनके द्वारा एकल कार्यपालिका के स्थान पर बहुल कार्यपालिका को अपनाया गया है । ( २ ) प्रजातन्त्र का आदर्श प्रतीक ( Best Model of Democracy ) स्विस राजनीतिक व्यवस्था को महत्त्व प्रदान करने वाला दूसरा तत्व उसका प्रजातन्त्रात्मक लक्षण है । आधुनिक युग में स्विट्जरलैण्ड उसी प्रकार से प्रजातन्त्र का प्रतीक है , जिस प्रकार प्राचीन विश्व में एथेन्स था । स्विस प्रजातन्त्र के नागरिकों को राजनीति तक शक्ति प्रदान की गयी है , उतनी सीमा तक अन्य किसी लोकतन्त्र में प्रदान नहीं की गयी है । ५ स्विस कैण्टनों में वर्तमान समय व्यवस्था में भाग लेने की जितनी सीमा में भी प्रत्यक्ष लोकतन्त्र है और नागरिकों के द्वारा ' जन सभाओं ' में कानूनों का निर्माण किया जाता है । लोक निर्णय और आरम्भक का स्विट्जरलैण्ड में ही उदय हुआ और वर्तमान समय में भी इनका बहुत अधिक सीमा तक पालन किया जाता है । अतः यह ठीक ही कहा गया है कि यदि ब्रिटेन संसदात्मक व्यवस्था का और अमरीका संघात्मक व्यवस्था का जनक है , तो स्विट्जरलैण्ड आधुनिक विश्व में प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र का घर होने का दावा कर सकता है । १ ( ३ ) विविधता में एकता ( Unity in Diversity ) - स्विट्जरलैण्ड ने विविधता के बीच एकता का भी आदर्श उदाहरण उपस्थित किया है । स्विट्जरलैण्ड में भाषा धर्म और संस्कृति के भेद पाये जाते है , लेकिन इन भेदों के बावजूद राष्ट्रीय एकता की भावना बहुत अधिक प्रबल है । स्विट्जरलैण्ड में लगभग ७४ प्रतिशत लोग जर्मन , २० प्रतिशत फ्रेंच , ५ प्रतिशत इटालियन और १ प्रतिशत रोमन भाषा - भाषी है , लेकिन इस भाषा सम्बधी विविधता का हल इन सभी भाषाओं को राज - भाषा का स्तर प्रदान कर निकाल लिया गया है । इसी प्रकार वहां लगभग ५८ प्रतिशत लोग प्रोटेस्टेण्ट , ४० प्रतिशत रोमन कैथोलिक , १ प्रतिशत यहूदी और १ प्रतिशत अन्य है , लेकिन इन सभी ने धार्मिक सहिष्णुता और एक - दूसरे के प्रति सम्मान को इतने गहरे रूप में अपना लिया है कि इन धार्मिक भेदों ने राष्ट्रीय एकता को निर्बल करने के बजाय सुदृढ़ ही किया है । भाषायी और धार्मिक भेदों के कारण फूट उत्पन्न न होने का एक कारण यह भी है कि वहां एक ही धर्म के अनुयायियों को भाषाएं अनेक हैं और एक भाषा बोलने वाले लोग अनेक धर्मों के अनुयायी हैं । इसके अतिरिक्त कैण्टनों की सीमाएं भी धर्म तथा भाषा के क्षेत्रों की सीमाओं से भिन्न हैं । इन सबके कारण धर्म , भाषा और क्षेत्रीयता के भेद प्रबल नहीं हो सके है । स्विट्जरलैण्ड की विविधता में यह एकता भारत जैसे राज्यों के लिए तो एक उदाहरण ही है । सुदूर भविष्य में एक विश्व राज्य की स्थापना के लिए भी यह एक आदर्श बन सकता है । ( ४ ) स्थायी तटस्थता ( Permanent Neutrality ) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से भी स्विट्जरलैण्ड की राजनीतिक व्यवस्था का अध्ययन महत्त्वपूर्ण है । वर्तमान समय में , जबकि विश्व के विभिन्न राज्य एक - दूसरे का विरोध करने में संलग्न हैं , स्विट्जरलैण्ड ने स्थायी तटस्थता को अपनाकर ' अशान्ति के समुद्र में बसने वाले सुखी द्वीप ' की स्थिति प्राप्त कर ली है । सर्वप्रथम १८१५ की वियना कांग्रेस द्वारा स्विट्जरलैण्ड की स्थायी तटस्थता को मान्यता प्रदान की गयी । १ ९९९ की वर्साय सन्धि और उसके बाद के अन्य अन्तर्राष्ट्रीय सम्मलनों में स्विट्जरलैण्ड ने सदा इस बात पर बल दिया कि स्विट्जरलैण्ड को स्थायी रूप मे एक तटस्थ राज्य घोषित किया जाय और सभी राज्यों ने स्विट्जरलैण्ड की इस स्थिति को स्वीकार किया । प्रथम महायुद्ध और द्वितीय महायुद्ध में स्विट्ज़रलैण्ड ने युद्धरत दोनों पक्षों के साथ समान सम्बन्ध बनाये रखे और और हिटलर तथा मुसोलिनो भी उसकी तटस्थता को बना रहने दिया । इसी कारण स्विट्जरलैण्ड के द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता प्राप्त नहीं की गयी है ,क्योंकि संघ की सदस्यता सदस्य राष्ट्रों को आक्रमणकारी राज्य का विरोध करने का दायित्व सौंपती है । स्विट्जरलैण्ड संघ की आर्थिक , सामाजिक और मानवीय क्षेत्र में कार्य करने वाली समितियों का सदस्य अवश्य है । इस सम्बन्ध में हमारे द्वारा भारत की तटस्थता और स्विट्जरलैण्ड की तटस्थता में अन्तर कर लिया जाना चाहिए । भारतीय तटस्थता का तात्पर्य शीतयुद्ध के दो पक्षों में तटस्थता से है और इसे सही अर्थों में ' असंलग्नता की नीति ' ( Policy of Non - alignment ) कहा जाना चाहिए । आधुनिक विश्व के अन्य तथाकथित तटस्थ राष्ट्रों की स्थिति भी यही है , लेकिन स्विट्जरलैण्ड अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अर्थों में तटस्थ है और उसे विश्व के विभिन्न राज्यों के विवादों से कुछ भी लेना - देना नहीं है अपनी इस तटस्थता के कारण स्विट्जरलैण्ड को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में बहुत अधिक सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त है और इसी आधार पर इसने परस्पर विरोधी राज्यों के बीच सम्पर्क सूत्र का कार्य किया है । अपनी स्थायी तटस्थता के बावजूद स्विट्जरलैण्ड किसी भी आक्रमण से रक्षा के लिए तत्पर और सक्षम है । ( ५ ) बहुल कार्यपालिका ( Plural Executive ) - सामान्यतया ऐसा समझा जाता है कि कार्यपालिका का संगठन एकल होना चाहिए , जिससे उसके द्वारा शासन - व्यवस्था का संचालन कुशलता के साथ किया जा सके । भारत , ब्रिटेन और अमरीका में एकल कार्यपालिका ही है , लेकिन स्विट्जरलैण्ड में ७ सदस्यों की बहुल कार्यपालिका को अपनाया गया है । यह कार्यपालिका न तो पूर्ण अंशों में संसदात्मक है और न ही अध्यक्षात्मक , वरन् इसमें दोनों के ही गुणों को ग्रहण करते हुए विश्व के सम्मुख एक नवीन उदाहरण उपस्थित किया गया है । स्विस संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि व राजनीतिक परंपराएँ www.lawtool.net
- भारतीय राजनीति में महिलाओं की भूमि और राजनीतिक प्रक्रिया
महिलाएँ और राजनीतिक प्रक्रिया प्रश्न १ : नारीवाद से आप क्या समझते है । नारीवादी आंदोलन के उदय एवं विकास का वर्णन कीजिए । नारीवाद आधुनिक युग की एक महत्त्वपूर्ण विचारधारा तथा आन्दोलन है । प्राचीनकाल से ही नारियों के साथ विभिन्न क्षेत्रों में भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता रहा है । इस भेदभावपूर्ण व्यवहार के कारण नारियाँ समाज में अपनी भूमिका निभाने में काफी हद तक असमर्थ रही है । आरंभ से ही समाज पुरुष प्रधान रहा है जिसमें महिलाओ को दासी समझा जाता था और उसे पुरुष के समान अधिकारों से वंचित रखा जाता था । महिलाओं का क्षेत्र घर की चारदीवारी तक ही सीमित रखा गया था । उसको सिर्फ पुरुषों की सेवा करना , घर का कामकाज करना , सन्तान पैदा करना और उनका पालन पोषण करना जैसा कार्य ही सौंपा गया था । अनेक धार्मिक ग्रन्थों ने भी स्त्रियों द्वारा पुरुषों के अधीन रहने और उनके निर्देशन में काम करने का समर्थन किया है । पुरुषों द्वारा प्रायः नारियों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता रहा है जिसे प्रत्यक्ष रूप में आज भी देखा जा सकता है । नारियों की यह स्थिति केवल पिछड़े देशों में नहीं बल्कि विकसित देशों में भी मिलती है , जहाँ उन्हें पुरुषों के समाज दर्जा नहीं दिया जाता । यद्यपि आज विश्व के लगभग सभी देशों में संविधान तथा कानून द्वारा स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार दिये गये हैं ; परन्तु व्यवहार में आज भी वे निर्णय निर्माण प्रक्रिया ( Decision Making Process ) में बराबर की भागीदार नहीं है और उनके बारे में अधिकांश निर्णय पुरुषों द्वारा ही लिये जाते हैं । यद्यपि आज भी स्त्रियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जा रहा है , परन्तु आज उनमें जागृति आ गई है और उन्होंने अपने को संगठित करके पुरुषों के समान अधिकार तथा उनसे समानता प्राप्त करने के लिये संघर्ष करना आरम्भ कर दिया है । महिलाओं ने अपने हितों की सुरक्षा के लिये चलाये गये आन्दोलन को ही ' नारीवाद ' ( Feminism ) नाम दिया गया है । " स्त्रीवाद / नारीवाद की उत्पत्ति ( Origin of Feminism ) : नारीवाद ( Feminism ) शब्द की उत्पत्ति अंग्रेजी भाषा के शब्द ' Female ' से हुई है । ' Female ' का अर्थ है कि ' स्त्री ' अथवा ' स्त्री सम्बन्धी ' । अतः ' स्त्रीवाद ' एक ऐसा आन्दोलन है जिसका सम्बन्ध स्त्रियों के हितों की रक्षा से है । स्त्रीवाद / नारीवाद की परिभाषायें ( Definitions of Feminism ) विभिन्न विद्वानों में नारीवाद ' को अपने - अपने दृष्टिकोणों से परिभाषित किया है । कुछ विभिन्न परिभाषायें निम्नानुसार हैं ऑक्सफोर्ड शब्दकोष ( Oxford Dictionary ) के अनुसार , " नारीवाद स्त्रियों के अधिकारों की मान्यता , उनकी उपलब्धियों और अधिकारों की वकालत हैं । " - प्रसिद्ध समाजशास्त्री मेरी एवोस ( Mary Evous ) ने लिखा है कि " नारीवाद स्त्रियों की वर्तमान तथा भूतकाल की स्थिति का आलोचनात्मक मूल्यांकन है । यह स्त्रियों से संबंधित उन मूल्यों के लिये चुनौती है जो स्त्रियों को दूसरों के द्वारा प्रस्तुत की जाती है । " चारलोट बंच ( Carlotte Bunch ) के शब्दों में , " नारीवाद से अभिप्राय उन विभिन्न सिद्धान्तों और आन्दोलनों से है जो पुरुष की तरफदारी का विरोध तथा पुरुष के प्रति स्त्री की अधीनता की आलोचना करते हैं । जो लिंग पर आधारित अन् को समाप्त करने के लिये वचनबद्ध है । " जान चारवेट ( John Charvet ) के अनुसार , " नारीवाद का मूल सिद्धान्त यह है कि मौलिक योग्यता के पक्ष से पुरुषों तथा स्त्रियों से कोई अन्तर नहीं है । इस पक्ष में कोई भी पुरुष प्राणी अथवा स्त्री प्राणी नहीं है , बल्कि वे मानवीय प्राणी है । मनुष्य का स्त्रीत्व तथा महत्त्व लिंग के पक्ष से स्वतन्त्र हैं । " महाकोष इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका ( Encyclopaedia Britianica ) के अनुसार , " नारीवाद एक ऐसी धारणा है जिसका जन्म थोड़े समय पूर्व ही हुआ है । यह धारणा उन उद्देश्यो तथा विचारों का प्रतिनिधित्व करती है जो स्त्रियों के अधिकारों के पक्ष में चलाये गये आन्दोलनों के साथ सम्बन्धित हो । इसमें आन्दोलन के निजी , सामाजिक , राजनीतिक तथा आर्थिक पक्ष शामिल हैं तथा इसका उद्देश्य स्त्रियों को पुरुषों के समान पूर्ण समानता के स्तर पर लाना हैं । "मताधिकार के साथ ही अपना लिया गया , लेकिन फ्रांस , इटली , बेल्जियम , पर्तुगाल व स्पेन में महिलाओं को मताधिकार प्राप्त करने के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध तक प्रतीक्षा करनी पड़ी । ये सभी देश पूर्ण रूप से रोमन कैथोलिक्स के प्रभाव में थे । / वस्तुतः ईसाइयत और इस्लाम के नाम पर महिला मताधिकार का बहुत विरोध हुआ । द्वितीय महायुद्ध के बाद लोकतान्त्रिक मताधिकार ( स्त्री - पुरुष सभी वयस्क व्यक्तियों को मताधिकार ) के सिद्धान्त को लगभग प्रत्येक यूरोपीयन देश द्वारा अपना लिया गया था । स्विट्जरलैण्ड जैसे देश ही इसके अपवाद थे , जहां १ ९ ७० ई . तक महिलाओं को मताधिकार से वंचित रखा गया । एक अन्य तथ्य यह है कि कुछ देश महिलाओं को मताधिकार प्रदान करने के बाद भी महिलाओं की अपेक्षित राजनीतिक अयोग्यता ' की धारणा को अपनाए रहे । उदाहरण के लिए न्यूजीलैण्ड में महिलाओं को मताधिकार १८ ९ ३ ई . में प्रदान कर दिया गया , लेकिन उन्हें प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित होने का अधिकार १ ९ १ ९ ई . में Women's Parliamen tary Rights Act ' द्वारा प्रदान किया गया । फिनलैण्ड ऐसा पहला राज्य था , जिसने महिलाओं को एक साथ दोनों अधिकार ( मताधिकार और प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित होने का अधिकार ) १ ९ ०६ ई . में प्रदान किए । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ' मानव अधिकार आन्दोलन ' इतना प्रबल हो गया था कि भारत और अन्य अनेक देशों में ' वयस्क मताधिकार का सिद्धान्त ' ( स्त्री पुरुष दोनों के लिए समान राजनीतिक अधिकार ) लगभग बिना किसी विरोध और विवाद के स्वीकार कर लिया गया । आज विश्व के लगभग सभी लोकतान्त्रिक देशों में वयस्क मताधिकार को अपना लिया गया है । महिलाओं को पुरुषों के समान ही प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित होने का अधिकार भी प्राप्त है । व्यवहार के अन्तर्गत चुनावों में महिलाओं की भागीदारी और उनकी भूमिका निरन्तर बढ़ रही है , लेकिन निर्वाचित प्रतिनिधि संस्थाओं में उनका प्रतिनिधित्व और सम्पूर्ण रूप से राजनीतिक प्रक्रिया पर उनका प्रभाव बहुत कम है । एक सर्वेक्षण में बताया गया है कि विभिन्न देशों की संसदों ( व्यवस्थापिका सभाओं ) में कुल मिलाकर महिलाओं को १५.१ प्रतिशत प्रतिनिधित्व ( ४० , ३०४ में से ६,०६ ९ स्थान ) ही प्राप्त हैं और मन्त्रिपरिषदों में तो उन्हें कुल मिलाकर ६ प्रतिशत स्थान ही प्राप्त है । में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी में केवल यही बात सम्मिलित नहीं है कि महिलाएं मत दें , प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित हों , राजनीतिक समुदायों को समर्थन दे और विधायकों से सम्पर्क स्थापित करें , वरन् राजनीतिक भागीदारी में उन सभी संगठित गतिविधियों को सम्मिलित किया जा सकता है जो शक्ति सम्बन्धों को प्रभावित करता है या प्रभावित करने की चेष्टा करता है । शासक वर्ग का सक्रिय समर्थन , विरोध या प्रदर्शन भी राजनीतिक भागीदारी का अंग है । सार्थक भूमिका के लिए राजनीतिक प्रक्रिया में महिलाओं की कितनी भागीदारी होनी चाहिए , इस सम्बन्ध में ' महिलाओं की प्रस्थिति पर संयुक्त राष्ट्र आयोग ' ने १ ९९ ० ई . में सुझाव दिया है कि निर्णय लेने वाली संरचनाओं में महिलाओं की भागीदारी कम से कम ३० प्रतिशत होनी चाहिए । इसके बाद १ ९९ ५ ई . में इस बात पर चिन्ता भी व्यक्त की गई है कि ' आर्थिक और सामाजिक परिषद द्वारा अनुमोदित ३० प्रतिशत भागीदारी का लक्ष्य कहीं पर भी प्राप्त नहीं किया जा सका है ।
- यूपी जनसंख्या नियंत्रण विधेयक
हमारे देश में जनसंख्या नियंत्रण एक बहुत बड़ी समस्या है इसलिए इस समस्या को देखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण विधेयक, 2021 का प्रस्ताव रखा है। स्वतंत्रता के इतने वर्षों के बाद, भारत में उत्तर प्रदेश (यूपी) जनसंख्या नियंत्रण के उपाय करने वाला पहला राज्य बन गया है। ये केंद्र गर्भनिरोधक गोलियां और कंडोम वितरित करेंगे और परिवार नियोजन के तरीकों के बारे में जागरूकता भी फैलाएंगे। मसौदा नसबंदी ऑपरेशन, ट्यूबेक्टॉमी या पुरुष नसबंदी का उपयोग करने का प्रस्ताव करता है। उन्हें राज्य भर में गर्भधारण, प्रसव, जन्म और मृत्यु का अनिवार्य पंजीकरण भी सुनिश्चित करना होगा। यह समझना जरूरी है कि अगर कल से यूपी में सभी जोड़ों के दो बच्चे होने शुरू हो जाएंगे तो भी आबादी बढ़ती रहेगी। इसकी वजह राज्य में युवाओं की बड़ी संख्या है। जनसंख्या इसलिए नहीं बढ़ रही है कि दंपतियों के अधिक बच्चे हैं, बल्कि इसलिए कि आज हमारे पास अधिक युवा जोड़े हैं। विशेषज्ञों के अध्ययन और पिछले आंकड़े बताते हैं कि यह नीति शायद अधिक प्रभावी न हो क्योंकि यूपी की एक तिहाई आबादी युवा है और हमें इस कानून से वांछित परिणाम नहीं मिलेगा। गरीब लोगों को सरकारी योजनाओं और प्रोत्साहनों से रोकना भी अनुचित है क्योंकि कभी-कभी यह अत्यधिक गरीबी, कम शिक्षा और जागरूकता और गर्भनिरोधक उपायों या गर्भपात को वहन करने में असमर्थता के कारण भी होता है। दक्षिण भारत में, केरल और कर्नाटक में प्रजनन दर में गिरावट देखी गई है, जो शिक्षा और जागरूकता के कारण है, इसलिए यूपी सरकार को जनसंख्या नियंत्रण के लिए लोगों को शिक्षा और जागरूकता पर भी ध्यान देना चाहिए क्योंकि यह अधिकारों की रक्षा भी करेगी। लोग। नई जनसंख्या नीति में वर्ष 2026 तक प्रति हजार जनसंख्या पर 2.1 तथा 2030 तक 1.9 जनसंख्या पर जन्म दर लाने का लक्ष्य रखा गया है। समाजवादी पार्टी (सपा) ने जनसंख्या नियंत्रण नीति को "चुनाव प्रचार" कहा है - राज्य में आसन्न विधानसभा चुनाव - जैसा कि राजनीतिक विश्लेषक हैं। कांग्रेस के सलमान खुर्शीद ने कहा है कि राजनेताओं को अपने बच्चों की संख्या घोषित करनी चाहिए। जैसा कि होता है, उत्तर प्रदेश विधानमंडल पर डेटा विधानसभा की वेबसाइट बताती है कि यूपी विधानसभा में 50% से अधिक विधायक हैं, जहां भाजपा के पास 403 में से 304 सीटें हैं, जिनके दो से अधिक बच्चे हैं। बीजेपी के आधे से ज्यादा विधायकों के तीन या इससे ज्यादा बच्चे हैं. बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की नेता मायावती ने कहा कि आदित्यनाथ का कदम केवल चुनावों से प्रेरित है। उनके अनुसार, सरकार को "सरकार बनाने के तुरंत बाद लोगों में जागरूकता फैलाना" शुरू करना चाहिए था, अगर वह जनसंख्या के प्रबंधन के बारे में गंभीर थी। प्रस्तावित कानून न केवल अनावश्यक और हानिकारक है बल्कि संभावित रूप से राजनीतिक और जनसांख्यिकीय आपदा का कारण बन सकता है
- चीन के संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
( १ ) चीन : भूमि और लोग ( २ ) संवैधानिक विकास ( i ) ' अफीम युद्ध ' और चीन में साम्याज्यवादी शक्तियों का हस्तक्षेप ( ii ) असफल ताइपिंग विद्रोह और चीन का भारी शोषण ( iii ) बाक्सर विद्रोह १ ९ ०० ई . भ ( iv ) १ ९ ११ की क्रान्ति और प्रथम गणराज्य की स्थापना ( v ) कोमिन्तांग पार्टी की स्थापना ( vi ) कोमिन्तांग - कोमिण्टर्न समझौता ( vii ) समझौते का अन्त और गृहयुद्ध का आरम्भ ( viii ) साम्यवादी दल में माओत्से तुंग का नेतृत्व ( ix ) जापान के विरुद्ध कोमिन्तांग साम्यवादी समझौता ( x ) साम्यवादियों द्वारा सत्ता का अधिग्रहण ( xi ) १ ९ ४ ९ से १ ९ ५४ तक की व्यवस्था ( xii ) १ ९ ५४ का संविधान ( xiii ) १ ९ ७५ का संविधान | हान ( Han ) ( xiv ) १ ९ ७८ का संविधान ( xv ) १ ९ ८२ का संविधान ( नया संविधान या वर्तमान संविधान ) चीन के संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और राजनीतिक परम्पराओं का वर्णन कीजिए । नैपोलियन बोनापार्ट ने एक बार चीन के विषय में कहा था कि , “ वह एक सोया हुआ दानव है , उसे सोने दो, क्योंकि जब वह उठेगा तो आतंक पैदा कर देगा । " चीन में साम्यवाद की स्थापन ने एशिया में वैसी ही समस्याएं उत्पन्न कर दी हैं , जैसी समस्याएं १ ९ १७ ई . में सोवियत रूस में साम्यवाद की स्थापना ने यूरोप के की थी । चीन की परम्परा विस्तारवादी रही है ओर यह आश्चर्य की बात नहीं है कि गत कुछ वर्षों में चीन ने अपनी इस विस्तारवादी नीति का परिचय दिया । ( १ ) चीन : भूमि और लोग - चीन एशिया महाद्वीप के मध्य में स्थित है । कोरिया की सीमा पर यालू नदी के लेकर वियतनाम की सीमा पर पेलुम नदी तक इसका विस्तार है । इसके दक्षिण में हिमालय पर्वत की श्रेणियां और उत्तर - पूर्व में रूस हैं । हिमालय पर्वत चीन को भारत , भूटान और नेपाल से अलग अलग करता है । चीन की राजधानी पेइचिंग है । अब क्षेत्र की दृष्टि से भी चीन विश्व का सबसे बड़ा देश है । इसका क्षेत्रफल ९ ७.६ लाख वर्ग किलोमीटर है । यह समस्त क्षेत्र ३४ प्रान्तो में बंटा हुआ है । पिछले लगभग दो दशक से चीन जनसंख्या नियन्त्रण के कार्यक्रम को अपना रहा है । पिछले दस वर्षों में जनसंख्या नियन्त्रण के इस कार्यक्रम में गति आयी हैं और भारतीय अनुभव की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि जनसंख्या वृद्धि पर लगभग रोक लगाने में सफल रहा है । यह | विशाल क्षेत्र और जनसंख्या चीन को युद्ध तथा विस्तारवादी नीति अपनाने और विश्व राजनीति में अग्रणी स्थान प्राप्त करने की दिशा में प्रेरित करती रही हैं । सोवियत रूस की भांति चीन एक बहु - जातीय देश हैं , जिसमें लगभग ९ ३ प्रतिशत हान जाति हैं । अन्य मूल जातियों में ये मुख्य हैं । अथवा चीनियों की प्रमुखता हैं । पूरे देश की जनसंख्या का | मंगोल , हुई , तिब्बती , कोरियन , मंचु आदि । चीन के विभिन्न जनसमूहों में अनेक प्रकार की विविधताएं पायी जाती हैं , फिर भी उनमें एक भाषा व | संस्कृति तथा अन्य कारणों से एकरसता है । सभी जातियों को एक राजनीतिक तथा आर्थिक व्यवस्था के अन्तर्गत पूर्ण सांस्कृतिक स्वायत्तता प्रदान कर | संविधान में भी इस एकरसता को बनाये रखने में योग दिया है । चीन की | मुख्य भाषा चीनी है , यद्यपि १५० अन्य भाषाएं और बोलियां भी चीन में प्रचलित हैं । चीन की ७५ प्रतिशत से अधिक जनसंख्या साक्षर हैं । भारत के ही समान चीन के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि है , | जिसमें लगभर ७५ प्रतिशत जनसंख्या लगी हुई है । खनिज पदार्थों का चीन में बाहुल्य है । चीन के प्रमुख उद्योग लोहा , इस्पात से बनी हुए मशीनें , मोटर्रे , जलयान , सीमेण्ट , कपड़ा , कागज और रबड़ के जूते इत्यादि हैं । चीन ने अपना लक्ष्य १ ९९ ० तक विश्व के प्रथम श्रेणी के औद्योगिक राष्ट्र की स्थिति को प्राप्त करना निर्धारित किया था । लेकिन चीन की परिस्थितियां इस लक्ष्य की प्राप्ति में बहुत अधिक सहायक नहीं हैं और विशाल क्षेत्र तथा अत्याधिक जनसंख्या वाले इस देश को आधुनिक कृषक राज्य की स्थिति प्राप्त करने के लिए एक लम्बा रस्ता तय करना होगा । अभी तो स्थिति यह है कि मौसम के देवता की थोड़ी - सी अकृपा से लाखों चीनी भयंकर भूख के कगार तक पहुंच जाते हैं । " ( २ ) संवैधानिक विकास चीन एक अत्यन्त प्राचीन देश है जिसकी संस्कृति और सभ्यता अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं । चीन की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को समझने के लिए १ ९ वी सदी से संवैधानिक विकास का अध्ययन किया जासकता है । १ ९ वी सदी से प्रारम्भ होकर बीसवी सदी के मध्य तक का चीन का संवैधानिक और राष्ट्रीय इतिहास साम्राज्यवादी कुचक्रो का ही परिचय देता हैं । - ( i ) ' अफीम युद्ध ' और चीन में साम्याज्यवादी शक्तियों का हस्तक्षेप इस समय चीन यूरोप के देशों की तुलना में अधिक उन्नत था । चीन की चाय , रेशमी कपड़े और चीनी मिट्टी के बर्तनों की यूरोप में बड़ी मांग थी । लेकिन इनके बदले में चीनी किसी भी यूरोपियन माल को खरीदने के लिए उत्सुक नहीं थे । प्रारम्भ में यूरोपीय व्यापारी चांदी और सोने के सिक्कों में भुगतान करते थे । लेकिन अधिक समय तक ऐसा नहीं किया जा सकता था , अतः १८ वी सदी में ब्रिटेन ने भुगतान की समस्या का नया हल निकाला । वे हिन्दुस्तान में अधिक से अधिक अफीम का उत्पादन कराकर इसे चीन में बेचने लगे और अफीम के इस तस्कर व्यापार से ब्रिटिश पूंजीपतियों की बहुत लाभ होने लगा । कैण्टन के भ्रष्ट अधिकारी भी तस्कर व्यापार में ब्रिटिश कम्पनियों की मदत करने लगे । चीन की सरकार ने प्रारम्भ में विदेशी व्यापार पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाये । लेकिन थोड़े समय बाद ही ब्रिटिश षडयन्त्र की गम्भीरता को अनुभव किया गया और चीनी सरकार ने अफीम लाने वाले ब्रिटिश जहाजों की तलाशी लेनी शुरू कर दी । ब्रिटिश सरकार इससे रुष्ट हो गयी और १८३ ९ -४२ में चीन और ब्रिटेन में प्रथम अफीम युद्ध हुआ । ब्रिटेन ने चीन को युद्ध में पराजित कर चीन पर पहली ' असमान सन्धि ' ( Unequal Treaty ) लादी । इसके बाद चीन को संयुक्त राज्य अमरीका और जापान के साथ भी इस प्रकार की ' असमान सन्धियां करनी पड़ी । इन्हें ' असमान सन्धि ' इस दृष्टि से कहा जाता है कि इनमें चीन के सम्मान और हितों की नितान्त उपेक्षा की गयी और हैरोल्ड सी . हिण्टन के मतानुसार , “ इन सन्धियों के परिणामस्वरूप चीन की सम्प्रभुता पर गम्भीर प्रतिबन्ध लगा दिये गए । " इन सन्धियों की शर्तों के कारण चीन के उद्योग धन्धों को बहुत हानि पहुंची । ( ii ) असफल ताइपिंग विद्रोह और चीन का भारी शोषण - साम्राज्यवादी देशों के भीषण शोषण की प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक थी और यह १८५०-६४ के ताइपिंग विद्रोह के रूप में हुई जो वस्तुतः चीन की पहली राष्ट्रीय और जनतन्त्रीय क्रान्ति थी , लेकिन यह सफल नहीं हो सकी । १८ ९ २ में साम्राज्यवादी शक्तियों ने चीन को औपनिवेशक प्रभाव क्षेत्रों में बांट लिया । मंचूरिया रूस के प्रभाव क्षेत्र में आ गया । शान्तुंग पर जर्मनी ने अधिकार कर लिया , जपान ने फूकियन को अपना प्रभाव क्षेत्र बनाया , दक्षिण - पूर्वी चीन फ्रांस के हिस्से में आया और मुख्य चीन की लगभग आधी भूमि ( याग्ट्सी और हागहो के मैदान ) ब्रिटेन के हिस्से में आ गयी । प्रत्येक साम्राज्यवादी देश को अपने प्रभाव क्षेत्र में पूंजी के निवेश ( Investment ) और संचार के विकास का लगभग एकाधिकार प्राप्त हो गया । अमरीका भी इस आर्थिक शोषण में शामिल था । इस स्थिति के सम्बन्ध में महान् चीनी सनयात सन ने कुछ रोष भरे शब्दों में कहा था कि , “ इस प्रकार चीन किसी एक देश का उपनिवेश या अर्द्ध - उपनिवेश तो नहीं बना , वरन् वह कई देशों का एक संयुक्त उपनिवेश बन गया । " I ( iii ) बाक्सर विद्रोह १ ९ ०० ई . - १ ९ ०० ई . में चीन में ' बाक्सर विद्रोह ' हुआ , जिसका उद्देश्य चीन में विदेशी प्रभाव और मांचू वंश का अन्त कर एक गणराज्य की स्थापना करना था । इस विद्रोह में अनेक विदेशी और ईसाई मारे गये । इस ब्रिदोह के पीछे राष्ट्रवादी नेता सनयात सेन का हाथ था , जो १८८५ ई . में चीन छोड़कर अमरीका चले गये थे और वहां से राष्ट्रवादियों का नेतृत्व कर रहे थे । सभी विदेशी शक्तियों ने इस विद्रोह का संगठित होकर सामना किया और उन्होने विद्रोह को दबाने के लिए अपनी सेनाएं भेज दी । विद्रोह की असफलता से चीन में विदेशी शक्तियों का प्रभाव और अधिक बढ़ गया । ( iv ) १ ९ ११ की क्रान्ति और प्रथम गणराज्य की स्थापना चीन में यद्यपि बाक्सर विद्रोह को दबा दिया गया , परन्तु राष्ट्रीय भावनाएं ज्यों - की - त्यो बनी रही । १ ९ ०५ में जापान के हाथों सोवियत रूस की पराजय ने चीन के राष्ट्रवाद को नयी प्रेरणा और शक्ति प्रदान की । इस क्रान्ति के प्रेरक आधुनिक चीन के निर्माता सनयात सेन थे । उनके तीन सिद्धान्तों जन राष्ट्रवाद , जन प्रजातन्त्र और जन आजीविका से प्रभावित होकर चीन के लोगों ने डॉ . सेन के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया और १ ९ ११ की क्रान्ति हुई । इस क्रान्ति से मांचू वंश के शासन का अन्त हो गया । क्रान्तिकारियों की एक सभा दिसम्बर १ ९ ११ को नानकिंग नगर में हुई और इस सभा ने चीन को एक गणराज्य घोषित कर दिया । डॉ . सनयात सेन को इस सभा ने अस्थायी राष्ट्रपति चुन लिया । लेकिन समस्त चीन में सनयात सेन का प्रभुत्व स्थापित नहीं हो सका और चीनी प्रधानमन्त्री युवान शीहकाई ने दक्षिण चीन में एक और गणराज्य स्थापित कर लिया । डॉ . सेन ने चीन की एकता को बनाये रखने के लिए युवान के पक्ष में अपना त्यागपत्र दि दिया । ( v ) कोमिन्तांग पार्टी की स्थापना युवान शीहकाई ने चीन की स्थिति में सुधार करने के लिए इंगलैण्ड , फ्रांस जर्मनी , रूस तथा जापान से ऋण लेने शुरू कर दिये । युवान का यह कार्य १ ९ ११ की क्रान्ति के घोषित सिद्धान्तों के विरुद्ध सनयात सेन के अनुयायियों ने इसका घोर विरोध किया । डॉ . सनयात सेन और उनके अनुयायियों ने अपने आप को कोमिन्ता पार्टी में संगठित कर दिया , जो एक राष्ट्रीय दल था । युवान शीहकाई को कोमिन्तांग पार्टी और उसके बाद जापान के अपमानित होना पड़ा और जून १ ९९ ६ में युवान शीहकाई की मृत्यु हो गयी । उसके पश्चात् कोमिन्तांग पार्टी का नेता ली युवर हंग राष्ट्रपति बन गया । इस तरह से समस्त चीन कोमिन्तांग पार्टी के नेतृत्व में संगठित हो गया । २/१६ ( vi ) कोमिन्तांग कोमिण्टर्न समझौता ( Knomintang Comintern Alliance ) - १ ९ १७ में पूर्व सोविक संघ में समाजवादी क्रान्ति हो गयीं । चीनी साम्यवादी दल रूस के मार्गदर्शन में अपना कार्य करने लगा । डॉ . सनयात सेन के नेतृल में जो कोमिन्ताग पार्टी गठित हुई थी , वह चीनी साम्यवादी दल का विरोध करने लगी । कोमिन्तांग पार्टी एक आरपुरा साम्राज्यवादी शक्तियों तथा दूसरी ओर साम्यवादी दल का विरोध सहन कर रही थी । १ ९ २३ ई . में सनयात सेन ने स्थिति में समझ कर पूर्व सोवियत संघ और कामिण्टर्न से समझौता कर लिया । लेनिन इन समझौते के आधार पर चीन में राष्ट्रीय क्रान्ति सफल बनाकर साम्राज्यवादी शक्तियों को आघात पहुंचाना चाहता था और डॉ . सेन की रुचि रूस से प्राप्त होने वाली विस सहायता में थी । समझौते के अन्तर्गत चीन में पूर्व सोवियत संघ के सैनिक और राजनीतिक सलाहकार भी आये । १ ९ २३६ डॉ . सेन ने चीनी साम्यवादियों से बातचीत करके एक समझौता किया और साम्यवादियों को अपने दल का सदस्य बनने की आज्ञा दे दी । साम्यवादियों ने जन समर्थन प्राप्त करने और दल को अन्दर से क्रान्तिकारी रूप प्रदान करने के उद्देश्य से कोमिन्ता दल में प्रवेश किया । इस सन्धि के अन्तर्गत ही डॉ . सेन के विश्वासपात्र सहयोगी च्यांग काई शेक ने सोवियत संघ में प्रशिक्षार प्राप्त किया और इसके अन्तर्गत ही ' बम्पाओ सैनिक अकादमी ' ( Whimpao Military Academy ) स्थापित की गई जिसके मुख्य अधिकारी च्यांग थे । ( vii ) समझौते का अन्त और गृहयुद्ध का आरम्भ - मार्च १ ९ २५ में डॉ . सेन की मृत्यु के बाद जब चीन का नेतृल च्यांग काई शेक के हाथ में आया , तो कोमिन्तांग - कोमिण्टर्न समझौते में तनाव उत्पन्न होने लगा । च्यांग काई शेक साम्यवाद प्रबल विरोधी थे और इस बात से चिन्तित थे कि साम्यवादियों द्वारा राष्ट्रवादी जनतन्त्रीय क्रान्ति को एक व्यापक वर्ग संघर्ष का स देने की कोशिश की जा रही है । १ ९ २७ में च्यांग काई शेक ने चीनी साम्यवादियों का सफाया करना शुरू कर दिया । चीन के साम्यवादी दल का प्रधान इस समय चेन तू शे था , जो च्यांग का सफल विरोध नहीं कर सका । चेन तू शे का स्थान ली ली सान द्वारा लिया गया और बार में ली ली सान का स्थान ' विद्यार्थी दल ' ( Returned Students ) के द्वारा ले लिया गया । लेकिन च्यांग काई शेक शासन है शक्ति का प्रतिरोध कर साम्यवादी क्रान्ति करने में ये सभी असफल रहे । मूल बात यह थी कि साम्यवादी दल के ये नेता का सिद्धान्तवादी थे और उन्होंने सोवियत संघ को अपना उदाहरण मानकर औद्योगिक श्रमिकों के बल पर क्रान्ति करने का प्रयत्न किया । लेकिन चीन की परिस्थितियों भिन्न होने और चीन एक कृषि प्रधान देश होने के कारण इसमें उन्हें सफलता प्राप्त नहीं है सकती थी । ( viii ) साम्यवादी दल में माओत्से तुंग का नेतृत्व - १ ९ ३५ में माओत्से तुंग ने चीनी साम्यवादी दल का पूर्ण नेतृत्व प्राप्त कर लिया । उन्होंने कोमिन्तांग की शक्ति का मुकाबला करने के लिए खुले युद्ध का स्थान पर गोरिल्ला युद्ध ( Guerils War ) की पद्धति अपनाने और कृषकों को चीन की प्रमुख क्रान्तिकारी शक्ति बनाने पर बल दिया । माओ प्रारम्भ से है यथार्थवादी नेता था और उसका विचार कि चीन में क्रान्ति की सफलता के लिए चीन के सभी वर्गों का समर्थन यहां तक कि छोट जमीदारों तक का समर्थन प्राप्त किया जाना चाहिए । ( ix ) जापान के विरुद्ध कोमिन्तांग साम्यवादी समझौता च्यांग काई शेक १ ९ २७ से ही साम्यवादियों क सफाया करने में लगा था , लेकिन १ ९ ३१ में जब जापान ने मंचूरिया पर कब्जा कर लिया और इस विषय में राष्ट्र संघ , ब्रिटेन और फ्रांस चीन की कोई मदद नहीं कर सके तो च्यांग काई शेक के मन को आघात पहुंचा । माओत्से तुंग , चाऊ एन लाई और त शाओ ची के नेतृत्त्व में इधर तो साम्यवादी अपने आपको शक्तिशाली बनाने में लगे थे , उधर यूरोप में फासीवादी तत्व बहु अधिक शक्तिशाली हो गये थे और चीन पर जपान के पुनः आक्रमण का खतरा बढ़ रहा था । ऐसी स्थिति में मास्को की प्रेरणा चीन की कोमिन्तांग सरकार और साम्यवादियों में समझौता सम्पन्न हो गया और उन्होंने अपनी संयुक्त शक्ति के बल पर जापान केसंकट का मुकाबला करने का निश्चय किया । कोमिन्तांग के साथ मिलकर जापान के विरुद्ध युद्ध करते हुए साम्यवादियों ने अपनी स्थिति बहुत सुदृढ कर ली । उन्होंने अपनी गोरिल्ला पद्धति को सुदृढ़ किया और ग्रामीण क्षेत्रों में जन - समर्थन प्राप्त किया । माओत्से तुंग ने सशस्त्र संघर्ष और संयुक्त मोर्चे की दुतरफा नीति अपनायी और १ ९३७-४५ के वर्षों में सफल साम्यवादी क्रान्ति के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर ली । ( x ) साम्यवादियों द्वारा सत्ता का अधिग्रहण १ ९ ४५ में जब द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हुआ , तब चीन औपचारिक रूप से तो च्यांग काई शेक और उनके कोमिन्तांग दल के नियन्त्रण में था लेकिन देश की वास्तविक शक्ति साम्यवादियों के हाथ में आ गयी थी । इस समय तक १० लाख व्यक्तियों की लाल सेना का गठन हो चुका था और २७ मुक्त क्षेत्र ( Liberated areas ) स्थापित किये जा चुके थे । कोमिन्तांग और साम्यवादी दल के बीच समझौते और एक मिली जुली सरकार की स्थापना का प्रयत्न किया गया , किन्तु इसमें सफलता प्राप्त नहीं हुई और १ ९ ४६ में दोनों पक्षों के बीच संघर्ष प्रारम्भ हो गया । कोमिन्तांग शासन में एकता का अभाव था और बढ़ते हुए भ्रष्टाचार के कारण यह जन समर्थन खोता जा रहा था । न केवल ग्रामीण जनता , वरनू शहरों के बुद्धिजीवी और विद्यार्थी भी इसके विरुद्ध हो गये थे । संयुक्त राज्य अमरीका से बहुत बड़ी मात्रा में वित्तीय और सैनिक सहायता प्राप्त होने के बावजूद कोमिन्तांग शासन साम्यवाद के बढ़ते हुए प्रसार को नहीं रोक सका । अन्त में , १ ९ ४ ९ कोमिन्तांग शासन का पतन हो गया , जबकि च्यांग काई शेक ने अपनी सेना के प्रमुख अंगो के साथ चीन की मुख्य भूमि को छोड़कर फारमोसा टापू में शरण ग्रहण की । साम्यवादियों ने शासन पर अधिकार कर लिया और १ अक्टूबर , १ ९ ४ ९ को माओत्से तुंग के नेतृत्व में चीन के जनवादी गणराज्य की स्थापना की घोषणा की गयी । ( xi ) १ ९ ४ ९ से १ ९ ५४ तक की व्यवस्था हैराल्ड हिण्टन ने लिखा है कि , “ अपने अस्तित्व के प्रथम पांच वर्षों में चीन के जनवादी गणराज्य की न तो कोई राष्ट्रीय व्यवस्थापिका सभा थी और न ही कोई औपचारिक संविधान । इनके स्थान पर चीन में चीनी जनता का राजनीतिक परामर्शदाता सम्मेलन , सामान्य कार्यक्रम और मूल विधि थे । " देश पर राजनितिक परामर्शदाता सम्मेलन द्वारा शासन किया जाता था और राज्य तथा प्रशासनिक ढांचे के मूल उद्देश्य सामान्य कार्यक्रम तथा मूल विधि के आधार पर निश्चित किये गये । ये दोनों प्रलेख ही संयुक्त रूप से चीन के अस्थायी संविधान के रूप में थे । विशेष बात यह थी कि राजनीतिक परामर्शदाता सम्मेलन में साम्यवादी दल के अतिरिक्त ७ अन्य राजनीतिक दलों और अल्पसंख्यक जातियों को भी प्रतिनिधित्व दिया गया था , किन्तु वास्तविक शक्ति साम्यवादी दल और इसके नेता माओत्से तुंग में ही निहित थी । परामर्शदाता सम्मेलन के द्वारा चीन में पहली जनगणना करायी गयी और अप्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर राष्ट्रीय जन कांग्रेस और स्थानीय जन कांग्रेस के निर्वाचन कराये गये । ( xii ) १ ९ ५४ का संविधान १ ९ ४ ९ को साम्यवादी क्रांति के बाद चीन में अब तक चार संविधानों को अपनाया जा चुका था । इनमें प्रथम १ ९ ५४ का संविधान है जो ४ नवम्बर , १ ९ ५४ से १६ जनवरी , १ ९ ७५ तक लागू रहा । इस संविधान के द्वारा चीन में एक जनवादी गणतन्त्र की स्थापना की गई , जिसका आधार ' जनवादी जनतांत्रिक अधिनायकवाद ' था । यह संविधान गणराज्य की स्थापना से समाजवाद की स्थापना तक के काल के लिए अर्थात एक संक्रमण कालीन संविधान था । लोकतांत्रिक केन्द्रबाद इस संविधान द्वारा स्थापित समस्त व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु था । ( xiii ) १ ९ ७५ का संविधान १ ९ ५४ का संविधान एक संक्रमणकालीन व्यवस्था मात्र था , अतः चीन की चौथी जन कांग्रेस द्वारा १७ जनवरी १ ९ ७५ से नवीन संविधान अपनाया गया । मार्क्सवाद लेनिनवाद - माओवाद इस संविधान का दार्शनिक वैचारिक आधार घोषित किया गया । यह लिखित और अत्याधिक संक्षिप्त ( ४ अध्यायों में बंटे हुए ३० अनुच्छेद ) संविधान था । इस संविधान में कहा गया था कि , चीन का जनवादी गणराज्य सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व का समाजवादी राज्य हैं । संविधान के प्रथम अनुच्छेद में ही चीन गणराज्य में साम्यवादी दल की नेतृत्वकारी भूमिका का उल्लेख किया गया था । संविधान के प्रतिवेदन में लियाशाओ ची ने कहा था कि , ' चीन का साम्यवादी दल देश के नेतृत्व का केन्द्र है । ' ( xiv ) १ ९ ७८ का संविधान - १ ९ ७५ का संविधान अत्यन्त संक्षिप्त संविधान था और इस संविधान में अनेक प्रमुख बातों का भी उल्लेख नहीं था । ऐसी स्थिति में १ ९ ७५ के संविधान को अपनाने के एक वर्ष बाद ही नवीन संविधान को अपनाने की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी । इसके अतिरिक्त ९ सितम्बर , १ ९ ७६ को माओत्से तुंग दिवंगत हो चुके थे और नये शासक माओ की नीतियों से कुछ असहमति रखते थे । इस पृष्ठभूमि में नवीन संविधान की आवश्यकता अनुभव करते हुए उसका निर्माण किया गया ।संविधान में भी केवल ६० अनुच्छेद थे । इस प्रकार यह भी एक संक्षिप्त संविधान ही था । संविधान द्वारा चीन में अ अतः ५ मार्च १ ९ ७८ ई . को चीन की पांचवी कांग्रेस द्वारा नया संविधान स्वीकृत कर , उसे लागू किया गया । गणतंत्र की स्थापना करते हुए समस्त सत्ता जनता में निहित की गई । संविधान के प्रथम अनुच्छेद में कहा गया था कि ज चीन सर्वहारा वर्ग की तानाशाही वाला एक समाजवादी राज्य है जिसका नेतृत्व श्रमिक वर्ग के हाथो में है और श्रमिकों के अटूट मैत्री के सम्बन्ध विद्यमान है । " संविधान के अनुच्छेद २ के अन्तर्गत शासन के समस्त अंगों तथा जीवन समस्त क्षेत्र साम्यवादी दल का एकाधिपत्य स्वीकार किया गया । संविधान में स्पष्ट कहा गया है की , चीन की समस्त जनता के नेतृत्व की साम्यवादी दल है । कामगर वर्ग राज्य सत्ता पर अपना नेतृत्व अपने अगुआ और प्रहरी चीन के साम्यवादी दल के माध्यम से रखता है । ( xv ) १ ९ ८२ का संविधान ( नया संविधान या वर्तमान संविधान ) - पृष्ठभूमि - १ ९ ७६ में माओ की मृत्यु के बाद चीन की आर्थिक , सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में माओ योगदान पर पुनर्विचार किया जाने लगा और १ ९ ७८ ई . के बाद सत्तारूढ़ शासक वर्ग के द्वारा विशेष रूप से यह अनुभव गया कि माओ का रूढ़िवादी साम्यवाद का मार्ग आज की परिस्थितियों के लिए उपयुक्त नहीं है और इसके स्थान पर प्रगतिक साम्यवाद तथा विकसित औद्योगिक तकनीक को अपनाये जाने की आवश्यकता है । १ ९ ७८ के संविधान पर विचार के लिए एक ' पुनरीक्षण समिति ' स्थापित की गयी थी । इस समिति के उपाध्यक्ष झेन ने नेशनल पीपुल्स कांफ्रेस ' ( चीन की संसद ) के समक्ष नये संविधान पर अपनी रिपोर्ट पेश की और ४ दिसम्बर , १६ को चीन का नया संविधान स्वीकृत किया गया । संविधान के अनुसार , देश में शोषक वर्ग समूह नष्ट कर दिया गया है तथा क संघर्ष अब समाज में नहीं हैं । यह विचार माओत्से तुंग के उस विचार से बिल्कुल हटकर है जिसमें सतत् क्रान्ति की बात कही थी । झेन ने सांस्कृतिक क्रान्ति को एक बड़ी गल्ती बताकर यह स्पष्ट कर दिया कि नया नेतृत्व माओवाद से पूरी तरह विमुख गया है । चीन में १ ९ ४ ९ में साम्यवादी शासन की स्थापना के बाद यह चौथा संविधान लागू किया गया है । राष्ट्रीय जनवादी कांग्रेस के ३,०३७ सदस्यों ने गुप्त मतदान प्रणाली से संविधान मसविदे में सुझाये गये संशोधनों पारित किया । इसमें दिलचस्प बात यह थी कि कुछ सदस्यों ने मतदान में भाग नहीं लिया । इससे यह स्पष्ट है कि कुछ लो परिवर्तन के इस दौर के खिलाफ भी है और मतदान में भाग न लेकर उन्होंने अपना विरोध प्रकट भी किया है । सबसे महत्व बात यह है कि चीन जैसा कम्युनिस्ट देश भी अब जनसंख्या विस्फोट से आतंकित हो उठा और संविधान द्वारा चीन के प्रत्ये दम्पति के लिए परिवार नियोजन आवश्यक कर्तव्य घोषित कर दिया गया है । इससे स्पष्ट है कि चीन भी अब कट्टरता छोड़ा राष्ट्रहित में संशोधनवादी नीति की ओर अग्रसर हो रहा है । चीन का १ ९ ५४ का संविधान रूसी ढांचे पर निर्मित था । चीनी और सोवियत संघ के संविधान की तुलना करते एम . ब्रेशर ने लिखा है कि सोवियत संघ और चीन की संसदे केवल मोहर लगाने वाली संस्थाएं थी । कालान्तर में परिवर्तन आवश्यकता अनुभव हुई और इसका प्रमुख कारण १ ९६६-६९ के बीच की सांस्कृतिक क्रान्ति की उपलब्धियों को संवैधानि जामा पहनाना था । फलस्वरूप १ ९ ५४ ई . के संविधान में अनेक परिवर्तन किये गये और इनका मुख्य उद्देश्य दल के केन्द्रीकृ नेतृत्व का सरकारी ढ़ांचे पर वर्चस्व स्थापित करना था । १ ९ ७५ तथा १ ९ ७८ के संविधान संक्रमणकालीन सिद्ध हुए । इन उद्देश्य एक स्वतन्त्र और अपेक्षाकृत वृहत औद्योगिक और आर्थिक व्यवस्था को विकसित करना था । १ ९ ८० से ही चीन ए महाशक्ति बनने की दिशा में आगे बढ़ रहा है , किन्तु कृषि , उद्योग , राष्ट्रीय सुरक्षा , विज्ञान और तकनीकी के आधुनिकीकरण समस्याएं बनी हुई है । अतः ऐसे संविधान की आवश्यकता अनुभव की गयी जिससे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था विश्व में अग्रणी व सके ।
- दण्ड क्या है / What is Punishment
What is Punishment / दण्ड क्या है www.lawtool.net सजा क्या है - दण्ड क्या है शब्दकोश के अनुसार सजा दर्द या जब्ती; यह राज्य की न्यायिक शाखा द्वारा दंड का प्रावधान है। लेकिन अगर सजा के पीछे एकमात्र उद्देश्य अपराधी को शारीरिक पीड़ा देना है, तो यह बहुत कम उद्देश्य से काम करता है। हालाँकि, यदि सजा ऐसी है कि अपराधी को उसके द्वारा किए गए अपराध की गंभीरता का एहसास होता है, और इसके लिए पश्चाताप करना (इस प्रकार उसके गलत कार्य के प्रभाव को बेअसर करना), तो यह कहा जा सकता है कि उसने अपना वांछित प्रभाव प्राप्त कर लिया है। सजा के प्रकार (प्रकार) Capital Punishment/ मौत की सजा सजा के इतिहास में, मृत्युदंड ने हमेशा एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान पर कब्जा कर लिया है। प्राचीन काल में, और मध्य युग में भी, अपराधियों को मौत की सजा देना एक बहुत ही सामान्य प्रकार की सजा थी। फिर, अठारहवीं शताब्दी में एक आंदोलन खड़ा हुआ जिसने दण्ड की अमानवीय प्रकृति के विरोध में आवाज उठाई। बेंथम को इस आंदोलन का अगुआ माना जा सकता है। उन्होंने अपराध के कारणों का विश्लेषण किया और दिखाया कि सजा कैसे पर्याप्त होनी चाहिए। उनके अनुसार, सजा स्वयं बुराई थी, लेकिन कोई सजा तब तक नहीं दी जानी चाहिए जब तक कि इससे अधिक अच्छा न हो। मृत्युदंड का उद्देश्य अपराधी को मौत के घाट उतारकर, यह दूसरों के मन में डर पैदा कर सकता है और उन्हें सबक सिखा सकता है। दूसरे, यदि अपराधी एक अपूरणीय है, तो उसे मौत के घाट उतार देना, यह अपराध की पुनरावृत्ति को रोकता है। लेकिन यह स्पष्ट है कि यह सजा के सुधारात्मक उद्देश्य पर आधारित नहीं है, इस अर्थ में कि यह निराशा का कदम है। इस तरह के पक्ष और विपक्ष में कई तर्क दिए गए हैं। Deportation - निर्वासन - मृत्युदंड के आगे, अपूरणीय या खतरनाक अपराधियों के उन्मूलन की एक विधि निर्वासन की सजा है। भारत में इसे परिवहन कहा जाता था। यह शायद ही किसी समस्या का समाधान हो सकता है। अगर कोई आदमी एक समाज में खतरनाक है और अगर उसे दूसरे समाज में छोड़ दिया जाता है, तो उसके वहां भी उतना ही खतरनाक होने की संभावना है। Corporal Punishment/शारीरिक दंड शारीरिक दंड में पिटाई (या कोड़े मारना) और यातना शामिल है। यह प्राचीन और मध्यकाल में एक बहुत ही सामान्य प्रकार की सजा थी। प्राचीन ईरान और प्राचीन भारत में, और यहां तक कि मुगल शासकों और मराठों के समय में भी कोड़े मारने का आमतौर पर सहारा लिया जाता था। इस तरह की सजा का मुख्य उद्देश्य निरोध है। यह बहुत पहले ही महसूस किया जा चुका है कि इस तरह की सजा न केवल अमानवीय है, बल्कि अप्रभावी भी है। जो व्यक्ति इस प्रकार की सजा भुगतता है वह पहले की तुलना में अधिक असामाजिक हो सकता है। उसके अंदर आपराधिक प्रवृत्ति कठोर हो सकती है और उसे सुधारना असंभव हो सकता है। हालाँकि, कोड़े मारना मूल रूप से दंड संहिता में प्रदान की जाने वाली सजा में से एक था, इसे 1955 में समाप्त कर दिया गया था। हालाँकि, हाल ही में पाकिस्तान में सजा के रूप में कोड़े मारने की शुरुआत की गई है। Imprisonment/कारावास इस प्रकार की सजा, अगर ठीक से इस्तेमाल की जाए, तो सजा के तीनों उद्देश्यों की पूर्ति हो सकती है। यह एक निवारक हो सकता है क्योंकि यह दूसरों के लिए अपराधी का उदाहरण बनाता है। यह निवारक हो सकता है क्योंकि यह अपराधी को कम से कम कुछ समय के लिए अपराध को दोहराने से अक्षम करता है, और यह (यदि ठीक से उपयोग किया जाता है) अपराधी के चरित्र में सुधार के अवसर प्रदान करता है। Solitary Confinement/एकान्त कारावास, एकान्त कारावास एक गंभीर प्रकार का कारावास है। इस प्रकार की सजा मनुष्य के मिलनसार स्वभाव का पूरी तरह से शोषण करती है, और उसे अपने साथियों के समाज से वंचित करके, उसे पीड़ा पहुँचाने का प्रयास करती है। कई अपराधियों द्वारा यह महसूस किया गया है कि इस प्रकार की सजा अमानवीय और विकृत है। यह संभव है कि यह स्वस्थ मानसिक स्वास्थ्य वाले व्यक्ति को पागल में बदल दे। यदि अधिक मात्रा में उपयोग किया जाता है, तो यह अपराधी को स्थायी नुकसान पहुंचा सकता है, हालांकि सीमित मामलों में, यदि अनुपात में उपयोग किया जाता है, तो इस तरह की सजा उपयोगी हो सकती है। दण्ड क्या है What is Punishment www.lawtool.net
- अमरीकी संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि व राजकीय परंपराएँ
प्रश्न 1 : अमरीकी संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि व राजकीय परंपराओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए उत्तर : अमेरिका को ' राष्ट्रो का राष्ट्र ' कहा गया है । यूरोप की विभिन्न राष्ट्र - जातियों के करोड़ों लोग अमेरिका की आकृष्ट हुए और उसी को उन्होंने अपनी मातृ - भूमि मान लिया । प्रो . माइकेल केमन द्वारा प्रस्तुत आकड़ों के अनुसार १८२० अमेरिका की कुल जनसंख्या का ७७.५ प्रतिशत भाग उन लोगो का था जो उत्तर - पश्चिमी यूरोप से आए थे । उनके अलावा केंद्री यूरोप व पूर्वी यूरोप की भी बहुत सी जातियां अमेरिका में बस गई थी । एशिया , अफ्रीका और आस्ट्रेलिया के भी लाखों लो अमेरिका पहुँचे । इस प्रकार अमेरिका में विभिन्न राष्ट्रीय समुदायों , भाषाओं और धर्मो का समागम होता रहा है । वास्तव में जिसे अमेरिकी संस्कृति कहते हैं वह इन सभी जातियों के मिश्रण का परिणाम है । नीचे हम अमेरिका की राजनीतिक परंपरा का उल्ले करेंगे । औपनिवेशक शासन ( The Colonial Rule ) - अठारहवीं शताब्दी के मध्य में अटलांटिक महासागर के तट निकट अंग्रेजों के १३ उपनिवेश थे । ये सभी ब्रिटिश सरकार की अधीनता में थे । उपनिवेशों को तीन वर्गों में विभक्त किया जाता था १. क्राउन प्रदेश ( Crown Colonies ) अर्थात ब्रिटिश सम्राट के अधीन वस्तियां । इन पर सम्राट ' गवर्नर ' के माध्य से शासन किया करता था । इन उपनिवेशों में न्यू हैम्पशायर , न्यूयार्क , न्यूजर्सी तथा जार्जिया शामिल थे । २. प्रोप्राइटरी प्रदेश ( Proprietary Colonies ) - इंग्लैंड के कुछ निजी व्यक्तियों के स्वामित्व वाली बस्तियां इ पेनेसलेवेनिया , डेलावेयर और मैरीलैंड प्रमुख थीं । ३. चार्टर प्रदेश ( Charter Colonies ) - इन पर अमेरिका में रहने वाले कुछ विशिष्ट लोगों का अधिकार था । रोड द्वीप और कनक्टीकट इसी तरह के उपनिवेश थे । उपनिवेशों को आंतरिक मामलों में तो कुछ स्वतंत्रता प्राप्त थी , पर वैदेशिक मामलो में वे पूर्णतया ब्रिटिश सरकार के अधीन थे । उपनिवेशों के व्यापार पर भी ब्रिटिश सरकार का ही नियंत्रण था । उपनिवेशों की अपनी अलग - अलग विधानसभाएं जिनमें जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि बैठते थे । इन सभाओं का प्रायः अंग्रेज गवर्नरों व अन्य उच्च अधिकारियों से संघर्ष चलत रहता था । प्रो . टी . एच . रीड लिखते है , “ उपनिवेशों की जनता गवर्नरों को अपना शत्रू और विधानसभा को अपना मित्र समझ थी । दूसरे शब्दों में , विधानमंडल तो लोकप्रिय था पर कार्यपालिका बहुत बदनाम थी । " स्वतंत्रता की घोषणा ४ जुलाई १७७६ ( Declaration of Independence , 4th July , 1776 ) - उपनिवेशवासी राजनीतिक दृष्टि से जागरूक होते जा रहे थे । इसलिए उनके मन में स्वतंत्र राष्ट्र बनने की भावना जागी । दूसरी ओर फ्रांस के विरुद्ध लड़े गए सप्तवर्षीय युद्ध ( १७५६-१७६३ ) के कारण ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था बहुत जर्जर हो चुकी थी । ऐसी स्थिति में ब्रिटिश सरकार ने अमेरिका की जनता पर कुछ नए कर लगाने की योजना बनाई । १७६५ में स्टाम्प कर लागू किया गया यानि उपनिवेशवासियों से कहा गया कि वे किसी भी करार या समझौते को अधिकृत स्टम्प लगे हुए कागजों पर ही लिख सकेंगे इससे उपनिवेशों की जनता मे विद्रोह भडक उठा । उसने स्टाम्प लगे हुए कागजो को स्वीकार करने से मना कर दिया और सरकारी अधिकारियों पर हमले किए । इन लोगों ने यह नारा बुलंद किया “ प्रतिनिधित्व नहीं तो कर भी नहीं । " १७६६ में ब्रिटिश सरकार ने स्टाम्प कर वापस ले लिया , और यह घोषणा की कि ब्रिटिश संसद उपनिवेशों पर कर लगाने का कानूनी अधिकार रखती है । अगले ही वर्ष सरकार ने कागज और चाय के आयात पर कर लगा दिया । उपनिवेशों ने आयात शुल्क का भी विरोध किया , क्योंकि इसे उन्होंने अपनी आजादी पर एक प्रहार समझा । वे ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाये गये किसी भी कर के हक में नहीं थे । १७७० में ' बोस्टन के हत्याकांड ' की घटना घटित हुई । वहां अंग्रेज सैनिकों द्वारा गोली चलाये जाने से चार अमेरिकी मारे गए । इस हत्याकांड ने जनता के रोष को और भी बढ़ा दिया । १७७२ में लोगों ने एक शाही जहाज में आग लगा दी । १७७३ में इस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भेजे गए चाय के बक्सों को समुद्र में फेंक दिया । यह घटना ' बोस्टन टी पार्टी ' के नाम से प्रसिद्ध है । विद्रोह का दमन करने के लिए ब्रिटिश सरकार को कुछ कड़े कदम उठाने पड़े । उपनिवेशों में अतिरिक्त सैनिक भेजे गए तथा जनसभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया । इस प्रकार उपनिवेश तुरंत विद्रोह करने पर मजबूर हो गये । फिलेडेलफिया नगर में सभी उपनिवेशों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन हुआ इसमें यह मांग की गयी कि सरकार दमनकारी कानूनों को वापस ले । सम्मेलन में अंग्रेजी वस्तुओं के बहिष्कार का निर्णय लिया । ब्रिटिश सरकार के बीच - बचाव के सभी प्रयत्न निष्फल रहे । मई १७७५ में फिलेडेलफिया में एक दूसरा महासम्मेलन हुआ । सम्मेलन ने जॉर्ज वाशिंग्टन को उपनिवेशों की सेना सर्वोच्च सेनापति नियुक्त किया । इस सम्मेलन में टॉमस जैफरसन तथा जॉर्ज डिकिंसन ने प्रस्ताव रखा कि , " हम अंग्रेजों के दास बनकर जीवित रहने की अपेक्षा मर - मिटने का निश्चय कर चुके हैं । " ४ जुलाई , १७७६ को सभी उपनिवेशों के प्रतिनिधियों ने औपचारिक रूप से स्वतंत्रता की घोषणा कर दी । घोषणापत्र में यह कहा गया कि " हम इन सत्यों को स्वयंसिद्ध मानते है कि सभी मनुष्य समान उत्पन्न हुए हैं तथा परमात्मा ने उन्हें कुछ ऐसे अधिकार प्रदान किए हैं जो किसी भी अवस्था में उनसे छीने नहीं जा सकते । इन अधिकारों में जीवन का अधिकार , स्वतंत्रता का अधिकार तथा आनंद प्राप्ति के अधिकार शामिल है । " इस ऐतिहासिक दस्तावेज में निम्नलिखित मुद्दों पर बल दिया गया । ( १ ) सभी उपनिवेश स्वतंत्र है और उन्हें स्वाधीन राज्यों का दर्जा मिलना ही चाहिए ; ( २ ) वे ब्रिटिश सम्राट के प्रति निष्ठा व्यक्त करने को मजबूर नहीं किए जा सकते ; ( ३ ) उनके और ब्रिटेन के बीच समस्त राजनीतिक संबंध समाप्त किए जा रहे है ; तथा ( ४ ) स्वाधीन राज्यों के नाते ये सभी उपनिवेश युद्ध की घोषणा करने , संधि करने व अन्य राष्ट्रो के साथ मैत्री संबंध स्थापित करने का पूरा अधिकार रखते हैं । परिसंघ का गठन ( Making of the Confederation ) - उपनिवेशों द्वारा अपनी स्वाधीनता की घोषणा से यह समस्या आयी कि युद्धकाल के दौरान इन राज्यों को एक - दूसरे से मिलाए रखने के लिए क्या कदम उठाए जाएं । इसके लिए उन्होंने एक ' परिसंघ ' का गठन करना चाहा । ' परिसंघ ' का संविधान ' नवंबर , १७७७ में स्वीकार किया गया । स्वाधीनता की लड़ाई लगभग पांच वर्षों तक चलती रही । १७८ ९ में ब्रिटिश जनरल कार्नवालिस को आत्मसमर्पण करना पड़ा । युद्ध लगभग समाप्त हो गया , पर ब्रिटेन ने अमेरिकी स्वतंत्रता को विधिवत मान्यता १७८३ में दी । नवंबर , १७७७ में स्वीकृत ' परिसंघ के अनुच्छेदो को संयुक्त राज्य अमेरिका का प्रथम लिखित संविधान कहा गया है । इस संविधान के कुछ प्रमुख अनुच्छेद है : प्रथम अनुच्छेद - उपनिवेशों को ' संयुक्त राज्य अमेरिका ' के नाम से पुकारा गया । दूसरा अनुच्छेद परिसंघ में शामिल प्रत्येक राज्य संप्रभुता , स्वतंत्रता , शक्ति और समस्त अधिकारों से सिवाय उन अधिकारों के जो स्पष्ट रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका अर्थात केंद्रीय सरकार को दे दिये है और जो संयुक्त राज्य युक्त है , ) अमेरिका की ओर से ' काँग्रेस ' ( Congress ) द्वारा प्रयुक्त किए जायेंगे । तीसरा अनुच्छेद - ये राज्य परस्पर मैत्री के पक्के बंधन में बंधे हुए हैं ताकि वे सामूहिक रूप से अपनी रक्षा कर सकें , अपनी सुरक्षा का पक्का बंदोबस्त कर सकें और साझे कल्याण की योजनाएं बनाएं । राज्यों का यह कर्तव्य है कि यदि मजहब , संप्रभुता , व्यापार या अन्य किसी बहाने कोई शत्रु उनमें से किसी पर भी कोई प्रहार करे तो वे एकजुट होकर आक्रमणकारी का मुकाबला करें । परिसंघ के अन्य अनुच्छेदों ने ' कांग्रेस ' की स्थापना की , जिसमें सभी राज्यों को प्रतिनिधित्व दिया गया । ' कांग्रेस ' वास्तव में एक केंद्रीय विधानमंडल के रूप में कार्य करती थी । उसके अध्यक्ष को प्रेजिडेंट कहते थे । प्रजिडेंट को कार्यकारी शक्तियां नहीं दी गई थीं । कार्यकारी शक्तियों का उपयोग कांग्रेस की एक समिति किया करती थी । इस समिति में प्रत्येक राज्य से एक प्रतिनिधि लिया जाता था । कांग्रेस की मुख्य मुख्य शक्तियां विदेश नीति का संचालन , युद्ध एवं शांति की घोषणा तथा डाक , तार और मुद्रा की व्यवस्था थी । परिसंघ द्वारा एक राष्ट्रीय अर्थात् केंद्रीय सरकार का निर्माण अवश्य किया गया । पर वह एक दुर्बल सरकार थी । परिसंघ के दोष : ( i ) परिसंघ में सम्मिलित प्रत्येक राज्य अपनी संप्रभुता को बनाए रखने के लिए बहुत ज्यादा उत्सुक था । वह यदि चाहे तो परिसंघ से अलग भी हो सकता था । ( ii ) परिसंघ की कार्यपालिका एक नितांत शक्तिहीन संस्था थी । कांग्रेस के अध्यक्ष को कार्यकारी अधिकार हासिल नही थे । ( iii ) केंद्रीय सत्ता महज एक सलाहकार समिति बनकर रह गई । किसी भी शक्तिशाली केंद्रीय सरकार के पास करों द्वारा धन इकट्ठा करने की शक्ति , ऋण लेने की शक्ति , राज्यों के बीच होने वाले व्यापार को नियमित करने की शक्ति तथा सेना संगठित करने की शक्ति होनी चाहिए । कांग्रेस के पास ये चारों शक्तियां नहीं थी । उसकी आय का भी कोई निश्चित साधन नहीं था । फलस्वरूप राष्ट्रीय जीवन में अराजकता और अव्यवस्था फैल गई । वर्तमान संघीय संविधान का निर्माण ( Framing the existing Federal Constitution ) - उपर्युक्त दोषो के कारण संविधान की आलोचना आरंभ हो गई थी । फलस्वरूप एक नया संविधान बनाने के लिए १७८७ में फिलेडेलफिया में एक संवैधानिक सम्मेलन बुलाया गया । सम्मेलन में भाग लेने वाले व्यक्तियों में जॉर्ज वाशिंग्टन , मेडिसन , हेमिल्टन , फ्रँकलिन , जॉर्ज डिकिंसन तथा विल्सन प्रमुख थे । संविधान सभा के समक्ष कई योजनाएं रखी गई । समझौते का सार था कि राष्ट्रीय विधानमंडल के दो सदन होंगे । निचले सदन में प्रत्येक राज्यों को जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व दिया जाएगा , पर उच्च सदन में प्रत्येक राज्य को केवल दो प्रतिनिधि भेजने का अधिकार होगा । भारी वाद - विवाद के बाद १५ सितम्बर , १७८७ को संविधान का प्रारूप स्वीकार कर लिया गया । प्रतिनिधियों में से ३ ९ प्रतिनिधियों ने उस पर अपने हस्ताक्षर किए और इस प्रकार सम्मेलन का कार्य समाप्त हो गया । नये संविधान को लागू करने के लिए यह जरूरी था कि कम - से - कम दो - तिहाई राज्यों के विधानमंडलों द्वारा उसका अनुमोदन किया जाए । अभिप्राय यह है कि राज्यों में से ९ राज्यों द्वारा उसकी स्वीकृति आवश्यक थी । २१ जून १७८८ तक १३ में से ९ राज्यों से नये संविधान का अनुसमर्थन कर दिया था । इसलिए संविधान को तत्काल उन ९ राज्यों में लागू कर दिया गया । बाद में शेष राज्यों ने भी उस पर अपनी अनुमति दे दी । संविधान के तहत एक केंद्रीय विधानमंडल ( Congress ) का गठन मार्च , १७८ ९ में किया गया , और उसी वर्ष जॉर्ज वाशिंगटन ने अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति का पद संभाला । इस प्रकार १७८ ९ में नये संविधान का विधिवत श्रीगणेश हुआ । जुलाई , १ ९ ७६ में संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की २०० वी वर्षगांठ मनाई । नया संविधान जो १७८ ९ में लागू किया गया था , इतना काल बीत जाने पर भी अपनी मौलिकता को ज्यों का त्यों बनाये हुए है । युद्ध और शांति , संकट व समृद्धि हर तरह की परिस्थितियों से वह गुजरा है और उसका स्वरूप लगातार निखरता ही गया । ब्रिटिश प्रधानमंत्री ग्लैडस्टन ने इस संविधान को ' संसार की अत्यंत अलौकिक कृति ' माना है और संविधान निर्माताओं की बुद्धि तथा उनकी ईमानदारी की भूरि - भूरि प्रशंसा की है । आकार , जनसंख्या और प्रभाव में लगातार वृद्धि की प्रक्रिया ( Process of becoming Greater in Size , Number and Influence ) १७८ ९ में अमेरिकी संघ में १३ राज्य शामिल थे , पर धीरे - धीरे संयुक्त राज्य में अनेक क्षेत्र जुडते गये और वह एक महान राष्ट्र बन गया । इस समय अमेरिका का क्षेत्रफल लगभग ९ ८ लाख वर्ग किलोमीटर है और उसमें ५० राज्य शामिल है । उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका का क्षेत्रफल लगातार विस्तृत होता गया । राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के शासनकाल ( १८६१-६५ ) के दौरान अमेरिका को एक भयंकर आंतरिक चुनौती का सामना करना पड़ा । अमेरिका के दक्षिणी राज्यों को अपने कृषि फार्मों के लिए गुलामों की जरूरत थी , पर उत्तरी राज्य दास प्रथा के विरुद्ध थे । उत्तर और दक्षिण का खिचाव बढ़ता ही गया । १८६१ में अब्राहम लिंकन ने राष्ट्रपति का पद संभाला । उसने स्पष्ट रूप से यह घोषणा कर दी कि गुलामी की प्रथा को सहन नहीं किया जाएगा । फलस्वरूप ११ दक्षिणी राज्य अमेरिकी संघ से अलग हो गये । १८६१ में गृहयुद्ध छिड़ गया जो पूरे चार वर्ष तक चलता रहा । जब दक्षिणवाले बिल्कुल थक गये तो १८६५ में गृहयुद्ध समाप्त हो गया । युद्ध का केवल यही परिणाम नहीं निकला कि लाखों अश्वेत लोग आजाद हो गये , बल्कि उसने संयुक्त राज्य अमेरिका को छिन्न - भिन्न होने से बचा लिया । संक्षेप में उन्नीसवीं शताब्दी में इस महान देश का क्षेत्रफल और आबादी ही नहीं बढ़ी , उसके उद्योग , व्यापार , धन और प्रभाव में भी अपार वृद्धि हुई । उदारवाद व लोकतंत्रीय शासन की परंपरा ( Tradition of Liberalism and of Democratic Govern ment ) अमेरिकी शासन व्यवस्था को " बहुलवादी लोकतंत्र " की संज्ञा दी जाती है , जिसके कुछ विशेष लक्षण इस प्रकार है : ( i ) नागरिकों को राजनीतिक दलों के निर्माण की छूट है । दो बडे राष्ट्रीय दलों - रिपब्लिकन पार्टी व डेमोक्रेटिक पार्टी - के अलावा राज्य स्तर पर कई छोटे - छोटे दल विद्यमान है , जैसे सोशलिस्ट पार्टी , सोशलिस्ट - लेबर पार्टी तथा मद्य निषेध पार्टी । राजनीतिक दल राजनीतिक सत्ता के लिए खुलकर प्रतियोगिता कर सकते है । ( ii ) बालिग मताधिकार पर आधारित चुनाव समय - समय पर होते रहते है । राष्ट्रपति का चुनाव हर चार वर्ष बाद होता = , केंद्रीय विधानमंडल के निचले सदस्य यानी ' प्रतिनिधि सभा ' का कार्यकाल दो वर्ष है तथा सीनेट के सदस्यों का चुनाव ६ वर्ष के लिए होता है । इन चुनावों में ऐसा हर व्यक्ति वोट देने का अधिकारी है , जो कम - से - कम १८ वर्ष की आयु का हो । ( iii ) सरकारी निर्णयों को प्रभावित करने के लिए दबाव गुटों को कार्य करने का अवसर मिलता है । मजदूर यूनियनों था अन्य समुदायों पर सरकार का कड़ा नियंत्रण नहीं है । ( iv ) नागरिकों को बहुत से अधिकार व नागरिक स्वतंत्रताएं प्राप्त हैं , जैसे भाषण व सभा - सम्मेलन की स्वतंत्रता , ार्मिक स्वतंत्रता , मनमाने ढंग से बंदी न बनाए जाने का अधिकार तथा व्यवसाय व कारोबार की स्वतंत्रता । न्यायपालिका चाधीन है । • ( v ) जन - संपर्क माध्यमों , जैसे - रेडियो , टेलीविजन व अखबारों पर सरकार का प्रत्यक्ष नियंत्रण नहीं है । ( vi ) केंद्रीय सरकार के तीनों अंगों : राष्ट्रपति , कांग्रेस ( विधानमंडल ) और उच्चतम न्यायालय - को सीमित शक्तियां दान की गई हैं । इतना ही नहीं तीनों अंग एक - दूसरे पर नियंत्रण रखते हैं , ताकि प्रत्येक विभाग की शक्तियां संतुलित रहें । इसे नवरोध व संतुलन ' का सिद्धांत कहते हैं । गणतंत्र और संघीय शासन की परंपरा ( Tradition of Republicanism and Federalism ) संविधान भा के सर्वाधिक प्रभावशाली सदस्य मेडिसन ' गणतंत्र ' को परिभाषित करते हुए लिखते है " गणतंत्र वह सरकार हैं जो परोक्ष या यक्ष रूप से समस्त सत्ता ' जनता ' से ही प्राप्त करती है । राजसत्ता का प्रयोग करने वाले व्यक्ति जनता द्वारा एक निश्चित अवधि लिए चुने जाते हैं अथवा वे ' सदाचार पर्यंत ' ( during good behaviour ) अपने पद पर कायम रह सकते हैं । " • मेडिसन के मतानुसार गणतंत्र शासन की तीन विशेषताएँ है : ( i ) जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों का शासन ( representative government ) ( ii ) जिम्मेदारी की भावना से काम करने वाली सरकार ( responsible government ) ( iii ) लोकप्रिय सरकार ( popular government ) सीनेटीय शिष्टता ( Senatorial Courtesy ) - वर्तमान समय मे अमेरिकन शासन व्यवस्था से सीनेटीय शिष्टता enatorial Courtesy ) के नाम से संबोधित की जानेवाली राजनैतिक परंपरा का निर्माण हुआ है । इसका तात्पर्य यह है कि पति संबंधित राज्य के सीनेट सदस्यों के परामर्श के आधार पर ही नियुक्तियाँ करे । वैसे तो अमेरिकी राष्ट्रपति को नियुक्ति से संबंधित व्यापक अधिकार प्राप्त है । उदा : मंत्री , अमेरिका के अन्य राष्ट्रों मे दूत , सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश , सेना के सर्वोच्च अधिकारी आदि विभिन्न पदों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है । राष्ट्रपति द्वारा की गयी प्रत्येक नियुक्ति को जब तक सीनेट की मान्यता प्राप्त नही होती तब तक नियुक्तियों को अंतिम स्वरूप का नहीं समझा जाता है । सीनेटीय शिष्टाचार के अनुसार राष्ट्रपति द्वारा की गयी नियुक्ति को संबंधित घटक राज्यों के दो प्रतिनिधियों यदि मान्यता प्राप्त होगी , तभी सीनेट उस नियुक्ति का समर्थन करती है । जब - जब राष्ट्रपति ने सीनेटीय शिष्टता की इस परंपरा तोडने को कोशिश की , राष्ट्रपति द्वारा की गयी नियुक्तियों को सीनेट ने अस्वीकार कर दिया । संविधान निर्माताओं ने कार्यपालिका के अध्यक्ष यानी ' राष्ट्रपति ' को शक्तिशाली तो अवश्य बनाया , पर साथ ही इस बात भी पूरा प्रबन्ध किया कि राष्ट्रपति निरंकुश न बन सके । राष्ट्रपति द्वारा की गई नियुक्तियों या संधियों पर ' सीनेट ' की स्वीकृति आवश्यक है ।
- आल इंडिया बार परीक्षा फॉर्म के लिए आवेदन पत्र कैसे भरे ?
HOW TO FILL ALL INDIA BAR EXAMINATION (AIBE) EXAM APPLICATION FORM WITH SCREENSHOT www.lawtool.net SCREENSHOT नमस्कार दोस्तों आज का video खासकर उन सभी विधि के विद्यार्थियों के लिए है जी हाल ही में विधि परीक्षा पास कर वकालत पेशे में आना चाहते है। केवल LLB पास कर लेना ही नहीं हो जाता की आप न्यायालय में किसी व्यक्ति के पक्ष या विपक्ष में मुकदमा लड़ सकते है। न्यायालय में मुकदमा किसी व्यक्ति के पक्ष में या विपक्ष में लड़ने के लिए आपको अपने राज्य के बार कौंसिकौंल में अधिवक्ता के रूप में पंजीकृत होना होगा। उसके लिए आपको अपने राज्य के बार कौंसिकौंल से अधिवक्ता पंजीकरण पत्र प्राप्त करना होगा, यह पंजीकरण पत्र आप डाक के माध्यम से या स्वयं अपने बार कौंसिकौंल के कार्यालय में जाकर प्राप्त कर सकते है। पंजीकरण पत्र का शुल्क आपको कार्यालय से मालूम हो जायेगा जब आप पंजीकरण पत्र लेंगे। डाक से मंगवाने पर आपको पंजीकरण पत्र के साथ डाक शुल्क भी देना होगा जैसा की निर्धारित हो। यह भी पढ़े :- अधिवक्ता पंजीकरण प्रक्रिया, फीस, दस्तावेज और अन्य सम्पूर्ण जानकारी। बार कौंसिकौंल में पंजीकरण हो जाने के बाद आपको 2 साल के भीतर में आल इंडिया बार परीक्षा भी पास करनी होगी तभी आप किसी व्यक्ति के पक्ष या विपक्ष में न्यायालय परिसर में मुकदमा लड़ सकते है। आल इंडिया बार परीक्षा फॉर्म के लिए आवेदन पत्र भरने से पहले हमको इन निम्न दस्तावेजों को अपने पास कंप्यूटर में स्कैन करलेना होगा, ताकि आवेदन पत्र भरते समय हमारा समय बचे और किसी भी प्रकार की कोई गलती न हो जो हमे आगे दिक्कत करे। 1. ADVOCATE ID CARD ( यदि स्टेट बार कौंसिकौं ल द्वारा जारी किया गया है) 2. नामांकन प्रमाण पत्र, 3. अपनी रंगीन फ़ोटो और हस्ताक्षर को स्कैन कर ले, 4. श्रेणी प्रमाणपत्र यदि लागु हो तो, 5. विकलांगता प्रमाण पत्र यदि लागु हो तो। अब हम आवेदन भरने की प्रक्रिया को फ़ोटो के माध्यम से समझेंगे। 1. सबसे पहले आपको अपने कंप्यूटर या लॉपटॉप पर ब्राउज़र ओपन करना होगा और आल इंडिया बार परीक्षा के इस ( www.allindinabarexamination.com ) पर जाना होगा। इस URL को ओपन करने पर आपके सामने कुछ ऐसा पेज दिखाई देगा जिसमे आपको registration here (AIBE) लिखा होगा उस पर क्लिक करना होगा। 2. Registration here (AIBE) पर क्लिक करने के बाद आपके सामने कुछ ऐसा पेज आएगा जिसमे आपका अधिवक्ता नामांकन संख्या, राज्य, और साल को भरने को कहेगा उसके भर देने के बाद उसको बॉक्स पर क्लिक कर accept पर क्लिक कर आवेदन की आगे की प्रक्रिया पूरी करनी होगी। 3. Accept बटन पर क्लिक कर देने के बाद आपके सामने कुछ ऐसा पेज आएगा जिसमे आपसे सम्बंधित आपका विवरण माँगा जायेगा जिसको आपको सावधानी पूर्वक स्पष्ट और पूर्ण रूप से भरना होगा जैसेकी कि:- 1. आवेदक का नाम (जैसा नामांकन पत्र में लिखा हो ) 2. लिंग, 3. पिता या पति नाम (जो नामांकन पत्र में लिखा हो ) 4. जन्म तिथि, 5. स्थायी पता, 6. यदि अस्थायी पता और स्थायी पता एक ही है तो बॉक्स पर टिक लगा दे, 7. आवेदक का ई- मेल, 8. आवेदक का मोबाइल नंबर 1. विद्यालय का नाम ( जहाँ से विधि की परीक्षा पास की है), 2. LLB कोर्स की अवधि, 3. LLB में प्रवेश का वर्ष, 4. LLB पास करने का वर्ष, 5. मास्टर डिग्री / कोई अन्य योग्यता, 6. नामांकन संख्या, राज्य कोड के साथ। 7. यह सब जानकारी आप अपने LLB के मार्कशीट, और अधिवक्ता नामांकन प्रमाण पत्र में देख कर भरेंगे। यह सब पूराभर जाने के बाद निचे NEXT बटन पर क्लिक कर आगे की प्रक्रिया पूरी करनी होगी।इंडिया बार परीक्षा फॉर्म के लिए आवेदन पत्र भरने से पहले हमको इन निम्न दस्तावेजों को अपने पास कं प्यू NEXT पर क्लिक करने के बाद आपको आवेदक का प्रकार और विकलांगता जानकारी भरनी होगी (यदि लागु हो ) 1. कैंडिडेट टाइप में आपको फ्रेश / रिपीटर दो ऑप्शन दिखाई देंगे जिसमे आपको चुनना है यदि आप पहली बार परीक्षा के लिए आवेदन कर रहे तो, फ्रेश पर टिक करे। 2. श्रेणी जो हो, 3. यदि विकलांग है, तो हाँ या नहीं पर, 4. अतिरिक्त समय के लिए टिक करे यदि आप विकलांग की श्रेणी में है। 5. आप अपने हिसाब से एग्जामिनेशन सेंटर को चुन सकते है, आप अधिकतम 3 ही सेंटर का preference दे सकते है।question paper की भाषा आप चुन सकते है, जो आपको सही लगे।T 5. सभी विवरण सही से भर देने के बाद अब आपको दस्तावेज अपलोड करने होंगे । 1. अपनी रंगीन फोटो, 2. हस्ताक्षर, 3. अधिवक्ता नामांकन प्रमाण पत्र,( सेल्फ अटेस्टेड) 4. अपना पहचान पत्र,( सेल्फ अटेस्टेड ) 5. ACKNOWLEDGMENT पर टिक करे। 6. अपना नाम लिखे और save बटन पर क्लिक करे। इस सब के बाद आपके रजिस्टर्ड मोबाइल नंबर या ई -मेल पर लॉगिन ID भेज दी जाएगी जिसकी मदद से आप लॉगिन कर सकेंगे। 7. फिर से एक बार AIBE की वेबसाइट के होम पेज पर आए और अपने लॉगिन ID और पासवर्ड की मदद से लॉगिन करे। 8. लॉगिन करने के बाद आपको अपने आवेदन का पंजीकरण विवरण दिखाई देगा, जिसके बाद आपको निचे print challan का बटन दिखाई देगा उस पर क्लिक करना होगा।
- भारत दल - बदल की राजनीति [
भारत दल - बदल की राजनीति POLITICS OF DEFECTION IN INDIA हल ही में हमारे देश में जिस प्रकार राजनीती का तथा राजनितिक पार्टियों का विकास हो रहा इसीसे राजनीती में हमारे समक्ष दाल बदल की राजनीती बहुत तेजी के साथ विकसित हो रही कुछ राजनितिक विशेष्यज्ञों का मानना है यहाँ क्या राजनीती का अंत या विकास इसे समझने के लिए आप सभी को पहले यहाँ समझना होगा के आखिर राजनीती में दाल बदल क्यों होता है तथा इस का मकसद देश हित में है या नहीं डॉ . सुभाष कश्यप ने इस आपने शब्दों में समझने की कोशिश की के जिस आसानी से वे एक दल का परित्याग कर दूसरे दल में सम्मिलित होते हैं उससे एक बात तो बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि वे किसी राजनीतिक सिद्धान्त अथवा किसी दल की राजनीतिक विचारधारा को अधिक महत्त्व नहीं देते । राजनीतिक अर्थों में दल - बदल का अर्थ होता है किसी निर्वाचित व्यक्ति का उस राजनीतिक दल को , जिसके टिकट पर वह निर्वाचित हुआ है , छोड़कर किसी अन्य दल में सम्मिलित होना अथवा दल की सदस्यता त्यागे बिना ही उस दल के विरुद्ध मतदान करना अथवा उसके द्वारा नया दल बना लेना । इस दल - बदल की राजनीति को इंग्लैण्ड में फ्लोर क्रोसिंग कहा जाता है । इंग्लैण्ड में कॉमन सभा ( House of Commons ) में विरोधी दल तथा सरकारी दल के सदस्य आमने - सामने बैठते हैं और यदि उनमें से किसी दल का सदस्य एक ओर से दूसरी ओर जाता है तो उसे बीच के रास्ते को पार करके जाना होता है । इसलिए इस प्रक्रिया को ' फ्लोर क्रॉसिंग ' ( Floor Crossing ) कहा जाता है । इसी प्रकार नाइजीरिया में इसे कार्पेट क्रासिंग ( Carpet Crossing ) कहते हैं क्योंकि नाइजीरिया में सत्ता पक्ष और विपक्ष के अलग - अलग कार्पेट ( कालीन ) होते हैं और किसी व्यक्ति को पक्ष बदलने के लिए अपना कार्पेट बदलना पड़ता है । दल - बदल को कुछ विद्वानों ने राजनीतिक अवसरवादिता ( Political Opportunism ) , अस्थिरता की राजनीति ( Politics of Instability ) , अव्यवस्था की राजनीति ( Politics of Confusion ) , विचलन को राजनीति ( Politics of Deviation ) , राजनीतिक कोट बदलने की राजनीति ( Political Turn cotism ) भी कहा है । परिभाषाएँ ( Definitions ) दल - बदल की परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं जयप्रकाश नारायण के शब्दों में , “ एक विधान मण्डल के लिए निर्वाचित कोई भी सदस्य , जिसे किसी राजनीतिक दल का सुरक्षित चुनाव चिह्न मिला था , यदि वह चुने जाने के बाद उस राजनीतिक दल से अपना सम्बन्ध तोड़ लेने या उसमें अपनी आस्था समाप्त करने की घोषणा करता है तो उसे दल - बदल ही समझा जाना चाहिए , बशर्ते इसकी कार्यवाही सम्बद्ध पार्टी के फैसले के अनुसार न हो । " डॉ . सुभाष कश्यप के शब्दों में , " किसी विधायक का अपने दल अपना निर्दलीय मंच का परित्याग कर किसी अन्य दल में जा मिलना तथा दल बना लेना या निर्दलीय स्थिति अपना लेना अथवा अपने दल की सदस्यता त्यागे बिना ही बुनियादी मामलों में उसके विरुद्ध मतदान करना दल - बदल कहलाता है । " उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि दल - बदल में निम्नलिखित कार्य आते हैं- ( i ) यदि कोई व्यक्ति किसी विशेष दल की टिकट पर चुना गया हो तथा उसने अपनी इच्छा से उस दल की सदस्यता त्याग कर दूसरे दल में सम्मिलित हो गया हो । ( ii ) निर्दलीय चुनाव लड़ा व्यक्ति जीतने के पश्चात् किसी दल में सम्मिलित हो गया हो । ( iii ) यदि किसी दल - विशेष की टिकट पर चुनाव लड़ा व्यक्ति जीतने के पश्चात् निर्दलीय बन जाये । ( iv ) जब कोई व्यक्ति चुनाव किसी दल की टिकट पर लड़े परन्तु सदन में अपने दल की नीतियों के विरुद्ध मतदान करे । 1967 तक दल - बदल की घटनाएँ ( Events of Defection upto 1967 ) भारतीय राजनीति में दल - बदल की घटनाएँ 1967 के आम चुनावों से पहले तक बहुत कम हुईं । सबसे पहले दल - बदल को प्रोत्साहन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने दिया । उसके अकाली दल के ज्ञानी करतार सिंह , सरदार स्वर्ण सिंह , सरदार हुक्म सिंह आदि को पद का लालच देकर तोड़ लिया । कांग्रेस ने जनसंघ में से पं . • मौलिचन्द्र शर्मा को और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के अशोक मेहता को दल - बदल कराकर अपने साथ मिला लिया । अगस्त 1958 में उत्तर प्रदेश विधान सभा के 98 विधायकों ने मुख्यमंत्री डा . सम्पूर्णानन्द में अविश्वास व्यक्त करके उन्हें अल्प मत में लाकर पदत्याग के लिए विवश कर दिया । 1962 में मद्रास ( चेन्नई ) के राज्यपाल श्री प्रकाश ने चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को अल्प मत में होते हुए भी मुख्यमंत्री बनाने के लिए आमंत्रित किया और 16 विपक्षी सदस्यों ने दल - बदल करके कांग्रेस में सम्मिलित होकर उन्हें बहुमत दिला दिया । 2 सितम्बर , 1964 को केरल में कांग्रेस के 15 विधायकों ने कांग्रेस से दल - बदल करके आर . शंकर के मन्त्रिमण्डल का पतन करा दिया । 1952 में राजस्थान में , 1957 में उड़ीसा में दल - बदल कराकर अपनी सरकारें बनायीं । 1967 के बाद दल - बदल की घटनाएँ ( E vents of Defection after 1967 ) 1967 के आम चुनावों के पश्चात् भारत में दल - बदल इतनी तेजी से होना शुरू हुआ कि यह राजनीति के लिए एक गम्भीर समस्या बन गया । चौथे आम चुनाव - 1967 के पश्चात् कांग्रेस दल के राजनीतिक एकाधिकार का अन्त हो गया और 16 राज्यों में से 8 राज्यों में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला ये राज्य थे बिहार , केरल , तमिलनाडु , उड़ीसा , पंजाब , राजस्थान , उत्तर प्रदेश तथा पश्चिमी बंगाल । इनमें से छह राज्यों में विपक्षी दलों ने न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर संयुक्त सरकारें बनायीं । कुछ राज्यों में कांग्रेस पार्टी को सीमान्त बहुमत मिला और किसी तरह कांग्रेस मन्त्रिमण्डलों का निर्माण किया ऐसे राज्यों में विपक्षी दलों ने सामूहिक प्रयत्नों द्वारा कांग्रेसी सरकारों को अपदस्थ करने का अभियान चलाया । चुनाव के तुरन्त पश्चात् उत्तर प्रदेश , हरियाणा तथा मध्य प्रदेश में कांग्रेस पार्टी ने मन्त्रिमण्डल बनाये , परन्तु कांग्रेस में तोड़ - फोड़ के कारण उनका पतन हो गया और विपक्षी दलों ने मिश्रित सरकारों का गठन किया । आरम्भ में विपक्षी दलों ने कांग्रेस पार्टी को सत्ता से बाहर रखने का लक्ष्य बनाया और जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनी हुई थी उन्हें गिराने के लिए सामूहिक प्रयत्न करने का निश्चय किया । इसके लिए दल - बदल को साधन बनाया गया जिसके परिणामस्वरूप देश के 17 राज्यों में से 9 राज्यों में गैर - कांग्रेसी मिश्रित सरकारें बनीं । लेकिन ये सरकारें अधिक नहीं चल पायीं और शीघ्र ही इनका पतन हो गया और उन राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया । इनका राज्यवार विवरण निम्न प्रकार है के कारण 1977 के पश्चात् दल - बदल ने एक नया रूप धारण किया । 1977 के पश्चात् दल - बदल ने एक नया रूप धारण किया । अब तक जितने भी दल - बदल हुए थे वे सभी किसी एक या कुछ विधायकों द्वारा किये गये थे परन्तु 1977 और 1980 में समस्त सरकार द्वारा दल - परिवर्तन की दो घटनाएं हुई । 1977 में केन्द्र में जनता पार्टी के शासन काल में सिक्किम में कांग्रेस दल सत्तारूढ़ था लेकिन केन्द्र में जनता पार्टी के सत्ता में आते ही सिक्किम सरकार ने अपनी निष्ठा " जनता पार्टी ' के पक्ष में बदल कर जनता पार्टी सरकार होने की घोषणा कर दी । 1980 में जब फिर से केन्द्र में कांग्रेस ( इ ) की सरकार बनी तो सिक्किम सरकार ने जनता पार्टी से सम्बन्ध तोड़कर कांग्रेस दल के प्रति अपनी निष्ठा बदल ली । इस प्रकार जनता पार्टी सरकार पुनः कांग्रेस सरकार में बदल गयी । दोनों बार निष्ठा बदलने पर भी मुख्यमंत्री लेंडुप दोरजी ही रहे । इसी प्रकार 22 जनवरी , 1980 को हरियाणा की जनता पार्टी सरकार ने अपनी निष्ठा बदल ली । मुख्यमंत्री भजन लाल अपने 37 साथियों सहित कांग्रेस पार्टी से जा मिले और भजन लाल के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार कांग्रेस पार्टी की सरकार बन गयी । जुलाई , 1979 में जनता पार्टी में दल - बदल के कारण केन्द्र में मोरारजी देसाई को त्यागपत्र देना पड़ा । उसके पश्चात् अन्य दलों के सहयोग से चरण सिंह ने अपनी सरकार बनायी परन्तु वह संसद में विश्वास प्राप्त नहीं कर सकी । दल - बदल के कारण केरल की करुणाकरन सरकार को 1982 में पद त्याग करना पड़ा । यह दल - बदल का खेल वर्तमान में भी जारी है । दल - बदल विरोधी कानून पास होने के बाद भी कानून की कमियों के रहते यह अपना प्रभाव दिखा रहा है । अगस्त 2003 के अन्तिम सप्ताह में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के त्याग - पत्र देने के कारण बसपा की सरकार गिर गयी और अन्य दलों के सहयोग से मुलायम सिंह ने अपनी सरकार बनायी । बसपा के 37 विधायकों ने भी बसपा से दल - बदल कर नयी पार्टी गठन कर ली और मुलायम सिंह को समर्थन दिया । दल - बदल के कारण ( Causes of Defection ) भारत में राजनीतिक दल - बदल के निम्नलिखित कारण हैं 1. 1967 के आम चुनावों में विरोधी दलों की सफलता , 1967 ( Success of the Opposition parties in the election of 1967 ) - 1967 के आम चुनावों उत्तर प्रदेश , बिहार , तमिलनाडु , केरल , पश्चिमी बंगाल , पंजाब , उड़ीसा और राजस्थान में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला और केन्द्र में भी कांग्रेस का बहुमत कम हो गया । 1967 के चुनावों के बाद हरियाणा में दल - बदल के कारण राव वीरेन्द्र सिंह की सरकार बनी । पंजाब में सरदार गुरनाम सिंह के नेतृत्व में अकाली दल और जनसंघ ने मिलकर सरकार बनायी । तमिलनाडु में डॉ . एम . के की सरकार बनी उत्तर प्रदेश में चौ . चरण सिंह ने जनसंघ , संयुक्त समाजवादी दल तथा भारतीय क्रान्ति दल की सहायता से सरकार बना ली पश्चिमी बंगाल में संयुक्त विधायक दल की सरकार अजय मुखर्जी के नेतृत्व में बनी । 1967 के बाद जनता ने यह अनुभव किया कि कांग्रेस के एकछत्र राज्य को भी तोड़ा जा सकता है । 2. राज्यों में स्थिर सरकारों का न होना ( No Stable Governments in the States ) -राज्यों में स्थिर सरकारों के न होने से भी दल - बदल को बढ़ावा मिला । 1967 के आम चुनावों में स्थिति यह थी कि किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला और कुछ विधायकों के कांग्रेस दल या विपक्ष , जिसमें भी मिल जायें उसी की सरकार बन सकती थी । बिहार , पंजाब , मध्य प्रदेश , पश्चिमी बंगाल , कर्नाटक और गुजरात में इसी दल - बदल के कारण सरकारें बनीं । वर्तमान में भी यह खेल जारी है । उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार अगस्त 2003 के अन्त में गिर गयी जो भाजपा के सहयोग से बनी थी और भाजपा के समर्थन वापस लेते ही सरकार अल्पमत में आ गयी । सितम्बर 2003 के शुरू में मुलायम सिंह की सरकार कई दलों के समर्थन से बनी जिसमें बसपा के भी 37 विधायक सम्मिलित थे । 3. मन्त्रिपद और धन का प्रलोभन ( Temptation of Ministry and Money ) – किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने से यह स्थिति हो गयी है कि प्रत्येक दल अपनी सरकार बनाने के लिए होड़ लगाये रहता है । ऐसे में विधायकों को खरीदने का काम वोट खरीदने जैसा हो जाता है । विधायकों के मन में यह लालसा उत्पन्न हो गयी है कि सत्तारूढ़ दल में सम्मिलित होकर मन्त्रिपद अथवा धन जो भी मिले प्राप्त किया जाये । यह कारण आज भी प्रभावी है । उत्तर प्रदेश में अक्टूबर 2003 में मुलायम सिंह का 98 सदस्यीय मन्त्रिमण्डल इसका प्रमाण है । 4. राजनीतिक दलों के पास महान व्यक्तित्व के नेता की कमी ( Lack of Leader of Great Personality with the Political Parties ) — राजनीतिक दलों के पास जब महान् व्यक्तित्व वाले ऐसे नेता का अभाव होता है , जिसका प्रभाव सारे देश में व्याप्त हो तो भी दल - बदल को बढ़ावा मिलता है । 1967 के आम चुनाव में कांग्रेस और विपक्ष के पास कोई ऐसा प्रभावशाली नेता नहीं था । कांग्रेस की नेता श्रीमती इन्दिरा गांधी 1967 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार के कारण प्रसिद्ध नहीं हो सकी थीं और चौ . चरण सिंह दल - बदलू थे । वे कभी कांग्रेस से तो कभी जनसंघ , स्वतन्त्र पार्टी और संयुक्त समाजवादी पार्टी से गठबन्धन करते - फिरते थे । हरियाणा में राव वीरेन्द्र सिंह , बिहार में महामाया प्रसाद और पश्चिमी बंगाल में अजय मुखर्जी सुदृढ़ स्थिति में नहीं थे । यह कारण वर्तमान में भी प्रभावी है । मायावती अपने को अनुसूचित जाति को नेता मानती हैं तो मुलायम सिंह पिछड़ी जाति का केन्द्र में अटल बिहारी बाजपेयी या सोनिया गाँधी भी इतने प्रभावशाली व्यक्तित्व के नेता नहीं बन सके हैं कि जो अपने बल पर अपनी पार्टी को संसद में स्पष्ट बहुमत दिला सकें । तेरहवीं लोक सभा में नवम्बर 2002 में बाजपेयी सरकार 22 दलों को मिलाकर बनीं । 5. राजनीतिक दलों के नेताओं की निजी महत्वाकांक्षाएँ ( Personal Ambitions of the Leaders of Political Parties ) — किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने की स्थिति में अनेक विधायक मंत्री अथवा मुख्यमंत्री बनने की महत्त्वाकांक्षा पाल लेते हैं और इसे पूरा करने के लिए दल - बदल का खेल जारी रहता है । 1967 के चुनावों के बाद भी आया राम - गया राम जारी था और वर्तमान में भी जारी है । सितम्बर 2003 में मुख्यमंत्री बनने के बाद मुलायम सिंह ने अपने मन्त्रिमण्डल का विस्तार 98 मन्त्रियों तक पहुंचा दिया जो देश में एक रिकार्ड है । यदि 2 मन्त्रियों को और सम्मिलित कर लेते तो देश में पहला शतकीय मन्त्रिमण्डल बनाने का रिकार्ड बन जाता । यह नेताओं की महत्वाकांक्षा का ही प्रतीक है । 6. विचारात्मक ध्रुवीकरण का अभाव ( Lack of Ideological Polarisation ) भारत में विचारात्मक ध्रुवीकरण के अभाव के कारण दल - बदल को प्रोत्साहन मिलता है । उदाहरण के लिए , 1967 के चुनावों के पश्चात् विपक्ष की पार्टियों ने मिलकर संयुक्त सरकारें तो बना लीं लेकिन उनमें आर्थिक , सामाजिक और राजनीतिक कार्यक्रमों को लागू करने के बारे में इनता मतभेद रहा कि वे आपस में मिलकर बहुत समय तक कार्य नहीं कर सके और शीघ्र ही उनका पतन हो गया । वर्तमान में न्यूनतम साक्षा कार्यक्रम बनाकर सरकारें बनायी जाती हैं परन्तु फिर भी विचारात्मक ध्रुवीकरण के अभाव के कारण वे गिर जाती हैं । उदाहरण के लिए , उत्तर प्रदेश में मायावती ( बसपा ) और कल्याण सिंह ( भाजपा ) की संयुक्त सरकार का गिरना , जिसमें 6-6 माह के लिए बारी - बारी से मुख्यमंत्री बनना था । मायावती अपना 6 माह का कार्यकाल पूरा कर गयीं लेकिन कल्याण सिंह का अवसर आते ही मायावती ने गठबन्धन तोड़ दिया । 7. दल - बदल के प्रति जनता की उदासीनता ( Neutrality of the Public towards Defections ) दल - बदल का एक प्रमुख कारण जनता का दल - बदल के प्रति उदासीन रहना था । जनता ने दल - बदलुओं के साथ सहानुभूति दिखायी और निर्वाचनों में उन्हें सफल बनाया । उदारहण के लिए , उत्तर प्रदेश में चौ . चरण सिंह की पार्टी भारतीय क्रान्ति दल ( BKD ) को 1969 के मध्यावधि चुनावों में बहुत सफलता मिली । इसी प्रकार बिहार में दल - बदलुओं के महत्त्वपूर्ण सदस्यों को मध्यावधि चुनावों में सफलता मिली । इसका परिणाम यह रहा कि विभिन्न दलों के नेताओं ने यह मान लिया कि दल बदल जनता की निगाह में कोई गलत चीज नहीं है । दल - बदल के कुछ विवादास्पद मामले ( Some Controversial Cases of Defection ) भारत में दल - बदल को रोकने के उद्देश्य से 15 फरवरी , 1985 को संविधान में 52 वें संविधान संशोधन को अनुसूची 10 में सम्मिलित किया गया । परन्तु दल - बदल के कानून के लागू होते ही इसका दुरुपयोग आरम्भ हो गया । दल - बदल के द्वारा नागालैण्ड , मणिपुर , गोवा , मेघालय , मिजोरम तथा कुछ अन्य राज्यों की सरकारें गिरा दी गयीं । विभिन्न पीठासीन अधिकारियों द्वारा संविधान की 10 वीं अनुसूची में प्रयुक्त शब्दों की भिन्न - भिन्न तरह से व्याख्या की गयी और परस्पर विरोधी निर्णय दिये गये । अनेक सदस्यों को न्यायालय जाना पड़ा । कुछ मामलों में तो पीठासीन अधिकारियों के फैसले से न्यायपालिका और विधायिका के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गयी । इस तरह के कुछ विवाद निम्नलिखित हैं जुलाई 1990 में मणिपुर में कांग्रेस ( आई ) दल के 14 सदस्यों ने अलग होकर मणिपुर कांग्रेस नाम से नयी पार्टी का गठन किया । उन्होंने अध्यक्ष से इसकी मान्यता माँगी । इसी बीच 14 में से 7 सदस्यों को निलम्बित कर दिया गया । अध्यक्ष डॉ . एच . बारोबाबू ने कहा कि बाकी 7 सदस्य नयो पार्टी नहीं बना सकते क्योंकि सदन में कांग्रेस की कुल सदस्य संख्या 26 का एक - तिहाई नहीं है । अध्यक्ष द्वारा दल - बदल कानून के अन्तर्गत उनकी सदस्यता समाप्त कर दी गयी । विवाद सर्वोच्च न्यायालय पहुँचा । सर्वोच्च न्यायालय ने मणिपुर विधान सभा अध्यक्ष द्वारा सात विधायकों को दल - बदल कानून के अन्तर्गत अयोग्य घोषित करने के आदेश को निरस्त कर दिया और आदेश दिया कि उनके वेतन का भुगतान कर दिया जाये । मणिपुर विधान सभा सचिव श्री मनी लाल सिंह ने उनके वेतन का भुगतान कर दिया । उससे क्रोधित होकर अध्यक्ष ने सचिव को नौकरी से हटा दिया । सर्वोच्च न्यायालय ने इसको असंवैधानिक ठहराया और सचिव को नौकरी पर बहाल करने तथा वेतन देने का निर्देश दिया । सर्वोच्च न्यायालय ने अध्यक्ष को न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने का आदेश दिया । अध्यक्ष ने कहा कि वह अध्यक्ष के रूप में न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने को बाध्य नहीं हैं । न्यायालय ने स्पष्ट किया कि 10 वीं अनुसूची के अधीन जब अध्यक्ष अपनी शक्ति का प्रयोग करता है तो वह न्यायालय की अधिकारिता के अधीन रहता है । यह उसका प्रशासनिक कार्य है जो विधान सभा के अध्यक्ष के कार्यों से पृथक् है । न्यायालय के कई आदेशों के बाद भी न उपस्थित होने पर न्यायालय ने बल प्रयोग करके उन्हें उपस्थित होने का निर्देश दिया । अंत में 24 मार्च , 1993 को अध्यक्ष न्यायालय में उपस्थित हुए और शपथ पत्र दाखिल किया कि उन्होंने न्यायालय के सभी आदेशों का पालन किया है और करने को तैयार हैं और उक्त घटना के लिए खेद प्रकट किया । इस पर न्यायालय ने उनके विरुद्ध अवमानना की कार्यवाही समाप्त कर दी । मिजोरम के राज्य बनाने के बाद लालडेंगा के नेतृत्व में सरकार बनी । इसके बाद सत्ता पक्ष के नौ सदस्य पार्टी से अलग हो गये । सरकार गिर गयी । इधर अध्यक्ष को ज्ञात हुआ कि एक सदस्य विदेश में था जिसके कारण कुल संख्या एक - तिहाई से कम हो रही थी । अध्यक्ष ने दल - बदल कानून के अन्तर्गत आठ सदस्यों की सदस्यता समाप्त कर दी । विवाद सर्वोच्च न्यायालय पहुँचा । नागालैण्ड में एक अन्य घटना घटित हुई । मुख्यमंत्री एस . सी . जमीर के दल के बारह सदस्य एक - तिहाई समूह में बाहर आ गये । इस समूह ने दूसरे समूहों के साथ मिलकर संयुक्त विधायक दल बनाने का निर्णय लिया । श्री के . एल . चिश्ती को नेता माना गया । इसी बीच कांग्रेस महासचिव के द्वारा दो सदस्यों को निलम्बित कर दिया गया । बाकी संख्या एक तिहाई से कम हो गयी एवं अध्यक्ष ने दल - बदल कानून के अन्तर्गत इनकी सदस्यता समाप्त करने की घोषणा की । राज्यपाल ने अध्यक्ष को पुनर्विचार के लिए कहा एवं इन्कार करने पर एस . जी . जमीर सरकार बर्खास्त करके के . एल . चिश्ती को सरकार बनाने का आमंत्रण दे डाला । दल - बदल निरोधक कानून के बनने के बाद केन्द्र में भी दल - बदल की घटनाएँ घटित हुई । नवीं लोक सभा के काल में पी . पी . सिंह और चन्द्रशेखर को सरकार जल्दी - जल्दी गिर गयीं । 5 नवम्बर , 1990 को जनता दल में विभाज हुआ तो दल से टूटने वाले 58 सदस्यों में से 25 सदस्यों को तुरन्त दल से निकाल दिये जाने की घोषणा कर दी गयी । अध्यक्ष ने उन्हें असम्बद्ध भी घोषित कर दिया । कहा गया कि बचे हुए 33 सदस्य जनता दल की कुल सदस्य संख्या के एक तिहाई से कम हैं अत : इसे दल का विभाजन नहीं माना जा सकता । चन्द्रशेखर ने अपने दल की सरकार बना ली और सदन में बहुमत प्राप्त कर लिया । उनके दल के सभी सदस्य वे थे जिन्हें या तो जनताल से निष्कासित और असम्बद्ध करार दे दिया गया था था वे जिन्हें दल - बदल निरोधक कानून के अन्तर्गत यह नोटिस जारी किया जा चुका था कि उनकी सदस्यता क्यों न समाप्त कर दो जाये । अध्यक्ष रविराय द्वारा जारी नोटिसों की लपेट में चन्द्रशेखर सरकार के लगभग सभी मंत्री आ जाते थे । किन्तु अन्त में अध्यक्ष ने अपने निर्णय द्वारा सत्ताधारी दल को सन्देह का लाभ देते हुए विभाजन को स्वीकृति दे दी । अध्यक्ष रविराय ने 11 जनवरी , 1991 को निर्णय देते हुए कहा कि इस तरह का कोई प्रमाण नहीं मिला कि जनता दल में विभाजन 25 सदस्यों के निष्कासन से पहले हुआ क्योंकि इस बारे में कई दावे - प्रतिदावे है लेकिन निष्कासन और अलग हुए घटक की बैठक दोनों को चुनौती दी गयी है । इसलिए उन्होंने निर्णय किया कि संदेह का लाभ इस श्रेणी के सदस्यों को दिया जाये । उन्होंने कहा कि यदि वह निष्कासन से पहले विभाजन को स्वीकार नहीं करते हैं तो ये सभी सदस्य अयोग्य हो जायेंगे । संदेह का लाभ इन 28 सदस्यों को देते हुए इनके विरुद्ध दायर याचिका रद्द की अध्यक्ष ने जनता दल ( स ) को सदन में एक अलग दल के रूप में मान्यता देते हुए उसके 54 सदस्यों के नामों की भी घोषणा की । उनका यह भी कहना था कि विभाजन एक समय पर होने वाली घटना है , कुछ दिनी की क्रिया नहीं । पार्टी में विभाजन के को हुआ । अतः 5 नवम्बर के बाद आने वाले सदस्यों , जिनमें 5 मंत्री थे , को उनकी सदस्यता से वंचित कर दल - बदल कानून के संदर्भ में अजीत सिंह का दल - बदल का मामला भी उल्लेखनीय है । जनता दल ने अजीत सिंह को दिसम्बर 1991 में और अन्य तीन सदस्यी - सत्यपाल सिंह यादव , रा सिंह पंवार तथा रशीद मसूद को फरवरी 1992 में दल से निकाल दिया । इसके बाद राजनाथ सोनकर शास्त्री राम निहोर राय एवं अन्य दो सदस्यों को जुलाई 1902 में पार्टी में अनुशासन के नाम पर निकाल दिया गया । अजीत सिंह एवं 19 अन्य सदस्यों ने जनता दल से अलग बैठने के लिए सीट आवंटित करने की मांग की । इन सदस्यों ने दावा किया कि वे एक समूह है तथा उनकी सदस्य संख्या एक तिहाई से अधिक है । अतएव दल - बदल कानून के अन्तर्गत मान्यता दी जाये । 7 अगस्त , 1992 को अध्यक्ष शिवराज पाटिल ने अजीत सिंह व अन्य 19 सदस्यों को दल के सदस्यों से अलग बैठने की सीट देने सम्बन्धी अंतरिम फैसला दिया । अध्यक्ष के अन्तरिम कैसले का विपक्षी सदस्यी ने कड़ा विरोध किया । जनता दल अध्यक्ष एस . आर . बोम्पई का तर्क था कि इन बीस सदस्यों का एक समूह नहीं हो सकता क्योंकि इनमें से आठ को पहले से ही निलम्बित किया जा चुका है तथा अविश्वास प्रस्ताव के समय पार्टी डिप की ही अवजा के कारण अन्य चार सदस्य दल - बदल कानून के अन्तर्गत अयोग्य घोषित किये है जा सकते हैं । दोनों पक्षों की दलीलें एवं विभिन्न पर्थों की राय लेने के बाद अध्यक्ष पाटिल ने एक जून 1993 को निर्णय देते हुए कहा कि सदन के भीतर किसी सदस्य की सांविधानिक हैसियत को राजनीतिक दल से उसके निष्कासन द्वारा समाप्त नहीं किया जा सकता है । उन्होंने जनता दल के 4 लोक सभा सदस्यों ( राम सुन्दर दास , गोविन्द चन्द्र मुण्डा , गुलाम मोहम्मद खान , राम बदन ) को लोक सभा की सदस्यता से अयोग्य करार दिया । उन्हें 17 जुलाई , 1992 को पार्टी दिए का उल्लंघन करने का दोषी पाया गया । उन्होंने जनता दल ( अ ) के शेष 16 सदस्यों को एक अलग गुट के रूप में मान्यता दे दी । अध्यक्ष के फैसले से जनता दल का संसद में 1 जून , 1993 को औपचारिक विभाजन हो गया तथा जनता दल ( अ ) की सदस्यों की संख्या घटकर 16 हो गयी । 2 जुलाई , 1993 को जनता दल ( अ ) के 4 लोक सभा सदस्यों को दल - बदल कानून के अन्तर्गत सदन की सदस्यता से अयोग्य घोषित करने के निर्णय के क्रियान्वयन पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने रोक लगा दी । 2. अगस्त , 1993 को जनता दल ( अ ) से अलग हुए 7 सांसद कांग्रेस में बिना शर्त शामिल हो गये । इन सांसदों ने पार्टी विहिप का उल्लंघन करते हुए विरोध में मतदान किया था । विपश्च में जनता दल ( अ ) के हुए सांसदों को कांग्रेस में शामिल किये जाने की निन्दा की व आरोप लगाया कि दल - बदल कानून की खामियों के कारण अब व्यक्तिगत के बदले सामूहिक दल - बदल होने लगा है । 1997 में उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनाने और बचाने में दल - परिवर्तन ने एक प्रभावी साधन की भूमिका अदा की । अक्टूबर 1996 में उत्तर प्रदेश विधान सभा के मध्यावधि चुनाव में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं प्राप्त हुआ परिणामस्वरूप भारतीय जनता पार्टी एवं बहुजन समाज पार्टी में समझौता हुआ और समझौते के तहत उनकी साझा सरकार बनी । उक्त दोनों दलों ने इस आधार पर सरकार बनायी कि प्रथम 6 . महीने बसपा का मुख्यमंत्री होगा और 6 महीने भाजपा का मुख्यमंत्री 21 मार्च , 1997 को मायावती के नेतृत्व में भाजपा एवं बसपा की सम्मिलित सरकार बनी मायावती के मुख्यमंत्रित्व में सरकार ने 6 महीने पूरे किये और उसके बाद कल्याण सिंह ने मुख्यमंत्री का पद संभाला कल्याण सिंह के पदारूढ़ होते ही भाजपा एवं बसपा में मतभेद शुरू हो गया इसमें मुख्य मुद्दा हरिजन एक्ट का था । मतभेद यहाँ तक बढ़ गये कि मायावती ने सरकार से अलग होने एवं समर्थन वापस लेने की घोषणा कर दी । तत्पश्चात् बहुमत सिद्ध करने के लिए राज्यपाल ने कल्याण सिंह को निर्देश दिया । 21 अक्टूबर , 1997 को विधान सभा का सत्र आहूत किया गया । बसया में विभाजन के खतरे को दृष्टि में रखते हुए मायावती ने 20 अक्टूबर , 1997 को बसपा विधायकों के लिए विहिप जारी किया । 21 अक्टूबर , 1997 को विधान सभा में बसपा का सीधा ( बर्टिकल ) विभाजन हो गया एवं कुल सदस्यों के एक - तिहाई सदस्यों ने मारकण्डेय के नेतृत्व में एक अलग दल बना लिया । ऐसा दावा मारकण्डेय चन्द ने प्रस्तुत किया सदन में विश्वास प्रस्ताव पर मतदान के दौरान बसपा के इन विधायकों ने मारकण्डेय चन्द के नेतृत्व में कल्याण सिंह सरकार के पक्ष में मतदान किया तथा जनतांत्रिक बहुजन समाज पार्टी के नाम से नये दल का गठन कर लिया । प्रक्रियास्वरूप बसपा विधानमण्डल दल की नेता मायावती एवं बसपा विधायक आर . के . चौधरी ने अलग - अलग 12 याचिकाएँ प्रस्तुत की और विधान सभा अध्यक्ष से अनुरोध किया कि वंश नरायण सिंह , मारकण्डेय चन्द , यशवंत सिंह , चौधरी नरेन्द्र सिंह , शिवेन्द्र सिंह , सरदार सिंह , प्रेम प्रकाश सिंह , सुखपाल पाण्डेय , राधेश्याम पाण्डेय , राजा गजनफर अली , भगवान सिंह शाक्य , डॉ . राम आसरे सिंह कुशवाह आदि की विधान सभा की सदस्यता समाप्त की जाये क्योंकि इन लोगों ने भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची में उल्लिखित दल - बदल कानून का उल्लंघन किया । उक्त विधायकों ने पार्टी ह्विप का पालन नहीं किया एवं • उनकी संख्या भी बसपा की कुल विधायकों की एक तिहाई से कम है । दल - बदल में आरोपित विधान सभा सदस्यों ने अपना पक्ष रखते हुए स्पष्ट किया कि बसपा विधानमण्डल दल की नेता मायावती ने 21 अक्टूबर , 1997 को सदन में आने से पूर्व बसपा के सदस्यों को निर्देशित किया कि वे विधान सभा की कार्रवाई नहीं चलने दें तथा सदन की बैठक में मारपीट एवं हंगामा करके विधान सभा अध्यक्ष को विश्वास मत का प्रस्ताव सदन में न पेश करने दें । अतएव विधान मण्डल दल की नेता मायावती द्वारा 20 अक्टूबर , 1997 को जारी किया गया ह्विप स्वतः समाप्त हो गया क्योंकि 21 अक्टूबर , 1997 को उन्होंने सदन में आने से पूर्व उनके द्वारा दिया गया उक्त निर्देश एवं उनके ह्विप का खण्डन कर देता है । बसपा द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में रिट दायर की गयी । माननीय न्यायालय ने उक्त मामले में कोई निर्णय न देकर विधान सभा के अध्यक्ष को निर्देश दिया कि वह शीघ्र मामले का निस्तारण करें । विधान सभा अध्यक्ष ने दोनों पक्षों की दलीलों को सुनने के बाद 23 मार्च , 1998 को मायावती एवं आर . के . चौधरी द्वारा दायर सभी याचिकाओं को निस्तारित करते हुए निर्णय किया कि 20 अक्टूबर , 1997 का तथाकथित ह्विप संविधान की दसवीं अनुसूची की धारा 2 ( 1 ) ( ख ) के तहत को विधिक ह्विप नहीं है और यह याचिकाएँ उत्तर प्रदेश विधान सभा सदस्य ( दल परिवर्तन के आधार पर निरर्हत ) नियमावली 1987 के नियम -7 के उपनियम ( 4 ) ( 5 ) की शर्तों को पूरा नहीं करती है । अतः दल - बदल में आरोपित सभी सदस्य भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची की धारा 2 ( 1 ) के तहत इसके दोषी नहीं हैं और उनकी विधान सभा की सदस्यता समाप्त नहीं की जा सकती है । उन पर लगाये गये आरोप निराधार एवं औचित्यहीन हैं । आरोपित सभी सदस्य विधान सभा में जनतान्त्रिक बहुजन समाज पार्टी के सदस्य के रूप में जाने जायेंगे । दल - बदल के परिणाम ( Results of Defection ) भारतीय राजनीति में दल - बदल के कुछ परिणाम इस प्रकार देखे जा सकते हैं ( i ) दल - बदल के कारण कांग्रेस पार्टी का राजनीतिक एकाधिकार जो 1952 से चला आ रहा था , 1967 में आकर समाप्त हो गया और कांग्रेस के असन्तुष्टों ने दलों से मिलकर सरकारें बनाने का प्रयास किया । ( ii ) दल - बदल से देश में प्रशासनिक सुधार बाधित हुआ और देश की प्रगति रुक गयी क्योंकि विधायकों को चिन्ता देश की प्रगति की न होकर अपने मन्त्रिपद या धन की सताने लगी । ( iii ) दल - बदल से संयुक्त सरकारें बनने लगी जिससे उनमें विचारों में एकता नहीं रह सकी और सरकारें बार - बार गिरती और बनती रहीं । ( iv ) नौकरशाही ने दल - बदल के कारण अपने प्रभाव में वृद्धि की क्योंकि सरकारें शीघ्र और स्पष्ट निर्णय लेने से डरने लगीं । ( v ) दल - बदल के कारण अनेक सदस्यों को मन्त्रिमण्डल में सम्मिलित करना मुख्यमंत्री की विवशता हो गयी क्योंकि मन्त्रिपद न मिलने से विधायकों का दल - बदल करना सम्भव था । यही कारण है कि ने कल्याण सिंह ने 1997 में 93 सदस्यीय तथा मुलायम सिंह ने अक्टूबर 2003 में 98 सदस्यीय मन्त्रिमण्डल बनाये । ( vi ) राजनीतिक दलों में बिखराव शुरू हो गया । ( vii ) दल - बदल के कारण पदलोलुपता और अवसरवादिता बढ़ गयी जिससे राजनीति सिद्धान्तहीन हो गयी । दल - बदल रोकने के प्रयास ( Efforts to Control the Defection ) दल - बदल के कारण देश में अनेक राज्यों की सरकारें आये दिन गिरने और बनने लगीं जिससे राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हो गयी । दल - बदल को मतदाताओं के साथ भारी विश्वासघात कहा गया । इसे संसदीय जनतन्त्र के लिए घातक मानते हुए इसे रोकने के लिए माँग उठने लगी । इस दल - बदल को रोकने के लिए 11 अगस्त , 1968 को कांग्रेसी संसद सदस्य बैंकट सुब्बैया ने एक गैर - सरकारी प्रस्ताव ( Non - government Bill ) लोक सभा में रखा । इसे लोक सभा ने 8 दिसम्बर , 1968 में पारित कर दिया । फरवरी , 1969 को लोक सभा ने एक समिति की नियुक्ति की , जिसके अध्यक्ष तत्कालीन गृहमन्त्री श्री यशवन्त राव बलवन्त राव चह्वाण को बनाया गया । इस समिति में 28 अन्य सदस्य भी थे । इस समिति ने 18 फरवरी , 1969 को अपनी रिपोर्ट सदन में दी , जिसमें निम्नलिखित सुझाव थे 1 ( i ) सभी राजनीतिक दल मिलकर एक ऐसी आचार संहिता तैयार करें , जो सबको मान्य हो । यदि एक विधायक या संसद सदस्य एक दल को बदलकर दूसरे दल में मिलना चाहें , तो दूसरा दल उसे अपनी सदस्यता उस समय तक न दे जब तक कि वह सदन की सदस्यता से त्यागपत्र देकर दोबारा उस दल के टिकट पर चुनाव न लड़े । ( ii ) प्रत्येक दल केवल ऐसे उम्मीदवारों को ही टिकट दें जो कि उस दल में गहरी निष्ठा रखते हों । 1 ( iii ) दल - बदलुओं को निश्चित अवधि के लिए चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया जाये । ( iv ) दल - बदलुओं को अपने दल से त्यागपत्र देकर दूसरे दल के कार्यक्रम और नीतियों के अनुसार चुनाव लड़ना चाहिए । ( v ) मन्त्रि परिषदों के आकार को सीमित किया जाये जिससे दल - बदलुओं को मन्त्रिपद का लालच न रहे । ( vi ) चह्वाण समिति ने यह सिफारिश की कि मन्त्रियों की अवधि अधिक से अधिक 10 वर्ष निर्धारित कर दी जाये ताकि नये व्यक्तियों को मन्त्री बनने का अवसर मिले । ( vii ) दलीय अनुशासन कठोर किया जाये और कोई भी दल दूसरे दल के किसी भी असन्तुष्ट गुट को अपने में शरण न दें । ( viii ) जनता दल - बदलुओं को चुनाव में पराजित कर दे । ( ix ) प्रधानमंत्री अथवा मुख्यमंत्री लोकप्रिय सदन से ही लिये जायें । ( x ) अधिक दल - बदल होने की स्थिति में मुख्यमंत्री को विधान सभा के भंग करवाने का अधिकार होना चाहिए ( xi )दल - बदलने वाले सदस्यों को दल - बदलने की तिथि से एक साल के लिए किसी भी पद उदाहरणार्थ- मन्त्रिपद , अध्यक्ष अथवा उपाध्यक्ष पदों पर नियुक्त होने से वंचित कर दिया जाना चाहिए । चह्वाण समिति के सुझावों पर सदस्यों में तीव्र मतभेद हो गया । कांग्रेस ( संगठन ) ने कहा कि दल - बदल रोकने का एकमात्र उपाय यह है कि ऐसे सदस्य के लिए विधानमण्डल की सदस्यता से त्यागपत्र देकर पुनः चुनाव लड़ना आवश्यक ठहरा दिया जाये । प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने कहा कि मतदाताओं से विधायकों को वापस बुलाने का अधिकार दिया जाये । कुछ दलों ने यह कहा कि चह्वाण समिति की यह सन्तुति कि दल - बदल करके आये हुए सदस्यों को एक वर्ष तक मन्त्रिपद न दिया जाये , व्यावहारिक रूप से अधिक लाभदायक नहीं होगी क्योंकि ऐसे सदस्यों को नकद पैसा अथवा किसी अन्य ढंग से आर्थिक लाभ पहुँचाकर अपने साथ लाया जा सकता है । चह्नाण समिति की रिपोर्ट के अनुसार जब एक विधेयक तैयार करके विधि मन्त्रालय के पास भेजा गया तो उसने इसमें अनेक अग्रलिखित वैधानिक कठिनाइयाँ प्रस्तुत की ( i ) प्रस्तावित विधेयक भारतीय संविधान के अनु . 19 ( 1 ) ( C ) से टकराता है जिसमें मौलिक अधिकारों का वर्णन है और लोगों को संस्थाएँ बनाने का अधिकार है । ( ii ) यह विधेयक भारतीय संविधान के अनुच्छेद 102 से टकराता है जिसमें संसद के सदस्यों की अर्हताओं ( Qualifications ) का वर्णन है । ( iii ) यह विधेयक भारतीय संविधान के अनु . 191 के विरुद्ध है जिसमें विधान सभा अथवा विधान परिषद् की सदस्यता के लिए अर्हताएँ दी हुई हैं । 16 मई , 1973 को 32 वाँ संशोधन विधेयक गृहमन्त्री उमाशंकर दीक्षित ने दल - बदल रोकने के लिए लोक सभा में रखा , जिसमें निम्नलिखित प्रावधान थे ( i ) संविधान के अनु . 75 में संशोधन करके यह व्यवस्था की गयी थी कि प्रधानमंत्री निम्न सदन से चुना जायेगा । ( ii ) अनु . 102 में संशोधन करके यह व्यवस्था करने का प्रावधान था कि यदि कोई विधायक अपनी इच्छा से उस राजनीतिक दल , जिसके उम्मीदवार के रूप में वह निर्वाचित हुआ था अथवा जिस राजनीतिक दल में वह स्वतन्त्र प्रत्याशी के रूप में निर्वाचित होने के बाद सम्मिलित था , छोड़ता है तो उसकी संसद या विधान मण्डल की सदस्यता का अन्त हो जायेगा । ( iii ) यदि कोई सदस्य विधानमण्डल में होने वाले मतदान में बिना अपने दल की अनुमति के अनुपस्थित रहता है अथवा दल के हिप के खिलाफ मतदान करता है तो यह भी दल परिवर्तन समझा जायेगा और उस सदस्य की सदस्यता का अन्त हो जायेगा । ( iv ) यदि विधानमण्डल का कोई सदस्य अपनी पार्टी में विभाजन होने के कारण अपने उद्गम संगठन से सम्बन्ध विच्छेद करता है तो उसे दल परिवर्तन न समझा जायेगा । उपर्युक्त विधेयक 13 दिसम्बर , 1973 को 60 सदस्यों की एक संयुक्त प्रवर समिति को सौंप दिया । समिति ने 3 वर्ष से भी अधिक समय व्यतीत होने के बाद भी अपनी रिपोर्ट नहीं दी और 1977 में लोक सभा का विघटन हो गया । इसलिए इस विधेयक का भी अन्त हो गया । 26 सितम्बर , 1969 को जम्मू - कश्मीर विधान सभा ने एक ' दल - बदल रोक कानून ' पारित किया जिसमें निम्नलिखित प्रावधान हैं ( अ ) कोई भी विधायक यदि दल से त्यागपत्र देता है तो उसकी विधान सभा की सदस्यता भी समाप्त हो जायेगी । ( ब ) यदि कोई विधायक अपनी पार्टी से ह्विप के विरुद्ध मतदान करता है या मतदान में भाग नहीं लेता तो भी उसकी सदस्यता समाप्त हो जायेगी । इस कानून को जम्मू - कश्मीर के उच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी , उच्च न्यायालय ने इस कानून को वैध घोषित कर दिया । 1977 में जनता पार्टी के सत्ता में आने के पश्चात् एक बार पुनः दल - बदल रोकने का प्रयास किया गया । 28 अगस्त , 1978 को लोक सभा में जनता पार्टी सरकार द्वारा इस आशय का एक विधेयक प्रस्तुत किया गया जिसे बाद में वापस ले लिया गया , क्योंकि जनता पार्टी के कुछ सदस्यों ने ही उसका विरोध किया । आठवीं लोकसभा के प्रथम अधिवेशन में 17 जनवरी , 1985 को राष्ट्रपति ने अपने अभिभाषण में कहा कि सरकार दल - बदल रोकने के लिए एक विधेयक प्रस्तुत करेगी । 24 जनवरी , 1985 को संविधान के 52 वें संशोधन के रूप में विधि मन्त्री ने इस आशय का विधेयक प्रस्तुत किया । 30 जनवरी , 1985 को एक ही दिन में यह विधेयक सभी चरणों से गुजर कर लोकसभा द्वारा पारित कर दिया गया और अगले दिन राज्य सभा ने भी इसे पारित कर दिया । 15 फरवरी , 1985 को राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृति मिल जाने के पश्चात् यह विधेयक संविधान का 52 वां संशोधन अधिनियम बन गया । इस अधिनियम द्वारा संविधान में अनुसूची 10 जोड़ी गयी । इस संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गयी है कि संसद अथवा राज्य विधान मण्डल के सदस्य की सदस्यता निम्न परिस्थितियों में समाप्त हो जायेगी ( i ) यदि कोई सदस्य उस दल से , जिसके टिकट पर निर्वाचित हुआ था , स्वेच्छा से त्यागपत्र दे देता है । ( ii ) यदि कोई सदस्य सदन में पार्टी के द्विप के विरुद्ध मतदान करता है अथवा अपने दल की पूर्व अनुमति के बिना मतदान के समय सदन में अनुपस्थित रहता है । परन्तु ऐसे सदस्य की सदस्यता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा । यदि सदन में अनुपस्थित रहने या हिप के विरुद्ध वोट देने के 15 दिन के अन्दर सम्बन्धित दल उस सदस्य के उपरोक्त आचरण के लिए क्षमा कर दे । ( iii ) यदि कोई निर्दलीय सदस्य चुनाव के बाद किसी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण कर ले । ( iv ) यदि कोई मनोनीत सदस्य , सदस्यता की शपथ लेने के बाद किसी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण कर लेता है तो उसकी सदस्यता का अन्त हो जायेगा । अपवाद - इसके कुछ अपवाद निम्नलिखित है ( 1 ) दल - विभाजन- यदि किसी विधानमण्डल दल या संसद के 1/3 या अधिक सदस्यों ने उस दल से अलग होकर किसी नये दल का निर्माण कर लिया हो । ( ii ) दल - विलय- यदि दो या उससे अधिक विधानमण्डल दल अपनी कुल सदस्यता के 2/3 बहुमत से विलय का निर्णय ले । ( iii ) अध्यक्ष पद के लिए जब संसद , विधान सभा या राज्य सभा का कोई सदस्य स्पीकर / डिप्टी स्पीकर / चेयरमैन / डिप्टी चैयरमैन के पद पर अपने चुनाव से तुरन्त पहले तलीय निष्पक्षता की दृष्टि से अपने दल से त्याग - पत्र देता है । उपरोक्त पद से हटने के बाद उसे किसी होगा । में पुनः सम्मिलित होने का अधिकार कोई विधायक उपर्युक्त नियम के अधीन विधानमण्डल की सदस्यता के लिए अनर्ह हुआ या नहीं , इसका निर्णय सदन का अध्यक्ष करेगा । इस मामले में अध्यक्ष का निर्णय अन्तिम होगा और न्यायालय को उसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होगा । इस अधिनियम को कार्यान्वित करने के लिए सम्बन्धित सदन के अध्यक्ष को सदन के अनुमोदन से नियम और उपनियम बनाने का अधिकार होगा । 12 नवम्बर , 1991 को नागालैण्ड , गुजरात , मेघालय , मणिपुर के अयोग्य करार दिये गये अनेक विधायकों की याचिकाओं के बारे में दल - बदल विरोधी कानून के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय दिया । सर्वोच्च न्यायालय ने यद्यपि दल - बदल विरोधी कानून को वैध करार दिया परन्तु 10 वीं अनुसूची के अनुच्छेद 7 को असंवैधानिक घोषित कर दिया । इस भाग में सदस्यों की अनर्हता के सम्बन्ध में अध्यक्ष का निर्णय अन्तिम माना गया था । उच्चतम न्यायालय का मत था कि दल - बदल निरोधक कानून के अन्तर्गत सदस्यों की अनर्हता पर विचार करते समय अध्यक्ष की स्थिति केवल एक ट्रिब्यूनल जैसी होती है । अतः उसके द्वारा किये गये निर्णयों का उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय पुनरावलोकन कर सकते हैं । दल - बदल निरोधक अधिनियम की कमियाँ इस अधिनियम में कमियाँ निम्न प्रकार देखी जा सकती हैं ( i ) इस कानून से 1/3 सदस्यों के दल - बदल को रोका जा सकता है परन्तु 1/3 से अधिक सदस्यों के दल - बदल को नहीं । उदाहरण के लिए , 1980 में हरियाणा में भजन लाल ने अपने 37 विधायकों के साथ जनता पार्टी से दल - बदल करके कांग्रेस में सम्मिलित होने को सही माना गया । ( ii ) निर्दलीय सदस्यों के आचरण पर इससे प्रभावशाली नियन्त्रण नहीं लगता क्योंकि निर्दलीय सदस्य किसी दल की सदस्यता ग्रहण किये बिना ही सरकार को बनाने और गिराने में बाहर से रहकर ही खेल खेलते हैं । ( iii ) यह अधिनियम उन विधायकों पर भी लागू नहीं होता जो सदन में तो दल के हिप का समर्थन करते हैं । परन्तु सदन से बाहर दल - विरोधी गतिविधियों में सम्मिलित होते हैं । उदाहरण के लिए , 1987 में वी . पी . सिंह के जनमोर्चा के सदस्यों ने सदन से बाहर वी . पी . सिंह की खुलकर आलोचना की । ( iv ) पार्टी द्विप के उल्लंघन करने पर सदस्यता की समाप्ति की व्यवस्था भाषण की स्वतन्त्रता के संसदीय विशेषाधिकार पर कुठाराघात है । ( v ) सदन के अध्यक्ष का व्यवहार इंग्लैण्ड की कामन सभा के स्पीकर जैसा निष्पक्ष नहीं होता , वह अपने दल का सदस्य स्पीकर बनने के बाद भी बना रहता है । इसलिए अपने दल को अपने निर्णय से राजनीतिक लाभ दे सकता है । ( vi ) इस अधिनियम में यह स्पष्ट नहीं है कि यदि सांसद या विधायक को उसका दल बहिष्कृत कर देता है तो क्या होगा । ( vii ) इस अधिनियम से दल - बदल पर प्रभावी रोक नहीं लगी है । सितम्बर 2003 में उत्तर प्रदेश में बसपा के 37 विधायकों ने दल - बदल कर नया दल गठित किया और मुलायम सिंह को समर्थन दे दिया । सुझाव ( Suggestions ) दल - बदल रोकने के लिए कुछ सुझाव निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं ( i ) राजनीतिक दलों की संख्या कम की जाये T ( ii ) दल - बदलुओं के चुनाव लड़ने पर अगले 5 वर्ष तक प्रतिबन्ध लगे । ( iii ) जनता दल - बदलुओं का बहिष्कार करें । ( iv ) कोई भी राजनीतिक दल किसी भी दल - बदलू को अपने दल में स्थान न दे । ( v )विधायक और सांसद अपने क्षेत्र के मतदाताओं की भावना काआदर करते हुए उनके साथविश्वासघात करें । ( vi ) दल - बदल करने वाले विधायक / सांसद की सदस्यता समाप्त करने सम्बन्धी कानून पारित किया जाये । ( vii ) जो दल अन्य दलों के विधायकों / सांसदों को तोड़ने के लिए धन या पद का लोभ दें , उनको काली सूची में स्थान दिया जाये । ( viii ) दल - बदल विरोधी कठोर कानून बनाया जाये । ( ix ) सांसद और विधायक राजनीतिक नैतिकता का आचरण करें । ( x ) दल - बदल को राजनीतिक अपराध घोषित किया जाये । ( xi ) मन्त्रिपरिषद् की सदस्य संख्या विधान सभा / लोक सभा के सदस्यों के 1/10 से अधिक न हो । दल - बदल विरोधी कानूनों को कड़ा करने के लिए संविधान के 97 वें संशोधन विधेयक को लोकसभा ने 16 दिसम्बर और राज्य सभा ने 18 दिसम्बर , 2003 को अपनी स्वीकृति दे दी । इस पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होने के बाद यह संशोधन प्रभावी हो गया । इसके अनुसार , दल - बदल करने वाले निर्वाचित जनप्रतिनिधि की सदस्यता समाप्त करने का प्रावधान किया गया है । इसके साथ जम्बो मन्त्रिमण्डल पर रोक लगाने की भी व्यवस्था है । अब छोटे राज्यों में अधिकतम 12 सदस्यों तथा बड़े राज्यों में 15 % सदस्यों को ही मंत्री बनाने की सीमा निश्चित की गई है । वर्तमान कानून में दल - बदल के लिए कम - से - कम एक - तिहाई सदस्यों का होना आवश्यक है । नये कानून में व्यवस्था की गई है कि यदि कोई निर्वाचित प्रतिनिधि अपने दल को छोड़कर किसी दूसरे दल में सम्मिलित होता है तो उसकी सदस्यता तत्काल समाप्त हो जायेगी और वह कोई लाभ का पद प्राप्त नहीं कर सकेगा । उसे नये दल के चुनाव चिह्न पर पुनः निर्वाचित होना पड़ेगा । यदि किसी निर्वाचित प्रतिनिधि को कोई राजनीतिक दल निलम्बित या निष्कासित कर देता है तो उस स्थिति में यह नियम लागू नहीं होगा । महाराष्ट्र की राजनीति में हाल ही में हुए हंगामे ने एक बार फिर संविधान की 10वीं अनुसूची यानी दलबदल विरोधी कानून के मुद्दे को ज्वलंत कर दिया है। जन प्रतिनिधियों द्वारा पक्ष/पार्टी बदलने की आदत राजनीतिक और सामाजिक रूप से काफी खराब है और लोकतंत्र में अस्वीकार्य है जहां एक प्रतिनिधि को जनादेश और जिस राजनीतिक दल का वह प्रतिनिधित्व कर रहा है उसमें विश्वास और निश्चित रूप से उसकी छवि पर चुना जाता है। रिज़ॉर्ट गवर्नमेंट का यह निरंतर चलन जहां विधानसभा के सदस्यों को बंदियों की तरह ले जाकर कहीं दुर्गम स्थान पर किसी आलीशान होटल या रिज़ॉर्ट में रखा जाता है, जहां कोई भी, उनके परिवार के सदस्यों सहित, उन तक नहीं पहुंच सकता है। हमारे देश में पिछले कुछ वर्षों से यह लगातार हो रहा है जो आम आदमी और वोटरों के जनादेश का दुरुपयोग है। यह एक ऐसी छवि को चित्रित करता है जहां यह दर्शाता है कि निर्वाचित सदस्यों की पार्टी और मतदाताओं के प्रति कोई निष्ठा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने "किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिलु व अन्य 1992" के मामले में स्पष्ट कहा है कि अध्यक्ष या स्पीकर द्वारा निर्णय प्रस्तुत करने से पहले के एक चरण में न्यायिक समीक्षा उपलब्ध नहीं हो सकती है। संवैधानिक कोर्ट दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता की कार्यवाही की न्यायिक रूप से समीक्षा नहीं कर सकता है, अर्थात संविधान के दलबदल विरोधी कानून, जब तक कि सदन के अध्यक्ष या स्पीकर योग्यता के आधार पर अंतिम निर्णय या प्रस्तुत नहीं करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने उद्धव ठाकरे-एकनाथ शिंदे विवाद को बड़ी बेंच के पास भेजने के संकेत दिए ,सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) की तीन-जजों की पीठ ने बुधवार को कहा कि उद्धव ठाकरे-एकनाथ शिंदे विवाद को बड़ी बेंच के पास भेजा जा सकता है। भारत के चीफ जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस हेमा कोहली की पीठ अयोग्यता कार्यवाही, स्पीकर के चुनाव, पार्टी व्हिप की मान्यता और महाराष्ट्र विधानसभा में शिंदे सरकार के लिए फ्लोर टेस्ट के संबंध में शिवसेना पार्टी के एकनाथ शिंदे और उद्धव ठाकरे गुटों से संबंधित याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर छह याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। CJI एनवी रमना ने सुनवाई के दौरान मौखिक रूप से टिप्पणी की कि महत्वपूर्ण संवैधानिक मुद्दे जिन मामलों में उत्पन्न होते हैं उसके लिए एक बड़ी पीठ द्वारा निर्णय की आवश्यकता हो सकती है। CJI ने कहा, "कुछ मुद्दे महत्वपूर्ण संवैधानिक मुद्दे हैं जिन्हें सुलझाया जाना चाहिए।" CJI ने कहा, "कुछ मुद्दे, पैरा 3 (दसवीं अनुसूची के) को हटाने के परिणाम और विभाजित अवधारणा की अनुपस्थिति, क्या अल्पसंख्यक पार्टी के नेता को पार्टी के नेता को अयोग्य घोषित करने का अधिकार है, ये कुछ मुद्दे हैं। यदि आप मुद्दों को सुलझा सकते हैं, हम तय कर सकते हैं कि कैसे आगे बढ़ना है।" हालांकि, CJI ने स्पष्ट किया कि वह तुरंत पीठ का गठन नहीं कर रहे हैं और पार्टियों को पहले प्रारंभिक मुद्दों के साथ आना चाहिए। CJI ने स्पष्ट किया, "मैंने बड़ी बेंच को संदर्भित करने का आदेश पारित नहीं किया है, मैं इस पर सोच रहा हूं।" मामले को अब 1 अगस्त को प्रारंभिक मुद्दों पर चर्चा के लिए सूचीबद्ध किया गया है। 11 जुलाई को कोर्ट द्वारा पारित यथास्थिति आदेश, अयोग्यता कार्यवाही को स्थगित रखना, जारी है। आदेश में कहा गया है, "वकीलों को सुनने के बाद यह सहमति हुई है कि यदि आवश्यक हो तो कुछ मुद्दों को एक बड़ी पीठ को भी भेजा जा सकता है। इसे ध्यान में रखते हुए, पार्टियों को मुद्दों को तैयार करने में सक्षम बनाने के लिए, उन्हें अगले बुधवार तक इसे दर्ज करने दें।" आज कोर्ट में क्या हुआ? आज की शुरुआत में, CJI रमना ने कहा कि उन्हें दसवीं अनुसूची से पैरा 3 को हटाने के परिणामों के बारे में कुछ संदेह है, जिसने आंतरिक-पार्टी विभाजन की अनुमति दी। 2003 में 91वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा दसवीं अनुसूची के पैराग्राफ 3 को हटा दिया गया था। CJI ने स्पष्ट किया कि वह कोई विचार व्यक्त नहीं कर रहे हैं और केवल अपनी शंकाओं को दूर करना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि पैरा 3 को हटाने के बाद, विभाजन की अवधारणा को मान्यता नहीं है। उन्होंने पूछा कि जब कोई विभाजन नहीं हुआ है, तो परिणाम क्या होंगे! उद्धव गुट द्वारा दायर याचिकाओं में उपस्थित सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल और एडवोकेट डॉ एएम सिंघवी ने तर्क दिया कि चूंकि विरोधी समूह ने चीफ व्हिप का उल्लंघन किया है, इसलिए वे दसवीं अनुसूची के अनुसार अयोग्य हैं। उन्होंने यह भी कहा कि अनुसूची के पैरा 4 के तहत सुरक्षा उन्हें उपलब्ध नहीं है क्योंकि उनका किसी अन्य राजनीतिक दल में विलय नहीं हुआ है। वर्तमान मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की ओर से सीनियर एडवोकेट हरीश साल्वे ने तर्क दिया कि दसवीं अनुसूची आंतरिक-पार्टी लोकतंत्र का गला घोंटती नहीं है। लक्ष्मण रेखा को पार किए बिना पार्टी के भीतर आवाज उठाना दलबदल का नहीं है। साल्वे ने प्रस्तुत किया कि पैरा 3 को देखने की कोई आवश्यकता नहीं है और यह मुद्दा केवल पैरा 2 तक ही सीमित है, जो उनके अनुसार वर्तमान तथ्यों और परिस्थितियों में किसी भी अयोग्यता को आकर्षित करने के लिए लागू नहीं है। आगे कहा, "आपको स्वेच्छा से पार्टी की सदस्यता छोड़नी होगी या पैरा 2 के तहत इसके खिलाफ मतदान करके पार्टी व्हिप का उल्लंघन करना होगा। "स्वेच्छा से पार्टी सदस्यता छोड़ना" की व्याख्या की गई है। यदि कोई सदस्य राज्यपाल के पास जाता है और कहता है कि विपक्ष को सरकार बनाना है, तो यह स्वेच्छा से सदस्यता छोड़ने के लिए आयोजित किया गया है। यदि मुख्यमंत्री के इस्तीफा देने के बाद, और दूसरी सरकार शपथ लेती है, तो यह दलबदल नहीं है। क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि एक आदमी जिसे 20 विधायकों का समर्थन नहीं मिल सकता है उसे मुख्यमंत्री के रूप में बहाल किया जाना चाहिए? मुझे लोकतंत्र के अंदरूनी हिस्से के रूप में नेता के खिलाफ आवाज उठाने का अधिकार है। आवाज उठाना अयोग्यता नहीं है। पैरा 3 एक गैर-मुद्दा है।" सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित याचिकाएं: 1. उपसभापति द्वारा जारी अयोग्यता नोटिस को चुनौती देने वाली शिवसेना के बागी नेता एकनाथ शिंदे द्वारा दायर याचिका और भरत गोगावले और शिवसेना के 14 अन्य विधायकों द्वारा दायर याचिका में डिप्टी स्पीकर को अयोग्यता याचिका में कोई कार्रवाई करने से रोकने की मांग की गई है, डिप्टी स्पीकर तय करेगा। 2. शिवसेना के चीफ व्हिप सुनील प्रभु द्वारा दायर याचिका में महाराष्ट्र के राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री को महा विकास अघाड़ी सरकार का बहुमत साबित करने के निर्देश को चुनौती दी गई है। 3. उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाले खेमे द्वारा नियुक्त किए गए व्हिप सुनील प्रभु द्वारा दायर याचिका, एकनाथ शिंदे समूह द्वारा शिवसेना के चीफ व्हिप के रूप में नामित व्हिप को मान्यता देने वाले नव निर्वाचित महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष की कार्रवाई को चुनौती देती है। 4. एकनाथ शिंदे को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के रूप में आमंत्रित करने के महाराष्ट्र के राज्यपाल के फैसले की आलोचना करते हुए शिवसेना के महासचिव सुभाष देसाई द्वारा दायर याचिका और 03.07.2022 और 04.07.2022 को हुई राज्य की विधान सभा की आगे की कार्यवाही को अवैध बताते हुए चुनौती दी गई है।
- पुरुषार्थ
पुरुषार्थ भारतीय विचारधाराओ के अनुसार प्रत्येक मानुष्य के जीवन मे पुरुषार्थ का विशेष महत्व है । व्यक्ति के जीवन की दिशा प्रदान करने तथा उसके कार्यो के प्रतिमान निर्धारित करने के लिए चार पुरुषार्थ का विधान प्रस्तुत किया गया है । पुरुषार्थ का शाब्दिक अर्थ है ---उद्धोग अर्थात कार्य करना । कार्यो के द्वारा ही विभिन्न लक्ष्यो की प्राप्ति संभव होती है । इस प्रकार कहा जा सकता है की जीवन के इस परम उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करने के लिए अन्य तीन पुरुषार्थ है इन तीनों पुरुषर्थों को त्रिवर्ग अर्थात धर्म ,अर्थ तथा काम कहा गया है । चरो पुरुषर्थों का अलग –अलग विवरण प्रस्तुत है ;- 1) धर्म एक मुख्य पुरुषार्थ धर्म है । धर्म का आशय कर्तव्यो से है । समाज मे रहते हुए प्रत्येक व्यक्ति के कूछ कर्तव्य निर्धारित होती है जिन्हे पूरा करना उसका दायित्व होता है । भिन्न –भिन्न आश्रमो के व्यक्तियों के लिए धर्म का स्वरूप भी भिन्न –भिन्न है । धर्म का एक मुख्य रूप यज्ञ करना है भारतीय विचारधारा के अंतर्गत मुख्य रूप से पाँच यज्ञों का विधान है । धर्म के अनुसार ये पाँच यज्ञ निम्नलिखित है देव यज्ञ ,ऋषि यज्ञ , पितृ यज्ञ , नुयज्ञ तथा भूतयज्ञ । देवताओ के प्रति निर्धारित कर्तव्यो को पूरा करना देव यज्ञ है गुरुओ के प्रति निर्धारित कर्तव्यो को पूरा करना ऋषि यज्ञ है । धर्म पूर्वक विवाह करके संतान को जन्म देना कुटुम्ब का पालन करना तथा माता –पिता की सेवा एव आदर करना पितृ यज्ञ है । समाज मे रहते हुए अन्य मनुष्यो के प्रति सामाजिक कर्तव्यो को पूरा करना नु –यज्ञ कहलाता है । भूत यज्ञ का आशया है --- सभी जीवित प्राणियों अर्थत पशु-पक्षियो के प्रति दया का भाव रखना तथा उन्हे संरक्षण प्रदान करना । इन सब कर्तव्यो को पूरा करना धर्म है । धर्मो के विभिन्न प्रकारो का भी वर्णन किया गया है । मुख्य प्रकार है ---मानव धर्म , वर्ण धर्म , आश्रम धर्म , कुल धर्म , स्वधर्म , देश या राज धर्म ,तथा काल धर्म 2) अर्थ दूसरा पुरुषार्थ अर्थ माना गया है । अर्थ का प्रयोग विस्तुत रूप मे किया गया है । साधारण शब्दो मे कहा जा सकता है की अर्थ का आशया सांसरिक साधनो एव समृद्धि आदि से है । इस प्रकार अर्थ का अर्जन करना भी मनुष्य का पुरुषार्थ या कर्तव्य है । अर्थ के अभाव मे धर्म भी संभव नहीं है । महाभारत मे अर्थ के महत्व को इन शब्दो मे स्पष्ट किया गया है , धर्म पूर्णरूप से धन एव संपाती पर आधारित है । यदि कोई व्यक्ति किसी के धन को लुटता है तो वह उसके धर्म को भी लुटता है । दरिद्रता पाप से परिपूर्ण स्थिति है । सम्पत्ति के स्वामित्व से ही सब उत्तम कार्य होते है । सम्पत्ति से ही धार्मिक कार्य होते है । संम्पति से समस्त आनंद एव स्वय स्वर्ग की उपलब्धि होती है । संम्पति से ही धार्मिक कार्य आनंद , वासना , साहस , क्रोध और विधा उत्पन्न होता है । जिस मनुष्य के पास धन नहीं होता है वह धार्मिक कार्यो मे भी सफल नहीं होता क्योकि धर्म धन से उसी प्रकार उत्पन्न होता है ,धन से एक व्यक्ति की योग्यता भी बढ़ती है । इस प्रकार कहा जा सकता है की भारतीय जीवन मे अर्थ के महत्व को विशेष स्थान दिया गया है । परंतु यहाँ यहा भी स्पष्ट किया गया है की धन मनुष्य के लिए है न की मनुष्य धन के लिए । धन का उपार्जन धर्म पूर्वक होना चाहिये तथा धन का व्यय भी धर्म पूर्वक होना चाहिए , बुरे कार्यो के लिए धन का व्यय नहीं होना चाहिए । धन धर्म का साधन है । 3) काम पुरुषार्थ व्यवस्था मे तीसरा स्थान काम को दिया गया है । काम का आशय आनंद एव प्रेम से है । काम को प्रेम का देवत माना गया है । काम का पुरुषार्थ के रूप मे व्यापक अर्थ है । एक अर्थ मे यौन –इच्छा की तृप्ति तथा संतान को जन्म देना काम है । यह काम का संकुचित अर्थ है । जहां तक काम के विस्तृत अर्थ का प्रश्न है उसमे व्यक्ति की समस्त इच्छाओ ,कामनाओ एव आकांक्षाओ की समुचित तृप्ति से आशया है । जहां तक यौन तृप्ति का आशया है उसके लिए भारतीय समाज मे विवाह संस्कार का विधान है । विवाह करके धर्म –पूर्वक अपनी पत्नीसे यौन संबंध स्थापित करने तथा परिणामस्वरूप संतान को जन्म देना उचित है । इस प्रकार संतान को जन्म देकर व्यक्ति पितृ ऋण से मुक्त हो जाता है । विस्तुत अर्थ मे काम से आशय है इच्छा ,कामना एव आकांक्षाओ की पूर्ति इसके अंतर्गत समस्त इंद्रियो की तृप्ति का समावेश है । पुरुषार्थ रूप मे काम को मोक्ष का आधार एव पुष्ठभूमि माना गया है । व्यक्ति को संसार के भोग से संतुष्ट होकर ही मोक्ष को प्राप्ति की ओर अग्रसर होना चाहिये । धर्म ,अर्थ तथा काम का समन्वय होना चाहिये । भारतीय विचारो मे काम को अनियंत्रित नहीं छोड़ा गया बल्कि धर्म का अंकुश रखा गया है । 4) मोक्ष चार पुरुषार्थ मे मोक्ष का भी उल्लेख किया जाता है । मोक्ष को जीवन का परम लक्ष्य माना गया है । मोक्ष शब्द का प्रयोग अनेक अर्थो मे हुआ है जैसे की ----विमोचन छुड़ाना ,स्वतन्त्रता ,मुत्यु , पतन,गिरना ,बिखेरना समाप्ती तथा जन्म मुत्यु के चक्र से छुटकारा पाना । पुरुषार्थ धारणा के स्वरूप मे मोक्ष का तात्पर्य आवागमन के चक्र से छुटकारा पाना है । व्यक्ति को जीवन भर कर्म करने पड़ते है । तथा कर्मो के परिणाम भुगतने पड़ते है परंतु मोक्ष की स्थिति मे कर्म की आवश्यकता नहीं रहा जाती । जीवन की दुष्टि कोण से मोक्ष ,धर्म ,अर्थ ओर काम का स्वाभाविक परिणाम है धर्म ,अर्थ और काम जीव को समाज से बांधते है लेकिन मोक्ष इनसे मुक्त करता है धर्म अर्थ और काम सामाजिक है और मोक्ष शाश्वत सत्या की प्राप्ति है । चरम आनंद की अनुभूति है मोक्ष के लिए तीनों मुख्य मार्गो का सुझाव भारतीय दर्शन मे है । मोक्ष के महत्व को सर्वाधिक माना गया है । मोक्ष के प्रत्यय ने भारतीय जीवन के भी पक्षो को गहराई से प्रभावित किया है ।
- कर्म सिधान्त
कर्म के सिधान्त की व्याख्या परिचय – नैतिक प्रत्यय के रूप मे कर्म के सिधान्त का विशेष महत्व है प्राचीन भारतीय दर्शन नीतिशास्त्र मे कर्म के सिधान्त को विशेष स्थान दिया गया है । कर्म के सिधान्त का संबंध पुनर्जन्म एव भाग्यवाद आदि सिद्धांतों से भी है कर्म के सिधान्त मे कर्म की धारणा सबसे मुख्य एव प्रधान है । कर्म का अर्थ क्या है ?कर्म का अर्थ यह है । की सकल अस्तित्व एक विश्व ऊर्जा की क्रिया है । ऊर्जा की एक प्रक्रिया द्वारा विश्व का अस्तित्व है । विश्व का अस्तित्व एक अविच्छिन श्र्ंखला है जिसका विभिन्न कड़ियां कारण एव परिणाम के परस्पर संबंध द्वारा संबंध है । कर्म के प्रकार कर्मो को एक वर्गिकरण के अनुसार तीन प्रकार का बताया गया है । ये तीन प्रकार है ;- 1. कायिक , 2. वाचिक , 3. मानसिक । 1) कायिक कर्म ---कर्म उन कर्मो को कहा जाता है जो काया या शरीर द्वार किये जाते है । 2) वाचिक कर्म –वाचिक कर्म वह होते है जो वचन या भविष्यवाणी द्वार किए जाते है उन्हे वाचिक कर्म कहते है 3) मानसिक कर्म –मन से सम्पन्न होने वाले कर्म मानसिक कर्म कहलाते है । इससे भिन्न गीता मे क्रमश सात्विक कर्म , राजसिक कर्म ,तथा तामसिक कर्म का भी उल्लेख है । कर्मो के फल के आधार पर भी कर्मो का वर्गिकरण किया गया है । इस आधार पर भी तीन प्रकार के कर्मो का उल्लेख मिलता है । ये प्रकार है 1) संचित कर्म 2) प्रारब्ध कर्म 3) संचियमान अथवा क्रियमान कर्म इस वर्गिकरण मे संचित कर्म तथा प्रारब्ध कर्म पूर्व कर्म होते है , वे पूर्वजन्मो के भी हो सकते तथा इस जन्म के भी हो सकते है । इन्हे हम एकत्रित कर्म भी कह सकते है । ये हमारे पूर्व संचित कर्म है । पूर्व संचित कर्मो मे कुछ ऐसे होते है जिनके फलो को हम भोगना प्रारम्भ कर देते है , उन्हे प्रारब्ध कर्म कह जाता है । तथा जिका फल मिलना अभी प्रारम्भ नहीं हुआ उन्हे संचित कर्म कहा जाता है । संचियमान कर्म वे है जिनका संचय हम वर्तमान मे कर रहे होते है तथा फल भविष्य मे प्रप्त होगा । कर्म के सिधान्त के मुख्य तथ्य कर्म के सिधान्त का प्रतिपादन वेदो ,उपनिषदों ,महाभारत ,गीता ,स्मूर्तियों एव अन्य ग्रंथो मे विस्तार पूर्वक किया गया है । विस्तुत विवेचन से बचते हुए यहा पर कर्म के सिधान्त के मुख्य तथ्यो को संक्षेप मे प्रस्तुत किया जा रहा है । 1) कर्म के सिधान्त मे कर्म तथा पुनर्जन्म का घनिष्ठ संबंध है । कर्मो के ही परिणाम स्वरूप पुनर्जन्म होते है । 2) कर्म के सिधान्त की यह मान्यता है की व्यक्ति द्वारा किए गये किसी भी कर्म का प्रभाव समप्त नहीं होता । कर्मो के फलो को अनिवार्य रूप से भोगना पड़ता है । 3) कर्मो के ही कारण पुनर्जन्म होता है । वास्तविकता यह है की व्यक्ति एक जन्म मे अपने समस्त कर्मो के फलो को नहीं भोग पता अंत अपने कर्मो के फलो को भोगने के लिए बार बार जन्म लेना पड़ता है । इस प्रकार पुनर्जन्म का चक्र अनन्त काल तक चलता है । 4) यह आनिवार्य नहीं की इस जन्म मे इसी जन्म के कर्मो के फल प्राप्ता हो बल्कि पहले के जन्मो के संचित कर्मो के फल भी भोगने पड़ते है । इसी सिधान्त के आधार पर वर्तमान मे अच्छे कर्म करने वालो द्वार दुख एव कष्ट पाने की व्यवस्था की जाती है । 5) कर्म के साथ भाग्य की भी अवधारणा सम्बंध है । पूर्वजन्म के कर्मो के आधार पर वर्तमान भाग्य का निर्धारण होता है । इस सिधान्त को मानकर ही अपने वर्तमान पर सन्तोष रखने तथा भविष्य को सँवारने का निर्देश है । 6) कर्म के सिद्धांत के ही संदर्भ मे मोक्ष की भी व्याख्या की जाती है जब कर्मो का चक्र पूरा हो जाता है तथा व्यक्ति जन्म –मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है तब मोक्ष की स्थिति अति है । निष्काम कर्म योगा परिचय –गीता का मुख्य उपदेश एव सिद्धांत निष्काम कर्म योगा है यह उपदेश श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल मे अर्जुन को दिया था । उस समय स्थिति यह थी की महाभारत के युद्ध की पुर्ण तैयारिया ही चुकी थी । पांडवो और कौरवो की सेनाये आमने सामने थी । एसी स्थिति मे अर्जुन ने अपने सभी सम्बन्धियो को कौरवो की सेना मे उपस्थित पाया । अर्जुन यह देखकर विचलित हो गया । उसने युद्ध ण करने का निश्चय का लिया । तब श्री कृष्ण ने अर्जुन के मन की इस विचलित स्थिति को समाप्त करने के लिए एक प्रभावशाली उपदेश दिया । यही महान उपदेश निष्काम कर्मयोग कहलाता है । निष्काम –कर्मयोग का अर्थ निम्नलिखित है निष्काम कर्मयोग का अर्थ कर्तव्य भाव से प्ररित होकर किया गया कर्म निष्काम कर्म कहलाता है । निष्काम कर्म मे कर्म कर्तव्य के प्रति लगाव होता है । इसमे फल पर ध्यान नहीं दिया जाता । बल्कि निष्काम कर्म या सदैव ईश्वर को अर्पित करके किया जाता है निष्काम कर्म करते समय यह माना जाता है की संबन्धित कार्य ईश्वर का कार्य है । कार्य करने वाला स्वय ईश्वर है । व्यक्ति तो केवल साधन है । व्यक्ति कार्य करने वाला है ,करवाने वाला नहीं । प्रत्येक निष्काम कर्म ईश्वर की इच्छा से होता है । इस सिद्धांत के अंतर्गत माना जाता है की व्यक्ति तो कर्म करने मे इच्छा अनिच्छा का ध्यान रखना चाहिए । निष्काम कर्म के अंतर्गत व्यक्ति को केवल कर्म करने का अधिकार है । उसे न तो फल की इच्छा करने चाहिए और न हीं उसे फल प्राप्त करने का अधिकार है । निष्काम कर्म विश्व –कर्म है । इसका संबंध सर्व व्याप्त विश्वात्मा से है । निष्काम कर्म के लाभ निष्काम कर्म करने की भावना के विकास से अनेक व्यवहरिक लाभ भी है । इस भावना के विकसित हो जाने पर किसी भी व्यक्ति को अपने कार्य के प्रति अरुचि नहीं हो सकती । इस दशा मे व्यक्ति अनुभव करता है की वह जो कार्य कर रहा है वह कार्य ईश्वर का कार्य है ईश्वर के सभी कार्य महान है अंत उसका कार्य भी महान है । निष्काम कर्म करने वाला व्यक्ति जानता है की उसको भगवान ने कुछ विशिष्ट शक्तिया दी है । और उसे उन्ही शक्तियो के अनुकूल कार्य करना है । समाज मे श्रम –विभाजन की समस्या भी निष्काम कर्म की मनोवृति के विकास द्वार हल हो सकती है । निष्काम कर्म के सिधान्त मे वर्ण –व्यवस्था को जन्म नहीं अपितु कर्म से माना जाता है । इस दशा मे छोटा या बड़ा कार्य करने मे किसी प्रकार की हिन भावना या उच्चता की भावना का प्रश्न नहीं उठता है । निष्काम कर्म की भावना के विकास से व्यक्ति एव समाज दोनों को ही लाभ है । व्यक्ति का निजी जीवन सरल एव तनाव रहित बनाने के लिए निष्काम कर्म की भावना आवश्यक है । इसके अतिरिक्त सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने के लिए भी निष्काम कर्म की भावना सहायक होती है । कर्म सिधान्त के महत्व तथा दोष का वर्णन करे परिचय –प्राचीन काल से ही भारतीय समाज की सर्वाधिक प्रभावित करने वाला सिधान्त कर्म सिधान्त रहा है । इस सिधान्त से प्रत्येक भारतीय व्यक्ति का जीवन किसी न किसी रूप से आवश्य प्रभावित रहा है । एक ओर जहां इस सिधान्त ने नैतिक जीवन के विकास मे भरपूर योगदान दिया है वही दूसरी ओर कष्ट के काल मे संतोष प्रदान किया तथा भारतीय समाज के संगठन को बनाये रखने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है । भारतीय समाज मे विकसित होने वाले लगभग सभी समप्रदायों एव धर्मो ने किसी न किसी रूप मे कर्म सिधान्त को आवश्य अपनाया है । यहाँ तक की जैन एव बोद्ध मत मे भी कर्म के सिधान्त को स्वीकार किया गया है । कर्म के सिधान्त के महत्व को मैक्स बेबर ने इन शब्दो मे स्पष्ट किया है कर्म के सिधान्त ने सम्पूर्ण संसार को बुद्धिवादी तथा नैतिक व्यवस्था मे परिणत कर दिया इस प्रकार यह सिधान्त सम्पूर्ण इतिहास मे एक सबसे अधिक संतुलन ईश्वरीय विश्वास का प्रतिनिधित्व करता है कर्म सिधान्त के महत्व का विवरण निम्नलिखित रूप मे प्रस्तुत किया जा सकता है । 1) व्यक्तित्व के विकास मे सहायक ----कर्म के सिधान्त को स्वीकार कर लेने पर व्यक्ति मानसिक रूप से संतुष्ट रहता है इस सिधान्त मे आस्था होने पर व्यक्ति दुखो ,कष्टो एव असफलतों आदि से अधिक परेशान नहीं होता है कर्म सिधान्त व्यक्ति को कर्तव्य के लिए प्ररित करता है । 2) सामाजिक संघर्ष से बचाव ----समाज मे यदि अधिकांश व्यक्ति अपनी स्थिति के प्रति असंतुष्ट हो तो प्राय ; सामाजिक संघर्षो की आशंका बनी रहती है कर्म के सिधान्त को मान लेने पर व्यक्ति अपनी सामाजिक स्थिति से असंतुष्ट नहीं होता है । वह अपनी स्थित को अपने पूर्व कर्मो का परिणाम मानता है । इस धारणा के कारण भारतीय समाज अनेक विकत परिस्थितियो मे भी सामाजिक संघर्षो से बचा रहा तथा समाज का विघटन नहीं हुआ । स्पष्ट है की कर्म सिधान्त ने हमे सामाजिक संघर्षो से बचाया है । 3) नैतिकता का विकास मे सहायक ---कर्म के सिधान्त ने भारतीय समाज मे नैतिक गुणो के विकास मे विशेष सहायता प्रदान की है । कर्म सिधान्त के अनुसार यदी व्यक्ति अच्छे कर्म करता है तो उसे उसके फल भी अच्छे प्राप्त होते है । इसी सिधान्त को मानकर भारतीय समाज ने नैतिक सदगुणो के विकास मे सहायता प्राप्त हुई है । कर सिधान्त के अंतर्गत यह माना गया है । की यदि पुण्य कर्म किए जाये तो व्यक्ति के प्रारब्ध को भी बदला जा सकता है । इन सब कारणो से भारतीय समाज मे मानवीय नैतिकता का अधिक विकास हुआ । कर्म एव पुनर्जन्म के सिधान्त से प्रेरित होकर असंख्य दुराचारी व्यक्ति भी बाद मे सदजीवन मे पदर्पित हुआ 4) समाज –कल्याण से सहायक –कर्म के सिधान्त ने भारतीय समाज मे समाज कल्याण की भावना को भी बल प्रदान किया है । निष्काम कर्म का आदर्श महान आदर्श है । कर्म का सिधान्त राग ,देव्श तथा मोहा आदि को त्याग कर कर्म करने की प्रेरणा देता है 5) अशवाद का समर्थन –कर्म के सिधान्त के अनुसार अच्छे कर्म द्वारा अपने भविष्य को उत्तम बना सकते है । ईससे आशावाद को बल मिला । कष्ट एव दुख झेलते हुए व्यक्ति भी आशा रखते है की उनके जीवन मे परिवर्तन होगा तथा उसके लिए इन्हे प्रयास भी करना चाहिए इस प्राकर कर्म के सिधान्त का मान लेना पर घोर निराशा के बुरे परिणाम से बचा जा सकता है । 6) सामाजिक व्यवस्था मे सहायक ---कर्म के सिधान्त ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था एव संगठन को सुध्ढ बनाने मे विशेष भूमिका निभाई है । वर्ण –व्यवस्था परिवारका दायित्व आदि को निभाने के लिए कर्म सिधान्त प्रेरण प्रदान करता है । आश्रम धर्म को भली भांति पूरा करने से मोक्ष की प्राप्ति का आश्वासन भी महत्वपूर्ण है । इस प्राकर हमारे समाज मे सभी साधारण एव विशेष कार्यो को कर्म के सिधान्त के आधार पर किया जाता है । 7) पुनर्जन्म के चक्र से बचने का अशवासन ---साधारण रूप मे प्रत्येक व्यक्ति जन्म –जन्मांतर के चक्र से भयभीत होता है परंतु कर्म का सिधान्त इस प्रकार का अशवासन देता है की इस सिधान्त के समूचित शासन द्वार जन्म जन्मांतर के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है कर्म सिधान्त के दोष यह सत्या है की भारतीय समाज मे कर्म सिधान्त को व्यापक रूप मे स्वीकार किया गया है । परंतु कर्म सिधान्त के साथ भाग्यवाद की धारणा जुड़ जाने से इस सिधान्त को कुछ क्षेत्रों मे दोष पूर्ण भी माना गया है । इस सिधान्त के दोष निम्नलिखित है ;- 1) कर्म सिधान्त तथा पुरुषार्थ विचारो मे परासपरिक विरोध देखा गया है पुरुषार्थ विचार के अनुसार तीनों पुरुषार्थ को पूरा करने से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है । परंतु कर्म सिधान्त के अनुसार जब तक प्रारब्ध का प्रभाव समाप्त नहीं हो जाता तब तक मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है तथा जन्म-जन्म्मंतर का चक्र चलता रहता है 2) कर्म के सिधान्त मे एक अति महत्वपूर्ण बात है निष्काम कर्म का विचार । इस विचार के अनुसार व्यक्ति को कर्म करना चाहिए फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए । इस सिधान्त को मान लेने पर व्यक्ति के जीवन मे कर्म के लिए कोई तात्कालिन प्रेरणा नहीं रहती है 3) कर्म के सिधान्त मे पुनर्जन्म के विचार को बहुत अधिक महत्व दिया गया है यह उचित नहीं है
- सुखवाद
सुखवाद www.lawtool.net सुखवाद की प्रस्तावना नीतिशास्त्र का सिद्धांत जो स्वीकार करता है की सुख ही परमसुख है उसे सुखवाद कहते है । इस सिद्धांत के अनुसार सुख ही नैतिकता का मापदंड है । सुख की प्राप्ति और दुख की निवृत्ति यही सुखवाद का नारा है सुखवाद को अँग्रेजी मे Hedonism कहते है Hedonism यह शब्द Hedon से बना है जिसका अर्थ है सूख । नैतिक कृति का मूल्यमापन करते समय कृति के परिणाम को महत्व देने वाले तत्व परिणामवादी कहलाते है ।और इनके मत को परिणामवादी मत कहते है । सुखवाद परिणामवाद कहलाता है । इनके अनुसार अगर कृति का परिणाम सुखकारक होते ही कृति उचित या योग्य कहलाती है । जिसका परिणाम दुखकारक होता है वह कृति अनुचित या अयोग्य कहलाती है इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य सुख की इच्छा से प्रेरित होकर ही कृति करता है । सुख के लिए सुख यह सुखवाद का नारा है । सुख की परिभाषा एपिक्यूरस के अनुसार वर्तमान क्षणिक ही सुख है सुख की अवस्था शारिरिक एव मानसिक दोनों होती है। I. सीज्विक के अनुसार सुख एक वांछनीय अनुभव है II. मॉकेन्झि के अनुसार सुख चित की शान्त अवस्था है । III. चार्वाक के अनुसार प्रसन्न और स्वस्थ रहना ही सुख है उपयूक्त सभी परिभाषओ को देखकर एक बात स्पष्ट होती है की सभी सुखवादी विचारको के अनुसार एक ही मान्यता है और वह है सुख की प्राप्ति मनुष्य जो भी कार्य करता है उसके पीछे केवल सुखप्रप्ति का ही उद्देश्य होता है । सुखवाद –सुखवाद की प्राप्ति ही प्रत्येक मनुष्य का अन्तिम ध्येय । सुख प्राप्ति और दुख निवुत्ति के लिए कर्म । सुख के लिए ही कर्म करता है इसीलिए परिणामवादी । यदि परिणाम सुखकारक हो तो कृति उचित या योग्य कहलाती है । यदि परिणाम दुखकारक हो तो कृति अनुचित या अयोग्य कहलाती है । सुख के लिए सुख मनोवैज्ञानिक सुखवाद 1. सुख की प्राप्ति तथा दुख की निवुत्ति यही मनोवैज्ञानिक सुखवाद का नारा है । इसके अनुसार प्रकृति ने ही मानव को ऐसा बनाया है की वह सदेव सुख की खोज करता है तथा दुख से दूर भागता है । 2. जीवन का ध्येय ; मानोवैज्ञानिक सुख के अनुसार सुख ही मनुष्य के इच्छाओ का वास्तविक लक्ष्य है । मानव जो भी कार्य करता है वह सुख पाने के लिए ही करता है । 3. मिल नामक तत्वज्ञ ने मनोवैज्ञानिक सुखवाद का पुरस्कार किया है । इनके अनुसार एक वस्तु को वांछनीय समझना और उस वस्तु को सुखकारक समझ दोनों बाते एक ही है । मनुष्य जिस वस्तु की इच्छा करता है वह सुखकारक ही होता है । अनजाने मे भी किया गया कर्म सुखकारक होता है । 4. बेन्थ्म नमक तत्वज्ञ ने भी मनोवैज्ञानिक सुखवाद का ही पुरस्कार कीया है । उनके अनुसार निसर्ग ने ही मनुष्य को सुख तथा दुख के साम्राज्य मे रखा है और मनुष्य का हेतु सदैव सुख की प्राप्ति तथा दुख का अभाव होता है 5. मनोवैज्ञानिक सुखवाद के अनुसार वस्तुए सध्या नहीं होती परंतु सुख साधन मात्र से होती है । हम वस्तु को नहीं बल्कि वस्तु से उत्पन्न होने वाले सुख को चाहते है । 6. मनोवैज्ञानिक सुखवाद के अनुसर सुख एक मूल प्रवृति है । प्रत्येक व्यक्ति जन्म से ही स्वार्थी होता है । इस लिए उसके मन मे जो विचार आते है वो सुख की प्राप्ति के लिए होते है 7. मनोवैज्ञानिक सुखवाद के अनुसार व्यक्ति इतना स्वार्थी और सुखवादी होता है की दान द्या ,परोपकार ,त्याग बलिदान जैसे कामो मे भी उसे सुख अन्नद मिलता है । सुख मिलेगा इसलिए करते है न की आदर्श की भावना से करता है । 8. मनोवैज्ञानिक सुखवाद मे सुख का अर्थ शरारीक सुख से संबन्धित है । इनके अनुसार मानव के इच्छा पूर्ति उसके क्षाररिक सुख से ही होती है । 9. मिल तथा बेन्थ्म ने मनोवैज्ञानिक सुखवाद का समर्थन करते हूऐ अपने सुखवादी विचारो को उपयोगीवादी सुखवाद का सिद्धान्त बना दिया है । आलोचना मनोवैज्ञानिक सुखवाद अमनोवैज्ञानिक है मनोवज्ञानिक सुखवाद का कहना है की मानव स्वभाववीक रूप से सुख की इच्छा करता है इसी सुख की इच्छा से प्ररित होकर कर्म करता है । लकीन आलोचको का ये कहना है की सुख प्रेरक नहीं है परिणाम है जैसे की अगर किसी को भूख लगती है । तो सुख की प्रक्रिया इस प्रकार होती है 1. कर्म की अनुभूति याने भूख लगना । 2. भोजन की इच्छा। 3. भोजन की प्राप्ति । 4. सुख की अनुभूति । मनोवैज्ञानिक होने के बावजूद भी इनहोने मानसिक प्रक्रिया का विचार ही नहीं किया है । इसलिए मनोवैज्ञानिक सुखवाद अमानो वैज्ञानिक हुआ है । मनोवैज्ञानिक सुखवाद मे घोड़े के आगे गाड़ी नामक दोष है । कीसी भी कर्म करने के बाद मिलने वाला सुख तथा वह कृति करने से पहले मिलने वाला सुख इसमे फरक है । इन दोनों विचारो मे से पहले मत का स्वीकार कर सकते है क्योकि कृति करने के पश्चयत ही सुख की अपेक्षा होती है । लकीन मनोवैज्ञानिक सुखवाद के अनुसर कृति के पूर्व ही प्राप्त होता है । यह सिधान्त गलत है । क्योंकि मनुष्य इच्छा वस्तु की करता है । सुख की नहीं इस प्रकार के दोष को घोड़े के आगे गाड़ी या अश्व दोष कहते है समाधान के पूर्व जरूरत उत्पन्न होती है । मनोवैज्ञानिक सुखवाद से नैतिक सुख की प्राप्ति साम्भव नहीं है । मनोवैज्ञानिक सुखवाद तथ्य पर आधारित है लकीन नैतिक सिद्धांत मूल्यो पर आधारित है । मूल्य हमेशा तथ्यो से पहले आते है । सुखवाद मे विरोध –सिज्विक नामक तत्वज्ञ के अनुसार मनोवैज्ञानिक सुखवाद मे सुखवाद का विरोध है । उनका कहना है । की सुख प्राप्त करने की आतुरता जितनी अधिक होगी उसका लक्ष्य उतना ही नीरर्थक हो जाएगा जितना हम सुख के पीछे भागते है । उतना सुख हमसे दूर भागता है और जब वो प्राप्त होता है । अगर सुख पाना चाहते हो तो सुख को भूल जाओ । यह सुखवादी मत सुखवाद मे विरोध दर्शाता है । मनोवैज्ञानिक सुखवाद व्यक्तिगत सिद्धांत है । मनोवज्ञानिक सुखवाद से किसी सिद्धांत की सिधता नहीं हो सकती है । नैतिक सुखवाद 1. नैतिक सुखवाद एक प्रमुख नैतिक सिद्धांत है । 2. नैतिक सिद्धांत आदर्शनात्म्क है । क्यों की वह नीतिशास्त्र से संबन्धित है । 3. नैतिक सुखवाद के अनुसार व्यक्ति का आदर्श यह होता है की वह सुख की ही प्राप्ति करे और वह दुख को दूर करे । 4. नैतिक सुखवाद के अनुसार सुख सध्या है और इसी को पाने के लिए हम बिभिन्न साधनो का प्रयोग करते है । 5. नैतिक सुखवाद वह नैतिक सिद्धांत है जिसके अनुसार सुख प्राप्त करना ही मानव का लक्ष्य है सुख ही परमशुभ है। 6. इसके अनुसार व्यक्ति का यह कर्तव्य है की वह उस कार्य को शुभ समझकर करे । जिससे सुख प्राप्त हो और वह कार्य जो दुख उत्पन्न करता है । वह असुभ है । 7. नैतिक सुखवादी स्पष्ट रूप से कहते है की हमे सुख की इच्छा करते रहना चाहिए । याने यह देखना चाहिए की हमे अधिक से अधिक सुख मिले जिससे की दुख का मिश्रण ण हो । नैतिक सुखवाद के दो प्रकार है 1. स्वार्थ सुखवाद 2. परार्थ सुखवाद 1 स्वार्थ सुखवाद स्वार्थ सुखवाद नैतिक सुखवाद का एक प्रकार होने का नैतिक सिद्धांत है । इसके अनुसार जीवन का परम ध्येय व्यक्ति का निजी सुख प्राप्त करना है । स्वार्थ सुखवाद का लक्ष्य केवल स्वंय सुख को ही नैतिक दुष्टि से शुभ मानता है । इसके अनुसार सुखो को परिणाएमक की दुष्टि से देखने चाहिए तथा इसी दुष्टि से अधिकतम सुख को ही स्वीकार करना चाहिए । स्वार्थ सुखवाद सिद्धांत से अधिकतम सुख का निर्णय सुख की तीव्रता था कालावधि पर आधारित होती है 2 स्वार्थ सुखवाद के दो प्रकार है । 1. निकुष्ट स्वार्थ सुखवाद 2. अकुष्ट स्वार्थ सुखवाद 1. निकुष्ट स्वार्थ सुखवाद a) सिरेनाइक्स b) होब्स c) चार्वाक सिरेनाइक्सका सुखवाद निकुष्ट स्वार्थ नैतिक सुखवाद कहलाता है । a) इस सुखवाद के मूल प्रवर्तक एरीस्टिपस है । इनके अनुनायीयो को सिरेनाइक्स कहते है b) इनके अनुसार अतीत मर चुका है तथा भविष्य अनिशिचत है । अंत वर्तमान ही सब कुछ है । इसलिए वर्तमान सुख को । अंत वर्तमान ही सब कुछ है । इसीलिए वर्तमान सुख को ही जीवन का लक्ष्य मानना चाहिए । c) सिरेनाइक्स इंद्रिय सुख को ज्यादा महत्व देते है । d) इनके अनुसार सुख मे कोई गुणात्मक भेद नहीं है इनमे परिमाणात्मक भेद है । e) इस प्रकार सिरेनाइक्स का सुखवाद शारीरिक तथा भौतिक महत्व देने के कारण क्षणिक सुखवाद कहलाता है । आलोचना सुखवाद मूल रूप से जड़वाद पर आधारित होने के कारण किसी सिद्धांत की स्थापना नहीं कर सकता क्षणिक सुख को सब कुछ मनाने के कारण इस सुखवाद मे बुद्धि या विवेक की पूरी तरहा से अपेक्ष की गई है मनोवैज्ञानिक सुखवाद से जुड़ी हुई सभी आलोचनाए यहाँ भी लागू होती है । होंब्ज –होब्ज विज्ञान शास्त्र तथा गणित के अभ्यास थे । इसलिए उन्होने गति के तत्व को महत्व दिया है । होब्ज ने पूरी तरह से मनोवैज्ञानिक सुखवाद स्वीकार किया है । होब्ज के अनुसार मनुष्य स्वभावत ही स्वार्थी होने के कारण केवल अपने सुख के बारे मे ही विचार करता है किसी दूसरे की मददा भी स्वार्थी प्रवर्ती से ही करता है । याने अपनी संघर्षमय परिस्थिति मे दूसरे अपने को मदद करे ।इस स्वार्थ से ही व्यक्ति परोपकार है । साम्राज्य मे सुखपाने के लिए दो शर्तो को स्वीकार करना चाहिए a) दूसरों के अधिकारो का पालन करो b) सभी मिलकर अपने आपको सोभाग्यशील बनाओ c) इस प्रकार से होब्ज के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति ने स्वया के सुख के बारे मे सोचना चाहिए और उस सुख को पाने के लिए अपने आप को ताकतवर बनाना चाहिए । आलोचन होब्ज का स्वसुखवाद मनोवैज्ञानिक सुखवाद पर आधारित होने के कारण उन पर लागू किए गए सभी दोष यहाँ पर भी है । सुखवाद जड़वाद पर आधारित होने के कारण किसी नैतिक सिद्धांत की स्थापना नहीं कर सकता । होब्ज ने स्वार्थ सुखवाद का समर्थन करते हुए पार्थ सुखवाद का भी स्पष्टीकारण दिया है । अंत यह विचार अपने आप मे विरोधि हो गया है । चार्वाक चार्वाकदर्शन केवल एक ही भारतीय दर्शन है । जिनहोने सुखवाद का समर्थन किया है । इनहोने अपना इस सुखवाद वाक्यो मे कहा की जब तक जीवित रहो सुख पूर्वक जियो ऋण करके भी घी पियो एक बार यह देह नष्ट हो जाए फिर किसने पुर्नजन्म को देख है । चार्वाक के अनुसार दुख मिश्रित सुख को महत्व देते है । उनके अनुसार सुख प्राप्त करना ही हमारा कर्तव्य है । अन्न को यदि उसमे आने वाली मूसी के कारण छोड़ दिया जाए तो मूर्खता है । तथा काटा लगाने के भय से मछली खाना नहीं छोड़ना चाहिए । चार्वाक के सुखवादी सिधान्त पर अनेक तत्वज्ञों मे अवशेप हुई है । लकीन एक तत्वज्ञ होने के नाते अपनी सुखवाद से उन्होने लोगो के सामने जीने का एक सकारात्मक दुष्टि कोण रखा है । उत्कूष्ट स्वार्थ सुखवादी एपीक्यूस्य – एपीक्यूनस निकुष्ट या उकुष्ट दोनों स्वार्थ सुखवाद का आधार अमनोवैज्ञानिक सुखवाद है । एपीक्यूनस के अनुसार शारीरिक सुख की अपेक्षा हमको बोद्धिक सुखो को महत्व देना चाहिए । एपीक्यूनस के अनुसार तथा चिंता के कारण मनुष्य दुखी होता है । और ये दोनों चिजे धर्म से जुड़ी हुई होती है इसीलिए धर्म तथा ईश्वर का डर सर से निकाल देना चाहिए । इनके अनुसार वर्तमान जीवन को आदर्श मानकर जीना चाहिए इस जगत को ईशवर ने ही बनाया है इसलिए स्वर्ग और नर्क देवी , देवताओ से भयभीत नहीं होना चाहिए । आलोचना एपीक्यूनस बोद्धिक सुख को परमसुख मानते है । लकीन इस बुद्धि को उन्होने सुखी जीवन का केवल एक साधन मात्र मना है । शांत जीवन ही श्रेष्ठ जीवन है यह कहकर जीवन को निस्क्रिया बना दिया है व्यक्तिगत सुख हो श्रेष्ठ मानने के कारण स्वार्थमय सुख कभी ऐश्वर्य सुख नहीं हो सकता है । परर्थ सुखवाद परर्थ सुखवाद नैतिक सुखवाद का वह प्रकर है जिसके अनुसार दूसरों का सुख था दूसरों का सुख ही हमारा नैतिक सुख है परर्थ सुखवाद के अनुसार केवाल दूसरों का सुख ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए । परर्थ सुखवाद के अनुसार केवल दूसरों का सुख चाहे वह केसा भी हो नैतिक शुभ है । यह एक अदर्शत्मक सिद्धांत है । परर्थ सुखवाद के अनुसार हमे यह ध्यान मे रखना चाहिए की कम से कम व्यक्तियों को कम से कम दुख मिले । पारर्थ /उपयुकतवादी ;सुखवाद उपयुकतवादी ;सुखवाद के अनुसार व्ही कर्म नैतिक दुष्टि शुभ है की मानव के लिए उपयोगी है । उपयुकतवादी ;सुखवाद पारर्थ सुखवाद की अपेकषा अधिक व्यापक है । उपयुकतवादी ;सुखवाद के अनुसार अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख ही नैतिकता का मापदंड होने चाहिए । उपयुकतवादी ;सुखवाद का आधार मनोवैज्ञानिक सुखवाद है । बेन्थम और मिल दोनों इसके समर्थक है । बेन्थम के अनुसार हम प्रत्येक व्यक्ति की सुख तो नहीं बना सकता लकीन हमारा प्रयास यही रहना चाहिए की हम अधिक से अधिक व्यक्तियो को अधिक से अधिक मात्रा मे सुख दे सके ।
- आश्रम तथा आश्रम व्यवस्था का अर्थ
आश्रम तथा आश्रम व्यवस्था का अर्थ www.lawtool.net परिचय - आश्रम व्यवस्था के स्पष्टीकरण से पूर्व आश्रम का शाब्दिक अर्थ जानना होगा । यह शब्द श्रम धातु से बन है । इस का आशय है ---कार्य या परिश्रम करना । इस शाब्दिक अर्थ को ध्यान मे रखते हुये भारतीय सामाजिक विचारक श्री प्रभु ने आश्रम व्यवस्था की व्याख्या करने का प्रयास किया है । उनके अनुसार आश्रम शब्द से दो तात्पर्य प्राप्त है 1) एक स्थान जहां व्यक्ति द्वरा परिश्रम किया जाए तथा 2)इसके प्रकार के परिश्रम के लिए की जाने वाली क्रिया । इस प्रकर कहा जा सकता है की आश्रम का आशया एक क्रिया स्थल से है । अब सवाल उठता है की भारतीय समाज मे आश्रम व्यवस्था का समावेश कब से हुआ है । कुछ विद्वानो का मत है की भारतीय समाज मे वैदिक काल से है आश्रम व्यवस्था विधमन थी । आश्रमो का विभाजन जैसे की पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है की प्राचीन भारतीय सिधान्त के अनुसार व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन को चार भागो मे विभाजित किया गया था ,जिन्हे चार आश्रम कहा गया है । वैदिक मान्यताओ के अनुसार व्यक्ति की ओसत आयु 100 वर्ष मनी गयी थी । इस मान्यता के अधार पर 25-25 वर्ष की अवधि को एक –एक आश्रम के रूप मे स्वीकार किया गया था । अर्थात जन्म से 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य आश्रम , 25 से 50 तक की आयु अवधि गृहस्थ आश्रम ,50 से 75 वर्ष तक की आयु वानप्रस्थ आश्रम तथा 75 से मुत्यु तक का काल सन्यास आश्रम माना गया था । आश्रम –व्यवस्था का उद्देश्य व्यक्ति द्वारा चारो पुरुषार्थ (धर्म,अर्थ,काम ,तथा मोक्ष ) समुचित प्राप्ति था । चारो आश्रमो के विधि –विधानों तथा महत्व का वर्णन प्रस्तुत है । ब्रह्मचर्य आश्रम –आश्रम –व्यवस्था का प्रथम आश्रम है ब्रह्मचर्य आश्रम का प्रारम्भ उपनयन-संस्कार से माना जाता था । शास्त्रो की मान्यताओ के अनुसार ब्राह्मण बालको का उपनयन संस्कार 8 वर्ष की आयु मे होता था । क्षत्रिय तथा वैश्य बालको का 11 से 12 वर्ष की आयु मे उपनयन संस्कार किया जाता था । उपनयन संस्कार से लेकर 25 वर्ष की आयु तक का काल ब्रह्मचर्य आश्रम माना जाता था । ब्रह्मचर्य आश्रम व्यक्ति के जीवन के विभिन्न पक्षो के लिए तैयारी का काल माना गया था । यह काल संयम ,नियन्त्रण एव अनुशासन का काल होता है । यौन –नियन्त्रण के अतिरिक्त हर प्रकर के अनुशासन सेवा –भाव ,कर्तव्य-पालन ।नैतिक एव चारित्रिक विकास ,शुद्धता तथा ज्ञानार्जन को ब्रह्मचर्य आश्रम के लिए अनिवार्य समझा गया है । इस काल मे बालक को गुरु के पास गुरु कुल मे ही रहना होता था । गुरुकुल मे पाहुचकर सर्वप्रथम गुरुकुल के नियमो की जानकारी दी जाती थी । तथा बालको को इन नियमो का पालन करना सिखया जाता था । गुरु की सेवा ,आज्ञा –पालन तथा नियमित संयमित जीवन का गुरुकुल जीवन मे सर्वाधिक महत्व होता था । गृहस्थ आश्रम आश्रम –व्यवस्था के अंतर्गत दूसरा आश्रम गृहस्थ आश्रम है । इस आश्रम का काल 25 से 50 वर्ष की आयु का काल माना गया है , परंतु व्यवहरिक रूप से यह आश्रम ब्रह्मचर्य आश्रम के उपरान्त संस्कारो से प्रारम्भ होता है यह आश्रम यथार्थ कर्म का आश्रम है । ब्रह्मचर्य आश्रम मे जो ज्ञान अर्जित किया जाता है उसे वास्तविक जीवन मे उतारा जाता है । गृहस्थ आश्रम से व्यक्ति के कर्तव्य एव दायित्व बढ़ जाते है । गृहस्थ का प्रथम कर्तव्य धर्म के अनुसार विवाह करके अपनी धर्म पत्नी से संतान उत्पन्न करना है । विवाह का उद्देश्य केवल भोग –विलास एव शारिरिक सुख प्राप्त करना नहीं माना गया बल्कि वंश परंपरा को बनाये रखना तथा पितृ ऋण से उऋण होना था । एक गृहस्थी के लिये अनिवार्य है की वह धर्म पूर्वक धन का उपार्जन (धन कमाना ) करे तथा उस धन से अपने परिवार का भरण –पोषण करे तथा अतिथियों का सत्कार करे । दान दे तथा समस्त सामाजिक दायित्वों को पूरा करे । धन का अनावश्यक सांचय नहीं करना चाहिए तथा अधार्मिक ढंग से धन का उपार्जन नहीं करना चाहिए गृहस्थ आश्रम का महत्व गृहस्थ आश्रम का महत्व न केवल स्वया व्यक्ति के लिए है बल्कि इस आश्रम का पूरे समाज अर्थात अन्य आश्रमो के लिए भी है शास्त्रो मे स्वीकार किया गया है की गृहस्थ जीवन मे पदार्पण किये बिना मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है । वानप्रस्थ आश्रम ;- आश्रम व्यवस्था का तीसरा आश्रम वानप्रस्थ आश्रम है । जब गृहस्थ आश्रम के कर्तव्य एव दायित्व पूरे हो जाये तब वानप्रस्थ मे पदार्पण करने का विधान है । सैद्धांतिक रूप से 50 वर्ष के उपरान्त वानप्रस्थ आश्रम प्रारम्भ होता है । व्यवहरिक रूप से निर्देश यह है की जब बाल सफ़ेद होने लगे शरीर की त्वचा ढीली पड़ने लगे तथा संतान की संतान उत्पन्न हो जाये तब वानप्रस्थ मे पदार्पण करना चाहिए । वानप्रस्थ का शाब्दिक अर्थ है –वन को प्रस्थान अर्थात सामान्य गृहस्थ जीवन को छोड़कर , मोहा ,माया को त्याग कर वन को प्रस्थान करना तथा सन्यास मे प्रवेश की तैयारी का आश्रम है । वानप्रस्थ का विधान के अनुसार व्यक्ति को घर त्याग देना चाहिए तथा जंगल मे कुटीया बना कर रहन प्रारम्भ कर देना चाहिये । वह चाहे तो पत्नी को साथ रखा सकता है परंतु पत्नी से यौन संबंधो का पूर्ण निषेध्द होता है । वानप्रस्थी के लिए निर्देश है की वह जमीन पर सोये , दिन मे केवल एक बार आहार ग्रहण करे , अन्न को त्याग कर फल –फूल तथा कन्द मूल ही खाये । जीवो पर दया करे एव उंकिन रक्षा करे तथा वानप्रस्थी का जीवन सदा एव सरल होना चाहिये । वानप्रस्थ आश्रम महत्व ;- वानप्रस्थ आश्रम का उद्देश्य शुद्धिकरण तथा सामाजिक –कल्याण है पारिवारिक दुष्टिकोण से भी वानप्रस्थ आश्रम का महत्व है । वानप्रस्थ आश्रम की मान्यताओ के अनुसार जब बेटो के बेटे हो जाए तो पिता को वानप्रस्थ ग्रहण करना चाहिए । इससे बेटो को परिवार का मुखिया बनने का अवसर प्राप्त हो जाता है । सन्यास आश्रम आश्रम व्यवस्था का चौथा तथा अंतिम आश्रम सन्यास आश्रम है । सिद्धांतिक रूप से 75 वर्ष की आयु मे शरीरिक मुत्यु तक का काल सन्यास आश्रम वानप्रस्थ आश्रम के उपरांत की स्थिति है अंत जब वानप्रस्थी पूरी तरह से मोहा -माया से मुक्त हो जाये तो वह सन्यास आश्रम मे प्रवेश कर सकता है । कुछ का मत है की यदि गृहस्थ आश्रम से ही पूर्णतया संयम तथा आत्मा -नियंत्रण प्राप्त कर लिया जाये तो व्यक्ति सीधे ही सन्यास आश्रम मे सकता है । सन्यासी का एक मत पुरुषार्थ ,मोक्ष प्राप्त करना ही रहा जाता है । सन्यासी के लिए हर प्रकार के त्याग का विधान है । सन्यासी का न तो कोई स्थायी निवास होता है और न ही निश्चित जीवन । वह तो परिव्राजक हो जात है शरीर को चलाने के लिए भिक्षा द्वारा प्राप्त अल्प आहार ही ग्रहण किया जाता है किसी प्रकार की संचय की प्रवृती नहीं होनी चाहिए । तथा वृक्ष के नीचे निवास करना ,आत्मा ज्ञान की साधन ,किसी भी जीव से लगाव न रखना प्राणायाम द्वारा इंद्रिय निग्रह ततः सुख -दुख से परे रहना सन्यासी के मुख्य धर्म माने गए है इसी प्रकार सन्यासी का सामाजिक तथा सांसरिक जीवन समाप्त हो जाता है । कुछ शास्त्रो के अनुसार जब व्यक्ति के शारीरिक मुत्यु के के समय उसका दाह संस्कार नहीं बल्कि समाधि संस्कार करना चाहिये । सन्यास आश्रम का महत्व यदि व्यवहरिक दुष्टि से देखा जाये तो ऐसा प्रतीत होता है की क्योंकि सन्यासी का एक मत पुरुषार्थ मोक्ष प्राप्ति है अंत: आश्रम का केवल व्यक्ति के लिए महत्व है तथा अन्य आश्रमो या पूरे समाज के लिए सन्यासी का कोई महत्व नहीं है सामाजिक जीवन मे सन्यासी का कोई महत्व भी नहीं होता है ।
- साइमन आयोग | SIMON COMMISSION
SIMON COMMISSION www.lawtool.net साइमन आयोग प्रांत में द्वैध शासन की विफलता और भारतीय लोगों में असंतोष के परिणामस्वरूप भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक आंदोलन हुआ। यह 1927 में अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गया। ब्रिटिश सरकार इस स्थिति से अवगत है, जिसे साइमन कमीशन नामक एक आयोग नियुक्त किया गया। इस आयोग पर भारत सरकार अधिनियम 1919 के वास्तविक कामकाज की जांच करने और एक जिम्मेदार सरकार स्थापित करने की संभावना का पता लगाने के तरीकों और साधनों को इंगित करने का कर्तव्य था, आयोग के पास कोई भारतीय प्रतिनिधि नहीं था। I929. में रिपोर्ट 1930 में प्रकाशित हुई थी। आयोग ने सिफारिश की थी कि गवर्नर-जनरल को एक अमेरिकी राष्ट्रपति की शक्तियाँ दी जानी चाहिए। वह न होते हुए भी और अधिक शक्तिशाली बन सकता है विधायिका के प्रति उत्तरदायी है। आयोग की रिपोर्ट को देशद्रोही घोषित किया गया और सभी भारत में राजनीतिक दलों ने इसकी निंदा की और इसका बहिष्कार किया। आयोग एक अखिल भारतीय संघ के खिलाफ था। भारत की मांगों की अनदेखी की गई। नतीजतन, आयोग विफल रहा। नेहरू समिति साइमन कमीशन के उचित जवाब के रूप में, मोतीलाल नेहरू ने भारतीय आकांक्षाओं को समेकित करने और ब्रिटिश सरकार को रिपोर्ट करने के लिए एक समिति का गठन किया। साइमन कमीशन ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त एक आधिकारिक निकाय था, लेकिन नेहरू समिति एक निजी राजनीतिक संस्था थी जो भारतीय भावनाओं और मांगों को व्यक्त करने के लिए स्व-नियुक्त थी। समिति ने निम्नलिखित सिफारिशें कीं। इसने भारत में एक अखिल भारतीय संघ और एक सर्वोच्च न्यायालय के गठन की जोरदार सिफारिश की। इसने भारतीय हाथों में शक्तियों के तत्काल हस्तांतरण का आह्वान किया। राजनीतिक समाधान के उद्देश्य से पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को एक जैविक इकाई के रूप में माना जाना चाहिए। केंद्र और प्रांतों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया। भाषाई, सांस्कृतिक और धार्मिक अल्पसंख्यकों को भारतीय एकता के आधार पर देखा जाना चाहिए। इसने 19 मौलिक अधिकारों को सूचीबद्ध किया।इसने पृथक निर्वाचन प्रणाली को समाप्त करने की सिफारिश की। नेहरू समिति की इस सराहनीय रिपोर्ट का अपना ही जबरदस्त प्रभाव था। वास्तव में, इसने वास्तव में भारतीय लोगों की आकांक्षाओं को प्रतिबिम्बित किया था। गोलमेज सम्मेलन : साइमन कमीशन की विफलता और नेहरू समिति की रिपोर्ट के प्रभाव ने शायद भारत पर ब्रिटिश सोच को रंग दिया। पहले आर.टी.सी. जो इंग्लैंड में मिले, एक उदास माहौल से गुजरा। भारत में सविनय अवज्ञा आंदोलन ने भी एक तनाव पैदा कर दिया था क्योंकि भारत से लंदन में रिपोर्ट आने लगी थी। प्रधान मंत्री मैकडोनाल्ड ने विषयों का सुझाव दिया 1. फेडरेशन 2.प्रांतीय स्वायत्तता 3. केंद्र में आंशिक जिम्मेदारी। इन पर चर्चा हुई। बीकानेर के महाराजा ने सुझाव दिया कि वे अखिल भारतीय संघ में सहयोग करेंगे। ब्रिटिश संसद ने भी फेडरेशन को मंजूरी दी लेकिन इसने मामलों को स्थगित कर दिया। परिणामस्वरूप प्रथम आर.टी.सी. एक विफलता थी। पहले की विफलता के कारण दूसरे आर.टी.सी. जो लंदन में मिले थे। गांधी-इरविन समझौते के बाद, गांधी को जेल से रिहा कर दिया गया। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में प्रतिनिधित्व किया। राजकुमारों ने राज्यों का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने भारत में रहते हुए गांधीजी को भारतीय संघ बनाने में सहयोग का आश्वासन दिया था। लेकिन, लंदन में गोलमेज सम्मेलन में उनके द्वारा एक नाटकीय कदम उठाया गया था। वे एक संघ के विचार के खिलाफ खड़े थे। गांधीजी को बहुत निराशा हुई और उन्हें सम्मेलन की अल्प उपलब्धियों पर ही संतोष करना पड़ा। वह बहुत दुखी मन से भारत लौट आया। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को सूचना दी कि उन्होंने कुछ हासिल नहीं किया है, लेकिन उन्होंने कहा, उन्होंने भारतीय लोगों की प्रतिष्ठा और सम्मान को कम नहीं किया है। दूसरा सम्मेलन असफल रहा। इससे तीसरे आर.टी.सी. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा सम्मेलन की निंदा की गई और गांधीजी ने इसमें भाग लेने से इनकार कर दिया। इसमें जोड़ा गया, लेबर पार्टी मेंइंग्लैंड ने भी भाग नहीं लिया। नतीजा यह हुआ कि सम्मेलन ने अपने विचार-विमर्श किए और अंत में निम्नलिखित आधार पर भारत के लिए एक नया संविधान बनाने के लिए कुछ निष्कर्षों पर पहुंचे। (i) कम से कम पचास प्रतिशत भारतीय राज्यों को भारतीय संघ में शामिल होना चाहिए। (ii) मुसलमानों को केंद्रीय विधानमंडल में एक तिहाई प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए। ये और अन्य प्रस्ताव 1933 के श्वेत पत्र में सन्निहित थे। संयुक्त प्रवर समिति ने भी घोषणा की एक संघ के पक्ष में। इसके आधार पर भारत सरकार अधिनियम पारित किया गया।
- बौद्ध नैतिक दर्शन
बौद्ध नैतिक दर्शन के चार आर्य सत्य एव अष्टांग मार्ग www.lawtool.net गौतम बुद्ध का यह मत था की दुख से मुक्ति ईश्वर ,आत्मा ,जगत सम्बन्धी दार्शनिक समस्याओ मे उलझने अथवा इसके विषय मे वाद –विवाद करने से नहीं अपितु आचरण की शुद्धता और दुख –निरोध प्रयास द्वारा ही संभव है । अंत उन्होने सभी दार्शनिक प्रशोनों को अव्याकृत –अर्थात न पूछे जाने योग्य ---कहकर अपने शीष्यों को उनमे न उलझने का उपदेश दिया । ईश्वर तथा आत्मा का अस्तित्व है या नहीं ,यदि ईश्वर और आत्मा की सत्ता है तो इनका स्वरूप क्या है यह जगत शाश्वत है अथवा नश्वर । इन दार्शनिक प्रश्नो के संबंध मे वाद विवाद काना वे निरर्थक ही मानते थे । उनका विचार था की संसार मे जिस दुखा की सत्ता निर्विवाद है उससे मुक्ति पाने के लिए प्रयास करने से पूर्व मनष्य का ऐसे दार्शनिक प्रश्न पूछना उसी प्रकर निरर्थक है । जिस प्रकार तीर से घायल किसी व्यक्ति का यह कहना की मैं अपने शरीर से इस तीर को तभी निकाल दूंगा ,जब मुझे यह बात दिया जाए की तीर चलाने वाले व्यक्ति की लंबाई ,मोटाई ,जाती ,आयु ,आदि क्या थी ?इस प्रकार दार्शनिक प्रश्नो के विवाद मे न पड़कर गोतम बुद्ध ने अपना संपूर्ण ध्यान संसार मे विधमान दुख तथा उससे मुक्ति प्रप्ता करने के उपायो पर ही केंद्रित किया । चार आर्य सत्या (Fourfold Noble Truth ) आचरण की शुद्धि तथा दुख से मुक्ति के लिए गोतम बुद्ध ने मनुष्य को जिस मार्ग का अनुसरण करने की शिक्षा दी है ,उसे अष्टांग मार्ग कहा जाता है । इस अष्टांग मार्ग का वर्णन उन्होने चार आर्य सत्यों के अंतर्गत किया है जो इस प्रकार है ;- · संसार मे सर्वत्र दुख है । · इस व्यापक दुख का क्या कारण है । · दुख का विनाश अथवा निरोध सम्भव है । · दुख का विनाश अथवा निरोध करने का मार्ग है । बौद्ध –दर्शन मे इन चार आर्य सत्यों का बहुत महत्व है ,क्योंकि इस दर्शन का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को दुख से मुक्त होने का मार्ग बताना है । इन चार आर्य सत्यों का वर्णन निम्नलिखित है । प्रथम आर्य सत्या है संसार मे सभी प्राणियों का जीवन दुखमय है । जन्म ,वृद्धावस्था ,रोग ,मुत्यु , इच्छित वस्तु का प्राप्त न होना ,प्राप्त सुख नष्ट हो जाना ,अप्रिय वस्तुओ एव व्यक्तियों के साथ संपर्क ।प्रिय वस्तुओ और व्यक्तियों से वियोग आदि सभी दुखपूर्ण है । समस्त प्राणियों को अनेक प्रकार के रोग अथवा कष्ट घेरे रहता है । इस प्रकार संसार मे दुख की व्यापकता निर्विवाद है । दूसरा आर्य सत्य यह है की यह व्यापक दुख अकारण नहीं है इसका कोई कारण है । बुद्ध ने दुख के बाहर कारणो की श्रंखला बताई है । जिसमे अविधा को इसका प्रथम और मूलकरण माना गया है । बौद्धदार्शनिक के मतानुसार अविधा का अर्थ है आत्मा के स्वरूप तथा चार आर्य सत्यों को ठीक ठीक न जानना । दुख के इस मूल कारण अविधा के अतिरिक्त अन्य ग्यारह कारण है ---संस्कार ,विज्ञान ,नाम-रूप षडायतन ,स्पर्श ,वेदना ,तुष्णा ,उपदान ,भाव ,जाती ,और जरा –मरण । दुख के आदिकारण अविधा को छोड़कर शेष सभी कारण एक दूसरे से उत्पन्न होते है । उदहारणर्थ अविधा संसार मे जीवित रहने के संस्कारो को उत्पन्न करती है जिनके कारण प्राणी को बार –बार जन्म लेना पड़ता है । इन संस्कारो के कारण विज्ञान अथवा चेतना की उत्पाती होती है जिसके फलस्वरूप प्राणी जीवित रहता है। और दुख भोगता है । विज्ञान या चेतना के कारण प्राणी नाम –रूप अथवा आकार ग्रहण करते है । नाम –रूप से षडायतन ---अर्थात मन –अंखे नाक ,कान और जिंहा -त्वचा इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों की उत्पाती होती है । जिनके द्वार प्राणी सांसरिक वस्तुओ के संपर्क मे आता है । षडायतन के फलस्वरूप प्राणी स्पर्श –सुख का अनुभव करता है । जो वेदन –अर्थात इंद्रियजन्य सुखनुभूति को जन्म देता है । वेदन के कारण प्राणी मे तुष्णा अथवा संसार मे जीवित रहने और सुख भोगने की इच्छा उत्पन्न होती है जो उपदान –अर्थात सांसरिक वस्तुओ तथा स्त्री संतान आदि के प्रति आसवित को जन्म देती है । यह उपादान प्राणी मे भाव अथवा पुनर्जन्म की इच्छा को उत्पन्न करता है जिसके कारण उसे संसार मे पुनः जन्म –जिसे जाती कहा गया है ---लेना पड़ता है और इस जाती अथवा जन्म के फलस्वरूप उसे जरा –मरण संबंधी अनेक कष्ट भोगने पड़ते है दुख के उक्त बारह कारणो को ही भवचक्र माना गया है और इन्हे दावदश निदान भी कहा गया है । तीसरा आर्य सत्या यह है की दुख का निरोध अथवा विनाश संभाव है । बुद्ध यह मानते थे की मनुष्य दुख से मुक्ति प्राप्त कर सकता है यदि दुख उपर्युक्त समस्त कारणो को भली भांति समझकर उनका नीराकारण कर दिया दिया जाए तो वह स्वत: नष्ट हो जाएगा और मनुष्य सदा के लिए उससे मुक्त हो जाएगा । वस्तुत: बुद्ध के मतानुसार अन्य सभी वस्तुओ की भांति दुख भी अनित्य अथवा नश्वर है और उचित उपायो द्वारा इसे नष्ट करके मनुष्य इससे मुक्ति प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार मनुष्य के लिए सदैव दुख भोगते रहना अनिवार्य नहीं है । चौथा और अन्तिम आर्य सत्या यह है की दुख के विनाश अथवा निरोध का मार्ग है । इस आर्य सत्या का विशेष महत्व है ,क्योकि इसमे बुद्ध ने दुख –निरोध का उपाय अथवा मार्ग बताया है । अष्टांग मार्ग दुख निरोध के उक्त मार्ग हो अष्टांग मार्ग कहा गया है । दुख से मुक्ति प्राप्त करने के इच्छुक प्रत्येक मनुष्य के लिए इस अष्टांग मार्ग मे आचरण सम्बन्धी आठ नियमो का पालन करना अनिवार्य माना गया है । जो निम्नलिखित है ;- सम्यक् ज्ञान अथवा दुष्टि --- बुद्ध द्वारा बताए गए चार आर्य सत्यों को भली भांति समझना । सम्यक् संकल्प ---हिंसा ,लोभ ,मोहा ,क्रोध आदि समस्त दुर्गुणों का परित्याग करके अपने आचरण को सदैव पवित्र रखने का संकल्प सम्यक् वचन –कभी झूठ न बोलाना , किसी की चुगली न करना , तथा किसी को कटु वचन न कहना सम्यक् कर्मान्त ----हिंसा ,वासना ,तृप्ति आदि से सम्बन्धीत समस्त दुष्कर्मो का परित्याग करते हुए सदैव शुभ कर्म करना । यह नियम कपट ,धोखा ,चोरी ,जालसाजी आदि सभी प्रकार के दुष्कर्मो का निषेध करता है । सम्यक् आजीव---केवल उचित और न्यायपूर्ण उपायो द्वार ही जीविकोपार्जन करना । इस नियम के अनुसार जीविका कमाने के लिए मनुष्य को ऐसे कोई कार्य नहीं करना चाहिए जो नैतिकत के विरुद्ध हो । सम्यक् व्यायाम ----मन –मे उत्पन्न होने वाली समस्त दूर्भावनाओ का दमन करके ,उनके स्थान पर सदभावों तथा अच्छे विचारो को उत्पन्न करने का प्रयास करना । सम्यक् स्मृति-यह सदा स्मरण रखना की मन मन है और शरीर शरीर है इत्यादि । दूसरे शब्दो मे वस्तुओ के वास्तविक स्वरूप का स्मरण रखना । अन्यथा हम शरीर वासना इत्यादि जैसे को नित्य एव मूल्यवान समझकर उनके प्रति आसक्ति का अनुभव करने लगेगा। सम्यक् समाधि ----हर्ष –विषाद ,राग –देव्ष आदि सभी प्रकार के सांसरिक से मुक्त होकर चित्त की पूर्ण एकाग्रता का प्राप्त करना । बुद्ध का कथन है की उपर्युक्त सभी नियमो का निष्ठापूर्वक पालन करके मनुष्य दुख से मुक्ति प्राप्त कर सकता है । इसी कारण इन नियमो को दुख निरोध का मार्ग माना गया है मानव –जीवन के लिए बुद्ध के इस अष्टांग मार्ग का बहुत महत्व है । क्योंकि इसमे अतिशय भोगवाद तथा अत्यधिक कठोर सनयसवाद इन दोनों अतिवादी दुष्टिकोण का परित्याग करके मुक्ति के लिए मनुष्य को संतुलन माध्यम मार्ग का अनुसरण करने का उपदेश दिया गया है । वस्तुत ; दुख से मनुष्य की मुक्ति के लिए बुद्ध उस कठोर सनयसवाद को उचित नहीं मानते जिसका समर्थन जैन –दर्शन ने किया है । उनका विचार है की मुक्ति के लिए कठोर सनयसवाद भी उसी प्रकार त्याज्य है जिस प्रकार अतिशया भोगवाद । मनुष्य को इन दोनों के बीच का मार्ग अपनाते हुए न तो भोग –विलास मे अत्यधिक लिप्त होना चाहिए और न कठोर तपस्या द्वरा शरीर को अत्यधिक कष्ट देना चाहिए । निर्वाण बुद्ध ने मोक्ष को निर्वाण कहा है जिसे प्राप्त करने के पश्चयत समस्त सांसरिक बंधनो तथा दुखो से मुक्ति मिल जाती है । निर्वाण –प्राप्ति के उपरांत मनुष्य की क्या स्थिति होती है ? इस संबंध मे बुद्ध का मत स्पष्ट नहीं है । यह कहा जाता है की उन्होने निर्वाण की अवस्था की तुलना दीप –शिखा के बुझने तथा अग्नि मे जलने वाले ईंधन के नि;शेष हो जाने से की थी । निर्वाण का अर्थ है ठंडा हो जाना अथवा बुझ जाना है पंचशील · प्रणतिपात विरति ---हिंसा से विरत रहना । या हिंसा से दूर रहना · अदन्तादान विरति –प्राप्त न होने वाली वस्तु को न लेना या चोरी करना । · कममिथ्याचार विरति –काम तथा झूठे आचार से दूर रहना · मुशवाद विरति –झूठ से दूर रहना · सूरामैरयप्रमादस्थान विरति ---नशीली वस्तुओ तथा आलस्य से दूर रहना । ।
- जैन नैतिक दर्शन
जैन नैतिक दर्शन www.lawtool.net परिचय -जैन नैतिक दर्शन मे पाँच महाव्रतो का पालन कठोरता पूर्वक करना जैन आचार्यो ने अनिवार्य माना है । इसी प्रकार गृहस्थों के जैन नैतिक दर्शन मे अनुव्रतो का पालन करना अनिवार्य माना है जिसे अपने दैनिक जीवन मे कुछ वीशेष नैतिक नियमो का पालन करना अवशयक माना है तथा इन नैतिक नियमो को अनुव्रत कहा गया है । जैन नैतिक दर्शन के पाँच महाव्रत है महाव्रत अहिंसा –जैन दर्शिंनिकों के मातानुसार अपने शब्दो ,कर्मो अथवा विचारो द्वारा किसी प्राणी को कभी भी किसी प्रकार का कष्ट न पाहुचना ही अहिंसा है महाव्रत सत्या—सत्या का पालन करने का अर्थ है शब्दो या कर्मो द्वारा प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कभी भी किसी तथ्य को न छिपाना तथा छिपाने का विचार भी न करना ही सत्य है महाव्रत अस्तेय –तीसरा महाव्र्त अस्तेय है जिसका अर्थ है किसी भी परिस्थिति मे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी प्रकार की चोरी न करना चोरी करने मे किसी की सहायता न करना तथा चोरी का विचार भी न करना ही अस्तेय कहलाता है । महाव्रत अपरिग्रह—चौथा महाव्रत अपरिग्रह का अस्तेय से बहुत घनिष्ठ संबंध है सूखा भोग के लिए सभी संसारीक वस्तुओ का संचय न करना ही अपरिग्रह कहलाता है महाव्रत ब्रह्मचर्या –ब्रह्मचर्य का अर्थ है मनुष्य को किसी भी प्रकार की वासना मे लिप्त न होना तथा लिप्त होने का विचार भी न करना तथा इस महा व्रत का कठोरतापूर्वक पालन करने के लिए समस्त वासनाओ का पूर्णरूप से दमन करना अनिवार्य है इन पाँच महाव्रतो के उपर्युक्त विवाचन से स्पष्ट है की जैन आचार्यो सन्यासी के लिए समस्त कामनाओ ,इच्छाओ तथा इंद्रियसुखो को पूर्णत:त्याज्य मानते है इसी कारण जैन दर्शन को केवल निवृत्ति मार्ग का प्रचार और समर्थन करने वाला दर्शन माना जाता है । अनुव्रत अहिंसा–जान –बूझकर जीवो की हत्या न करना ,गर्भपात न करना ,एसी किसी संस्थों मे समिलित न होना जिसका उददेश्य किसी प्रकार की हिंसा न हो सत्या- न्यायलय मे झूठी गवाही न देना और किसी के विरुद्ध झूठा मुकदमा पेश न करना द्वेष अथवा लाभ की कमान से प्ररित होकर किसी के रहस्यो का उदघाटन न करना किसी व्यक्ति के साथ किसी भी प्रकर का कपट अथव धोखा न करना इत्यादि सत्या है अस्तेय –किसी की कोई भी वस्तु न चूरना चुराई हुई वस्तु को खरीदने या बेचने मे सहायता न देना और स्वया कभी भी एसी वस्तु न खरीदना ,चोरी मे प्रत्येक्ष अथवा परोक्ष रूप से किसी की सहायता न करना , अपने हित के लिए किसी संस्था के धन का कभी उपयोग न करना ही अस्तेय है अपरिग्रह ---अपनी आवश्यकता से अधिक धन तथा वस्तुओ का संचय न करना , किसी प्राकर की रिशवत न देना न लेना , धन प्राप्त करने के लोभ से किसी रोगी की चिकित्सा मे विलम्ब न करना सगाई तथा विवाह मे किसी प्राकर का दहेज स्वीकार न करना ही अपरिग्रह है ब्रह्मचर्या–महव्रत ब्रहमचर्या के साथ निम्नलिखित अनुव्रत जुड़े है वेश्या वृति तथा अन्य किसी भी प्रकार का व्यभिचार न करना ,कम से कम 18 वर्ष की आयु तक पुर्ण ब्रह्मचर्या का पालन करना तथा 45 वर्ष की अवस्था के पश्चात विवाह न करना इत्यादि । जैन आचार्यो के मतानुसार सभी ग्रहस्थों के लिए उपर्युक्त समस्त अनुव्रतो का पालन करना आनिवार्य है जैन त्रिरत्न जैन दार्शनिको का मत है की मनुष्य के लिए मोक्ष का मार्ग अत्यंत कठिन है । इस मार्ग का अनुसरण करने के लिए शुद्ध आचरण ,त्यागमय जीवन ,पुराण वैराग्य तथा कठोर तपस्या की आवश्यकता है । जैन दार्शनिको ने त्रिरत्नों – · सम्यक दर्शन , · सम्यक ज्ञान , · एव सम्यक चरित्र सम्यक दर्शन –जैन तीर्थकरो द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों मे अखंड आस्था रखना । तीर्थकरो द्वार बताए गए नियमो तथा सिद्धांतों का आध्यान करके उन्हे भली –भांति समझ लेना ही सम्यक ज्ञान है । और अपने दैनिक जीवन मे तीर्थकरो द्वार प्रतिपादित नियमो तथा सिद्धांतों का सदा निष्ठापूर्वक पालन करना ही सम्यक चरित्र है लेकिन जैन दार्शनिको का मत है की मोक्ष अथवा कैवल्य की प्राप्ति के लिए सम्यक दर्शन , सम्यक ज्ञान , और सम्यक चरित्र –ये तीनों ही अनिवार्य है इन तीनों का श्रद्धापूर्वक पालन कने के लिए मनुष्य को सभी प्रकार के अहंकारों से पूर्ण मुक्त होना चाहिये । इस का संबंधा मे जैन आचार्यो ने आठ प्रकार के अहंकारों का उल्लेख किया है । जिनसे मुक्त होना उन्होने मानुष्य के लिए आवश्यक माना है । ये आठ प्रकार के अहंकार है । · धार्मिकता का अहंकार · वंश का अहंकार · जाती का अहंकार · बुद्धि का अहंकार · शारीरिक शक्ति का अहंकार · अपने रूप तथा सोन्दर्य का अहंकार · चमत्कार दिखने वाली शक्तियों का अहंकार · योग तथा तपस्या का अहंकार जैन दार्शनिक का मत है की इन सभी अहंकारों से मुक्त होकर ही मानुष्य कैवल्य –प्राप्ति के पाठ पर अग्रसर हो सकता है । जैन की गुप्ती आत्मन या आत्मा में कर्म का प्रवाह शरीर, वाणी और मन की गतिविधियों के कारण होता है: तो संन्यासियों गुप्ती निरीक्षण करने के लिए, सख्त नियंत्रण यह काफी जरूरी है. तीन गुप्ती एक आंतरिक स्वभाव को नियंत्रित करने के लिए है तथा स्वयं पर नियंत्रण के सिद्धांतों से निर्धारित होते हैं. · मनो गुप्ती - केवल शुद्ध विचार करने के लिए इस तरह के रूप में मन के विनियमन है. · वाचिक गुप्ती - भाषण के नियमन होता है, यह एक विशेष अवधि के लिए मौन अवलोकन होता है · कायिक गुप्ती- किसी की शारीरिक गतिविधि के विनियमन है.
- राजनीतिक संस्कृति तथा राजनीतिक समाजीकरण
राजनीतिक संस्कृति से क्याआशय है ? इसके तत्त्वो एवं भागो ( components ) की व्याख्या कीजिए। वर्तमान समय मेंराजनीति विज्ञान में जिननवीन अवधारणाओं ने प्रवेश प्राप्त किया है उनमें राजनीतिक संस्कृति निश्चित रूप से प्रमुख है ।संस्कृति की धारणा मूलतः मानवशास्त्र औरसमाजशास्त्र से सम्बन्धितहै । इसकेअन्तर्गत व्यक्ति व्यवहार केतरीके , उसकी मान्यताओं , सम्मान , कर्तव्य , अन्तरात्मा औरभौतिक उन्नति , आदिको सम्मिलित कियाजाता है ।ये सभी बातेंराजनीतिक क्षेत्र में भीअपना अस्तित्व रखतीहै और सामाजिक , आर्थिक , आदि जीवनके अन्य क्षेत्रोंमें भी ।संस्कृति राजनीतिक प्रसंग मेंआती है तोउसे राजनीतिक संस्कृतिकि संज्ञा दीजाती है तथापिराजनीतिक संस्कृति को समस्तसंस्कृति के सन्दर्भमें ही समझाजा सकता है। आमण्डऔर पॉवेल केअनुसार , " राजनीतिक संस्कृति किसीराज - व्यवस्था केसदस्यों में राजनीतिके प्रति व्यक्तिगतअभिवृत्तियों और दिग्विन्यासोंका नमूना है। " बॉल केशब्दों में राजनीतिकसंस्कृति उन अभिवृत्तियों , विश्वासों , भावनाओं और समाजके मूल्यों सेमिलकर बनती है , जिनका सम्बन्ध राजनीतिक पद्धतिऔर राजनीतिक प्रश्नोंसे होता है। " हीज युलाऊके मतानुसार , " राजनीतिकसंस्कृति उन रूपोंकी ओर इशाराकरती है जिनकापूर्व अनुमान समूहोंके राजनीतिक व्यवहारसे तथा एकसमूह के सदस्योंके सामान्य विश्वासों , नियामक सिद्धान्तों , उद्देश्यों एवं मूल्योंसे लगाया जासकता है चाहेउस समूह काआकार कुछ भीक्यों न हो। सिडनीवर्बा ने राजनीतिकसंस्कृति के विभिन्नपहलुओं का ध्यानमें रखते हुएइसकी व्यापक परिभाषादी है ।उसके अनुसार , राजनीतिकसंस्कृति में आनुभविकविश्वासों , अभिव्यक्तात्मक प्रतीकों और मूल्योंकी व्यवस्था निहितहै जो उसपरिस्थिति अथवा दशाको परिभाषित करतीहै जिसमें राजनीतिकक्रिया सम्पन्न होती है। ' लुसियन पाईके द्वारा राजनीतिकसंस्कृति की बहुतअधिक रोचक एवंविस्तृत व्याख्या की गयीहै । उनकेअनुसार राजनीतिक संस्कृति कीअवधारणा बताती है किकिसी सम जकी परम्पराएँ उसकीसार्वजनिक संस्थाओं की आत्मा , उसके नागरिकों की आकांक्षाएँऔर उनका सामूहिकविवेक तथा उसकेनेताओं के तरीकेऔर सक्रिय होनेके नियम , आदिकेवत - ऐतिहासिक अनुभव कीऊटपटाँग उपज नहींहै , वरन् येसब एक अर्थपूर्णसम्पूर्ण व्यवस्था के अंगहैं और सम्बन्धोंका एक बोधगम्यत्या स्पष्ट तानाबानाउपस्थित करते हैं। राजनीतिकसंस्कृति व्यक्ति के लिए प्रभावशील राजनीतिक व्यवहार की दिशा में मार्ग - निर्देशन करती हैऔर समाज केलिए यह उनमूल्यों तथा विवेकपूर्णविचारों को व्यवस्थितरूप रचना प्रदानकरती है जोकि संस्थाओं औरसंगठनों के कार्यकलापोंमें मेल यासंगति बैठाते हैं। याई विषयको स्पष्ट करतेहुए आगे लिखतेहैं कि राजनीतिकसंस्कृति एक राजनीतिकव्यवस्था के सामूहिकइतिहास की उपजहै और उनव्यक्तियों की जीवनगाथाओं की उपजहै जिन्होंने हालही में इसव्यवस्था को बनायाहै । इसप्रकार राजातिक संस्कृति कीजड़ें सार्वजनिक घटनाओंऔर व्यक्तिगत अनुभवोंमें समान रूपनिहित हैं । राजनीतिकसंस्कृति के निर्माणकारीतत्त्व ( Creative Factors of Political Culture ) किसी भी देशकी राजनीतिक संस्कृतिको जानने केलिए वहाँ केराजनीतिक इतिहास को जाननाआवश्यक है , वैसेऔर भी कईतत्त्व राजनीतिक संस्कृति केनिर्माण में प्रभावकारीहोते हैं जोनिम्न प्रकार है। ऐतिहासिक विकास ( Historical Development ) : लुसियन पाई कामत है कि , “ राजनीतिक संस्कृति की धारणायह मानती हैकि प्रत्येक व्यक्तिको अपने ऐतिहासिक प्रसंग में अपनेसमाज और उसकेलोगों की राजनीतिके बारे में ज्ञान तथा भावनाओं को जानना तथा अपने व्यक्तित्व में संयुक्त करना चाहिए। प्रत्येक पीढी राजनितिक शिक्षा पूर्व पीढी से सिखती है किसी भी देशकी प्राचीन राजनीतिक संस्कृति का प्रभाव उसकी वर्तमान स्थितिपर आवश्यक रू पसे पडता है। उदाहरण के लिये . इग्लैण्ड में राजनीतिक संस्कृति वहाँ कीराजनीतिक अनवरतता ( Political continuity ) का परिणाम है । जब कि फ्रांस राजनीतिक संस्कृति फ्रांसकी क्रान्ति कापरिणाम है । इसी प्रकार रूसऔर चीन कीराजनीतिक संस्कृति पर समाजवादीक्रान्ति प्रभाव है । भौगोलिक स्थिति ( Geographical Condition ) : भौगोलिकस्थिति राजनीतिक संस्कृति केनिर्माणकारी वों मेंमहत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। संयुक्त राज्यअमरीका में रंग - भेद के होतेहुए भी उसकीविशाल सीमाओं तथाविशिष्ट मलिक स्थितिने स्वतन्त्रता तथासमानता के मूल्योंको विकसित होनेमें योग दियाहै । इसीप्रकार भारत मेंअनेक धर्म , भाषा , तरंग आदि केहोते हुए भीसभी एक साथरह सकते हैं। इसके विपरीतअफ्रीकी राष्ट्र अधिक गरमहैं और आकारमें छोटे वहाँसत्ता बन्दूक कीनोंक पर होनामामूली - सी बातहै । इसकेपीछे भौगोलिक स्थितिऔर जलवायु काप्रभाव होता है। सामाजिकतथा आर्थिक संरचना ( Social and Economical Structure ) : सामाजिकतथा आर्थिक चनाका भी राजनीतिकसंस्कृति के निर्माणमें महत्त्वपूर्ण योगदानहै । सामाजिकतथा आर्थिक दृष्टिसे श्रेष्ठ समाजअपने यहाँ वराजनीतिक संस्कृति को जन्मदेता है ।जिससे प्रजातान्त्रिक शासनव्यवस्था सफलतापूर्वक चलती है। इंग्लैण्ड औरअमरीका राज्य व्यवस्था इसीप्रकार की है। जबकि एशियाऔर अफ्रीका केकई देशों मेंलोकतंत्र प्रणाली असफल होचुकी है । राजनीतिक स्थिरता ( Political Stability ) : राजनीतिकअस्थिरता के वातावरणमें राजनीतिक संस्कृतिका कास नहींहो सकता है , इसलिए राजनीतिक संस्कृति केविकास तथा कानूनऔर व्यवस्था बनाएरखने के लिएराजनीतिक यस्ता आवश्यक है। उदाहरण केलिए भारत औरपाकिस्तान एक साथआजाद हुए ।भारत में राजनीतिकस्थिरता रही , गामस्वरूप जनतन्त्रके प्रति जनताके मन मेंआस्था सुदृढ हुईहै जबकि पाकिस्तानमें राजनीतिक अस्थिरतारही है औरआज वहाँ राजनीतिकसंस्कृति का विकाससिसक रहा है। धार्मिकविश्वास ( Religious Beliefs ) : धार्मिक विश्वास ने भीराजनीतिक संस्कृति के विकासमें प्रभाव ताहै । धर्मान्धताभाग्यवादिता को जगातीहै और भाम्यवादीव्यक्ति सभी कुछईश्वर की देनेऔर भाग्य कीनिवति मानकर चुपवाता है ।ऐसी स्थिति मेंराजनीतिक परिवर्तन सरलता सेसंभव नहीं होताहै । हिन्दूधर्म में सहिष्णुताहै , उसमें विरोधियोंको न करनेकी क्षमता हैजबकि इस्लाम धर्मकट्टर है , उसमेंविरोधी को बर्दाश्तनहीं किया जाताहै । यहीकारण है किमुस्लिम में लोकतान्त्रीकप्रणाली सफल नहींहुई है । अन्य तत्त्व ( Other Factors ) : इनके अतिरिक्त शिक्षा कास्तर जहाँ उच्चहोगा , वहाँ जनतन्त्रप्रणाली थिक सफलहोगी और जहाँअशिक्षा का बोलबालाहोगा , वहाँ राजतन्त्रया सैनिक शासनअधिक सफल होगातथा नस्ल कीस्यता भी प्रभावीहै । जोनस्ल प्रगतिशील विचारों , उदारता , परिवर्तनशील प्रकृति मेंविश्वास करती हैवह लोकतंत्र मेंरह ती हैलेकिन जहाँ अपनेधर्म , भाषा , रीति - रिवाजके दायरों मेंरहना ही सबकुछ समझ लियाहै वहाँ लोकतंत्रसफल नहीं पाताहै । राजनीतिकसंस्कृति के भाग ( Components of Political Culture ) राजनीतिकसंस्कृति के दोभाग है - ( १ ) अभिमुखीकरण अथवा अनुकूलन ( Orientation ) - डेनिश क्वानाग के मतानुसार , " अभिमुखीकरण मीतिक क्रिया केप्रति - व्यवस्था ( Pre - Disposition ) है औरपरम्पराओं , ऐतिहासिक स्मृतियों , उद्देश्यों , मानों ( Norms ) , वनाओं और चिह्नोंद्वारा निर्धारित होते हैं। रॉबर्ट ए . डहल के मतानुसार , राजनीतिक संस्कृति के अग्रपाँच अभिमुखीकरण है १. समस्याओं के समाधानकरने के अभिमुखीकरण ( Orientation of Problems solving ) २. सामूहिक कार्य करने केप्रति अभिमुखीकरण ( Orientation towards Collective actions ) ३. राजनीतिक प्रणाली के प्रतिअभिमुखीकरण ( Orientation towards Other People System ) ४. दुसरों के प्रतिअभिमुखीकरण ( Orientation towards Other People ) ५. अपने प्रतिअभिमुखीकरण ( Orientation towards self ) आमण्ड तथा पावेलने निम्न तीन व्यक्तिगत अभिमुखीकरण बताए हैं ज्ञानात्मकअभिमुखीकरण ( Cognitive Orientation ) : इसका अर्थ हैकि व्यक्ति कोराजनीतिक गतिविधि धारणाओं तथासमस्याओं का कितनाज्ञान प्राप्त है। भावात्मक अभिमुखीकरण ( Affective Orientations ) : भावात्मक अभिमुखीकरण काअर्थ यह हैकि एक व्यक्तिकी राजनीतिक व्यवस्था , राजनीतिक घटनाओं तथा गतिविधियोंके प्रति लगावहै अथवा नहीं। मूल्यांकनात्मक अभिमुखीकरण ( Evaluative Orientation ) : राजनीतिक विषयों , समस्याओं , प्रश्नघटनाओं इत्यादि के सम्धब्धमें विचार - विमर्शकरते समय अथवानिर्णय लेते समयव्यक्ति जिन मूल्योंको ध्यान मेंरखता है उन्हेंमूल्यांकनात्मक अभिमुखीकरण कहते हैं। राजनीतिकविषय ( Political Objects ) - इसका विवरणनिम्न प्रकार हैं i राजनीतिक प्रणाली ( Political System ) : राजनीतिक प्रणाली मेंऔपचारिक एवं अनौपचारिक , कानूनी एक गैर - कानूनी सभी संस्थाओंकी गतिविधियाँ सम्मिलितहैं । राजनीतिकव्यवस्था के प्रतिअभिमुखीकरण यह जाननेमें सहायता करतेहैं कि व्यक्तियोंकी राजनीतिक व्यवस्थाके प्रति कितनालगाव या दुरावहै । राजनीतिकढाँचा ( Political Structure ) : राजनीतिक ढाँचा से अभिप्रायहै कि राजनीतिकव्यवस्था के ढाँचेके प्रति लोगोंका क्या दृष्टिकोणहै ? क्या लोगराजनीतिक व्यवस्था के कानूनोंको अपनी इच्छासे स्वीकार करतेहैं या भयके कारणा नीतियाँतथा समस्याएँ ( Policies and Problems ) : राजनीतिक व्यवस्था जनतासे सम्बन्धित समस्याओंको हल करनेके लिए किसप्रकार की नीतियाँअपनाती हैं ? जन - कल्याणके लिए उसकीनीतियाँ कितनी प्रभावशाली ढंगसे कार्य करतीहै ? यदि जन - कल्याण नहीं होगातो जनसमर्थन नहींमिल पाएगा । व्यक्ति एक राजनीतिकअभिनेता के रूपमें ( Individual as the Political Actor ) : व्यक्ति के राजनीतिकविचार , उद्देश्य , विश्वास , आस्थातथा भावना उसकीराजनीतिक क्रियाओं एवं गतिविधियोंको प्रभावित करतीहैं । राजनीतिक संस्कृति की प्रमुखविशेषताएं राजनीतिक संस्कृतिव्यक्ति तथा समूहके राजनीतिक आचरणका ज्ञान करातीहै । राजनीतिकसंस्कृति प्रगतिशील तथा समन्वयकारीहोती है ।राजनीतिक संस्कृति नष्ट नहोकर समयानुसार परिवर्तितहोती रहती है। राजनीतिक संस्कृतिको किसी समाजकी परम्पराओं , उसकीसार्वजनिक संस्थाओं की आत्मा , उसके नागरिकों की आकांक्षाओं , उनके सामूहिक विवेक , उसकेनेताओ , तरीके तथा सक्रियहोने के नियमआदि के द्वाराही समझा जासकता है ।राजनीतिक संस्कृति की विशेषताएँनिम्न प्रकार हैं। राजनीतिक संस्कृतिमें अमूर्त स्वरूपप्रभावी होते हैं ( Abstract Factors are Effective in Political Culture ) : राजनीतिक संस्कृति मेंजन समाज केमूल्यों और विश्वासोंका बहुत महत्त्वहोता है ।ये अमूर्त होतेहैं । जबजनता राज्य केप्रति अपना विद्रोहया आक्रोश प्रदर्शितकरती है , जोकि राज्य केकिसी कानून याकार्य के फलस्वरूपहोता है , विचारअमूर्त होते हैंजो राजनीतिक संस्कृतिको प्रभावित करतेहैं । राजनीतिकसंस्कृति गतिशील होती है ( Political Culture is Dynamic ) : व्यक्तिऔर समाज केजीवन मूल्य परिस्थितियोंऔर सामाजिक आवश्यकताओंके सन्दर्भ मेंपरिवर्तित होते रहतेहैं , इसी आधारपर राजनीतिक संस्कृतिभी गतिशील होतीहै । राजनीतिकसंस्कृति में उस समय भी परिवर्तन हो सकता है जबकि कोई नया विशिष्टजन अपनी संस्कृतिको दूसरों परथोपने का प्रयत्नकरें । राजनीतिक संस्कृति पर अराजनीतिक संस्कृति ( Non - Political Culture ) ( जिसमें परिवार , समाज , धार्मिकसंस्थाएँ , आर्थिक प्रणाली तथाविशिष्ट - जन सभीका योगदान होताहै ) तथा परिस्थितियोंका प्रभाव पड़ताहै । जिनसमाजों में राजनीतिकस्थायित्व होता है , उनमें परिवर्तन की गतिमन्द और परिवर्तनकी मात्रा सीमितहोती है , जबकिअन्य समाजों में पर्याप्त मात्रा में परिवर्तन होता है । नैतिक मूल्यों के प्रतिसमर्पण ( Dedication to Ethical values ) : राजनीतिक संस्कृति की नैतिकमूल्यो के प्रतिसमर्थन की आवश्यकताहोती है ।नैतिक मूल्यों कीस्थापना में कभीसमाज का धार्मिकस्वरूप योगदान देता हैऔर की सत्ताव्यवस्था का स्वरूपा समन्वयकारीस्वरूप ( Combined Nature ) : राजनीतिक संस्कृति केजीवन में अनेकनये जीवन मूल्यआते तुलनात्मक शासनएवं राजनीति तेहैं । नयेऔर पुराने जीवनमूल्यों में संघर्षभी होता रहताहै । राजनीतिकसंस्कृति की विशेषतासमन्वय करने कीहोनी चाहिए ।उदाहरण के लिए , धर्मों , राजाओं , संस्कृतियों , भाषाओं , कलाओं को अपनेमें समाहित कियाहै और इतनाहोते हुए भीयह मन्द सेसदैव आगे बढ़तीरही है ।इंग्लैण्ड की संस्कृतिभी बडे - से - बडे परिवर्तन कोसहज ही स्वीकारकर लेती है। राजनीतिकसंस्कृति का महत्त्व : डेनिश क्वानाग ( Dennis Kuvanagh ) के अनुसारराजनीतिक संस्कृति की अवधारणाका महत्त्व अग्र i . समष्टि पक्षीय और व्यष्टिपक्षीय विधि मेंसमन्वय ( Combination between Macro Approach and JMicro Approach ) : राजनीतिकसंस्कृति की अवधारणइस बात परबल देती हैकि राजनीतिक व्यवस्थाका अध्ययन लोगोंकी समष्टि औरव्यष्टि विधि केआधार पर कियाजाए जिससे दोनोंविधियों में समन्वयहो सके । समाज की गतिशीलताका अध्ययन करनेमें सहायक ( Helpful for the Study of Dynamic Na are of the Society ) : राजनीतिक व्यवस्था तथा समाजमें होने वालेपरिवर्तनों को समझनेके लिए हमेंलोगों की इनीतिकसंस्कृति को ध्यानमें रखना चाहिए , क्योंकि जैसे - जैसे लोगोंके मूल्यों विश्वासों , अभिमुखीकरणों में परिवर्तनहोगा से - वैसेसमाज तथा राजनीतिकव्यवस्था में गतिशीलताआती है । राजनीतिक व्यवस्था का अध्ययनकरने में सहायक ( Helpful for the Study of Political Sys Em ) : राजनीतिकसंस्कृति के आधारहम राजनीतिक व्यवस्थाकी कार्यशीलता - निवेशप्रक्रिया ( Input process ) तथा तप्रक्रिया ( Output process ) का अध्ययनकर सकते हैं। iv . राजनीतिक प्रणाली मेंतुलनात्मक अध्ययन तथा अन्तरके आधार ( Basis of the Comparative Study and Distinction in Political System ) : राजनीतिकसंस्कृति की अवधारणालोगों के व्यवहारतथा अभिवृत्तियों अध्ययनमें सहायक है। यही अध्ययनविभिन्न राजनीतिक प्रणालीयों केतुलनात्मक अध्ययन में सहायकसिद्ध होता है। आमण्डके अनुसार राजनीतिकसंस्कृति के प्रकार : आमण्ड के अनुसारराजनीतिक संस्कृति के चारप्रकार होते हैं - i . आंग्ल - अमरीकन राज्य व्यवस्था ( Anglo - American Political system ) : इसप्रणाली में बहु - मूल्यों ली राजसंस्कृतियाँ मिलती है जिनमेंजनसंख्या का अधिकांशभाग कुल मूल्योंके समन्वय कीओर प्रतिबद्ध होताहै । इननयों में व्यक्तिगतस्वतन्त्रता , लोक - कल्याण तथासुरक्षा आदि है। यह तोसम्भव है किकोई समुदाय किसीएक मूल्य कोदूसरे = अधिक महत्त्वदे । परन्तुयह नहीं होसकता है किएक समुदाय किसीएक मूल्य कीपूर्ण रूप सेउपेक्षा कर दे। इसमें संस्कृतिइस सीमा तकसामंजस्यकारी है किउनमें राजनीतिक ध्येयोंऔर उनकी प्राप्तिआदि के साधनों के बारे में सामान्य सहमति है ।यह ब्रिटेन , अमरीका , कनाडा , स्विट्जरलैण्ड आदि देशोंमें पाई जातीहै । महाद्वीपीययूरोपियन राज्य - व्यवस्था ( Continental European Political Culture ) : इस प्रणालीमें राजनीतिक संस्कृतिमें एकता नहींपाई जाती है , क्योंकि समाज केविभिन्न वर्गों का सांस्कृतिकविकास अलग - अलगहुआ है इसलिएकुछ वर्ग दूसरोंकी अपेक्षा अधिकविकसित हैं ।इस प्रणाली मेंएक राजनीतिक संस्कृतिन होकर कईप्रकार की राजनीतिकउप - संस्कृतियाँ विद्यमानहै जिसके कारणइन देशों मेंसमय - समय परसंघर्ष और हिंसाकी स्थिति आतीरहती है ।इस प्रणाली केअन्तर्गत फ्रांस , जर्मनी तथाइटली आते हैं। गैर - पाश्चात्य पूर्वऔद्योगिक या आंशिकरूप से औद्योगिकराज्य व्यवस्था ( Non - western Pre industrial or Partially Industrial Political Culture ) : प्राचीनताऔर आधुनिक केमध्य संघर्ष कीस्थिति में जीरहे राष्ट्र इसकेअन्तर्गत आते हैं। ये देशया तो अविकसितहैं या विकासशीलहै तथा यूरोपीयदेशों के उपनिवेशरह चुके हैं। इन देशोंमें भी मिश्रितराजनीतिक संस्कृति पाई जातीहै । उपनिवेशिककाल में इनदेशों की परम्परागतराजनीतिक संस्कृति पर यूरोपीयसंस्कृति थोपी गईथी , जिसके फलस्वरूपएक नवीन संस्कृतिका विकास हुआ। लेकिन प्राचीनऔर नई संस्कृतिमें समन्वय नहींहो सका ।इसमें भारत , एशियाऔर अफ्रीका के प्रजातान्त्रिक देश आतेहैं ।
- भारतीय नीति शास्त्र - तत्वज्ञान
तत्वज्ञान भारतीय नीति शास्त्र का अर्थ 1. भारतीय नीति शास्त्र की व्याख्या इस प्रकार है नीति का अर्थ निर्देश आचरण अथवा आचरण का शास्त्र है 2. शास्त्र शब्द का अर्थ है आज्ञा आदेश नियम अथवा परंपरा पर निर्भर है 3. शास्त्र शब्द की व्युत्पाती है शास +स्ट्रन 4. सामान्यता शास्त्र का अर्थ प्रयोग ज्ञान होता है इसे विज्ञान भी कहते है |र 5. नीतिशास्त्र शास्त्र है जिसमे हम आचरण संबन्धित नियमो का अध्ययन करते है | 6. शास्त्र मे बताए हुए नियम सर्व व्यापी होते है उसी तरह इसके नियम भी सर्वव्यापी है | 7. इसे भारतीय कहा गया है क्योंकि यह भारत मे विदायमन नीति से संबन्धित है | 8. यह परंपरा वेदों से शुरु होती है और आज तक पूर्नजीवित होती चली आयी है | 9. इसमे बताये हुये सभी नियम पालन करने से सभी का कल्याण होता है | 10. इस लिए भारतीय नीतिशास्त्र का उद्देश कल्याण बताया गया है | 11. नीति शास्त्र और धर्म दोनों एक ही उद्देश से प्रेरित है |वह है मोक्ष 12. मोक्ष का अर्थ है दुख से मुक्ति भारतीय नीतिशास्त्र का अभ्यास का विषय भारतीय नीतिशास्त्र का विकास प्राचीनकाल वेद –चार वेद बताए गऐ है आ)ऋगवेद –यहसर्वप्रथम सरस्वती नदी के तट पर उत्पन्न हुई आर्य संस्कृति के प्राचीनतम और सर्वप्रथम साहित्य इस रूप से जाना जाता है इसमे शक्तियों को देवता रूप माना गया है जैसे जल के देवता वरुण अग्नि देव ऊषा इत्यादि इन सभी की स्तुति की गई है |इसमे ऋत का अर्थ दंड देने वाली सकती यह वरुण के पास होती है इसके अनुसार मर्यादा का उल्लेखन करने पर ऋत से दण्ड मिलता है यह नंसर्गिक शक्ति है ब्राह्मण ग्रंथ –किसी इच्छा से इन ग्रंथो मे यज्ञ याक इस पर बल दिया गया है |इसमे बताए हुये यज्ञ इच्छा पूर्ति अथवा स्वर्ग प्राप्ति के लिए है |इसके अनुसार यदि यज्ञ किया जाए तो उसका जल ईशवर को देना ही पड़ता है इसमे सत्कर्म करने पर स्वर्ग की प्राप्ति और दुष्कर्म के लिए नर्क की प्राप्ति बताई गाई है | उपनिषद –उपनिषद शब्द का अर्थ है गुरु के पास बैठकार शीक्षा ग्रहण करना इस शिक्षावल्ली मे उदाहरण दिया गया है |सत्या बोलो ,धर्म के अनुसार आचरण करते थे केवल उसका ही पालन करो ग्रूहस्त धर्म का पालन करो स्वाध्याय और समाज प्रबोधन करो | आख्यक –धर्मसूत्र ,पुराण इन ग्रंथो मे अनेक बोध कथाएँ सबताई हुई है जिसमे स्त्यकार्य करने के लिए प्रेरण दी है | स्मृती –देवल स्मृति ,विष्णु स्मृति ,मनु स्मृति इत्यादि अनेक स्मृतिया ग्रंथ लिखे गए है जिसमे समाज मे रहने वाले सभी व्यक्तियों के लिए कर्तव्य और अधिकार बताए गए तथा सामाजिक नियमो को तोड़ने पर दण्ड का भी प्रावधान था महाकवाय (रामायण-महाभारत ) रामायण यहा सबसे पहला महाकाव्य है इसके रचियाता वाल्मीकि ऋषि थे |रामायण की कथाएँ यही बताती है की रावण की तरह आचरण मत करो राम की तरह आचरण करो | महाभारत –इसमे बताई हुई कथाएँ मनुष्य का मार्गदर्शन करती है जब दो प्रकार के धर्म के बीच संघर्ष होता है तो मनुष्य को कौन सा धर्म निभाना चाहिए व्यक्तिगत धर्म जैसे अपने रिश्ते निभाने चाहिए या समाज का हित मनुष्य को हमेशा रिश्तो और समाज मे से समाज का हित ही चुना जाना चाहिए | गीता का प्रसंग -गीता की शुरुआत अर्जुन के मन मे शुरू हुई दुविधा से होता है जब युद्ध भूमि मे अर्जुन के सामने उसके अपने लोगो को देखकर उसने अपना धनुष नीचे रखा दिया और उसे शोक उत्तपन्न हुआ तब श्री कृष्ण ने उसे अपना क्षत्रिय धर्म निभाने का उपदेश दिया | मध्ययुगीन काल इस काल मे भारत मे अनेक विदेशी आक्रमण हुए और भारतीय सभ्यता मे बदलावओ हुये तत पशाच्यात अनेक संतो ने अपने काव्यो के द्वारा नीति का उपदेश जनता को दिया |यहा दो प्रकार है 1)सगुणोंपासक का अर्थ है मूर्ति पूजक जो मूर्ति की पुजा किया करते है उदाहरण –सूरदास ,तुलसीदास ,संत मीरबाई, 2)निर्गुनोपासक जो मूर्ति पुजा को निषेद करते है उनको निर्गुनोपासक काहा जाता है उदाहरण –कबीर ,रहीम ,नानक ,दादू सूफी संप्रदाय उदाहरण --चिश्ती ख्वाजा ,अब्दुल चिश्ती ,सोहबूदीन ,शेख अब्दुल जिलनी , अर्वीचीन काल 19 सदी के धर्म सुधारको के नैतिक विचार इस काल मे सुधारको का मुख्य कार्य था समाज का सुधार इनमे प्रमुख थे · राजा राम मोहन राय (सती प्रथा का विरोध ) · दयानन्द सरस्वती (विधवा विवहा ) · गोविंद रानडे (जाती प्रथा का विरोध ) · रामकृष्ण परमहंस (अध्यातमिकता का प्रसार ) · स्वामी विवेकानन्द (स्त्री शिक्षा मे योग दान ) समकालीन -20 वी सदी के आरंभ मे अंग्रेजी शासन मे कई कानून बनाकर जाती प्रथा और सती प्रथा का विरोध किया इसके साथ मे ही जाती भेद को समाप्त करने हेतु और प्राचीन काल के साहित्यों को महत्व देने के लिए कई प्रयस किए गए है इस काल के प्रमुख चितक है · लोकयमान्य टिड़क · अरविंद घोष · डॉ राधकृष्णम · महात्मा गांधी · रवीन्द्रनाथ टैगोर · इकबाल · के,सी ,भटचार्य दस स्वधर्म स्वधर्म के अनुसार धर्म कुल दस है ॥धुती क्षमा दामोअस्तेय शैचमीन्द्रियनिग्रह धिविधि सत्यमक्रोधोद्श्क धर्म लक्षणम || धुती –इसका अर्थ है धैर्य धारण करना अनेक प्रकार की समस्या आने पर भी हाथ मे लिए हुआ काम पूरी आस्था के साथ पूर्ण करना इससे साधन उत्सह और सफलता मिलता है | क्षमा -दूसरों के द्वारा सताये जाने पर भी उन्हे परेशान ना करना ही क्षमा है |बलवान -निर्बल के प्रति ।धनवान निर्धन के प्रति ,विधवान मुर्खा के प्रति गुरु शिष्य के प्रति उदारता का आचरण कर इसको क्षमा कहते है | दम –इंद्रियो का स्वामी मान है और मान को अपने वश मे रखना ही दम है इससे मन पर नियंत्रण रहता है और इंद्रियो पर भी इससे शांति सूख और आनंद मिलता है | अस्तेय ---किसी का धन उसके अनुमति के बिना लेना चारी है इसीसे भिन्न अस्तेय कहलाता है किसी की कोई भी वस्तु अपनी समझना यहा भी चोरी है इसके विपरीत अस्तेय है वर्ण मे बताए हुए कर्तव्य ना करना और अपने काम को ना करने वाला चोर ही है | शैचा –शैचा शास्त्रो विधान से मिट्टी जल आदि के द्वारा शरीर की पवित्रता रखना शैचा है मनुष्य मे बाहरी तथा आंतरिक दोनों प्रकारो की शुद्धता को ही शैच कहते है \शरीर वस्त्र भोजन तथा व्यवहार की शुद्धता ही बाहरी शुद्धता है तथा इंद्रिय मान आंतरिक बुद्धि की शुद्धता ही शैचा है इंद्रिय निग्रह –चक्ष आदि पांचों इंद्रियो को अपने –अपने विषयो से अलग करना ही इंद्रिय –निग्रह कहलाता है । सभी इंद्रियो को वश मे रखना चाहिए । इंदर्यो की संख्या दस है । कमोन्द्रियो तथा ज्ञानेन्द्रियो को उनके निर्धारीत विषयो की और से रोककर उन्हे ईश्वर के ध्यान मे लगान ही इंद्रिय –निग्रह है सभी इंद्रियो को इस प्रकार वश मे करना चाहिए की वे धर्म अर्थ काम तथा मोक्ष पुरुषर्थों मे लगी रहे । धि –वेद शास्त्रो का तात्विक ज्ञान धि बुद्धि कहलाती है । बुद्धि या विवेक या शास्त्रो के ज्ञान को ही धि कहते है । धि के कारण से ही सभी प्राणियों मे मनुष्यो को सर्वक्षेष्ठ कहा गया है वही व्यक्ति बुद्धिमान है जो स्वय सुखी रहकर अन्य के सुखो का भी ध्यान रखता है । अपने लोगो के साथ उदारता और अन्य पर दया का भाव रखता है तथा सज्जनों से प्रेम ,दुष्टो के साथ अभिमान ,शत्रुओ के साथ शूरता ,बड़ो के साथ आदर तथा स्त्रियो के साथ चतुरता पूर्ण वयवहार ही बुद्धिमान व्यक्ति के लक्षण है | विधा –आत्मा ज्ञान का ही नाम विधा है संसार को जानना ही विधा है तथा संसार की सभी वस्तुओ के संबंध मे विधा से ही जाना जाता है । कहा भी गया है ॥ चौरधर्य न च राजधर्य न भ्रातुभाज्य न च भारकारी व्यये कृते वर्धत एव नित्य विधाधन सर्वधन प्रधानम॥ सत्य----यथार्थ ज्यो क त्यो कथन करना ही सत्य है जिस बात को जैसे पढ़ा जाए देखा जाए उसको ठीक उसी रुपमे कहना ही सत्य बोलना है सत्य क अर्थ है असत्य का परित्याग इसका पालन जीवन मे मान ,वचन तथा कर्म से सदेवा करना चाहिए । सत्य क्षेष्ठ धर्म तथा ज्ञान है इससे आत्मा तथा बुद्धि को आन्नद की प्राप्ति होती है सत्य पर विश्व आधारित है । सत्य का आधार धर्म है । अंत सदेवा हमे सत्य का अनुसरण करना चाहिए । अक्रोध ---क्रोध के कारणो के विधमान रहने पर भी क्रोध का ना उतप्न्न न होना ही अक्रोध कहलाता है क्रोध ना करना ही अक्रोध है क्रोध मान की वह अशुभ अवस्था है जिस पर विजय पाना आवश्यक है क्रोध को वश तथा नियंत्रण मे करने से शांति तथा संतोष तथा आनन्द का अनुभव होता है ।
- भारतीय संविधान के अधिकार - पत्र की विशेषताएँ
प्रश्न - भारतीय संविधान के अधिकार - पत्र की विशेषताएँ बताइए । उत्तर : यद्यपि मौलिक अधिकारों के सम्बन्ध में भारतीय संविधान द्वारा संयु और अन्य आधुनिक संविधानों से प्रेरणा ली गई है , लेकिन भारतीय संविधान का अधिकार पत्र अधिकारों और उनसे सम्बन्धित व्यवस्था के सम्बन्ध में वैसा ही नहीं है , जैसा कि अन्य संविधानों के अधिकार - पत्र हैं । भारतीय संविधान के अधिकार - पत्र की कुछ प्रमुख विशेषताएँ १ ) अत्यधिक विस्तृत : भारतीय संविधान का मौलिक अधिकार - पत्र विश्व के अन्य किसी भी संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों से अधिक विस्तृत तथा पेचीदा है । एक सम्पूरक अध्याय के २३ अनुच्छेदों में इसका वर्णन किया गया है । अध्याय के विस्तृत होने का कारण यह है कि छ . अधिकारों के सविस्तर विवरण के साथ - साथ उन पर आरोपित प्रतिबन्धों का उल्लेख किया गया है । २ ) निषेधात्मक एवं सकारात्मक अधिकार : भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकों के अधिकारों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है - निषेधात्मक और सकारात्मक अधिकार । मौलिक अधिकारों के कतिपय उपलब्ध निषेधाज्ञाओं के समान हैं । वे राज्य शक्ति पर मर्यादाओं को आरोपित करते हैं । किसी व्यक्ति को अधिकार प्रदान नहीं करते । उदाहरणस्वरूप अनुच्छेद ८ द्वारा राज्य को सेना तथा शिक्षा सम्बन्धी उपाधि के सिवाय अन्य कोई उपाधि प्रदान करने से मनाही हैं , अनुच्छेद १७ सामाजिक छूआछूत को दूर करता है । व्यक्ति के दृष्टिकोण से ऐसे अधिकारों को निषेधात्मक अधिकार कहा जा सकता है । वे उपबन्ध जो किसी व्यक्ति को विशिष्ट अधिकार प्रदान करते हैं , उन्हें सकारात्मक अधिकार कहा जाता है । स्वतन्त्रता का अधिकार , सम्पत्ति का अधिकार , धार्मिक , सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक अधिकार इस वर्ग में आते हैं । इस अन्तर के होते हुए भी दोनों के अधिकारों में स्पष्ट विभाजन - रेखा नहीं खींची जा सकती है । फिर भी दोनों में महत्त्वपूर्ण भेद यह है कि निषेधात्मक अधिकार निरपेक्ष है , जबकि सकारात्मक अधिकार सीमित और मर्यादित हैं । ३ ) विभिन्न पदाधिकारियों पर मर्यादा के रूप में : मौलिक अधिकार केवल केन्द्रीय सरकार पर नहीं , बल्कि उन सभी अधिकारियों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं जिन्हें विधि निर्माण करने का स्वेच्छाधिकार प्राप्त हैं । इस प्रकार केन्द्रीय सरकार , राज्य सरकार , जिला बोर्ड नगरपालिकाएं . ताल्लुका बोर्ड , ग्राम पंचायत आदि उन्हें मानने के लिए बाध्य हैं । मौलिक अधिकारों के सम्बन्ध में इन सभी अधिकारियों से नागरिकों को समान व्यवहार मिलेगा । इसके विपरीत संयुक्त राज्य अमेरिका में अधिकार - पत्र का उद्देश्य केवल राष्ट्रीय सरकार पर मर्यादाएं आरोपित करना था । ४ ) अधिकार निर्वाध नहीं : अधिकार मर्यादाहीन नहीं हो सकते । भारतीय संविधान द्वारा ही मौलिक अधिकारों पर प्रतिबन्ध लगा दिये गए हैं । ५ ) नागरिकों एवं विदेशियों में भेद : जहाँ तक मौलिक अधिकारों के उपभोग का प्रश्न है , भारतीय संविधान नागरिकों तथा विदेशियों में विभेद करता है । कुछ अधिकार केवल देश के नागरिकों तक ही सीमित है । लेकिन कुछ अधिकार ऐसे हैं , जो नागरिकों तथा विदेशियों के ऊपर समान रूप से प्रभावी हैं । ६ ) मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए संवैधानिक व्यवस्था : भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की रक्षा की व्यवस्था की गयी है । अनुच्छेद ३२ के अनुसार नागरिकों को यह अधिकार दिया गया है कि अधिकारों के संरक्षण के लिए वे सर्वोच्च न्यायालय की शरण ले सकते हैं । किसी नागरिक द्वारा अधिकारों के प्रवर्तन की मांग पर न्यायालय समुचित आदेश या लेख , जिनके अन्तर्गत बन्दी - प्रत्यक्षीकरण , परमादेश , प्रतिषेध , अधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण लेख भी आते हैं , निकाल सकता है । अनुच्छेद २२६ उच्च न्यायालयों को भी आदेश लेख जारी कर मौलिक अधिकारों की रक्षा का अधिकार देता है । ७ ) प्राकृतिक अधिकारों का अभाव : भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के अलावा अन्य अधिकारों का दावा नागरिक नहीं कर सकते हैं । तात्पर्य यह है कि कोई भी नागरिक सिर्फ संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए ही न्यायालय की शरण ले सकता है और न्यायालय विधान पालिका द्वारा पारित किसी अधिनियम को असंवैधानिक करार दे सकता है । यदि यह संविधान की व्यवस्था के अनुकूल नहीं है । ८ ) मौलिक अधिकारों का निलम्बन : भारतीय संविधान के निर्माता इस तथ्य से भली भाँति अवगत थे कि आपातकालीन स्थिति में मौलिक अधिकारों को निलम्बित करने की आवश्यकता पड़ सकती है । इन उद्देश्यों से संविधान में बोलने , घूमने , संगठन बनाने आदि अधिकारों को आपातकाल में निलम्बित करने की व्यवस्था की गयी हैं । यहाँ तक कि संविधान राष्ट्रपति को आपातकाल स्थिति में आवश्यकता पड़ने पर संवैधानिक उपचारों के अधिकारों को निलम्बित करने की भी शक्ति प्रदान करता है । ९ ) मौलिक अधिकारों को सीमित करना : कुछ परिस्थितियों में मौलिक अधिकारों को सीमित करने की व्याख्या संविधान में की गई है । अनुच्छेद ३३ द्वारा संसद को यह अधिकार दिया गया है कि वह सशस्त्र सेना में अनुशासन बनाये रखने के लिए तथा सैनिक कर्तव्यों की भली - भाँति परिपालन की दृष्टि से भारत के सशस्त्र बल से सम्बद्ध मौलिक अधिकारों में आवश्यक संशोधन कर सकती है । यहाँ विशेष रूपसे उल्लेखनीय है कि अनुच्छेद ३३ के उपबन्ध न केवल देश के सशस्त्र बलों पर प्रभावी होंगे , अपितु सार्वजनिक शान्ति स्थापित करने वाले सामान्य पुलिस दल के ऊपर भी प्रभावी होंगे । १० ) मौलिक अधिकारों का संवैधानिक संशोधन : संघात्मक व्यवस्था में साधारणतः केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों के सहयोग से संविधान में संशोधन लाया जाता है । भारत में भी संविधान के उन उपबन्धों को इस पद्धति में संशोधन लाने की व्यवस्था की गई है जो संघीय व्यवस्था से सम्बन्धित है । लेकिन मौलिक अधिकार के अध्याय में संशोधन लाने के लिए इस विधि को अपनाया गया है । इसमें संशोधन लाने के लिये ऐसी पद्धति को अपनाया गया है जिसमें राज्यों का कोई हाथ नहीं हैं । संसद के दोनों सदनों में से प्रत्येक में समस्त सदस्य संख्या से पारित होने पर मौलिक अधिकार सम्बन्धी उपबंधों में परिवर्तन लाया जा सकता हैं |
- मौलिक अधिकार तथा कर्तव्य
प्रश्न १ - भारतीय संविधान के अन्तर्गत मौलिक अधिकारों का अर्थ एवं महत्त्व स्पष्ट कीजिए । उत्तर : मौलिक अधिकार : अर्थ एवं महत्त्व अर्थ : वे अधिकार जो व्यक्ति के जीवन के लिए मौलिक तथा अपरिहार्य होने के कारण संविधान के द्वारा नागरिकों को प्रदान किए जाते हैं और जिन अधिकारों में राज्य द्वारा भी न्यायोचित हस्तक्षेप ही किया जा सकता है , मौलिक अधिकार कहलाते हैं । जी.एन.जोशी का मत है . “ एक स्वतन्त्र प्रजातन्त्रीय देश में मौलिक अधिकार सामाजिक , धार्मिक व नागरिक जीवन के लाभदायक उपयोग के एकमात्र साधन होते हैं । इन अधिकारों के बिना प्रजातन्त्रात्मक सिद्धान्त लागू नहीं हो सकते हैं । नामकरण : इन अधिकारों को मौलिक अधिकार निम्न कारणों से कहते हैं – ( १ ) व्यक्ति के नैतिक व आध्यात्मिक विकास के लिए अधिकारों की आवश्यकता है । अतएव प्रत्येक व्यक्ति को मौलिक अधिकार प्रदान किये गये है । ( २ ) इस प्रकार के अधिकारों को मौलिक कहने का कारण यह भी है कि उन्हें देश की मौलिक विधि अर्थात् संविधान में स्थान दिया जाता है और साधारणतः संवैधानिक , संशोधन प्रक्रिया के अतिरिक्त उनमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं लाया जाता है । ( ३ ) मौलिक अधिकार साधारणतया अनुल्लंघनीय है । विधानमण्डल या कार्यपालिका या बहुमत दल द्वारा उनका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है । पातंजली शास्त्री के अनुसार “ मौलिक अधिकारों की मुख्य विशेषता यह है कि वे राज्य द्वारा पारित विधियों से ऊपर हैं । ( ४ ) मूल अधिकार वादयोग्य होते हैं तथा सभी नागरिकों को एक समान प्राप्त होते हैं । सभी सार्वजनिक पदाधिकारी उनका अनुकरण करने के लिए बाध्य हैं । ( ब ) महत्त्व : संविधान के अंतरंग भाग के रूप में मौलिक अधिकारों का अत्यधिक महत्व १ ) प्रजातन्त्र के आधार - स्तम्भ : मौलिक अधिकार प्रजातंत्र के आधार - स्तम्भ हैं । वे उन परिस्थितियों का निरमाण करते हैं जिनके आधार पर बहुमत की इच्छा निर्मित और क्रियान्वित होती है । वे इस दृष्टि से भी प्रजातन्त्र के लिए अपरिहार्य हैं कि उनके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के पूर्ण शारीरिक , मानसिक और नैतिक विकास की सुरक्षा प्रदान की जाती है । २ ) दलीय अधिनायकवाद का विरोध : मौलिक अधिकार एक देश के राजनीतिक जीवन में एक दल विशेष का अधिनायक स्थापित होने से रोकने के लिये नितांत आवश्यक हैं । ३ ) स्वतन्त्रता तथा नियन्त्रण में समन्वय : मौलिक अधिकार व्यक्ति स्वातन्त्र और सामाजिक नियन्त्रण के बीच उचित सामन्जस्य की स्थापना करते हैं । ४ ) न्याय व सुरक्षा की व्यवस्था : इस प्रकार मौलिक अधिकार नागरिकों को न्याय और उचित व्यवहार को सुरक्षा प्रदान करते हैं और राज्य के पहले हुए हस्तक्षेप तथा व्यक्ति की स्वतन्त्रता के बीच संतुलन स्थापित करते है । मौलिक अधिकारों के अर्थ तथा महत्व पर प्रकाश डालते हुए भारत के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश के . सुव्याराव ने कही है - " मौलिक अधिकार परम्परागत प्राकृतिक अधिकारों का दूसरा नाम है । " एक लेखक ने कहा है - " मौलिक अधिकार वे हैं जिन्हें हर काल में , हर जगह , हर मनुष्य को प्राप्त होना चाहिए , क्योंकि अन्य प्राणियों के विपरीत यह चेतन तथा नैतिक प्राणी है । मानव व्यक्तित्व के विकास के लिए वे आद्य अधिकार है । वे ऐसे अधिकार हैं जो मनुष्य को स्वेच्छानुसार यापन करने का अवसर प्रदान करते हैं । नागरिकों के मौलिक अधिकार मानवीय स्वतन्त्रता के मापदण्ड व संरक्षक होते हैं । इनका अपना मनोवैज्ञानिक महत्त्व है । आधुनिक युग का कोई भी राजनीतिक विचारक इनकी उपेक्षा नहीं कर सकता है ।
- भारत में पर्यावरण संरक्षण का इतिहास
पर्यावरण इतिहास - भारत में पर्यावरण संरक्षण का इतिहास www.lawtool.net भारत में प्रदूषण और अन्य पर्यावरणीय समस्याओं से निपटने के लिए कानून के विकास के इतिहास का अध्ययन चार अवधियों के तहत किया जा सकता है; I. प्राचीन भारत में। 2. मध्यकालीन भारत में; प्राचीन भारत में पर्यावरण संरक्षण वन, वन्य जीवन, और अधिक विशेष रूप से पेड़ों को उच्च सम्मान में रखा गया था और हिंदू धर्मशास्त्र में विशेष सम्मान का फीता रखा गया था हिंदू धर्म के वेदों, पुराणों, उपनिषदों और अन्य ग्रंथों में पेड़ों, पौधों का विस्तृत विवरण दिया गया था। और वन्य जीवन और लोगों के लिए उनका महत्व। ऋग्वेद ने प्रकृति के साथ घनिष्ठ संबंध पर बल देते हुए जलवायु को नियंत्रित करने, प्रजनन क्षमता बढ़ाने और मानव जीवन में सुधार करने में प्रकृति की संभावनाओं पर प्रकाश डाला। एक पेड़ को विभिन्न देवी-देवताओं का निवास माना जाता है। यजुर्वेद ने इस बात पर जोर दिया कि प्रकृति और जानवरों के साथ संबंध प्रभुत्व और अधीनता का नहीं बल्कि आपसी सम्मान और दया का होना चाहिए। वैदिक काल में जीवित वृक्षों को काटना प्रतिबंधित था और ऐसे कृत्यों के लिए दंड निर्धारित किया गया था। उदाहरण के लिए, याज्ञल ६ए, स्मृति, ने पेड़ों और जंगलों को काटने को दंडनीय अपराध घोषित किया है और 20 से 10-रानी का दंड भी निर्धारित किया है। इस प्रकार हिंदू समाज वनों की कटाई और विलुप्त होने के कारण होने वाले प्रतिकूल पर्यावरणीय प्रभावों के प्रति सचेत था। जानवरों की प्रजातियों का। श्रीमद्भागवत में यह ठीक ही कहा गया है कि जो मनुष्य अनन्य भक्ति के साथ आकाश, जल, पृथ्वी, स्वर्गीय पिंडों, जीवों, वृक्षों, नदियों और समुद्रों और सभी प्राणियों का सम्मान करता है और उन्हें एक हिस्सा मानता है। भगवान के शरीर से परम शांति और भगवान की कृपा की स्थिति प्राप्त होती है। याज्ञवल्क्य स्मृति और चरक संहिता ने जल की शुद्धता बनाए रखने के लिए उपयोग करने के लिए कई निर्देश दिए। वनों और प्रकृति के अन्य घटकों के अलावा, जानवर आपसी सम्मान और दया के रिश्ते में इंसानों के सामने खड़े थे। प्राचीन हिंदू शास्त्रों में पक्षियों और जानवरों के पंखों की सख्त मनाही है। यजुर्वेद में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति जानवरों का वध न करे, बल्कि सभी की मदद करके और उनकी सेवा करके सुख प्राप्त करे-'याल्हवल्क्य स्मृति में कहा गया है कि "जानवरों को मारने वाले दुष्टों को घोर नरक में रहना पड़ता है। (नरक-अग्नि) दिनों के लिए, टी एट-एनिमल के शरीर पर बालों की संख्या के बराबर", विष्णु संहिता में, यह देखा गया है कि "जो अपनी खुशी के लिए हानिरहित जानवरों को मारता है, उसे मृत माना जाना चाहिए जीवन में, ऐसे व्यक्ति को यहां या उसके बाद कोई सुख नहीं मिलेगा। जो किसी भी जानवर को मृत्यु या कैद में पीड़ा देने से रोकता है, वह वास्तव में सभी प्राणियों का शुभचिंतक है, ऐसा व्यक्ति अत्यधिक आनंद का आनंद लेता है" ऊपर से, कोई भी समझ सकता है कि पर्यावरण संरक्षण हिंदू जीवन शैली का एक महत्वपूर्ण पहलू रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि मोहनजोदड़ो हड़प्पा, और द्रविड़ सभ्यता की सभ्यताएं अपने पारिस्थितिकी तंत्र और उनकी छोटी आबादी के अनुरूप रहती थीं और उनकी जरूरतों ने पर्यावरण के साथ सामंजस्य बनाए रखा। मौर्य काल शायद भारतीय इतिहास के पर्यावरण का सबसे गौरवशाली-अध्याय था। संरक्षण की दृष्टि। यह इस अवधि में था कि हम 321 ईसा पूर्व _और 309.बीसी के बीच लिखे गए कौताल्य अर्थशास्त्र में विस्तृत और 'बोधगम्य कानूनी प्रावधान पाते हैं। इस अवधि में आवश्यकता, वन प्रशासन' को महसूस किया गया था और प्रशासन की प्रक्रिया को वास्तव में कार्रवाई के साथ लागू किया गया था। वन अधीक्षक की नियुक्ति और कार्यात्मक आधार पर वन का वर्गीकरण राज्य ने 'के कार्यों को ग्रहण किया। वन उपज के वन विनियमन और वन्य जीवन के संरक्षण का रखरखाव अर्थशास्त्र के तहत पेड़ों को काटने, जंगल को नुकसान पहुंचाने और पशु हिरणों को मारने आदि के लिए विभिन्न दंड निर्धारित किए गए थे।" शहर के पार्कों में फूलों या फलों या छाया देने वाले पेड़ों के कोमल अंकुर काटने के लिए जुर्माना था। इसी तरह, पौधों को काटने के लिए उपरोक्त जुर्माने का आधा था। जबकि सीमाओं पर पेड़ों को नष्ट करने या जिनकी पूजा की जाती थी या अभयारण्यों में, उपरोक्त जुर्माने से दोगुना जुर्माना लगाया जाता था वन अधीक्षक को वन उपज को उपज-वनों में उप-रक्षकों में लाने के लिए अधिकृत किया गया था; वन उपज के लिए कारखाने स्थापित करना और पर्याप्त जुर्माना तय करना। और किसी भी उत्पादक वन को नुकसान के लिए मुआवजा। पर्यावरण संरक्षण, जैसा कि मौर्य काल के दौरान अस्तित्व में था, बाद के शासनों में कमोबेश अपरिवर्तित रहा जब तक कि 673 ईस्वी में गुप्त साम्राज्य के अंत तक अन्य हिंदू राजाओं द्वारा वन विनाश और पशु हत्याओं के लिए निषेध की घोषणा नहीं की गई थी। उदाहरण के लिए, राजा अशोक। स्तंभ शिलालेख में अपने राज्य में प्राणियों के कल्याण के बारे में अपना दृष्टिकोण व्यक्त किया था। उन्होंने जानवरों को मारने के लिए विभिन्न आर्थिक दंड निर्धारित किए, जिसमें चींटियां, गिलहरी, तोते, लाल सिर वाले बत्तख, कबूतर, छिपकली और चूहे भी शामिल थे। संक्षेप में कहें तो प्राचीन भारत में पर्यावरण प्रबंधन का एक दर्शन था जो मुख्य रूप से सुनिश्चित किया गया था क्योंकि उनमें कई शास्त्र और स्मृतियाँ निहित थीं और तत्काल लाभ के लिए प्रकृति का दुरुपयोग अन्यायपूर्ण अधार्मिक माना जाता था और संस्कृति के तहत पर्यावरण नैतिकता के खिलाफ प्रकृति रूपांतरण की पर्यावरणीय नैतिकता थी। न केवल आम आदमी बल्कि शासक पर भी लागू होता है और उन्होंने शास्त्रों में निषेधाज्ञा के बावजूद राजा को बाध्य किया और संतों के उपदेश संसाधन रूपांतरण को बहुत गंभीरता से नहीं लिया गया क्योंकि एक आम धारणा के तहत प्राकृतिक संसाधन को मनुष्य के लिए अटूट और बहुत दुर्जेय माना जाता था और अपने उपकरणों को किसी भी सुरक्षा की जरूरत है मध्यकालीन भारत में पर्यावरण संरक्षण पर्यावरण संरक्षण के कानून की दृष्टि से मुगल सम्राटों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है उनके महलों के चारों ओर फलों के बागों और हरे भरे पार्कों की स्थापना, केंद्रीय और प्रांतीय मुख्यालय, सार्वजनिक स्थान, नदियों के किनारे और घाटी में वे गर्मी के मौसम के स्थानों या अस्थायी मुख्यालय के रूप में इस्तेमाल करते थे सुल्तानों और भारत के सम्राटों द्वारा न्याय के प्रशासन के लिए अधिकार प्राप्त अधिकारियों में, मुतासिब को प्रदूषण की रोकथाम के कर्तव्य के साथ निहित किया गया था, अन्य लोगों के बीच उनका मुख्य कर्तव्य बाधाओं को दूर करना था। सड़कों से और सार्वजनिक स्थान पर उपद्रव करना बंद करो, एक मत है कि "मुगल साम्राज्य, प्रकृति के महान प्रेमी थे और प्राकृतिक वातावरण की गोद में अपना खाली समय बिताने में प्रसन्न थे, वन संरक्षण पर कोई प्रयास नहीं किया !! ...एक अन्य लेखक ने देखा है कि "मुगल शासकों के लिए, जंगलों का मतलब जंगली भूमि से अधिक नहीं था जहां वे शिकार कर सकते थे। उनके राज्यपालों के लिए, जंगल संपत्ति थे, जिससे कुछ राजस्व मिलता था। पेड़ों की कुछ प्रजातियों को उनके शासनकाल में 'शाही पेड़' के रूप में निर्दिष्ट किया गया था। ' और शुल्क के अलावा काटे जाने से संरक्षण का आनंद लिया। हालांकि, अन्य पेड़ों को काटने पर कोई प्रतिबंध नहीं था। किसी भी सुरक्षात्मक प्रबंधन के अभाव में, इस अवधि के दौरान खेती के लिए की गई कटाई के कारण वनों का आकार लगातार सिकुड़ता गया। मुगल काल के दौरान वन अर्थव्यवस्था की स्थिति के संबंध में। वन और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के अटूट उपयोग से ग्रामीण समुदायों का साम्राज्य हालांकि, इसका मतलब यह नहीं था कि वे, जंगल और अन्य "प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते हैं; इसका मतलब यह नहीं था कि उनका उपयोग या दुरुपयोग किया जा सकता है और बिना किसी रोक-टोक के सभी का उपयोग किया जा सकता है। बल्कि वे सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषताओं के साथ-साथ स्थानीय समुदायों की आर्थिक गतिविधियों के इर्द-गिर्द बुने गए नियमों और विनियमों की एक जटिल श्रृंखला की मदद से प्रभावी ढंग से प्रबंधित किए गए थे।'
- TORT में सामान्य बचाव | GENERAL DEFENSES IN TORT
GENERAL DEFENSES IN TORT | TORT में सामान्य बचाव www.lawtool.net https://hi.lawtool.net/ SUBJECT :-LAW OF TORTS TORT में सामान्य बचाव आम तौर पर, एक वादी को अदालत में अपना मामला साबित करना होता है और यदि वह ऐसा सफलतापूर्वक करता है, तो प्रतिवादी के खिलाफ फैसला सुनाया जाता है। दूसरी ओर प्रतिवादी अपने खिलाफ सफलतापूर्वक मामले का बचाव कर सकता है, इस प्रकार वादी की कार्रवाई विफल हो जाती है। कुछ सामान्य बचाव हैं जिन्हें कपटपूर्ण दायित्व में ले जाया जा सकता है। Volenti Non fit Injuria सामान्य नियम यह है कि कोई व्यक्ति अपने नुकसान के लिए शिकायत नहीं कर सकता है यदि वह इसके जोखिम को चलाने के लिए सहमत है। उदाहरण के लिए, एक बॉक्सर, फुट बेलर, क्रिकेटर, आदि उस खेल में घायल होने पर उपचार की तलाश नहीं कर सकते, जिसमें वे शामिल होने के लिए सहमत थे। जहां एक प्रतिवादी इस बचाव की पैरवी करता है, वह वास्तव में कह रहा है कि वादी ने उस कार्य के लिए सहमति दी, जिसकी वह अब शिकायत कर रहा है। यह साबित किया जाना चाहिए कि वादी को शामिल जोखिम की प्रकृति और सीमा के बारे में पता था। Case: Khimji Vs Tanga Mombasa Transport Co. Ltd (1962), वादी एक मृतक के निजी प्रतिनिधि थे, जो प्रतिवादी की बस में एक यात्री के रूप में यात्रा करते समय अपनी मृत्यु से मिले थे। बस ऐसी जगह पहुंची जहां सड़क पर पानी भर गया था और उसे पार करना जोखिम भरा था। चालक यात्रा जारी रखने के लिए अनिच्छुक था लेकिन मृतक सहित कुछ यात्रियों ने जोर देकर कहा कि यात्रा जारी रखी जानी चाहिए। चालक अंततः झुक गया और मृतक सहित कुछ यात्रियों के साथ आगे बढ़ा। बस सवार सभी यात्रियों के साथ डूब गई। अगले दिन मृतक का शव मिला। यह माना गया था कि प्रतिवादियों के खिलाफ वादी की कार्रवाई को बनाए नहीं रखा जा सकता क्योंकि मृतक शामिल जोखिम को जानता था और इसे स्वेच्छा से मानता था और इसलिए वोलेंटी नॉन फिट इंज्यूरिया का बचाव सही ढंग से लागू होता था। हालाँकि, के अधिकतम के आवेदन की कुछ सीमाएँ हैं volenti non fit injuria: - सबसे पहले, सहमति, छुट्टी या लाइसेंस द्वारा किसी भी गैरकानूनी कार्य को वैध नहीं बनाया जा सकता है। दूसरे, वैधानिक कर्तव्य के उल्लंघन के आधार पर कार्रवाई के खिलाफ Legal Maxims की कोई वैधता नहीं है। तीसरा, कहावत बचाव के मामलों में लागू नहीं होती है, जैसे कि जहां वादी ने, प्रतिवादी के गलत गलत कदाचार के कारण, जानबूझकर और जानबूझकर एक जोखिम का सामना किया है, यहां तक कि व्यक्तिगत चोट या मृत्यु के आसन्न खतरे से दूसरे को बचाने के लिए मौत का भी खतरा है।क्या संकटापन्न व्यक्ति वह है जिसे वह अपने परिवार के सदस्य के रूप में सुरक्षा का कर्तव्य देता है, या वह केवल एक अजनबी है जिसके लिए उसका ऐसा कोई विशेष कर्तव्य नहीं है। चौथा, कहावत लापरवाही के मामलों पर लागू नहीं होती है। अंत में, यह कहावत लागू नहीं होती है जहां वादी के कार्य ने अधिकतम के तहत बचाव को स्थापित करने के लिए भरोसा किया था, जिस अधिनियम को रोकने के लिए प्रतिवादी एक कर्तव्य के तहत था।
- मकसद और द्वेष | MOTIVE AND MALICE - TORTS
MOTIVE AND MALICE मकसद और द्वेष www.lawtool.net मकसद का अर्थ है प्रतिवादी के कार्य के पीछे का कारण। जब मकसद दुर्भावना से रंगा जाता है, तो वह द्वेष बन जाता है। द्वेष का अर्थ है किसी को नुकसान पहुँचाने की इच्छा या दुर्भावना। एक सामान्य नियम के रूप में, Torts में दायित्व का निर्धारण करने में मकसद अप्रासंगिक है। एक अच्छा या बुरा इरादा Torts में बचाव नहीं है। Case: Bradford CorporationVs. Pickles (1895): इस मामले में मकसद और द्वेष की सामान्य अप्रासंगिकता का स्पष्ट रूप से विश्लेषण किया गया है। ब्रैडफोर्ड कॉरपोरेशन (वादी) द्वारा अपनी जल परियोजना के लिए अपनी जमीन खरीदने से इनकार करने से अचार नाराज था। द्वेष के कारण उसने अपनी भूमि में एक शाफ्ट को डुबो दिया, जिससे निगम के पानी का रंग फीका पड़ने और घटने का प्रभाव पड़ा, जो उसकी भूमि के माध्यम से रिसता था। अचार को भूमिगत जल एकत्र करने से रोकने के लिए निगम ने निषेधाज्ञा के लिए आवेदन किया था। अदालत ने माना कि एक निषेधाज्ञा नहीं दी जा सकती क्योंकि अचार को अपनी जमीन से एक परिभाषित चैनल में नहीं चलने वाले भूमिगत पानी से निकलने का अधिकार था। इसलिए, यह तथ्य कि अचार अपने आचरण में दुर्भावनापूर्ण था, महत्वहीन है। द्वेष अपने आप में एक यातना नहीं है, हालांकि कुछ मामलों में, यह एक यातना का एक अनिवार्य तत्व हो सकता है, उदाहरण के लिए, दुर्भावनापूर्ण अभियोजन। Distinctions between Contract and Tort contract और Tort. के बीच अंतर एक contract में, पक्ष स्वयं कर्तव्यों को ठीक करते हैं जबकि torts में, कानून कर्तव्यों को ठीक करता है। एक contract यह निर्धारित करता है कि contract के पक्ष केवल उस पर मुकदमा कर सकते हैं और उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है (अनुबंध की गोपनीयता) जबकि torts में मुकदमा करने या मुकदमा चलाने के लिए गोपनीयता की आवश्यकता नहीं है। एक contract के मामले में, कर्तव्य एक निश्चित व्यक्ति (व्यक्तियों) के लिए बकाया है, जबकि torts में, कर्तव्य बड़े पैमाने पर समुदाय के लिए देय है, यानी कर्तव्य में छूट। contract में, उपाय liquidated or unliquidated हर्जाने के रूप में हो सकता है जबकि tort, में, remedy हमेशा unliquidated.होते हैं। Distinctions between Tort and Crime टोर्ट और क्राइम के बीच अंतर Torts में, घायल पक्ष द्वारा मुआवजा प्राप्त करने के लिए अदालत में कार्रवाई की जाती है जबकि अपराध में, राज्य द्वारा कार्यवाही की जाती है। Torts में मुकदमेबाजी का उद्देश्य अपराध के दौरान घायल पक्ष को मुआवजा देना है; अपराधी को राज्य द्वारा समाज के हित में दंडित किया जाता है। एक torts व्यक्तियों के नागरिक अधिकारों का उल्लंघन है जबकि एक अपराध सार्वजनिक अधिकारों और कर्तव्यों का उल्लंघन है, जो पूरे समुदाय को प्रभावित करता है। आपराधिक मामलों में शामिल पक्ष अभियोजन पक्ष अभियुक्त व्यक्ति हैं जबकि टोर्ट्स में, पक्ष वादी बनाम प्रतिवादी हैं।
- पृथक्करण का सिद्धांत | Doctrine of Severability
The Doctrine of Severability पृथक्करण का सिद्धांत www.lawtool.net पृथक्करण का सिद्धांत यह संपूर्ण अधिनियम नहीं है जिसे संविधान के भाग III के साथ असंगत होने के कारण अमान्य माना जाएगा, बल्कि इसके केवल ऐसे प्रावधान हैं जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, बशर्ते कि मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाला हिस्सा अलग-अलग हो जो उन्हें अलग नहीं करता। लेकिन यदि वैध भाग को अवैध भाग के साथ इतना घनिष्ठ रूप से मिला दिया जाता है कि इसे अधूरा छोड़े बिना अलग नहीं किया जा सकता है या कम या ज्यादा मिश्रित शेष तो अदालत पूरे अधिनियम को शून्य घोषित कर देगी। इस प्रक्रिया को पृथक्करणीयता या पृथक्करण के सिद्धांत के रूप में जाना जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस सिद्धांत को A.K. Gopalan v. State of Madras, A.I.R. 1950 S.C. 27और माना कि निवारक निरोध माइनस धारा 14 वैध था क्योंकि अधिनियम से धारा १४ की चूक अधिनियम की प्रकृति और उद्देश्य को नहीं बदलेगी और इसलिए शेष अधिनियम वैध और प्रभावी रहेगा। सिद्धांत को D.S. Nakara v. Union of India, AIR 1983 S.C. 130 में लागू किया गया था, जहां अधिनियम वैध रहा, जबकि इसके अमान्य हिस्से को अमान्य घोषित कर दिया गया क्योंकि यह शेष अधिनियम से अलग था। In-State of Bombay v. F.N. Balsara, A.I.R. 1951 S.C. 318 यह माना गया कि बॉम्बे निषेध अधिनियम, १९४९ (1949) के प्रावधान जिन्हें शून्य घोषित किया गया था, पूरे अधिनियम की वैधता को प्रभावित नहीं करते थे और इसलिए पूरे क़ानून को अमान्य घोषित करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पृथक्करणीयता के सिद्धांत पर विस्तार से विचार किया गया है। R.M.D.C. v. Union of India, AIR 1957 S.C. 628, और पृथक्करणीयता के प्रश्न के संबंध में निम्नलिखित नियम निर्धारित किए गए हैं: (१) विधायिका की मंशा यह निर्धारित करने में निर्धारण कारक है कि क्या किसी क़ानून का वैध हिस्सा अमान्य भागों से अलग किया जा सकता है। (२) यदि वैध और अमान्य प्रावधान इतने अटूट रूप से मिश्रित हैं कि उन्हें दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है, तो एक हिस्से की अमान्यता के परिणामस्वरूप अधिनियम की संपूर्णता में अमान्यता होनी चाहिए। दूसरी ओर, यदि वे इतने अलग और अलग हैं कि जो अमान्य है उसे काट देने के बाद जो शेष रह जाता है, वह अपने आप में एक पूर्ण संहिता है, जो बाकी से स्वतंत्र है, तो इसे बरकरार रखा जाएगा, भले ही बाकी अप्रवर्तनीय हो गए हों। (३) यहां तक कि जब प्रावधान जो वैध हैं, अलग हैं और उन से अलग हैं जो अमान्य हैं यदि वे एक एकल योजना का हिस्सा हैं, जिसका उद्देश्य समग्र रूप से संचालित होना है, तो भी एक हिस्से की अमान्यता के परिणामस्वरूप विफलता होगी पूरे की। (४) इसी तरह जब किसी क़ानून के वैध और अमान्य हिस्से स्वतंत्र होते हैं और किसी योजना का हिस्सा नहीं बनते हैं, लेकिन अमान्य हिस्से को छोड़ने के बाद जो बचा है वह इतना पतला और छोटा होता है कि वह उस समय से अलग होता है जब वह उभरा था। विधायिका से बाहर, तो भी इसे पूरी तरह से खारिज कर दिया जाएगा। (५) किसी क़ानून के वैध और अमान्य प्रावधानों की विच्छेदता इस बात पर निर्भर नहीं करती है कि प्रावधान एक ही खंड या अलग-अलग खंड में अधिनियमित हैं या नहीं, यह रूप नहीं बल्कि पदार्थ का सार है जो भौतिक है और जिसका पता लगाया जाना है समग्र रूप से अधिनियम की एक परीक्षा और उसमें प्रासंगिक प्रावधानों की स्थापना पर। (६) यदि अवैध हिस्से को क़ानून से हटा दिए जाने के बाद जो बचा है उसे उसमें बदलाव और संशोधन किए बिना लागू नहीं किया जा सकता है, तो इसे पूरी तरह से शून्य माना जाना चाहिए, अन्यथा यह न्यायिक कानून होगा। (७) पृथक्करणीयता के प्रश्न पर विधायी मंशा का निर्धारण करने में, विधान के इतिहास, उसके उद्देश्य, उसके शीर्षक और प्रस्तावना को ध्यान में रखना वैध होगा।
- नारीवादी न्यायशास्त्र | Feminist Jurisprudence
Feminist Jurisprudence नारीवादी न्यायशास्त्र www.lawtool.net नारीवादी न्यायशास्त्र लिंगों /gender की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक समानता पर आधारित कानून का दर्शन है। कानूनी छात्रवृत्ति के क्षेत्र के रूप में, नारीवादी न्यायशास्त्र की शुरुआत 1960 के दशक में हुई थी। यह अब अमेरिकी कानून और कानूनी विचार में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है और यौन और घरेलू हिंसा, कार्यस्थल में असमानता और लिंग आधारित भेदभाव पर कई बहसों को प्रभावित करता है। विभिन्न दृष्टिकोणों के माध्यम से, नारीवादियों ने निष्पक्ष रूप से तटस्थ कानूनों और प्रथाओं के जेंडर घटकों और लिंग संबंधी प्रभावों की पहचान की है। रोजगार, तलाक, प्रजनन अधिकार, बलात्कार, घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न को प्रभावित करने वाले कानून नारीवादी न्यायशास्त्र के विश्लेषण और अंतर्दृष्टि से लाभान्वित हुए हैं। परिचय /INTRODUCTION अवधारणा नारीवाद 18 वीं शताब्दी में जनता के ध्यान में आया मैरी वॉलस्टोन ने दोनों लिंगों के लिए सामान्य संबंध क्षमता के आधार पर एक महिला के लिए समान अवसर के लिए तर्क दिया नारीवादी आंदोलन जो महिला कानून की समानता और मुक्ति की मांग करता है नारीवादी न्यायशास्त्र महिला आंदोलन से अधिक आम तौर पर एक विकास है , यह १९६० के अंत में और १९७० की शुरुआत में दूसरा सेक्स लिखने के साथ उभरा १९४९ नारीवादी न्यायशास्त्र ब्रिटेन की तुलना में उत्तरी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में अजनबी है। महिला। [बलात्कार, घरेलू हिंसा, प्रजनन मुद्दे, असमान वेतन, लिंग निर्धारण, यौन उत्पीड़न] 1978 में एक हार्वर्ड सम्मेलन में ऐन स्केल नारीवादी न्यायशास्त्र के बुनियादी मुद्दों से निपटते हुए। कानूनी प्रतिष्ठा पुरुष सत्ता की व्यवस्था का मुद्दा नारीवादी पौराणिक कथा नारीवादी न्यायशास्त्र का स्कूल /School of feminist jurisprudence पुरुषों और महिलाओं के लिए उपचार की समानता रोजगार और शिक्षा के लिए समान वेतन पहुंच उदाहरण के लिए, {1975 यूके में लिंग भेदभाव अधिनियम महिला के खिलाफ भेदभाव को प्रतिबंधित करने के बजाय लिंग के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है} कट्टरपंथी - कट्टरपंथी नारीवाद मौजूदा सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और कानूनी वर्चस्व लैंगिक समानता का मुद्दा पुरुष वर्चस्व के बारे में वितरण शक्ति के बारे में एक बड़ा सवाल है और महिला अधीनस्थ महिला समान अधिकार का दावा करने की प्रतीक्षा करती है कैथरीन मैकिनन ने दावा किया कि प्रभुत्व दृष्टिकोण प्रामाणिक नारीवादी आवाज है नारीवादियों का मानना है कि इतिहास पुरुष के दृष्टिकोण से लिखा गया था और इतिहास बनाने और समाज की संरचना में महिलाओं की भूमिका को नहीं दर्शाता है। पुरुष-लिखित इतिहास ने मानव स्वभाव, लिंग क्षमता और सामाजिक व्यवस्था की अवधारणाओं में पूर्वाग्रह पैदा कर दिया है। कानून की भाषा, तर्क और संरचना पुरुष-निर्मित हैं और पुरुष मूल्यों को सुदृढ़ करती हैं। पुरुष विशेषताओं को "आदर्श" के रूप में और महिला विशेषताओं को "आदर्श" से विचलन के रूप में प्रस्तुत करके, कानून की प्रचलित अवधारणाएं पितृसत्तात्मक शक्ति को सुदृढ़ और कायम रखती हैं। नारीवादी इस विश्वास को चुनौती देते हैं कि पुरुषों और महिलाओं की जैविक संरचना इतनी भिन्न है कि कुछ व्यवहार को सेक्स के आधार पर जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। नारीवादियों का कहना है कि लिंग सामाजिक रूप से निर्मित होता है, जैविक रूप से नहीं। सेक्स शारीरिक बनावट और प्रजनन क्षमता जैसे मामलों को निर्धारित करता है, लेकिन मनोवैज्ञानिक, नैतिक या सामाजिक लक्षणों को नहीं। यद्यपि नारीवादी पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता के लिए समान प्रतिबद्धताओं को साझा करते हैं, नारीवादी न्यायशास्त्र एक समान नहीं है। नारीवादी न्यायशास्त्र के भीतर विचार के तीन प्रमुख स्कूल हैं। सबसे पहले, पारंपरिक या उदारवादी, नारीवाद का दावा है कि महिलाएं पुरुषों की तरह ही तर्कसंगत हैं और इसलिए उन्हें अपनी पसंद बनाने का समान अवसर मिलना चाहिए। उदारवादी नारीवादी पुरुष सत्ता की धारणा को चुनौती देते हैं और कानून द्वारा मान्यता प्राप्त लिंग-आधारित भेदों को मिटाने की कोशिश करते हैं जिससे महिलाएं बाजार में प्रतिस्पर्धा कर सकें। नारीवादी कानूनी विचार का एक और स्कूल, सांस्कृतिक नारीवाद, पुरुषों और महिलाओं के बीच मतभेदों पर ध्यान केंद्रित करता है और उन मतभेदों का जश्न मनाता है। मनोवैज्ञानिक कैरल गिलिगन के शोध के बाद, विचारकों के इस समूह ने दावा किया कि महिलाएं परस्पर विरोधी पदों के रिश्तों, संदर्भों और सामंजस्य के महत्व पर जोर देती हैं, जबकि पुरुष अधिकारों और तर्क के अमूर्त सिद्धांतों पर जोर देते हैं। इस स्कूल का लक्ष्य महिलाओं की देखभाल और सांप्रदायिक मूल्यों की नैतिक आवाज को समान मान्यता देना है। अंत में, कट्टरपंथी या प्रमुख नारीवाद असमानता पर केंद्रित है। इसी तरह उदारवादी नारीवाद के लिए, कट्टरपंथी नारीवाद का दावा है कि एक वर्ग के रूप में पुरुषों ने महिलाओं को एक वर्ग के रूप में हावी किया है, जिससे लैंगिक असमानता पैदा हुई है। कट्टरपंथी नारीवादियों के लिए, लिंग शक्ति का प्रश्न है। कट्टरपंथी नारीवादी हमें पारंपरिक दृष्टिकोणों को त्यागने का आग्रह करते हैं जो मर्दानगी को उनके संदर्भ बिंदु के रूप में लेते हैं। उनका तर्क है कि लैंगिक समानता का निर्माण पुरुषों से महिलाओं के मतभेदों के आधार पर किया जाना चाहिए और यह केवल उन मतभेदों का समायोजन नहीं होना चाहिए।
- भारत में अपराध की अवधारणा और अपराध के कानून
भारत में अपराध की अवधारणा और अपराध के कानून www.lawtool.net अपराध" की परिभाषा: 'अपराध' शब्द ग्रीक अभिव्यक्ति क्रिमोस से लिया गया है जिसका अर्थ है सामाजिक व्यवस्था और यह उन कृत्यों पर लागू होता है जो सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ जाते हैं और गंभीर निंदा के योग्य हैं '। शब्द 'भारतीय दंड संहिता में अपराध को नकारा नहीं गया है', प्रख्यात अपराधियों और समाजशास्त्रियों द्वारा दी गई परिभाषाएँ नीचे दी गई हैं: एक सार्वजनिक गलत के रूप में: सर विलियम ब्लॉकस्टोन दो तरह से अपराध को नकारते हैं: (i) अपराध "एक कार्य है" या किसी सार्वजनिक कानून के उल्लंघन में इसे मना करने या आदेश देने से छोड़ा गया है"। (ii) "एक अपराध पूरे समुदाय के कारण सार्वजनिक अधिकारों और कर्तव्यों का उल्लंघन है, जिसे एक समुदाय माना जाता है। सर जेम्स स्टीफन, ब्लैकस्टोन की परिभाषा को संशोधित करते हुए कहते हैं," एक अपराध एक अधिकार का उल्लंघन है, जिसे माना जाता है बड़े पैमाने पर समुदाय के संबंध में इस तरह के उल्लंघन की बुरी प्रवृत्ति के संदर्भ में "। एक नैतिक गलत के रूप में: राफेल गैराफालो के अनुसार, "अपराध एक अनैतिक और हानिकारक अधिनियम है जिसे जनता की राय में आपराधिक माना जाता है क्योंकि यह बहुत अधिक चोट है समुदाय के रूप में नैतिक भावना का - एक उपाय जो व्यक्ति के समाज के अनुकूलन के लिए अपरिहार्य है। एक पारंपरिक गलत के रूप में: एडविन सदरलैंड कहते हैं, "आपराधिक व्यवहार आपराधिक कानून के उल्लंघन में व्यवहार है। किसी कार्य की अनैतिकता, निन्दा या अभद्रता चाहे जो भी हो, यह अपराध नहीं है जब तक कि यह आपराधिक कानून द्वारा निषिद्ध न हो। आपराधिक कानून, बदले में, पारंपरिक रूप से मानव आचरण के बारे में विशिष्ट नियमों के एक निकाय के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसे राजनीतिक प्राधिकरण द्वारा प्रख्यापित किया गया है, जो उन वर्गों के सभी सदस्यों पर समान रूप से लागू होते हैं जिन्हें नियम संदर्भित करते हैं, और जिन्हें दंड द्वारा प्रशासित किया जाता है। राज्य। लक्षण, जो अन्य नियमों से मानव आचरण के संबंध में नियमों के इस निकाय को अलग करते हैं, इसलिए, राजनीतिक रूप से, विशिष्टता, एकरूपता और दंडात्मक स्वीकृति हैं। "एक सामाजिक गलत के रूप में: एक समाजशास्त्री जॉन गिलिन के अनुसार, "अपराध एक ऐसा कार्य है जिसे वास्तव में समाज के लिए हानिकारक दिखाया गया है, या जिसे लोगों के एक समूह द्वारा सामाजिक रूप से हानिकारक माना जाता है जो इसे लागू करने की शक्ति रखता है। विश्वास और जो ऐसे अपराधों को सकारात्मक दंड के प्रतिबंध के तहत रखता है। "एक प्रक्रियात्मक गलत के रूप में: ऑस्टिन कहते हैं," एक गलत जो संप्रभु या उसके अधीनस्थों द्वारा पीछा किया जाता है वह एक अपराध है। एक गलत जो घायल पक्ष और उसके प्रतिनिधियों के विवेक पर किया जाता है, एक नागरिक चोट है। केनी के अनुसार, "अपराध गलत हैं जिनकी मंजूरी दंडात्मक है, और किसी भी निजी व्यक्ति द्वारा किसी भी तरह से अस्वीकार्य नहीं हैं, लेकिन केवल ताज के द्वारा क्षमा किया जा सकता है, यदि बिल्कुल भी अस्वीकार्य है। पैटन के अनुसार, "अपराध में हम पाते हैं कि सामान्य तरीके यह हैं कि राज्य को दंड देने या सजा देने की प्रक्रिया को नियंत्रित करने की शक्ति है। "कीटन ने अपराध को इस रूप में परिभाषित किया है," एक अपराध आज कोई भी अवांछनीय कार्य प्रतीत होता है, जिसे राज्य किसी घायल व्यक्ति के विवेक पर उपाय छोड़ने के बजाय दंड लगाने के लिए कार्यवाही की संस्था द्वारा ठीक करने के लिए इसे सबसे सुविधाजनक रूप से समाप्त करता है। "अन्य परिभाषाएं: ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के अनुसार, अपराध" कानून द्वारा दंडनीय कार्य है जैसा कि क़ानून द्वारा निषिद्ध या लोक कल्याण के लिए हानिकारक है। "हेल्सबरी के इंग्लैंड के कानून प्रदान करते हैं," एक अपराध एक गैरकानूनी कार्य है जो जनता के खिलाफ अपराध है और व्यक्ति को कानूनी दंड के लिए अधिनियम के लिए दोषी ठहराता है। " माइकल और एडलर राज्य, "अपराध की सबसे सटीक और कम से कम अस्पष्ट परिभाषा वह है जो इसे ऐसे व्यवहार के रूप में परिभाषित करती है जो आपराधिक संहिता द्वारा निषिद्ध है। बी.ए रॉटली के अनुसार," एक अपराध कानून के खिलाफ एक अपराध है, और आमतौर पर नैतिकता के खिलाफ अपराध है, समाज के अपने साथी सदस्यों के लिए एक व्यक्ति के सामाजिक कर्तव्य के खिलाफ, यह अपराधी को सजा के लिए उत्तरदायी बनाता है। ओसबोर्न के अनुसार, "अपराध एक ऐसा कार्य या चूक है जो समुदाय के पूर्वाग्रह की ओर प्रवृत्त होता है, और राज्य के मुकदमे में सजा के दर्द पर कानून द्वारा मना किया जाता है। " डोनाल्ड टाफ्ट डीन्स, "अपराध एक सामाजिक चोट और अभिव्यक्ति है व्यक्तिपरक राय समय और स्थान में भिन्न होती है। "मिलर अपराध" को एक अधिनियम के कमीशन या चूक के रूप में परिभाषित करता है जिसे कानून अपने नाम पर कार्यवाही द्वारा राज्य द्वारा लगाए जाने वाले दंड के दर्द के तहत मना करता है या आदेश देता है। पॉल डब्ल्यू। टप्पन अपराध को "एक जानबूझकर कार्य या आपराधिक कानून के उल्लंघन के रूप में परिभाषित करता है, बिना बचाव या औचित्य के किया जाता है और कानून द्वारा गुंडागर्दी या दुराचार के रूप में स्वीकृत होता है। " सेलिन ने अपराध को "एक ऐसा कार्य" के रूप में परिभाषित किया, जो दया की बुनियादी नैतिक भावनाओं को ठेस पहुंचाता है। दूसरों के संपत्ति अधिकारों के संबंध में पीड़ा या / दूसरों और संपत्ति की स्वैच्छिक आरोपण। " एलेनर ह्यूबर्ट जॉनसन का कहना है कि अपराध "एक ऐसा कार्य है जिसे समूह औपचारिक रूप से औचित्य साबित करने के लिए अपने मौलिक हितों के लिए पर्याप्त रूप से खतरनाक मानता है।
- सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता | Uniform Civil Code For All Citizens
सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता Uniform Civil Code For All Citizens www.lawtool.net सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता के प्रावधान क्या हैं? अध्याय IV में "सभी नागरिकों के लिए निर्देश समान नागरिक संहिता किसी भी अदालत द्वारा लागू नहीं की जाती है, लेकिन इसमें निर्धारित सिद्धांत इसके विपरीत शासन में मौलिक हैं और यह राज्य का कर्तव्य होगा कानून बनाने वाले इन सिद्धांतों को लागू करने के लिए"। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 44 अपने निदेशक सिद्धांतों में यह आदेश देता है कि "राज्य के नीति के राज्य सिद्धांत" में यह कहा गया है कि "इस भाग में निहित प्रावधान न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह ने अपने अलग लेकिन समवर्ती निर्णय में कहा: कोई आश्चर्य करता है कि इसमें कितना समय लगेगा भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत संविधान के पूर्ववर्तियों के जनादेश को लागू करने के लिए दिन की सरकार के लिए पारंपरिक हिंदू कानून - उत्तराधिकार और विवाह को नियंत्रित करने वाले हिंदुओं के व्यक्तिगत कानून को 1955-56 के रूप में वापस दिया गया था सेम की प्रतीक्षा करके देश में समान व्यक्तिगत कानून की पहचान में देरी करने का कोई औचित्य नहीं है। "अनुच्छेद 44 इस अवधारणा पर आधारित है कि एक सभ्य समाज में धर्म और व्यक्तिगत कानून के बीच कोई आवश्यक संबंध नहीं है। अनुच्छेद 25 धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है जबकि अनुच्छेद 44 धर्म को सामाजिक संबंधों और व्यक्तिगत कानून से अलग करने का प्रयास करता है। विवाह, उत्तराधिकार और एक धर्मनिरपेक्ष चरित्र के समान मामलों को अनुच्छेद 25, 26 और 27 के तहत निहित गारंटी के भीतर नहीं लाया जा सकता है। हिंदुओं के व्यक्तिगत कानून, जैसे कि विवाह, उत्तराधिकार और इसी तरह के सभी एक संस्कार हैं। सिखों, बौद्धों और जैनियों के साथ हिंदुओं ने राष्ट्रीय एकता और एकीकरण के क्रम में अपनी भावनाओं को त्याग दिया है, कुछ अन्य समुदायों ने ऐसा नहीं किया। हालांकि संविधान पूरे भारत के लिए "सामान्य नागरिक संहिता" की स्थापना का आदेश देता है, इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने श्रीमती में विस्तार से विचार किया था। सरला मुद्गल, अध्यक्ष कल्याणी बनाम. भारत संघ और अन्य, निर्णय आज, 1995 (4), एस.सी. (331) माननीय द्वारा। श्री न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह और माननीय। श्री न्यायमूर्ति आर एम साही। जिस समस्या से इन अपीलों का संबंध था, वह यह थी कि बहुत से हिंदुओं ने अपना धर्म बदल लिया है और केवल द्विविवाह के परिणामों के लिए इस्लाम में परिवर्तित हो गए हैं। मसलन- जितेंद्र माथुर की शादी मीना माथुर से हुई थी। उन्होंने और एक अन्य हिंदू लड़की ने इस्लाम कबूल कर लिया, जाहिर है क्योंकि मुस्लिम कानून एक से अधिक पत्नी और चार की सीमा तक की अनुमति देता है। लेकिन कोई भी धर्म जानबूझकर विकृतियों की अनुमति नहीं देता है। दुरुपयोग की जांच करने के लिए, श्री न्यायमूर्ति आरएम सहाय ने कहा, कई इस्लामी देशों ने व्यक्तिगत कानून को संहिताबद्ध किया है "जहां बहुविवाह की प्रथा या तो पूरी तरह से प्रतिबंधित है या गंभीर रूप से प्रतिबंधित है (सीरिया, मोरक्को, ईरान, ट्यूनीशिया, पाकिस्तान, इस्लामी गणराज्य। सोवियत संघ इस संदर्भ में याद किए जाने वाले कुछ मुस्लिम देश हैं")। लेकिन हमारा एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य है, धर्म की स्वतंत्रता हमारी संस्कृति का मूल है। जरा सा भी विचलन सामाजिक ताने-बाने को हिला देता है। लेकिन धार्मिक प्रथाएं, मानवाधिकारों और गरिमा का उल्लंघनऔर अनिवार्य रूप से नागरिक और भौतिक स्वतंत्रता का पवित्र घुटन, स्वायत्तता नहीं बल्कि दमनकारी है। इसलिए, उत्पीड़ितों की सुरक्षा और राष्ट्रीय एकता और एकजुटता को बढ़ावा देने के लिए एक समान संहिता अनिवार्य है। लेकिन पहला कदम धार्मिक और सांस्कृतिक सौहार्द विकसित करने के लिए अल्पसंख्यकों के व्यक्तिगत कानून को युक्तिसंगत बनाना होना चाहिए। सरकार को अच्छी सलाह दी जाएगी। विधि आयोग को जिम्मेदारी सौंपने के लिए विद्वान न्यायाधीश का अवलोकन किया, जो अल्पसंख्यक आयोग के परामर्श से मामले की जांच कर सकता है और महिलाओं के लिए मानवाधिकारों की आधुनिक समय की एकाग्रता को ध्यान में रखते हुए व्यापक कानून ला सकता है। ”भारत के राजनीतिक इतिहास से पता चलता है कि मुस्लिम शासन, न्याय काज़ियों द्वारा प्रशासित किया जाता था जो मुसलमानों के लिए मुस्लिम धर्मग्रंथ कानून को स्पष्ट रूप से लागू करते थे, लेकिन हिंदुओं से संबंधित मुकदमेबाजी के संबंध में अब तक ऐसा कोई आश्वासन नहीं था। प्रणाली, कमोबेश, ईस्ट इंडिया कंपनी के समय में जारी रही। , 1772 तक जब वारेन हेस्टिंग्स ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच भेदभाव के बिना, मूल आबादी के लिए नागरिक न्याय के प्रशासन के लिए विनियम बनाए, 1772 विनियम 1781 के विनियमों के बाद, जहां इसके तहत निर्धारित किया गया था कि किसी भी समुदाय को अपने व्यक्तिगत द्वारा शासित किया जाना था। विरासत, विवाह, धार्मिक उपयोग और संस्थाओं से संबंधित मामलों में कानून आपराधिक न्याय का संबंध था, अंग्रेजों ने धीरे-धीरे 1832 में मुस्लिम कानून को दबा दिया और आपराधिक न्याय अंग्रेजी आम कानून द्वारा शासित था। अंत में, 1860 में भारतीय दंड संहिता लागू की गई, स्वतंत्रता तक पूरे ब्रिटिश शासन में तीसरी नीति जारी रही और भारत की कहानी को ब्रिटिश शासकों द्वारा धर्म के आधार पर राज्यों में विभाजित किया गया।
- सरकार के खिलाफ मुकदमा धारा 79 और 80 SUITS AGAINST GOVT section 79 to 80 |
SUITS AGAINST GOVT. SECTION 79 & 80 Suits against Government www.lawtool.net धारा 79 और 80 सरकार के खिलाफ मुकदमा वाद (i) सामान्य या (ii) किसी विशेष प्रकार के हो सकते हैं। सामान्य तौर पर वादों के संबंध में दीवानी वाद दायर करने से पहले प्रतिवादी को नोटिस देना आवश्यक नहीं है। हालांकि, सरकार के खिलाफ वादों के संबंध में, यह आवश्यक है के तहत नोटिस। SECTION 80 C.P.C मुद्दे चाहिए। उद्देश्य सरकार को एक अवसर प्रदान करना है। कानूनी स्थिति पर पुनर्विचार करना, और बिना किसी मुकदमे के दावे में संशोधन या निपटान करना। केंद्र सरकार को भारत संघ कहा जाएगा और राज्य सरकार को राज्य कहा जाएगा, उदा। नोटिस देने के उद्देश्य से कर्नाटक राज्य। नोटिस की अवधिः दो माह का नोटिस आवश्यक है, SECTION 80 के अनुसार वादों के संबंध में केंद्र सरकार के विरुद्ध सरकार के सचिव को नोटिस दिया जाना चाहिए। (यदि यह रेलवे से संबंधित है, तो रेलवे के महाप्रबंधक को नोटिस दिया जाना चाहिए)। राज्य के खिलाफ वादों के संबंध में कार्रवाई का कारण सरकारी नोटिस उस सरकार के सचिव को दिया जाना चाहिए। या जिले के कलेक्टर, जैसा भी मामला हो। नोटिस लिखित रूप में होना चाहिए, वादी का नाम और विवरण और निवास स्थान और उस राहत का भी उल्लेख होना चाहिए जिसका वह दावा करता है। एक लोक अधिकारी के मामले में, under Sn.80 के तहत नोटिस उसे दिया जाना चाहिए या इस कार्यालय में छोड़ दिया जाना चाहिए। Plaint/ अभियोग वादपत्र में एक बयान होगा जिसमें कहा गया है कि under Sn.80 के तहत नोटिस इस तरह से संबंधित व्यक्ति के कार्यालय में दिया गया है या छोड़ दिया गया है। यदि नोटिस की तामील नहीं की गई है, तो मुकदमा खारिज कर दिया जाना है। नई C.P.C. Sn.80(2) में प्रावधान है कि जब तत्काल या तत्काल राहत प्राप्त करने के लिए एक मुकदमा दायर किया जाना है तो अदालत की अनुमति होने पर कोई नोटिस आवश्यक नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में न्यायालय सरकार को देगा। या अधिकारी, कारण बताने का उचित अवसर। अदालत यह भी तय करती है कि तात्कालिकता है या नहीं। under Sn.80 के तहत कोई भी मुकदमा केवल तकनीकी आधार पर त्रुटि या नोटिस में दोष के आधार पर खारिज नहीं किया जाएगा। यदि राहत देने की कोई तात्कालिकता नहीं है, तो न्यायालय नोटिस देने के बाद वादी को प्रस्तुत करने के लिए वापस कर देता है। उसे नोटिस और वादी में कार्रवाई के कारण और दावा की गई राहत की पहचान करनी चाहिए।
- RES SUBJUDICE & RES JUDICATA
RES SUBJUDICE & RES JUDICATA www.lawtool.net Res-Subjudice: Sn .10 CP.C. इसका अर्थ है 'न्यायिक विचाराधीन अधिकार'। समवर्ती क्षेत्राधिकार की अदालतों को एक ही मामले के संबंध में एक साथ दो समानांतर वादों की सुनवाई से रोकने के लिए, SECTION 10 C.P.C . में प्रावधान किए गए हैं। ऐसे मामले को 'Res Subjudice' कहा जाता है यदि पहले से स्थापित मामला सक्षम अधिकार क्षेत्र के किसी अन्य न्यायालय में लंबित है। जो वर्जित है वह दूसरा मुकदमा स्थापित किया गया है। दूसरी अदालत को मुकदमे की सुनवाई के साथ आगे नहीं बढ़ना चाहिए यदि: i) एक ही पक्ष के बीच पहले से स्थापित मुकदमे में मामला सीधे और काफी हद तक जारी है। ii) पहले से स्थापित वाद (ए) उसी अदालत में होना चाहिए जिसमें दूसरा, मुकदमा लाया गया हो या (बी) किसी अन्य अदालत में मूल या अपीलीय हो। iii) पूर्व में स्थापित मामला उपरोक्त के अनुसार किसी भी न्यायालय या राहत देने के लिए सक्षम सर्वोच्च न्यायालय में लंबित होना चाहिए। जैसे: कलकत्ता में रहने वाले B के पास माल बेचने के लिए मैसूर में एक एजेंट A है। A खाते में बकाया राशि के लिए मैसूर में B पर मुकदमा करता है। वाद के लम्बित रहने के दौरान B कलकत्ता में A के खिलाफ वाद दायर करता है। कलकत्ता अदालत को आगे नहीं बढ़ना चाहिए क्योंकि मामला मैसूर कोर्ट में फिर से विचाराधीन है। सूट रहना चाहिए। EXCEPTION अपवाद: यदि कोई मुकदमा विदेशी न्यायालय में लंबित है, तो भारत में मुकदमा प्रतिबंधित नहीं है और इसलिए, एक मुकदमा दायर किया जा सकता है। SECTION 10 में प्रावधान अनिवार्य हैं। यह संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत कार्यवाही पर भी लागू होता है। Res Judicata: Sn. 11 C.P.C. Res Judicata का अर्थ है 'सही निर्णय'। इसका मतलब है कि 'मामला तय हो गया है' और इसलिए, सक्षम अदालत ने पहले ही मामले का फैसला कर लिया है। नियम यह है कि कार्यवाही की बहुलता को रोकने के लिए दूसरे मुकदमे को रोक दिया जाना चाहिए। यह नियम Duchess of Kingstone's case by Sir William de Gray, Judge. न्यायाधीश द्वारा निर्धारित किया गया था। हालाँकि, दूसरे न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को प्रतिबंधित करने के लिए कई शर्तों को पूरा किया जाना है। Conditions / शर्तेँ i) बाद के मुकदमे में सीधे और पर्याप्त रूप से जारी मामला वही मामला होना चाहिए जो सीधे और पर्याप्त रूप से या तो सीधे या रचनात्मक रूप से पिछले मुकदमे में जारी किया गया था। पूर्व वाद एक ऐसा वाद है जिस पर विचाराधीन वाद से पहले निर्णय लिया गया है। क) A अनुबंध के उल्लंघन के लिए B पर मुकदमा करता है। वाद खारिज किया जाता है। A बाद में अनुबंध के उल्लंघन के लिए उसी अनुबंध को मौखिक रूप से भंग करने के लिए B पर मुकदमा करता है। यह - RES JUDICATA के तहत वर्जित है। बी) A वर्ष 1995 के लिए किराए के लिए B पर मुकदमा करता है। बचाव यह है कि किराए का भुगतान किया गया है और कोई बकाया नहीं है। इसलिए, किराए का दावा सीधे तौर पर और काफी हद तक मुद्दा है। ii) पिछला वाद उन्हीं पार्टियों के बीच या उनके प्रतिनिधियों के बीच का होना चाहिए। iii) सूट के पक्षकारों ने पूर्व सूट में एक ही शीर्षक के तहत मुकदमा चलाया होगा, एक ही शीर्षक का मतलब समान क्षमता है। जैसे: एक हिंदू मठ का एक महंत, मर जाता है। उसका उत्तराधिकारी B उससे मठ की संपत्ति की वसूली के लिए 'S' पर मुकदमा करता है। वाद इस आधार पर खारिज किया जाता है कि वारिस ने उत्तराधिकार प्रमाणपत्र नहीं लिया था। लेकिन बाद में B को मठ के प्रबंधक के रूप में विधिवत नियुक्त किया गया। वह 'S' पर मुकदमा कर सकता है और कोई न्यायिक निर्णय नहीं है। iv) जिस न्यायालय ने पूर्व वाद का निर्णय किया था उसे बाद के वाद की सुनवाई के लिए सक्षम न्यायालय होना चाहिए था। यदि पहले न्यायालय के पास अनन्य क्षेत्राधिकार था, तो उस न्यायालय का क्षेत्राधिकार किसी भी बाद के मुकदमे को रोकने के लिए न्यायिकता के रूप में कार्य करेगा। यदि पहले न्यायालय के पास समवर्ती क्षेत्राधिकार था तो वह न्यायालय सक्षम है इसलिए न्यायिकता संचालित होती है। इसलिए, यदि पहली अदालत के पास न तो अनन्य और न ही समवर्ती क्षेत्राधिकार था, तो इसका कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है। अतः न्यायिक निर्णय लागू नहीं होगा। मुकदमा शुरू किया जा सकता है। v) बाद के मुकदमे में सीधे और काफी हद तक मुद्दे को सुना जाना चाहिए और अंत में अदालत द्वारा मुकदमे में फैसला किया जाना चाहिए।There must be the final decision, the matter is heard, and finally अंतिम निर्णय होना चाहिए, decided in any one of the following ways: निम्नलिखित में से किसी एक तरीके से निर्णय लिया गया: (a) Ex Parte (b) Dismissal (c) Decree (d) Dismissal due to Plaintiff’s failure to produce evidence. Explanation: - Sn 11 has 8 explanations: According to them (ए) एक पक्षीय (बी) बर्खास्तगी (सी) डिक्री (डी) वादी के सबूत पेश करने में विफलता के कारण बर्खास्तगी। व्याख्या:- SECTION 11 में 8 व्याख्याएं हैं: उनके अनुसार i) पिछले मुकदमे में मामला एक पक्ष द्वारा आरोपित किया जाना चाहिए था और दूसरे द्वारा स्वीकार या अस्वीकार किया जाना चाहिए था ii) पहले के मुकदमे में अपील के प्रावधान के बावजूद अदालत की क्षमता का फैसला किया जाता है, iii) "मामला" जो पहले के मुकदमे में 'या उत्तेजित या बचाव किया जाना चाहिए था, सीधे या काफी हद तक मुद्दा होगा। iv) पूर्व के वाद में दी गई राहत, यदि नहीं, तो अस्वीकृत मानी जाएगी। C.P.C के संशोधन 1976. I.कार्यवाहियों की बहुलता से बचने के लिए यह प्रदान किया जाता है कि जिला अदालत मुकदमे की कोशिश कर सकती है या इसे सक्षम क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय में स्थानांतरित कर सकती है यदि अदालत को पता चलता है कि मामले में एक प्रश्न शामिल है जिसे सीमित क्षेत्राधिकार की अदालत कोशिश करने में अक्षम होगी। II.नए C.P.C न्यायिक निर्णय के तहत सफल पक्ष को अदालत के प्रतिकूल निष्कर्षों के संबंध में रोक दिया गया था। अब, यह वर्जित नहीं है, और वह इस तरह के प्रतिकूल निष्कर्षों के खिलाफ अपील दायर कर सकता है। III.सिद्धांत अब स्वतंत्र कार्यवाही के लिए विस्तारित किया गया है
- दीवानी मुकदमे | SUITS OF A CIVIL NATURE
SUITS OF A CIVIL NATURE दीवानी मुकदमे www.lawtool.net दीवानी मामले दो प्रकार से विभाजित हैं: suits of a civil nature and ( पहले वह मामले जो सिविल नेचर के है ) The suit is not of a civil nature.(दूसरे वह मामले जो सिविल नेचर के नहीं है ) दीवानी अदालतों के पास दीवानी प्रकृति के मुकदमों की सुनवाई करने का अधिकार क्षेत्र है। यह सिद्धांत C.P.C के SECTION 9 में निर्धारित है। इसमें कहा गया है कि दीवानी अदालतों के पास दीवानी प्रकृति के सभी मुकदमों की सुनवाई का अधिकार क्षेत्र है, सिवाय उन मामलों को छोड़कर जो स्पष्ट रूप से या निहित रूप से वर्जित हैं। C.P.C 1976 में दो स्पष्टीकरण जोड़े गए हैं। 1) एक मुकदमा जिसमें संपत्ति या कार्यालय के अधिकार का विरोध किया जाता है, एक नागरिक प्रकृति का मुकदमा है, भले ही ऐसा अधिकार धार्मिक अधिकार या धार्मिक समारोह से जुड़ा हो, 2) यह महत्वहीन है चाहे कोई भी हो या नहीं शुल्क किसी कार्यालय से संलग्न किया गया था या ऐसा कार्यालय किसी विशेष स्थान से जुड़ा था या नहीं, उदाहरण: i) नागरिक प्रकृति के सूट: एक प्रथागत बैल दौड़ चलाने के लिए सुखभोग, दत्तक ग्रहण, विवाह, संपत्ति के शीर्षक से संबंधित मामले, अधिकार दफनाने के लिए।E.g.: i) Suits of Civil nature: Matters relating to Easement, Adoption, Marriage, title to property, to run a customary bull race, right to burial. ii) नागरिक प्रकृति के सूट नहीं: पुजारी (उपासक) द्वारा मंदिर में पूजा के लिए दक्षिणा का दावा करने के लिए सूट, राजनीतिक प्रश्न इत्यादि। स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित सूट: एक कार्यकर्ता का उपाय समाप्ति आदेश के खिलाफ, प्रतिबंधित है क्योंकि उपाय औद्योगिक में है विवाद अधिनियम। राज्य के अधिनियम और सार्वजनिक नीति से संबंधित वाद वर्जित हैं। इसलिए मुख्य नियम यह है कि दीवानी न्यायालय केवल दीवानी प्रकृति के वादों पर विचार कर सकते हैं। लेकिन, नागरिक और धार्मिक मिश्रित अधिकारों के साथ जटिल समस्याएं अदालतों के सामने आती हैं। ऐसी परिस्थितियों में अदालतें कुछ प्रक्रियात्मक सिद्धांतों द्वारा निर्देशित होती हैं। यदि मुख्य प्रश्न या एकमात्र प्रश्न जाति या धार्मिक अधिकार या समारोह के संबंध में है तो यह नागरिक प्रकृति का नहीं है, लेकिन यदि धार्मिक अधिकार केवल एक सहायक प्रश्न है, तो यह एक नागरिक प्रकृति का है। इसके अलावा, यदि धार्मिक या जाति के प्रश्न को तय किए बिना मुख्य प्रश्न का निर्णय नहीं किया जा सकता है, तो मामला एक नागरिक प्रकृति का है और अदालतों का अधिकार क्षेत्र है। जाति से निष्कासन (बहिष्कार)। यह एक व्यक्ति को उसके कानूनी अधिकार से वंचित कर देगा जो उसकी स्थिति का हिस्सा है। इसलिए, मुकदमा झूठ होगा। हालांकि, किसी सदस्य को जाति के रात्रिभोज या समारोहों के निमंत्रण से बाहर करने से वह सामाजिक विशेषाधिकार से वंचित हो जाएगा, और इसलिए कोई दीवानी मुकदमा दायर नहीं किया जा सकता है। उसी प्रकार a) एक पुजारी को एक निश्चित मौसम में मूर्ति को सजाने के लिए मजबूर करने के लिए कोई दीवानी मुकदमा दायर नहीं किया जा सकता है। b) एक कार्यालय से जुड़ी एक मात्र गरिमा के संबंध में मुकदमा नागरिक प्रकृति का नहीं है। स्वामीजी का यह वाद कि उन्हें पालकी में ऊँची सड़क पर ले जाया जाए, नागरिक प्रकृति का वाद नहीं है क्योंकि यह केवल एक धार्मिक सम्मान है। ii) यदि मुख्य प्रश्न नागरिक या कानूनी अधिकार है, तो यह एक नागरिक प्रकृति है। इसलिए, कार्यालय काअधिकार एक नागरिक प्रकृति का वाद है। कार्यालय धर्मनिरपेक्ष या धार्मिक हो सकता है। एक धार्मिक कार्यालय दो प्रकार का हो सकता है: a) वे कार्यालय जिनसे शुल्क संलग्न है अधिकार के रूप में। उदा. खाजी, मठ का आया, गांव का जोशी, मंदिर का पुजारी, जाति का उपाध्याय।E.g. Khaji, came from the monastery, Joshi of the village, priest of the temple, Upadhyaya of caste. ख) वे कार्यालय जिनसे कोई शुल्क नहीं जुड़ा है। इसलिए, अधिकारी को एक अनुग्रह राशि प्राप्त हो सकती है। अनुग्रह राशि की वसूली के लिए कोई दीवानी वाद दायर नहीं किया जा सकता........TO BE continue.......
- मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट | MONTAGUE-CHELMSFORD REPORT
MONTAGUE-CHELMSFORD REPORT मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट www.lawtool.net मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट की वजह से परिस्थितियां मिंटो-मोरली सुधार विफल रहे क्योंकि वे नरमपंथियों और चरमपंथियों को संतुष्ट नहीं करते थे। गोपाल कृष्ण गोखले ने उदारवाद और स्वतंत्रता जैसे पश्चिमी मूल्यों की शुरूआत की जोरदार मांग की। सुधारों द्वारा पेश किए गए अलग मुस्लिम प्रतिनिधित्व का विरोध किया गया और 1911 में शाही विधानमंडल में सुधार के खिलाफ एक प्रस्ताव पेश किया गया। बाल्कन युद्धों और बंगाल के विभाजन से भी मुसलमान बहुत परेशान थे। स्वतंत्रता के लिए आयरिश आंदोलन भारतीय लोगों के लिए भारत में स्वशासन की मांग करने के लिए एक उत्साहजनक कारक था। प्रशासन में भारतीय लोगों को जोड़ने के लिए शुरू किए गए विभिन्न उपाय सामान्य सैद्धांतिक और अपर्याप्त थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने प्रांतीय परिषद के लिए सीधे चुनाव और बढ़ी हुई सदस्यता के लिए एक योजना का सुझाव दिया भारतीयों के केंद्रीय विधानमंडल के लिए। इन विकासों के संकेत के रूप में ब्रिटिश सरकार ने अपनी नीति (1917) घोषित की कि यह प्रशासन की हर शाखा में भारतीयों के जुड़ाव को बढ़ाने और भारत में एक स्व-सरकार के क्रमिक विकास के लिए ब्रिटिश सरकार साम्राज्य। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय सेना को मध्य पूर्व और अफ्रीका में भेजा गया था। ब्रिटिश युद्ध के उपायों के लिए भारतीयों द्वारा समर्थन किया गया था। इनके परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने मोंटेग्यू को भारत भेजा। उन्होंने वायसराय चेम्सफोर्ड के साथ दौरा किया और कुछ प्रस्तावों वाली एक रिपोर्ट तैयार की। यह मोंटफोर्ड रिपोर्ट है। इसी के आधार पर ब्रिटिश संसद में एक विधेयक पेश किया गया जो बाद में भारत सरकार अधिनियम 1919 बना। रिपोर्ट में निम्नलिखित बुनियादी सिद्धांतों को ध्यान में रखा गया था। प्रांतीय सरकार को स्वतंत्रता होनी चाहिए और वह भारत सरकार के नियंत्रण से मुक्त होनी चाहिए। जन प्रतिनिधित्व होना चाहिए। इसलिए स्थानीय सरकार में, लोकप्रिय नियंत्रण पेश किया जाना था। भारत सरकार को संसद के प्रति उत्तरदायी रहना था। परिषदों का विस्तार किया जाना था। राज्य सचिव और संसद और भारत सरकार द्वारा प्रांतों पर सामान्य नियंत्रण कम से कम किया जाना चाहिए। भारत सरकार अधिनियम 1919 की मुख्य विशेषताएं: मूल सिद्धांत इस प्रकार थे प्रांतों को मानकीकृत करने के लिए उन्हें समूहीकृत किया गया था और राज्यपालों को कार्यालयों का नेतृत्व करना था। प्रांतीय स्वायत्तता लाने की दृष्टि से विकेन्द्रीकरण की शुरुआत की गई थी। राजस्व के संबंध में कुछ परिवर्तन किए गए थे।विधायी क्षेत्र में विधान की मदों पर विभाजन था। प्रांतों में द्वैध शासन की शुरुआत हुई, गवर्नमेंट इंडिया एक्ट 1919का विवरण। तीन व्यापक शीर्ष बनाए जा सकते हैं: 1. केंद्र और प्रांतों के बीच विधायी शक्तियों का हस्तांतरण (विभाजन)। 2. प्रांत: (ए) विधानमंडल (बी) प्रांतीय कार्यपालिका: राज्यपाल और उनकी शक्तियां, द्वैध शासन। 3. केंद्र: (ए) केंद्रीय विधानमंडल (बी) भारत सरकार। (केंद्रीय कार्यकारी) Devolution/हस्तांतरण विषयों को केंद्रीय और प्रांतीय में वर्गीकृत करने के लिए बुनियादी नियम बनाए गए थे।प्रांतों को उन विषयों में प्रांतीय क्षेत्रों की शांति और अच्छी सरकार के लिए कानून बनाने की शक्ति थी। प्रांत 1919 से पहले बनाए गए किसी भी कानून को प्रांतों में कार्य कर सकते थे या निरस्त कर सकते थे, (कुछ मामलों में गवर्नर जनरल की पिछली मंजूरी आवश्यक थी)। कुछ वित्तीय शक्तियाँ भी कर लगाने और आय का उचित उपयोग करने के लिए दी गई थीं। विनियमों के तहत प्रांतों को कई प्रशासनिक शक्तियाँ भी दी गईं। इस प्रकार प्रान्तों को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त हुआ। Provinces/ प्रांत प्रांतीय विधानमंडल (एक सदनीय) को "विधायिका परिषद" कहा जाता था। यह अधिकारियों का था (20%) और, अन्य निर्वाचित सदस्य थे। सदस्यता प्रांत से प्रांत में भिन्न थी। परिषद की अवधि 3 वर्ष थी। राज्यपाल के पास परिषद को भंग करने की शक्ति थी। परिषद की अध्यक्षता परिषद द्वारा निर्वाचित अध्यक्ष द्वारा की जाती थी। प्रांतीय कार्यकारी (द्वैध शासन)। राज्यपाल कार्यपालिका का प्रमुख होता था। द्वैध शासन की शुरुआत हुई। इसके तहत आरक्षित विषयों के प्रभारी ब्रिटिश मंत्री थे; और स्थानांतरित विषयों के प्रभारी भारतीय मंत्री भी। Center/केंद्र: केंद्रीय विधानमंडल के दो सदन थे: राज्यों की परिषद और विधान सभा। परिषद में 19 अधिकारी, 6 गैर-सरकारी और 34 निर्वाचित सदस्य (कुल 59) थे। अवधि 5 वर्ष थी। परिषद के अध्यक्ष को गवर्नर-जनरल द्वारा नामित किया गया था। विधान सभा: इसमें 143 सदस्य, अधिकारी 25, गैर-सरकारी 15 और निर्वाचित 103 थे। सदनों के बीच मतभेदों को सुलझाने के लिए संयुक्त बैठक का प्रावधान था। केंद्रीय कार्यकारी: गवर्नर-जनरल केंद्रीय कार्यकारी (भारत सरकार) का प्रमुख था, ब्रिटिश संसद ने राज्य के सचिव के माध्यम से भारत सरकार को नियंत्रित किया, जिसमें विशेषज्ञों की एक परिषद थी। गवर्नर जनरल के पास के तहत व्यापक शक्तियाँ थींब्रिटिश भारत की सुरक्षा और शांति की अवधारणा। वह वित्तीय क्षेत्र में विधेयकों पर अपनी सहमति रोक सकता था, वह अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन के लिए मांग को आवश्यक बना सकता था। वित्तीय बिल आदि पेश करने में उनकी मंजूरी की आवश्यकता थी। Dyarchy/द्वैध शासन: भारत सरकार अधिनियम 1919 द्वारा प्रांतों में द्वैध शासन की शुरुआत की गई थी। Lionel Curtis had written a book by nameThe Round Table', नाम से एक पुस्तक लिखी थी, जिसमें उन्होंने कार्यकारी समस्याओं के समाधान के रूप में द्वैध शासन की सिफारिश की थी। इसके आधार पर, मोंटफोर्ड रिपोर्ट ने सिफारिश की थी। द्वैध शासन आवश्यक सुविधाएं: विधान की विभिन्न मदों में वर्गीकृत किया गया था: (i) आरक्षित विषय (ii) हस्तांतरित विषय। पहला ब्रिटिश मंत्रियों द्वारा सुरक्षित रखा गया था लेकिन दूसरा भारतीय मंत्रियों को सौंप दिया गया था। इसलिए इसका उद्देश्य विशिष्ट पोर्ट-फोलियो के साथ ब्रिटिश और भारतीय मंत्रियों की सहकारी टीम बनना था। राज्यपाल कार्यपालिका का प्रमुख था। ब्रिटिश मंत्री गवर्नरों के प्रति उत्तरदायी थे। लेकिन भारतीय मंत्री निर्वाचित प्रतिनिधियों के प्रति उत्तरदायी थे। इसलिए यह एक अजीबोगरीब संयोजन था जो अजीबोगरीब कैबिनेट जिम्मेदारी की ओर ले जाता था। इसके परिणामस्वरूप टीम भावना के बजाय आरक्षित और स्थानांतरित विषयों से संबंधित शक्तियों के संबंध में मतभेद और झगड़े थे। द्वैध शासन की स्वाभाविक मृत्यु हुई। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण प्रयोग था भारत में प्रांतीय स्तर विफलता के कुछ कारण इस प्रकार थे: मंत्रिपरिषद का शायद ही कोई संयुक्त विचार-विमर्श हो सकता था, और बैठक के बिंदुओं पर मतभेद हावी थे। कैबिनेट जिम्मेदारी के संबंध में एक विभाजन था। आरक्षित समूह राज्यपाल के प्रति उत्तरदायी था लेकिन स्थानांतरित समूह विधायिका के प्रति उत्तरदायी था। इसलिए मिथ्या नाम नहीं तो संयुक्त जिम्मेदारी असंभव थी।सिविल सेवकों ने शायद ही भारतीय मंत्रियों के साथ सहयोग किया क्योंकि बाद वाले का उन पर शायद ही कोई नियंत्रण था।वित्त आरक्षित आधे में था। इसलिए सरकार उन भारतीय मंत्रियों की आकांक्षाओं और उत्साह को पूरी तरह से नियंत्रित और कम कर सकती है जिन्होंने विकास के लिए बड़ी योजनाएं तैयार करने के लिए कड़ी मेहनत की थी। शुद्ध परिणाम यह हुआ कि द्वैध शासन बुरी तरह विफल रहा। यह बनाया भारतीय लोगों के मन में विश्वास से ज्यादा घृणा। इसके अलावा द्वैध शासन अपने आप में एक गलत धारणा थी।
- मिंटो-मॉर्ले सुधार: 1909 | MINTO-MORELY REFORMS : 1909
MINTO-MORELY REFORMS : 1909 मिंटो-मोरली रिफॉर्म्स: 1909 www.lawtool.net https://hi.lawtool.net/ भारतीय संवैधानिक इतिहास वास्को-डी-गामा 1498 में कालीकट में उतरा, जो भारतीय इतिहास में एक ऐतिहासिक तिथि है। वास्तव में, उसने भारत के लिए समुद्री मार्ग की खोज की थी और यूरोपीय देशों और भारत के बीच वाणिज्यिक संपर्क तेज कर दिया था। आने वालों में अंग्रेज़ ही थे जो खुद को स्थापित करने में सफल हुए। 1600 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई। इस तिथि से 1857 तक का विकास रोचक और अनेक यादगार ऐतिहासिक घटनाओं से भरा हुआ है। 1857 में कंपनी घायल हो गई और क्राउन ने भारतीय उपमहाद्वीप में शासन संभाला। 1857-1909, एक छोटी अवधि है जिसमें कुछ संवैधानिक परिवर्तन हुए। लेकिन, 1909 से 1950 की अवधि सबसे दिलचस्प लगती है, जिसमें दूरगामी परिणामों के साथ कई सुधार शामिल हैं। इस अवधि पर ध्यान देना होगा और यदि हमारे महान भारतीयों के पराक्रम और वीर प्रयासों की सराहना की जानी है तो अनुक्रमों का विस्तार से अध्ययन किया जाना चाहिए। भारत को स्वतन्त्र बनाने के लिए हम सबका परम कर्तव्य है कि हम हृदय से कृतज्ञता ज्ञापित करें और अपने प्राणों की आहुति देने वालों का आदर करें। उनकी आत्मा को शांति मिले / हमारा रास्ता हमेशा लोकतांत्रिक तर्ज पर हो! 1857 का स्वतंत्रता संग्राम अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के दमन के साथ समाप्त हुआ। हालाँकि, ईस्ट इंडिया कंपनी घायल हो गई और ताज ने भारत पर सीधा शासन स्थापित कर दिया। भारतीय परिषद अधिनियम 1882 ने कुछ सुधारों की शुरुआत की, लेकिन इससे भारत के लोगों की आकांक्षाओं को पूरा नहीं किया गया। 1885 में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस उग्रवादियों और नरमपंथियों में विभाजित हो गई थी। तिलक और अरविंद घोष ने गरम दल राजनीतिनीति की वकालत की जबकि गोपाल कृष्ण गोखले, लाला लाजपतराय और अन्य नरम दल राजनीती थे।जो स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए संवैधानिक साधनों में विश्वास करते थे। गोखले ने इंग्लैंड का दौरा किया और विदेश मंत्री लॉर्ड मॉर्ले के साथ भारतीय समस्याओं पर चर्चा की। लॉर्ड मिंटो और लॉर्ड मोरेली से मिलकर एक रॉयल कमीशन ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त किया गया था। इसका आवश्यक कार्य भारत में प्रशासन को सुदृढ़ करने के लिए सुधारों का सुझाव देना था। इसके सदस्यों ने निम्नलिखित कारकों को ध्यान में रखते हुए भारतीय प्रशासन का व्यापक सर्वेक्षण किया: 1. एक मुख्यालय से भारत के प्रशासन की कठिनाई; 2. प्रांतों की विभिन्न समस्याएं उनकी विभिन्न परंपराओं, भाषाओं और रुचियों के साथ; 3. प्रांतों और राज्यों में जिम्मेदारियों के प्रति जागरूकता की कमी; 4. सार्वजनिक मामलों में लोगों को शिक्षित करने की विभिन्न समस्याएं; इसने निम्नलिखित सुधारों का सुझाव दिया: इसने विकेंद्रीकरण की जोरदार सिफारिश की। वास्तव में, विकेंद्रीकरण पर एक शाही आयोग बाद में अंग्रेजों द्वारा नियुक्त किया गया था इसने परिषदों में भारतीयों की सदस्यता में वृद्धि की सिफारिश की। गवर्नर जनरल की विधान परिषद में, सुधारों ने गैर-सरकारी सदस्यों के अनुपात में काफी वृद्धि की मांग की। इसने इन सदस्यों के चयन के तरीके में पूरी तरह से बदलाव का सुझाव दिया, यानी अप्रत्यक्ष चुनाव के लिए सिफारिश की।इसके अलावा इसने सुझाव दिया कि भारत में मुस्लिम आबादी का प्रतिनिधित्व करने के लिए एक अलग भाषाई निर्वाचन क्षेत्र होना चाहिए। यह ध्यान दिया जा सकता है कि इन सुधारों के तहत बोया गया यह बीज, बाद के वर्षों में एक बड़े पेड़ के रूप में अंकुरित हुआ, जिसकी परिणति 1947 में भारत और पाकिस्तान के विभाजन के रूप में हुई। परिषद के कार्यों का विस्तार किया गया। यह प्रस्तावों का प्रस्ताव कर सकता था, प्रश्न और पूरक पूछ सकता था और मतदान भी कर सकता था। बजट पर भी चर्चा हो सकती है। सुधारों को प्रशासन को सुदृढ़ करने के लिए क्रांतिकारी परिवर्तनों के रूप में पेश किया गया था लेकिन उन्होंने न तो उद्देश्यों को पूरा किया और न ही भारतीय उद्देश्यों या आकांक्षाओं को पूरा करने में मदद की। हालाँकि, यह ध्यान देने योग्य है कि इसने विकेंद्रीकरण के संबंध में कुछ बदलाव किए और प्रशासन में अधिक भारतीय भागीदारी के लिए भी प्रदान किया।
- प्रस्तावना | PREAMBLE
PREAMBLE प्रस्तावना www.lawtool.net https://hi.lawtool.net/ #भारतीय #संविधान #प्रस्तावना प्रस्तावना प्रस्तावना संविधान के स्रोत को लोगों की संप्रभु इच्छा को इंगित करती है और संविधान की महान वस्तुओं (ताज) को भी बताती है। वास्तव में, जैसा कि केशवानंद भारती के मामले में देखा गया था: "यह 'अत्यधिक' महत्व का है कि संविधान को प्रस्तावना में व्यक्त भव्य और महान दृष्टि के प्रकाश में पढ़ा और व्याख्या किया जाना चाहिए।" विश्व के प्रमुख लिखित संविधानों में उनके संविधान की प्रस्तावना है। उदाहरण के लिए, U.S.A का संविधान, निम्नानुसार प्रदान करता है: "हम, संयुक्त राज्य अमेरिका के लोग, एक अधिक संपूर्ण संघ बनाने के लिए, न्याय स्थापित करने के लिए ........ अपने लिए और अपनी भावी पीढ़ी के लिए स्वतंत्रता का आशीर्वाद सुरक्षित करते हैं, संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए इस संविधान को नियुक्त और स्थापित करते हैं " हमारा संविधान अपनी प्रस्तावना में घोषित करता है 'हम, भारत के लोगों ने भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने और अपने सभी नागरिकों: न्याय, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और राष्ट्र की एकता और अखंडता को सुरक्षित करने के लिए हमारी संविधान सभा में संकल्प लिया है। नवंबर १९४९ के इस २६वें दिन, एतद्द्वारा इस संविधान को अपनाना, अधिनियमित करना और स्वयं को देना।'हम, भारत के लोग। . . यह लोगों की संप्रभुता की बात करता है, जो संविधान का स्रोत है। Objectives:उद्देश्य: प्रमुख उद्देश्य भारत को एक 'संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य' के रूप में स्थापित करना है। संप्रभुता भारत की अंतर्राष्ट्रीय स्थिति को एक संप्रभु राज्य के रूप में संदर्भित करती है जिसके भीतर और बाहर संप्रभुता है। समाजवादी का अर्थ कोई वाद नहीं है, बल्कि इसका अर्थ है किसी भी 'शोषण' का अभाव। 'धर्मनिरपेक्ष' इंगित करता है कि सभी धर्म समान हैं (इन दोनों को 42वें संशोधन द्वारा सम्मिलित किया गया था)। लोकतंत्र जीवन के तरीके का संदर्भ है, चर्चा द्वारा सरकार की व्यवस्था के लिए। यह जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता की सरकार है। गणतंत्र कार्यकारी प्रमुख-राष्ट्रपति चुने जाने का एक संदर्भ है। यह एक वंशानुगत कार्यालय के विरोध में है, प्रस्तावना में कुछ बुनियादी मूल्य निहित हैं। न्याय : सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक। स्वतंत्रता : विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की। समानता : स्थिति और अवसर की। बंधुत्व : व्यक्ति की गरिमा को सुनिश्चित करना। राष्ट्र की एकता और अखंडता (42वां संशोधन), Interpretation /व्याख्या: संविधान की भावना प्रस्तावना में सन्निहित है और संविधान की व्याख्या करने के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करती है। संविधान की व्याख्या में न्यायाधीशों के लिए प्रस्तावना एक उपयोगी उपकरण है। डायर सी जे (Dyer C. J) के अनुसार, प्रस्तावना "संविधान के निर्माताओं के दिमाग को खोलने की कुंजी" है। सुप्रीम कोर्ट ने बेरुबेरी यूनियन मामले में कहा था कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है, लेकिन भारती के मामले में इसे खारिज कर दिया गया है। इसलिए, प्रस्तावना का हिस्सा है संविधान और यदि संविधान के मुख्य भाग में शब्द दो अर्थों में सक्षम हैं - यानी, अस्पष्टता - जो कि प्रस्तावना में फिट बैठता है, न्यायालयों द्वारा पसंद किया जाता है।यदि संविधान में विशिष्ट प्रावधान हैं, तो वे प्रस्तावना (गोपालन के मामले) द्वारा नियंत्रित नहीं होते हैं।प्रस्तावना शक्ति का स्रोत नहीं है। यह संविधान में दी गई शक्ति को प्रतिबंधित नहीं कर सकता है।प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है और इसे अनुच्छेद ३६८ के तहत संशोधित किया जा सकता है। लेकिन संशोधन से संविधान के 'बुनियादी ढांचे' (भारती का मामला) प्रभावित नहीं होना चाहिए। प्रस्तावना में निहित उद्देश्यों में संविधान की बुनियादी संरचना जैसे संविधान की सर्वोच्चता, समानता, रिपब्लिकन और सरकार का लोकतांत्रिक रूप, धर्मनिरपेक्ष चरित्र, शक्तियों का पृथक्करण, संघीय चरित्र आदि [Bharathi case and Excel Wear case] शामिल हैं।
- भारत सरकार के अधिनियम 1935 | GOVERNMENT OF INDIA ACT 1935
GOVERNMENT OF INDIA ACT 1935 भारत सरकार अधिनियम 1935 www.lawtool.net https://hi.lawtool.net/ भारत सरकार अधिनियम 1935 गोलमेज सम्मेलनों की अगली कड़ी ब्रिटिश संसद में एक विधेयक पेश करना था जो बाद में भारत सरकार अधिनियम 1935 बन गया। अधिनियम के प्रावधानों का मसौदा एक संयुक्त चयन समिति की रिपोर्ट पर तैयार किया गया था। क्राउन द्वारा बिल को मंजूरी दे दी गई और यह 2-8- 1935 से संचालित होने वाला भारत का संविधान बन गया। अधिनियम की मुख्य विशेषताएं संक्षेप में इस प्रकार हैं: (i) संघीय संरचना। अधिनियम में एक संघ के निर्माण का प्रावधान था और संघीय ढांचा तैयार किया जाना था। इकाइयां थीं: 1. प्रांत (कार्यकारी प्रमुखों के रूप में राज्यपाल जैसे: मद्रास, बॉम्बे, कलकत्ता आदि। ग्यारह प्रांत)। 2. राज्य (जिन्हें रियासतें कहा जाता है जैसे मैसूर, हैदराबाद आदि) 3. मुख्य आयुक्त के प्रांत। दिल्ली, कूर्ग, अंडमान और निकोबार आदि। यहाँ (१) और (३) के तहत प्रांतों को संघीय ढांचे के तहत लाया गया था। लेकिन राजकुमारों के लिए कोई बाध्यकारी बल नहीं था। दूसरे शब्दों में, उनके उल्लंघन पर राजकुमार संघ में शामिल हो सकते थे। इस उद्देश्य के लिए विभिन्न शर्तों के साथ परिग्रहण का एक साधन तैयार किया गया था। (ii) संघीय कार्यकारी। गवर्नर-जनरल कार्यकारी प्रमुख था। उन्हें महामहिम द्वारा पांच साल के लिए नियुक्त किया गया था। वह क्राउन के लिए जिम्मेदार था और भारत में किसी अन्य प्राधिकरण के लिए जिम्मेदार नहीं था। उनका वेतन भारत की संचित निधि पर प्रभारित किया गया था। द्वैध शासन जिसे प्रांतों में झेलना पड़ा था, अब 1935 के अधिनियम के तहत केंद्र में मान्यता प्राप्त हुई। गवर्नर-जनरल, उनके सलाहकारों और मंत्रियों ने संघीय कार्यकारिणी का गठन किया। रक्षा, विदेश मामलों जैसे कानून के कुछ आइटम गवर्नर-जनरल को दिए गए थे। काउंसलर ने उन्हें इन विषयों पर सलाह दी। केंद्रीय कैबिनेट मंत्री संघीय विधायिका के लिए जिम्मेदार थे। गवर्नर जनरल ताज की कुर्सी के नीचे लगभग एक आभासी तानाशाह था। गवर्नर-जनरल ने दोहरी भूमिका निभाई। वह ब्रिटिश भारत के संदर्भ में भारत के गवर्नर जनरल थे, लेकिन भारतीय राज्यों के संबंध में क्राउन के प्रतिनिधि थे। (iii) संघीय विधानमंडल: राज्यों की परिषद और संघीय सदन (ऊपरी और निचले सदन) से मिलकर।विधायी शक्तियों का वितरण:संघीय विधायिका के पास अपने आप में एक अजीबोगरीब नींव थी, लोकतांत्रिक और निरंकुश। विधायी शक्तियों को तीन सूचियों-केंद्रीय प्रांतीय और समवर्ती में विभाजित किया गया था। केंद्रीय (संघीय) सूची में कानून के 49 विषय थे: रक्षा, विदेश मामले, सिक्का, पोस्ट और टेलीग्राफ आदि। प्रांतीय सूची में ५४ विषय थे: पुलिस, सार्वजनिक व्यवस्था, कृषि भूमि काश्तकार आदि। समवर्ती सूची में 36 विषय थे: आपराधिक कानून, विवाह, वसीयतनामा उत्तराधिकार इत्यादि। अवशेष गवर्नर-जनरल के पास था। कई प्रतिबंध लगाए गए थे। (The Residuary was with the Governor-General.) कुछ विषयों के लिए गवर्नर-जनरल की पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता होती है उदा। पुलिस से संबंधित मामले, यूरोपीय ब्रिटिश विषयों को छूने वाले मामले आदि। कुछ मामले जैसे। संप्रभु या शाही परिवार को छूने पर भी चर्चा नहीं की जा सकती: पारित विधेयकों के संबंध में, गवर्नर-जनरल अपनी सहमति रोक सकते हैं या संघीय विधायिका को पुनर्विचार के लिए भेज सकते हैं। (iv) संघीय न्यायालय: दिल्ली में एक संघीय न्यायालय के गठन के लिए प्रदान किया गया अधिनियम जिसमें मुख्य न्यायाधीश और दो अन्य न्यायाधीश शामिल थे अधिनियम में प्रावधान था कि न्यायाधीशों को क्राउन द्वारा नियुक्त किया जाना चाहिए और उन्हें 65 वर्ष की आयु तक अपना पद धारण करना था . यह न्यायाधीशों की नियुक्ति के तरीके और योग्यता के लिए प्रदान करता है। अदालत को स्वतंत्रता थी और विधायिका में न्यायाधीशों के आचरण पर सवाल नहीं उठाया जा सकता था।अदालत के पास मूल अपीलीय और सलाहकार क्षेत्राधिकार थे। अधिकार - क्षेत्र : (१) मूल क्षेत्राधिकार: प्रांतों और राज्यों या प्रांतों के बीच परस्पर, या राज्यों के बीच विवाद। (२) अपीलीय क्षेत्राधिकार संवैधानिक मामले यानी, भारत सरकार अधिनियम की व्याख्या या परिषद में आदेश। उच्च न्यायालयों से आपराधिक और दीवानी अपीलीय क्षेत्राधिकार। (३) परिषद में अधिनियम या आदेशों की व्याख्या पर रियासतों से अपील। (४) सलाहकार क्षेत्राधिकार: गवर्नर-जनरल कानून या तथ्य के मामलों पर संघीय न्यायालय से परामर्श कर सकता है। संघीय न्यायालय प्राधिकरण का अंतिम न्यायालय नहीं था। फेडरल कोर्ट से इंग्लैंड में प्रिवी काउंसिल में अपील की अनुमति दी गई थी। इसका श्रेय न्यायाधीशों को जाता है कि संघीय अदालत ने स्वतंत्रता के माहौल में सराहनीय और निष्पक्ष निर्णय दिए। न्यायाधीश अपने दृष्टिकोण में ईमानदार, सीधे-सीधे, निष्पक्ष और शांत थे। अधिनियम के तहत स्थापित सभी संस्थानों में से, संघीय अदालत सबसे सफल संस्था थी। इस न्यायालय को समाप्त कर दिया गया और भारत के संविधान 1950 के तहत भारत के सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई। प्रिवी काउंसिल में अपील भी समाप्त कर दी गई।
- THE LAW OF TORTS | टोर्ट्स का कानून
THE LAW OF TORTS टोर्ट्स का कानून www.lawtool.net टोर्ट्स का कानून टॉर्ट शब्द फ्रांसीसी मूल का है और अंग्रेजी शब्द गलत/ wrong के बराबर है, और रोमन कानून शब्द delict. यह लैटिन शब्द टोर्टम/tortum से बना है, जिसका अर्थ है मुड़ या टेढ़ा। इसका तात्पर्य ऐसे आचरण से है जो मुड़ या टेढ़ा हो twisted or crooked। यह आमतौर पर एक नागरिक गलत की राशि के कर्तव्य का उल्लंघन करने के लिए प्रयोग किया जाता है। यातना को परिभाषित करने के विभिन्न प्रयासों में से, सैल्मंड की परिभाषा काफी लोकप्रिय है। सैल्मंड एक यातना को एक नागरिक गलत/ civil wrong के रूप में परिभाषित करता है जिसके लिए उपाय गैर-कानूनी नुकसान के लिए एक सामान्य कानून कार्रवाई है और जो विशेष रूप से एक अनुबंध का उल्लंघन या एक ट्रस्ट का उल्लंघन या अन्य केवल न्यायसंगत नहीं है (which is not exclusively the breach of a contract or the breach of a trust) Obligation. सामान्य तौर पर दूसरों के प्रति एक व्यक्ति के कर्तव्य के कारण एक पीड़ा उत्पन्न होती है जो एक कानून या दूसरे द्वारा बनाई गई है। एक व्यक्ति जो अत्याचार करता है उसे अत्याचारी या गलत काम करने वाला tortfeasor or a wrongdoer.कहा जाता है। जहां वे एक से अधिक होते हैं, उन्हें संयुक्त यातनाकर्ता joint tortfeasorकहा जाता है। उनके गलत काम को कपटपूर्ण कार्य कहा जाता है और उन पर संयुक्त रूप से और अलग-अलग मुकदमा चलाया जा सकता है। यातना के कानून का मुख्य उद्देश्य पीड़ितों या उनके आश्रितों को मुआवजा देना है। कुछ मामलों में अनुकरणीय हर्जाने के अनुदान से पता चलता है कि गलत काम करने वालों का प्रतिरोध भी अपकृत्य के कानून का एक अन्य उद्देश्य है।Grants of exemplary damages in certain cases will show that the deterrence of wrongdoers is also another aim of the law of tort. Objectives Of Law Of Torts टॉर्ट्स के कानून के उद्देश्य किसी विवाद के पक्षकारों के बीच अधिकारों का निर्धारण करना।द्वितीय नुकसान की निरंतरता या पुनरावृत्ति को रोकने के लिए उदा। निषेधाज्ञा के आदेश देकर।कानून द्वारा मान्यता प्राप्त कुछ अधिकारों की रक्षा के लिए उदा। किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा या अच्छा नाम।संपत्ति को उसके असली मालिक को बहाल करने के लिए उदा। जहां संपत्ति को उसके असली मालिक से गलत तरीके से छीन लिया जाता है। Constituents Of Tort टोर्टो के घटक लोगों को उचित व्यवहार के मानकों का पालन करने और एक दूसरे के अधिकारों और हितों का सम्मान करने के लिए यातना के कानून को एक उपकरण के रूप में बनाया गया है। एक संरक्षित हित एक कानूनी अधिकार को जन्म देता है, जो बदले में एक संबंधित कानूनी कर्तव्य को जन्म देता है। एक अधिनियम, जो एक कानूनी अधिकार का उल्लंघन करता है, एक गलत कार्य है, लेकिन हर गलत कार्य एक यातना नहीं है। एक यातना या नागरिक चोट का गठन करने के लिए, इसलिए: 1. कोई गलत कार्य या चूक होनी चाहिए। 2. गलत कार्य या चूक को कानूनी क्षति या वास्तविक क्षति को जन्म देना चाहिए और; 3. गलत कार्य इस प्रकार का होना चाहिए कि क्षति के लिए कार्रवाई के रूप में एक कानूनी उपाय को जन्म दे। हालांकि गलत कार्य या चूक से वादी को कार्रवाई योग्य होने के लिए वास्तविक नुकसान नहीं हो सकता है। कुछ दीवानी गलतियाँ कार्रवाई योग्य हैं, भले ही वादी को कोई नुकसान न हुआ हो। Wrongful Act. गलत अधिनियम शिकायत करने वाले पक्ष के संबंध में परिस्थितियों में कानूनी रूप से गलत होना चाहिए, अर्थात यह किसी कानूनी अधिकार में उसे प्रतिकूल रूप से प्रभावित करना चाहिए। यह एक अधिनियम या चूक होना चाहिए। केवल यह कि यह, हालांकि, सीधे तौर पर, उसे उसके हित में नुकसान पहुंचाएगा, पर्याप्त नहीं है। कानून में गलत होने के कार्य को एक्टस रीस कहा जाता है (The act being wrongful in law is called actus reus) । कोई कार्य जो प्रथम दृष्टया निर्दोष प्रतीत होता है, यदि वह किसी अन्य व्यक्ति के कानूनी अधिकार पर आक्रमण करता है, तो वह कपटपूर्ण हो सकता है। अपनी भूमि में, किसी भी चीज का निर्माण, जो पड़ोसियों के घर में प्रकाश को बाधित करता है। एक यातना के लिए दायित्व इसलिए उत्पन्न होता है जब गलत कार्य ने या तो कानूनी निजी अधिकार के उल्लंघन या कानूनी कर्तव्य के उल्लंघन या उल्लंघन के लिए राशियों की शिकायत की। Damage. नुकसान नुकसान की भरपाई के लिए अदालत द्वारा दी गई राशि को हर्जाना कहा जाता है। क्षति का अर्थ है किसी अन्य व्यक्ति के किसी गलत कार्य के परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति को हुई या होने वाली हानि या हानि। कानूनी क्षति वास्तविक क्षति के समान नहीं है। वादी के निजी अधिकार का हर उल्लंघन या उसकी संपत्ति में अनधिकृत हस्तक्षेप कानूनी क्षति को जन्म देता है। यातना के मामलों में कानूनी अधिकार का उल्लंघन होना चाहिए। हर पूर्ण अधिकार, चोट, या गलत यानी कपटपूर्ण कार्य उस क्षण पूरा होता है जब अधिकार का उल्लंघन किया जाता है, भले ही वह साथ में हो और वास्तविक क्षति हो। योग्य अधिकार के मामले में, चोट या गलत तब तक पूर्ण नहीं होता जब तक कि सही के उल्लंघन से वास्तविक या विशेष क्षति न हो। हर चोट, इस प्रकार क्षति का आयात करती है, हालांकि पीड़ित को एक पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ता है, लेकिन केवल अधिकार में बाधा डालने से, एक बदनाम शब्द के लिए एक कार्रवाई के रूप में, हालांकि एक आदमी उन्हें बोलने से एक पैसा नहीं खोता है, फिर भी उसके पास एक कार्रवाई होगी। इसी प्रकार मनुष्य को उसके विरुद्ध कार्यवाही करनी चाहिए जो उसकी भूमि पर सवार हो, हालाँकि इससे उसे कोई नुकसान नहीं होता है, क्योंकि यह उसकी संपत्ति पर आक्रमण है और दूसरे अतिचारी को वहाँ आने का कोई अधिकार नहीं है। कानूनी क्षति के वास्तविक महत्व को दो कहावतों द्वारा दर्शाया गया है: इंजुरिया साइन डानो और दमनम साइन इंजुरिया। डैमनम का मतलब पैसे, आराम, सेवा, स्वास्थ्य, या इस तरह के नुकसान के पर्याप्त अर्थों में नुकसान है। चोट लगने का मतलब एक कपटपूर्ण कार्य है। Injuria sine damno. Injuria sine damno.का होता है बिना किसी वास्तविक नुकसान या क्षति के पूर्ण निजी अधिकार का उल्लंघन है। इस मुहावरे / Legal Maxims का सीधा सा मतलब है बिना नुकसान के चोट लगना। जिस व्यक्ति के अधिकार का उल्लंघन किया गया है, उसके पास कार्रवाई का कारण है उदा। संपत्ति और स्वतंत्रता का अधिकार वास्तविक क्षति के प्रमाण के बिना कार्रवाई योग्य है। उदाहरण: एक मतदाता को पंजीकृत करने से इनकार करने के रूप में और चोट प्रति-से के रूप में आयोजित किया गया था, तब भी जब पसंदीदा उम्मीदवार चुनाव जीता - Ashby Vs. White (1703). । यह नियम कानून की पुरानी कहावत „Ubi jus ibi remedium‟ पर आधारित है जिसका अर्थ है कि जहां अधिकार है, वहां उपाय है। Damnum sine injuria यह किसी भी अधिकार के उल्लंघन के बिना वास्तविक और पर्याप्त नुकसान का अवसर है। मुहावरे का सीधा सा मतलब है बिना चोट के नुकसान। कोई कार्रवाई झूठ नहीं है। केवल धन या धन की हानि 'योग्य' अपकृत्य नहीं है। ऐसे कई कार्य हैं, जो हानिकारक होते हुए भी गलत नहीं हैं, और कार्रवाई का अधिकार नहीं देते हैं। इस प्रकार Damnum sine injuria हो सकता है यानी बिना चोट के नुकसान। उदाहरण: In the case of Mayor & Bradford Corporation Vs. Pickles (1895), ब्रैडफोर्ड कॉर्पोरेशन के पानी के उपक्रम के लिए अपनी जमीन खरीदने से इनकार करने से Pickles नाराज था। इसके बावजूद, उन्होंने अपनी जमीन पर एक शाफ्ट को डुबो दिया, जिससे निगम के पानी का रंग फीका पड़ गया और कम हो गया, जो कि उसकी भूमि के माध्यम से रिसता था। हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने माना कि Pickles की कार्रवाई वैध थी और चाहे उसका मकसद कितना भी खराब क्यों न हो, उसे अपनी जमीन पर किसी भी तरह से कार्य करने का अधिकार था जो उसे पसंद आए। In the case of Mogul Steamship Co. Vs. Me-Gregory (1892). कुछ जहाज मालिक एक साथ संयुक्त। एक जहाज-मालिक को व्यापार से बाहर करने के लिए उन ग्राहकों को सस्ते माल भाड़े की पेशकश करके जो उनके साथ सौदा करेंगे। वादी, जिसे व्यवसाय से बाहर कर दिया गया था, ने जहाज-मालिक पर उनके कृत्य से हुए नुकसान के लिए मुकदमा दायर किया। अदालत ने माना कि एक व्यापारी जो अपने प्रतिद्वंद्वियों की वैध प्रतिस्पर्धा से बर्बाद हो गया है, The court held that a trader who is ruined by legitimate competition of his rivals could not get damages in tort. Remedy. एक यातना के लिए आवश्यक उपाय नुकसान के लिए कार्रवाई है, लेकिन अन्य उपाय भी हैं उदा। निषेधाज्ञा, विशिष्ट प्रदर्शन, क्षतिपूर्ति आदि। इसके अलावा, क्षति कार्रवाई में दावा योग्य क्षति गैर-परिचित क्षति है। यातना के नियम को कहावत की नींव कहा जाता है- Ubi jus ibi remedium यानी बिना उपाय के कोई बुराई नहीं है। The essential remedy for a tort is action for damages, but there are other remedies also e.g. injunction, specific performance, restitution etc. In certain cases, the following may form part of the requirements for a wrong to be tortuous. स्वैच्छिक और अनैच्छिक कार्य: कार्य और चूक स्वैच्छिक या अनैच्छिक हो सकते हैं। एक अनैच्छिक कार्य अपकृत्य में दायित्व को जन्म नहीं देता है। मानसिक तत्व: वादी को प्रतिवादी की ओर से कुछ दोष दिखाने की आवश्यकता हो सकती है। यहाँ दोष का अर्थ है कानून द्वारा निर्धारित आचरण के कुछ आदर्श मानकों पर खरा न उतरना। दोष ज्ञात करने के लिए निम्नलिखित को सिद्ध किया जा सकता है:- Malice:द्वेष: लोकप्रिय अर्थ में, द्वेष का अर्थ है दुर्भावना या द्वेष। कानून में, इसका अर्थ है i) जानबूझकर गलत कार्य करना और, ii) अनुचित उद्देश्य। इस प्रकार द्वेष से किया गया एक गलत कार्य गलत तरीके से और उचित और संभावित कारण के बिना किया गया कार्य है, जो क्रोध या प्रतिशोधी द्वेष से निर्धारित होता है। Intention:इरादा: यानी जहां कोई व्यक्ति संभावित परिणामों को जानने के लिए गलत कार्य करता है, तो कहा जाता है कि वह उस कार्य का इरादा रखता है, और इसलिए गलती है। Recklessness:लापरवाही: यानी जहां कोई व्यक्ति इस बात की परवाह किए बिना कोई कार्य करता है कि उसके परिणाम क्या हो सकते हैं, वह दोषी है। Negligence:लापरवाही: यानी जहां परिस्थितियां ऐसी हैं कि किसी व्यक्ति को अपने कार्य के परिणामों का अनुमान लगाना चाहिए और इससे पूरी तरह बचना चाहिए, अगर वह परेशान नहीं होता है तो वह दोषी होगा। Motive:मकसद: मकसद किसी कार्य को करने का उल्टा उद्देश्य या उद्देश्य है और इरादे से अलग है। आशय किसी अधिनियम के तात्कालिक उद्देश्य से संबंधित है जबकि उद्देश्य पूर्व उद्देश्य से संबंधित है। मकसद कुछ व्यक्तिगत लाभ या संतुष्टि को भी संदर्भित करता है जो अभिनेता चाहता है जबकि इरादा अभिनेता से संबंधित नहीं होना चाहिए। एक कार्य जो कानूनी चोट की राशि नहीं है, कार्रवाई योग्य नहीं हो सकता क्योंकि यह एक बुरे मकसद से किया गया है, यह कार्य है, न कि उस कार्य का मकसद जिसे माना जाना चाहिए। यदि उद्देश्य के अलावा कार्य केवल कानूनी चोट के बिना क्षति को जन्म देता है, तो मकसद, चाहे वह कितना भी निंदनीय हो, उस तत्व की आपूर्ति नहीं करेगा। असाधारण मामले जहां मकसद एक घटक के रूप में प्रासंगिक है, वे दुर्भावनापूर्ण अभियोजन, प्रक्रिया का दुर्भावनापूर्ण दुरुपयोग और दुर्भावनापूर्ण झूठ हैं। 3. Malfeasance, misfeasance and non-feasance: खराबी, दुराचार और गैर-कानूनी: 'दुर्व्यवहार' एक गलत कार्य के कमीशन को संदर्भित करता है जो प्रति-क्रिया योग्य है और इरादे या मकसद के प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। दुर्व्यवहार कुछ वैध कार्य के अनुचित प्रदर्शन पर लागू होता है, उदाहरण के लिए, जहां लापरवाही होती है।Misfeasance‟ is applicable to improper performance of some lawful act. ‟Non-feasance‟ refers to the omission to perform some act where there is an obligation to perform it का तात्पर्य किसी ऐसे कार्य को करने में चूक से है जहाँ इसे करने की बाध्यता हो। एक अनावश्यक उपक्रम का गैर-व्यवहार दायित्व नहीं लगाता है, लेकिन गलतफहमी करता है।
- स्वीकारोक्ति |कबूल करना | CONFESSION
CONFESSION स्वीकारोक्ति www.lawtool.net स्वीकारोक्ति: section 164 cr.pc स्वीकारोक्ति का अर्थ है अभियुक्त द्वारा अपने अपराध को स्वीकार करना। मजिस्ट्रेट किए गए स्वीकारोक्ति का बयान दर्ज कर सकता है: i) जांच के दौरान या ii) परीक्षण शुरू होने से पहले किसी भी समय। पुलिस अधिकारी द्वारा कोई कबूलनामा दर्ज नहीं किया जा सकता है। यदि दर्ज किया गया है तो यह स्वीकार्य नहीं है। मजिस्ट्रेट उसी तरह से स्वीकारोक्ति को दर्ज करता है जैसे वह सबूत दर्ज करता है। साक्ष्य अधिनियम क्रमांक 27 और 28 में स्वीकारोक्ति से संबंधित है। तदनुसार, स्वीकारोक्ति केवल मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज की जानी चाहिए। आरोपी 'ए' एक बयान देता है। 'मैंने खंजर कुएँ में फेंक दिया है। मैंने इसके साथ 'डी' को मार डाला है" यहां, यदि बयान के अनुसरण में, पुलिस अधिकारी को पता चलता है, खंजर, तथ्य यह है कि इसे खोजा गया था, साक्ष्य में स्वीकार्य है। लेकिन बयान मैंने इसके साथ 'डी' को मार डाला है, है अनुमति नहीं है स्वीकारोक्ति को वास्तविक साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। प्रक्रिया: इकबालिया बयान दर्ज करने से पहले, मजिस्ट्रेट इसे करने वाले व्यक्ति को समझाता है कि वह इसे करने के लिए बाध्य नहीं है और इसे उसके खिलाफ सबूत के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। मजिस्ट्रेट केवल तभी रिकॉर्ड करता है जब व्यक्ति द्वारा स्वेच्छा से बयान दिया गया हो। उसे कथन की सत्यता या सत्यता के बारे में पूरी तरह आश्वस्त होना चाहिए। सच्चाई के बारे में थोड़ा सा भी संदेह होने पर भी, मजिस्ट्रेट स्वीकारोक्ति को दर्ज करने से इंकार कर सकता है। रिकॉर्डिंग: रिकॉर्डिंग करते समय, वह एक ज्ञापन बनाता है, आरोपी को समझाता है कि: अभियुक्त एक स्वीकारोक्ति करने के लिए बाध्य नहीं है, कि यदि। उनके बयान को सबूत के तौर पर उनके खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता है। उसे यह प्रमाणित करना होगा कि कथन स्वैच्छिक था, कि यह उसकी उपस्थिति और सुनवाई में किया गया था, कि उसे पढ़कर सुनाया गया था और उसके द्वारा सही माना गया था और इसमें उसके द्वारा दिए गए कथन का पूर्ण और सत्य विवरण था। ज्ञापन के नीचे, मजिस्ट्रेट हस्ताक्षर करेगा, मुहर लगाएगा और तारीख डालेगा। ज्ञापन की सामग्री: सामग्री निम्नलिखित प्रभाव के लिए होनी चाहिए: "मैंने आरोपी श्री ................... को समझाया है कि वह स्वीकारोक्ति करने के लिए बाध्य नहीं है; यदि वह ऐसा करता है, उसके खिलाफ मुकदमा चलाया जा सकता है, मैं आगे प्रमाणित करता हूं कि स्वीकारोक्ति स्वैच्छिक थी, यह उसकी उपस्थिति और सुनवाई में लिया गया था, कि मैंने उसे पढ़ा, कि उसने स्वीकार किया कि वह सही है जो स्वीकारोक्ति का पूर्ण और सच्चा लेखा है" मुहर और तारीख के साथ मजिस्ट्रेट के हस्ताक्षर। प्रत्यक्ष मूल्य: राम किशन वी. हरमीत कौर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि स्वीकारोक्ति बयान 'पर्याप्त सबूत' नहीं है। इसका उपयोग किसी गवाह के साक्ष्य की पुष्टि करने या उसका खंडन करने के लिए किया जा सकता है। एक मजिस्ट्रेट जिसके पास कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है, को भी स्वीकारोक्ति को रिकॉर्ड करने का अधिकार है, लेकिन फिर रिकॉर्ड मजिस्ट्रेट को भेजा जाना है जो परीक्षण करता है। (बृज भूषण वी. किंग)। यह सुनिश्चित करने के लिए कि स्वीकारोक्ति स्वैच्छिक है, यह आरोपी को पुलिस हिरासत में हिरासत में लेने पर रोक लगाती है, (जब वह मजिस्ट्रेट के सामने स्वीकारोक्ति करने के लिए तैयार नहीं है)।
- दोहरे दंड से क्या अभिप्राय है | DOUBLE JEOPARDY
DOUBLE JEOPARDY www.lawtool.net Double Jeopardy: Sn.300 Cr.P.C. आपराधिक कानून के मूलभूत सिद्धांतों में से एक यह है कि किसी भी व्यक्ति पर एक ही अपराध के लिए एक से अधिक बार मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए और उसे दंडित नहीं किया जाना चाहिए। यह सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद २०(२) और एस.३०० सीआर.पी.सी. में भी निहित है। इसका मूल अंग्रेजी कानून 'Nemo debet B is Vexari' (no one shall be vexed twice). (किसी को भी दो बार परेशान नहीं किया जाएगा)। संविधान का अनुच्छेद 20(2) यह उपबंधित करता है कि किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए 1 बार से अधिक अभियोजित और दंडित नहीं किया जायेगा। यह व्यवस्था आंगल विधि के सिद्धांत पर आधारित है जिसका अर्थ है कि किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार अभियोजित या दंडित नहीं किया जा सकता इसका मुख्य उद्देश्य है व्यक्तियों की अभियोजन की अनिश्चितता से रक्षा करना है। सुबह सिंह बनाम दविंदर कौर (ए. आई. आर. 2011 एस. सी. 3163) के मामले में अभियुक्त को मृतक की हत्या के लिए दोष सिद्ध किया गया मृतक की पत्नी ने अभियुक्त के विरुद्ध प्रतिकर का सिविल वाद पेश किया अभियुक्त ने दोहरे खतरे के सिद्धांत का बचाव लिया उच्चतम न्यायालय ने इसे नकारते हुए कहा कि सिविल नीति पूर्ति की कार्यवाही अभियोजन नहीं है और क्षतिपूर्ति की डिग्री सजा नहीं है। कलावती बनाम स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश (AIR. 1953 SC. 131) के मामले में इस सिद्धांत की प्रयोज्यता के लिए तीन बातें आवश्यक बताई गई है- 1. व्यक्ति का अभियुक्त होना 2. अभियोजन या कार्यवाही का न्यायिक प्रकृति का होना तथा किसी न्यायालय अथवा न्यायाधिकरण के समक्ष होना। 3. अभियोजन का किसी दंडनीय अपराध के संबंध में होना। इसके दो समन्वय नियम हैं, अर्थात्: (a) Autre fois acquit (previous acquittal)(पिछला बरी) (b) Autre fois convict (previous conviction)(पिछली सजा) इसके अनुसार यदि किसी व्यक्ति पर मुकदमा चलाया गया है और या तो उसे दोषी ठहराया गया है या बरी कर दिया गया है, तो आरोपी को उसी अपराध के लिए भारत के किसी भी न्यायालय द्वारा फिर से मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए। वेंकट रमन बनाम. यूनियन ऑफ इंडिया, वेंकटरमण की विभागीय जांच की गई और उन्हें रिश्वत के आधार पर केंद्र सरकार की सेवाओं से बर्खास्त कर दिया गया। पुलिस ने उसे 161 I.P.C के तहत गिरफ्तार किया। रिश्वत के लिए। उन्होंने तर्क दिया कि उन्हें फिर से कोशिश नहीं की जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि विभागीय कार्यवाही अभियोजन नहीं थी और इसलिए उसे लाभ नहीं मिल सकता। मकबुल हुसैन बनाम. बॉम्बे-एम राज्य सीमा शुल्क अधिकारियों द्वारा जांच के अधीन था, जिन्होंने उसके पास से सोना जब्त किया और उस पर जुर्माना भी लगाया। धारित सीमा शुल्क कार्यवाही अभियोग नहीं थे। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, अभियोजन और सजा को एक साथ मिलकर पढ़ा जाना चाहिए। यानी अगर किसी व्यक्ति पर मुकदमा चलाया जाता है और सजा दी जाती है, तो उस पर दोबारा मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए। इसलिए यदि किसी व्यक्ति पर मुकदमा चलाया जाता है और उसे बरी कर दिया जाता है, तो संविधान इस बारे में चुप है। लेकिन क्रमांक 300 CR.P.C. यह प्रावधान करता है कि यदि किसी व्यक्ति पर मुकदमा चलाया जाता है और उसे दोषी ठहराया जाता है या बरी कर दिया जाता है तो उस पर उसी अपराध के लिए दोबारा मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए। अपवाद:Exceptions: Sn.300 निम्नलिखित अपवादों के लिए प्रदान करता है: (i) यदि निचली अदालत का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है, तो नियम लागू नहीं होता है। आरोपी पर फिर से मुकदमा चलाया जा सकता है। (ii) यदि किसी व्यक्ति पर एक अलग और अलग अपराध के लिए मुकदमा चलाया जाता है, तो नियम लागू नहीं होता है और, राज्य सरकार की सहमति से उस पर एक अलग आरोप के लिए मुकदमा चलाया जा सकता है, जिस पर पूर्व मुकदमे में मुकदमा चलाया जा सकता था। उदा. Example (ए) नौकर 'ए' पर चोरी के आरोप में मुकदमा चलाया जाता है और उसे बरी कर दिया जाता है। चोरी या आपराधिक विश्वासघात के लिए उस पर फिर से मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। (बी) ए पर हत्या के आरोप में मुकदमा चलाया जाता है और बरी कर दिया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि हत्या से पहले लूट भी हुई थी। क पर डकैती का प्रयास किया जा सकता है। (iii) यदि किसी व्यक्ति पर अपराध का मुकदमा चलाया जाता है लेकिन बाद में यदि यह पता चलता है कि अधिनियम के परिणाम एक साथ एक अलग अपराध के रूप में सामने आए, तो उस व्यक्ति पर मुकदमा चलाया जा सकता है। उदा. (ए) ए गंभीर चोट का कारण बनता है और दोषी ठहराया जाता है। घायल बेटे की अस्पताल में मौत। क पर गैर इरादतन हत्या का मुकदमा चलाया जा सकता है। (बी) ए गैर इरादतन हत्या से थक गया है और दोषी ठहराया गया है। वह हत्या के लिए उन्हीं तथ्यों पर दोबारा कोशिश नहीं कर सकता। दायरा:Scope: दोहरा जोखिम लाभ निष्पादन कार्यवाही पर लागू नहीं होता है। (i) जो वर्जित है वह समान तथ्यों पर उसी अपराध के लिए दूसरा अभियोजन है। (Sn.221)
- पत्नी, सन्तान और माता-पिता के भरणपोषण के लिए आदेश | MAINTENANCE OF WIFE AND CHILDREN
MAINTENANCE OF WIFE AND CHILDREN Maintenance of Wife, Children and Parents: पत्नी सन्तान और माता-पिता के भरणपोषण के लिए आदेश www.lawtool.net Sn.125 Cr.P.C. पत्नी, बच्चों और माता-पिता के भरण-पोषण से संबंधित प्रावधानों से संबंधित है। पति का एक अनिवार्य कर्तव्य अपनी पत्नी और बच्चों का भरण-पोषण करना है यदि वे अपना भरण-पोषण करने की स्थिति में नहीं हैं। section 125 Cr.P.C शीघ्र उपाय प्रदान करता है। Cr.P.C.1973 में किए गए परिवर्तन: संसद द्वारा नियुक्त संयुक्त समिति ने कुछ टिप्पणियां की थीं। इनके आधार पर, क्रमांक 125 Cr.P.C में कुछ परिवर्तन किए गए हैं। (i) यदि पत्नी अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है तो मजिस्ट्रेट आदेश दे सकता है। (ii) लाभ माता-पिता को भी उपलब्ध है। (iii) लाभ तलाकशुदा पत्नी को तब तक मिलता है जब तक वह पुनर्विवाह नहीं करती। इससे महिलाओं को सामाजिक न्याय मिलता है। (iv) बच्चों के संबंध में, 18 वर्ष तक रखरखाव लाभ उपलब्ध है। उसके बाद रखरखाव होता है, केवल अगर बच्चा शारीरिक या मानसिक असामान्यता या चोट के तहत खुद को बनाए रखने में असमर्थ है। एक पति के पास पर्याप्त साधन होने के कारण, वह अपनी पत्नी और बच्चों और माता-पिता के भरण-पोषण की उपेक्षा कर सकता है। बच्चे वैध या नाजायज हो सकते हैं। पत्नी और बच्चे और पिता और माता अगर अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं तो संबंधित मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन कर सकते हैं। यदि मजिस्ट्रेट पति की पत्नी, बच्चों या माता-पिता के भरण-पोषण में लापरवाही या इनकार से संतुष्ट है तो वह पति के खिलाफ मासिक भत्ते के भुगतान का आदेश दे सकता है। ऐसी राशि 500/- रुपये प्रति माह से अधिक नहीं होगी। मजिस्ट्रेट आवेदक को भुगतान का आदेश दे सकता है। राशि आदेश की तिथि से या पत्नी द्वारा आवेदन की तिथि से देय हो जाती है। यह मजिस्ट्रेट द्वारा तय किया जाता है। आदेश का प्रवर्तन: मजिस्ट्रेट, अगर वह पाता है कि पति के पास पर्याप्त साधन होने के बावजूद आदेश का पालन करने में विफल रहा है, बिना किसी कारण के, ऐसे हर उल्लंघन के लिए वारंट जारी कर सकता है और व्यक्ति को एक महीने के लिए या जब तक राशि पूरी नहीं हो जाती है, तब तक कारावास की सजा दे सकता है। भुगतान किया है। पति अपनी पत्नी के भरण-पोषण की पेशकश कर सकता है, यदि वह उसके साथ रहना चाहती है। लेकिन अगर पत्नी इस आधार पर मना कर देती है कि पति ने दूसरी पत्नी से शादी कर ली है या रखैल रख ली है तो यह उसके साथ रहने और अलग रहने से इनकार करने का एक वैध आधार है। सीमाएं: i) पत्नी द्वारा मजिस्ट्रेट के आदेश की तारीख से एक वर्ष के भीतर राशि का दावा किया जाना चाहिए। ii) यदि पत्नी व्यभिचार में रह रही है तो वह भरण-पोषण पाने की हकदार नहीं है। iii) यदि वह उचित कारण के बिना पति के साथ रहने से इंकार करती है तो उसे भरण-पोषण नहीं मिल सकता है। iv) यदि वह आपसी सहमति से अलग रह रही है तो उसे भरण-पोषण नहीं मिल सकता है। यदि उपरोक्त आधार दिखाए जाते हैं, तो मजिस्ट्रेट भरण-पोषण के आदेश को रद्द कर सकता है। साक्ष्य की रिकॉर्डिंग: मजिस्ट्रेट पति या उसके वकील की उपस्थिति में साक्ष्य दर्ज करेगा। वह समन मामले की सुनवाई की प्रक्रिया का पालन करेगा। यदि पति जानबूझकर अदालत में उपस्थित होने की उपेक्षा करता है तो वह एकतरफा (पति की अनुपस्थिति) भी आगे बढ़ सकता है। एकतरफा आदेश तीन महीने के भीतर रद्द किया जा सकता है यदि कोई ठोस कारण हो। आदेश का दायरा: पर्याप्त कारण होने पर मासिक भत्ता बढ़ाया जा सकता है। हालांकि अधिकतम 500/- रुपये प्रति माह है। मजिस्ट्रेट पत्नी को आदेश की एक प्रति देगा और ऐसा आदेश किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा भारत में किसी भी स्थान पर लागू किया जा सकता है जहां पति रह सकता है। ऐसे मजिस्ट्रेट के पास आदेश को लागू करने की वही शक्तियाँ हैं, जो उस मजिस्ट्रेट के पास हैं जिसने भरण-पोषण के लिए आदेश दिया था।